Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

विश्वव्यापी मन्दी पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी का एक लक्षण है!

वर्तमान विश्वव्यापी मन्दी और आर्थिक तबाही के बारे में, एकदम सरल और सीधे-सादे ढंग से यदि पूरी बात को समझने की कोशिश की जाये, तो यह कहा जा सकता है कि अन्तहीन मुनाफ़े की अन्धी हवस में बेतहाशा भागती बेलगाम वित्तीय पूँजी अन्ततः बन्द गली की आखि़री दीवार से जा टकरायी है। एकबारगी सब कुछ बिखर गया है। पूँजीवादी वित्त और उत्पादन की दुनिया में अराजकता फैल गयी है। कोई इस विश्वव्यापी मन्दी को “वित्तीय सुनामी” कह रहा है तो कोई “वित्तीय पर्ल हार्बर”, और कोई इसकी तुलना वर्ल्ड ट्रेड टॉवर के ध्वंस से कर रहा है। दरअसल वित्तीय पूँजी का आन्तरिक तर्क काम ही इस प्रकार करता है कि निरुपाय संकट के मुक़ाम पर पहुँचकर वह आत्मघाती आतंकवादी के समान व्यवहार करते हुए विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की पूरी अट्टालिका में काफ़ी हद तक या पूरी तरह से ध्वंस करने वाला विस्फोट कर देती है।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

  • मंदी की शुरुआत से अब तक अमेरिका में 40 लाख नौकरियाँ जा चुकी हैं। सिर्फ पिछले तीन महीनों में 18 लाख लोगों की नौकरी चली गयी है। इसी दर से अगले दो साल में एक करोड़ 40 लाख रोजगार खत्म होने का अन्देशा ज़ाहिर किया जा रहा है।
  • अमेरिका में इस समय एक करोड़ 16 लाख बेरोजगार और 78 लाख अर्द्धबेरोजगार हैं।
  • जापान में बेरोजगारी में पिछले 41 वर्ष में सबसे तेज बढ़ोत्तरी हुई है। मार्च तक कम से कम 4 लाख अस्थायी मज़दूर निकाल दिये जायेंगे। इनमें से बहुत से तो बेघर हो जायेंगे क्योंकि वे फैक्ट्री की डॉरमिट्री में ही रहते थे।
  • चीन के 13 करोड़ प्रवासी मजदूरों में से 2 करोड़ बेरोजगार हो चुके है।
  • यूरोपीय संघ के 27 देशों में बेरोजगारी की दर 8.7 प्रतिशत हो चुकी है। फ्रांस में यह दर 10.6 प्रतिशत है जबकि स्पेन में बेरोजगारी की दर 14.4 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है।
  • अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन की हाल की रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष के अन्त तक दुनिया भर में 5 करोड़ से ज्यादा रोजगार छिन जायेंगे।
  • जंगल की आग की तरह फैलती विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी करोड़ों मेहनतकशों के रोज़गार निगल चुकी है

    हर पूँजीवादी संकट का सबसे सीधा असर छँटनी और बेरोजगारी बढ़ने के रूप में सामने आता है। वैसे तो पूँजीवादी व्यवस्था में हमेशा ही बेरोजगारों की एक स्थायी ‘‘रिजर्व आर्मी’’ बनाये रखी जाती है ताकि पूँजीपति अपनी मर्जी से मजदूरी की दर तय कर सकें। लेकिन आर्थिक संकटों के दौर में यह सिलसिला और तेज हो जाता है। अपना मुनाफा बचाने के लिए पूँजीपति बेमुरौव्वती से मजदूरों की छँटनी कर देते हैं और बचे हुए मजदूरों को बुरी तरह निचोड़ते हैं। ऐसी स्थिति में जो आबादी बेरोजगारी से बची रह जायेगी उसे भी पहले से ज्यादा लूटा-खसोटा जायेगा, मजदूरों के रहे-सहे अधिकार भी छीन लिये जायेंगे। भारत और चीन जैसे देशों में तो पहले से ही तीन चौथाई से अधिक कामगार अस्थायी, ठेके या दिहाड़ी पर काम करते हैं जिन्हें किसी तरह की रोजगार सुरक्षा या बीमा, स्वास्थ्य सहायता जैसी न्यूनतम सुविधाएँ जो दूर, सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है। बढ़ती मन्दी के दौर में इस भारी मेहनतकश की ही पीठ पर सबसे अधिक कोड़े बरसाये जायेंगे। निम्न मध्यवर्ग की भारी आबादी पर भी मन्दी का भारी असर होगा। पिछले कुछ वर्षों में इस वर्ग के एक हिस्से को सेवा क्षेत्र में, सेल्स आदि में, निजी कम्पनियों के दफ़्तरों में जो छोटी-मोटी नौकरियां मिल जा रही थीं, उनमें तेजी से कमी आयेगी।

    सत्यम कम्पनी के घोटाले में नया कुछ भी नहीं है…

    वैसे तो पूँजीवाद ख़ुद ही एक बहुत बड़ी डाकेजनी के सिवा कुछ नहीं है लेकिन मुनाफ़ा कमाने की अन्धी हवस में तमाम पूँजीपति अपने ही बनाये क़ानूनों को तोड़ते रहते हैं। यूरोप से लेकर अमेरिका तक ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जो बिल्कुल साफ कर देते हैं कि पूँजीवाद में कोई पाक-साफ होड़ नहीं होती। शेयरधारकों को खरीदने-फँसाने, प्रतिस्पर्धी कम्पनियों की जासूसी कराने, रिश्वत खिलाने, हिसाब-किताब में गड़बड़ी करने जैसी चीजें साम्राज्यवाद के शुरुआती दिनों से ही चलती रहती हैं। सत्यम ने बहीखातों में फर्जीवाड़ा करके साल-दर-साल मुनाफ़ा ज्यादा दिखाने और शेयरधारकों को उल्लू बनाने की जो तिकड़म की है वह तो पूँजीवादी दुनिया में चलने वाला एक छोटा-सा फ्रॉड है। राजू पकड़ा गया तो वह चोर है – लेकिन ऐसा करने वाले दर्जनों दूसरे पूँजीपति आज भी कारपोरेट जगत के बादशाह और मीडिया की आँखों के तारे बने हुए हैं।

    विश्वव्यापी खाद्य संकट की “खामोश सुनामी” जारी है…

    आने वाले समय में ये तमाम स्थितियाँ बद से बदतर होती जायेंगी। पूँजीवाद जिस गम्भीर ढाँचागत संकट का शिकार है, उसके चलते खेती को संकट से उबारने के लिए निवेश कर पाने की सरकारों की क्षमता कम होती जायेगी। ग़रीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजनाओं में तो पहले से ही कटौती की जा रही थी, अब मन्दी के दौर में इन पर कौन ध्यान देगा? जो सरकारें ग़रीबों को सस्ती शिक्षा, इलाज, भोजन मुहैया कराने के लिए सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही थीं, वे ही अब बेशर्मी के साथ जनता की गाढ़ी कमाई के हज़ारों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को घाटे से बचाने के लिए बहा रही हैं। मन्दी का रोना रोकर अरबों रुपये की सरकारी सहायता बटोर रहे धनपतियों की अय्याशियों, जगमगाती पार्टियों और फिजूलखर्चियों में कोई कमी नहीं आने वाली, लेकिन ग़रीब की थाली से रोटियाँ भी कम होती जायेंगी, सब्ज़ी और दाल तो अब कभी-कभी ही दिखती हैं।

    पूँजीपतियों को राहत बाँट रही सरकार के पास मज़दूरों को देने के लिए कुछ भी नहीं

    वैश्विक मन्दी शुरू होने के बाद से ही भारत सरकार बार-बार बयान बदलती रही है। पहले तो यही कहा जाता रहा कि मन्दी का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कुछ खास असर नहीं होने वाला है, लेकिन जल्दी ही मन्दी के झटकों ने उन्हें रुख बदलने के लिए मजबूर कर दिया। अब सरकार को यह खुले तौर पर स्वीकारना पड़ रहा है कि आने वाला समय अर्थव्यवस्था के लिए काफ़ी मुश्किल साबित होगा और हमें बुरे से बुरे के लिए तैयार रहना चाहिए। ज़ाहिर है, यह “बुरे से बुरा” वक़्त अमीरों के लिए कुछ ख़ास बुरा नहीं होगा, उनकी पार्टियों में अब भी जाम झलकते रहेंगे, उनके बँगलों के बाहर अब भी नयी-नयी गाड़ियाँ आती रहेंगी और फ़ैशन की चकाचौंध फीकी नहीं पड़ेगी। लेकिन देश के करोड़ों ग़रीब और मेहनतकश लोगों के लिए इसका मतलब होगा बेरोज़गारी, छँटनी, भुखमरी, बच्चों की पढ़ाई छूटना, दवा के बिना बच्चों का मरना, आत्महत्याएँ…

    पूँजीवादी संकट और मज़दूर वर्ग

    आर्थिक संकट की इस स्थिति में वर्तमान सरकार आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र साफ़-साफ़ यह कैसे कहे कि आर्थिक संकट और गहरा होगा। सरकार की तरफ से आने वाले बयानों में ज़बरदस्त विरोधाभास साफ़ नज़र आता है। 21 नवम्बर 2008 को वाणिज्य सचिव, भारत सरकार का कहना है कि आगामी 5 महीने में टैक्सटाइल इंजीनियरिंग उद्योग की 5 लाख नौकरियाँ चली जायेंगी। ख़ुद श्रममंत्री की दिसम्बर 2008 की ‘सी.एन.बी.सी. आवाज़’ टी.वी. चैनल पर चलने वाली ख़बर यह कहती है कि अगस्त से अक्तूबर 08 तक देश में 65,500 लोगों की नौकरियाँ खत्म हुईं हैं। वाणिज्य सचिव आर्थिक मन्दी के कारण नौकरियाँ खत्म होने की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत सरकार के केबिनेट सचिव के.एम. चन्द्रशेखर छँटनी से साफ इन्कार करते हुए कहते हैं कि आर्थिक संकट से निबटने के लिए भारतीय कम्पनियों का मनोबल विदेशी कम्पनियों से ऊँचा है – “घबराइये मत, भारत में छँटनी नहीं होगीः कैबिनेट सचिव” (अमर उजाला, 2 दिसम्बर 2008)।

    नये साल के मौके पर मेहनतकश साथियों का आह्वान

    नयी सदी का एक और साल इतिहास बन गया। यूँ देखा जाये तो मेहनकश अवाम के लिए यह साल हाल के कुछ वर्षों से ज्यादा अलग नहीं था। पूँजी की लुटेरी मशीन के चक्के इस वर्ष भी मेहनतकशों को पीसते रहे, उनकी रक्त-मज्जा की एक-एक बूँद निचोड़कर मुनाफ़ाख़ोरों की तिजोरियाँ भरती रहीं, जनसंघर्षों का दमन-उत्पीड़न कुछ और तेज हो गया, जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के मुद्दे उभाड़कर लोगों को आपस में लड़ाने के गन्दे खेल में कुछ नयी घिनौनी चालें जुड़ गयीं, संसद के सुअरबाड़े में जनता के करोड़ों रुपये खर्च कर थैलीशाहों की सेवा और जनता के दमन के लिए क़ानून बनाने और बकबक करने का काम बदस्तूर चलता रहा, लाल कलगी वाले नकली वामपन्थी मुर्गे मज़दूरों को बरगलाने-भरमाने के लिए समर्थन और विरोध की बुर्जुआ राजनीति के दाँवपेंचों की नयी बानगियाँ पेश करते रहे, पूँजीवादी राजनीति के कोढ़ से जन्मा आतंकवाद का नासूर सच्चे मुक्ति संघर्ष की राह को और कठिन बनाता रहा और क्रान्तिकारी शक्तियों की दिशाहीनता और बिखराव के कारण जनता के सामने विकल्पहीनता की स्थिति ज्यों-की-त्यों बरकरार रही…

    नयी दुनिया निठल्ले चिन्तन से नहीं, जन महासमर से बनेगी! – डब्ल्यूएसएफ का मुम्बई महातमाशा सम्पन्न

    ये ‘बेहतरीन दिमाग’ भूमण्डलव्यापी अन्याय, असमानता और शोषण के अनेकानेक रूपों पर अलग–अलग चर्चा ही इसलिए करना और कराना चाहते हैं ताकि वर्गीय शोषण, अन्याय और असमानता, जिसकी बुनियाद पर अन्य सभी प्रकार की सामाजिक असमानताएं जनमती हैं, पर पर्दा डाला जा सके। डब्ल्यू एस एफ के उस्ताद दिमाग भूमण्डलव्यापी शोषण–उत्पीड़न, अन्याय–असमानता की सच्चाई को जानबूझकर लोगों को उस तरह दिखाना चाहते हैं जैसे किसी अंधे को हाथी दिखायी देता हैं। सूंड पकड़ में आये तो पाइप जैसा, पैर पकड़ में आये तो खम्भे जैसा और कान पकड़ में आये तो सूप जैसा।