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बोलते आँकड़े चीख़ती सच्चाइयाँ

कृषि में पूँजीवादी विकास के साथ ही किसान आबादी के बीच ध्रुवीकरण की प्रक्रिया चलती रही है। धनी किसानों-कुलकों-फ़ार्मरों की एक छोटी-सी आबादी अमीर हुई है और उसके पास ज़मीन बढ़ती गयी है जबकि अपनी ज़मीन से उजड़कर मज़दूर बनने वाले किसानों की संख्‍या लगातार बढ़ती गयी है। हरित क्रान्ति के बाद यह सिलसिला तेज़ हुआ और पिछले पाँच दशकों से लगातार जारी है।

लगातार चौड़ी होती असमानता की खाई पूँजीवादी संकट की लाइलाज बीमारी का लक्षण है

अपने एसी कमरों तक महदूद बुद्धिजीवियों को समाज में लगातार बढ़ रही असमानता नज़र नहीं आती, लेकिन हम मेहनतकश लोग इसे अपने निजी अनुभवों से बख़ूबी जानते हैं। हम कारख़ाने में काम करते हों, आलीशान इमारतें बनाने का काम करते हों, घरों में काम करते हों, रेहड़ी-खोमचा लगाते हों या कहीं भी मेहनत-मज़दूरी करते हों, अपने रोज़मर्रा के जीवन में हम क़दम-क़दम पर इस असमानता को जीते हैं। ऊँची-ऊँची इमारतों में बने पूँजीपतियों और धन्नासेठों के महलों जैसे आलीशान घर और हमारे बदबूदार-घुटनभरे दड़बेनुमा कमरे समृद्धि के तलघर में नरक के अँधेरे की तरह हैं।

इधर ग़रीबों-मज़दूरों की थाली से रोटियाँ ग़ायब, उधर मोदी-गोदी मीडिया के नक़्शे से ग़रीबी ही ग़ायब!

जुलाई 2019 में आयी विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 19 करोड़ 44 लाख लोग अल्पपोषित हैं, यानी देश के हर छठे व्यक्ति को मनुष्य के लिए ज़रूरी पोषण वाला भोजन नहीं मिलता। इसी तरह वैश्विक भूख सूचकांक 2019 के मुताबिक़ भूख और कुपोषण के मामले में भारत 117 देशों में 102वें स्थान पर है, जबकि श्रीलंका (66), बंगलादेश (88) और पाकिस्तान (94) भी हमसे ऊपर हैं।

सरकारी रिपोर्ट से भी उजागर हुए लगातार ख़राब होते मज़दूरों के हालात

शोषण और मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था, जिसमें मज़दूर और मेहनतकश आबादी हमेशा बदहाल ही होती है, की असलियत आये दिन हमारे सामने आती रहती है। हाल ही में आयी केन्द्र सरकार की एक रिपोर्ट ‘पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे’ (पी.एल.एफ.एस.) भारत में मज़दूरों की स्थिति की भयानक तस्वीर पेश कर रही है।

ख़र्चीला और विलासी बुर्जुआ लोकतन्त्र : जनता की पीठ पर भारी-भरकम बोझ सा सवार

हर बार के लोकसभा चुनावों की ही तरह इस बार भी लोकसभा चुनावों के दौरान राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में भारतीय लोकतन्त्र की शान में कसीदे पढ़े गये। किसी ने इन चुनावों को लोकतन्त्र के महाकुम्भ की संज्ञा दी तो किसी ने महापर्व की। लेकिन किसी ने ये बुनियादी सवाल पूछने की जहमत नहीं उठायी कि महीनों तक चली इस क़वायद से इस देश की आम जनता को क्या मिला और किस क़ीमत पर। चुनावी क़वायद ख़त्म होने के बाद जारी होने वाले ख़र्च के आँकड़े पर निगाह दौड़ाने भर से इसमें कोई शक नहीं रह जाता है कि इस तथाकथित लोकतन्त्र को वास्तव में धनतन्त्र की संज्ञा दी जानी चाहिए।

रिज़र्व बैंक और सरकार का टकराव और अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत

यह बात तो अब बुर्जुआ मीडिया के लिए भी छिपानी नामुमकिन होती जा रही है कि भारत की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अति-उत्पादन और घटती मुनाफ़ा दर के भँवर में गहरे तक फँस चुकी है। इसका ही असर है कि न सिर्फ़ वित्तीय बाज़ार में भुगतान और ऋण के लिए नक़दी का संकट है बल्कि ख़ुद सरकार की वित्तीय स्थिति संकट में है। एक ओर आम मेहनतकश जनता व मध्य वर्ग पर करों का बोझ बढ़ाते जाने लेकिन पूँजीपतियों से टैक्स वसूली में कमी, दूसरी ओर अनुत्पादक प्रशासनिक ख़र्च फ़ौज-हथियारों पर ख़र्च व पूँजीपतियों को तरह-तरह की छूटों में भारी वृद्धि से पूरे साल के बजट में जितने वित्तीय घाटे (6.24 लाख करोड़ रुपये) का अनुमान था, वर्ष के पहले 7 महीनों में ही उसका 104% घाटा (6.48 लाख करोड़) हो चुका है। वजह – चुनावी साल में ख़र्च तो बढ़ा है, पर टैक्स वसूली अनुमान से बहुत कम है। टैक्स आय 7 महीने में सालाना अनुमान की सिर्फ़ 44% है। वह तो सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्ति की बिक्री से ग़ैर टैक्स आय अनुमान के 52% तक हो गयी है अन्यथा हालात और भी बदतर होते। स्थिति यह है कि अक्टूबर 18 में सरकारी आय अक्टूबर 17 से भी कम हो गयी है।

ग़रीबों से जानलेवा वसूली और अमीरों को क़र्ज़ माफ़ी का तोहफ़ा

रहा है, वहीं दूसरी ओर क़र्ज़ दे-देकर दिवालिया हुए बैंकों को भाजपा सरकार “बेलआउट पैकेज” के नाम पर जनता से वसूली गयी टैक्स की राशि में से लाखों करोड़ रुपये देने की तैयारी कर रही है। इससे पहले भी सरकार “बेलआउट पैकेज” के नाम पर 88,000 करोड़ रुपये बैंकों को दे चुकी है। ये सारा पैसा मोदी ने चाय बेचकर नहीं कमाया है, जिसे वह अपने आकाओं को लुटा रहा है। ये मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है जिसे तरह-तरह के टैक्सों के रूप में हमसे वसूला जाता है। ये पैसा जनकल्याण के नाम पर वसूला जाता है, लेकिन असल में कल्याण इससे पूँजीपतियों का किया जा रहा है। इस पैसे से लोगों के लिए आधुनिक सुविधाओं से लैस अच्छे अस्पताल बन सकते थे और निःशुल्क व अच्छे स्कूल-कॉलेज खुल सकते थे, लेकिन हो उल्टा रहा है। सरकार पैसे की कमी का रोना रोकर रही-सही सुविधाएँ भी छीन रही है।

आम लोगों के जीवनस्तर में वृद्धि के हर पैमाने पर देश पिछड़ा – ‘अच्छे दिन’ सिर्फ़ लुटेरे पूँजीपतियों के आये हैं

मोदी सरकार और संघ परिवार का एजेण्डा बिल्कुल साफ़ है। लोग आपस में बँटकर लड़ते-मरते रहें और वे अपने पूँजीपति मालिकों की तिजोरियाँ भरते रहें। सोचना इस देश के मज़दूरों और आम लोगों को है कि वे इन देशद्रोहियों की चालों में फँसकर ख़ुद को और आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद करते रहेंगे या फिर इन फ़रेबियों से देश को बचाने के लिए एकजुट होंगे।

ग़रीबों से वसूले टैक्सों के दम पर अमीरों की मौज

ज़्यादातर मध्यवर्गीय लोगों के दिमाग़ में यह भ्रम बैठा हुआ है कि उनके और अमीर लोगों के चुकाये हुए टैक्सों की बदौलत ही सरकारों का कामकाज चलता है। कल्याणकारी कार्यक्रमों या ग़रीबों को मिलने वाली थोड़ी-बहुत रियायतों पर अक़सर वे इस अन्दाज़ में ग़ुस्सा होते हैं कि सरकार उनसे टैक्स वसूलकर लुटा रही है।

बदहाली के सागर में लुटेरों की ख़ुशहाली के जगमगाते टापू – यही है देश के विकास की असली तस्वीर

सरकार और उसके भाड़े के अर्थशास्त्रियों द्वारा पेश किये जा रहे आँकड़ों की ही नज़र से अगर कोई देश के विकास की तस्वीर देखने पर आमादा हो तो उसे तस्वीर का यह दूसरा स्याह पहलू नज़र नहीं आयेगा। उसे तो बस यही नज़र आयेगा कि नोएडा में सैमसंग की विशाल मोबाइल फ़ैक्टरी खुल गयी है। चौड़े एक्सप्रेस-वे बन रहे हैं जिन पर महँगी कारें फ़र्राटा भर रही हैं। पिछले वर्ष के दौरान देश में 17 नये ”खरबपति” और पैदा हुए जिससे भारत में खरबपतियों की संख्या शतक पूरा कर 101 तक पहुँच गयी। देश की शासक पार्टी का 1100 करोड़ रुपये का हेडक्वाटर आनन-फ़ानन में बनकर तैयार हो गया है और देश की सबसे पुरानी शासक पार्टी का ऐसा ही भव्य  मुख़यालय तेज़ी से बनकर तैयार हो रहा है।