Category Archives: बोलते आँकड़े, चीख़ती सच्चाइयाँ

चिकित्सा में खुली मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ावा, जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़

फ़रवरी 2015 के टाइम्स ऑफ़ इण्डिया में छपी एक रिपोर्ट पर नज़र डालें, जो निजी अस्पतालों के डॉक्टरों से बातचीत पर आधारित है। इसके अनुसार निजी अस्पतालों में सिर्फ़ उन्हीं डॉक्टरों को काम पर रखा जाता है जो ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने में मदद करते हों और मरीजों से भिन्न-भिन्न प्रकार के टेस्ट और दवाओं के माध्यम से ज़्यादा से ज़्यादा पैसे वसूल कर सकते हों। यदि एक डॉक्टर मरीज के इलाज में 1.5 लाख रुपया लेता है तो उसे 15 हज़ार रुपये दिये जाते हैं और बाक़ी 1.35 लाख अस्पताल के मुनाफ़े में चले जाते हैं।

भारत में जन्म लेने वाले अधिकतर बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली गर्भवती माँएँ कुपोषित

विकास के लम्बे-चौड़े दावों और ‘बेटी बचाओ’ जैसे सरकारी नुमायशी अभियानों के बावजूद एक नंगी सच्चाई यह है कि भारत में जन्म लेने वाले अधिकतर बच्चे और उन्हें जन्म देने वाली गर्भवती माँएँ कुपोषित होती हैं। यहाँ तक कि उनकी स्थिति कांगो, सोमालिया और जिम्बाब्वे जैसे ग़रीब अफ्रीकी देशों के बच्चों और गर्भवती स्त्रियों से भी बदतर है।

हर पाँच में चार लोग अपराध साबित हुए बिना ही भारतीय जेलों के नर्क के क़ैदी हैं

सवाल उठता है कि दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों के जेलों में अधिक अनुपात में होने के तथ्य को किस रूप में देखा जाये? क्या वे सब स्वभाव से ही अधिक अपराधी है? या उन्हें मात्र जातिगत, सामाजिक एवं धार्मिक पहचान के आधार पर ही जानबूझकर निशाना बनाया जाता है? या इस रूप में देखा जाये कि इन तीनों समुदायों के लोगों का बहुसंख्यक भाग ग़रीब और मज़दूर है।

औद्योगिक कचरे से दोआबा क्षेत्र का भूजल और नदियाँ हुईं ज़हरीली

देश के विभिन्न हिस्सों में फैले सभी औद्योगिक क्षेत्रों में औद्योगिक कचरा यूँ ही बिना किसी ट्रीटमेण्ट या रिसाइक्लिंग के आसपास की नदियों या जलाशयों में छोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पूँजीपति ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़े के लक्ष्य की सनक में इतने डूबे रहते हैं कि कारख़ाने के भीतर श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने से भी जब उनका जी नहीं भरता तो वे कचरे के ट्रीटमेण्ट में लगने वाले ख़र्च से बचने के लिए तमाम पर्यावरण सम्बन्धी क़ानूनों और कायदों को ताक पर रखकर ज़हरीले कचरे को आसपास की नदियों अथवा जलाशयों में बिना ट्रीट किये छोड़ देते हैं। यही वजह है कि इस देश की तमाम नदियाँ तेज़ी से परनाले में तब्दील होती जा रही हैं।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

एक रिपोर्ट के अनुसार अरबपतियों की संख्या के मामले में भारत दुनिया में आठवें नंबर पर पहुंच गया है और इस समय भारत में 14,800 अरबपति हैं। पूँजीपतियों की बाँछें खिली हुई हैं, मध्यवर्ग भारत की इस “तरक्की” पर लहालोट हुआ जा रहा है। पूँजीवादी मीडिया इस विकास का जोर-शोर से गुणगान कर रहा है। दूसरी ओर देश की 77 फीसदी आबादी रोजाना महज बीस रुपये पर गुजारा कर रही है। देश की 80 फीसदी जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं। आज़ादी मिलने के 67 साल बाद की स्थिति यह है कि देश की ऊपर की दस फीसदी आबादी के पास कुल परिसम्पत्ति का 85 प्रतिशत इकट्ठा हो गया है जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी के पास महज दो प्रतिशत है। भारत में 0.01 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनकी आय देश की औसत आय से दो सौ गुना अधिक है। देश की ऊपर की तीन फीसदी और नीचे की चालीस फीसदी आबादी की आमदनी के बीच का फासला साठ गुना हो चुका है।

स्वतंत्रता दिवस – क्यों जश्न मनाये मेहनतकश आबादी!

आज़ादी के 67 सालों के बाद हम कहाँ पहुँचे हैं, इस पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा। आज़ादी के बाद से आज तक भारतीय समाज अधिकाधिक दो खेमों में बँटता चला गया है। 1990 के बाद यह खाई और भी तेज़ी से बढ़ने लगी है। एक ओर मुट्ठी भर लोग हैं जिन्होंने पूँजी, ज़मीनों, मशीनों, ख़दानों आदि पर अपना मालिकाना क़ायम कर लिया है तो दूसरी ओर बहुसंख्य मज़दूर, ग़रीब-मध्यम किसान और निम्न-मध्य वर्ग के लोग हैं जिनका वर्तमान और भविष्य इन मुट्ठी भर पूँजीपतियों के रहमोकरम पर आश्रित हो गया है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का 10वाँ सबसे धनी देश है, लेकिन प्रति-व्यक्ति आय के हिसाब से देखें तो दुनिया में भारत का स्थान 149 वाँ बैठता है। 2013 में देश में 55 अरबपति थे जिनकी दौलत दिन-दूनी रात चौगुनी रफ्ऱतार से बढ़ती जा रही है। वहीं दूसरी ओर दुनिया का हर तीसरा ग़रीब भारतीय है और देश के सबसे धनी राज्य गुज़रात में सबसे अधिक कुपोषित बच्चे हैं। आज हमारे देश में 20 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें अगर अच्छी मज़दूरियों पर कारखानों में काम मिले तो वे अपना वर्तमान पेशा छोड़ने के लिए तैयार हैं। इनमें ज़्यादातर लोग फेरी लगाने, फूल बेचने, खोमचा लगाने, जूतों-कपड़ों की मरम्मत करने आदि जैसे कामों में लगे हुए हैं। नये कारखाने लगने और उत्पादन में बढ़ोत्तरी के बावजूद नये रोज़गार लगभग नहीं के बराबर पैदा हो रहे हैं। कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरियाँ लगातार घट रही हैं। 1984 में जहाँ कुल उत्पादन लागत का 45 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी के रूप में मज़दूरों को दिया जाता था, वह 2010 तक आते-आते केवल 25 प्रतिशत रह गया। इसका सीधा मतलब हैः ज़्यादा मेहनत और अधिक उत्पादन करने के बावजूद मज़दूरियाँ लगातार घटी हैं जबकि मालिकों का मुनाफ़ा लगातार बढ़ता गया है।

मोदी के विकास के “गुजरात मॉडल” की असलियत

गुजरात देश में धनी-ग़रीब के बीच सबसे अधिक अन्तर वाले क्षेत्रों में से एक है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में अग्रणी इस राज्य में बाल कुपोषण 48 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत से ऊपर है और इथियोपिया और सोमालिया जैसे दुनिया के अति पिछड़े देशों से भी (वहाँ 33 प्रतिशत है) अधिक है। ‘ग्लोबल हंगर इण्डेक्स’ के अनुसार, गुजरात भारत के पाँच सबसे पिछड़े राज्यों में आता है। इसकी स्थिति बेहद ग़रीब देश हाइती से भी बदतर है। बाल मृत्यु दर भी गुजरात में 48 प्रतिशत है। भारत में इस मामले में सबसे बदतर राज्यों में इसका दसवाँ स्थान है। गुजरात के एक तिहाई वयस्कों का ‘बॉडी मास इण्डेक्स’ 18.5 है। इस मामले में यह भारत का सातवाँ सबसे बदतर राज्य है। प्रसव के समय स्त्रियों की मृत्यु की दर भी गुजरात में सबसे ऊपर है।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

रिजर्व बैंक की हाल की रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी बैंकों ने पूँजीपतियों का एक लाख करोड़ का कर्ज़ माफ़ कर दिया है। रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती ने बताया कि एक वर्ष के दौरान जुटाये गये आँकड़ों से पता चला है कि ये वे ऋण थे जो पूँजीपति कई वर्षों से दबाकर बैठे थे। 2008 में जब सरकार ने किसानों का 60,000 करोड़ का ऋण माफ़ किया था तो पूँजीपतियों ने भारी शोर मचाया था। यही पूँजीपति और मीडिया में इनके दलाल सरकारी शिक्षा और बस, रेल, पानी, बिजली, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं पर दी जाने वाली सब्सिडी पर भी बेशर्मी से हो-हल्ला मचाते हैं कि इससे अर्थव्यवस्था चौपट हो जायेगी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दो वर्ष पहले के बजट में सरकार ने पूँजीपतियों को पाँच लाख करोड़ रुपये की छूट दी थी। उन्हें तमाम तरह के टैक्सों आदि में भी हर केन्द्र और राज्य सरकार से भारी छूट मिलती है। इसके बाद भी उन्हें देने के लिए जो देनदारी बचती है उसे भी न देने के लिए वे तरह-तरह की तिकड़में करते हैं। इसके लिए उनके पास एकाउण्ट्स के विशेषज्ञों और वक़ीलों की पूरी फौज़ रहती है।

जनतंत्र नहीं धनतंत्र है यह

‘‘दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्र’’ की सुरक्षा का भारी बोझ जनता पर पड़ता है। इसका छोटा सा उदाहरण मन्त्रियों की सुरक्षा के बेहिसाब खर्च में देखा जा सकता हैं जो अनुमानतः 130 करोड़ सालाना बैठता है। इसमें जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा में 36, जेड श्रेणी की सुरक्षा में 22, वाई श्रेणी की सुरक्षा में 11 और एक्स श्रेणी की सुरक्षा में दो सुरक्षाकर्मी लगाये जाते हैं। सुरक्षा के इस भारी तामझाम के चलते गाड़ियों और पेट्रोल का खर्च काफी बढ़ जाता हैं। केन्द्र और राज्यों के मन्त्री प्रायः 50-50 कारों तक के काफिले के साथ सफर करते हुए देखे जा सकते हैं। जयललिता जैसी सरीखे नेता तो सौ कारों के काफिले के साथ चलती हैं। आज सड़कों पर दौड़ने वाली कारों में 33 प्रतिशत सरकारी सम्पति हैं जो आम लोगों की गाढी कमाई से धुआँ उड़ाती हैं। पिछले साल सभी राजनीतिक दलों के दो सौ से ज्यादा सांसदों ने बाकायदा हस्ताक्षर अभियान चलाकर लालबत्ती वाली गाड़ी की माँग की। साफ है कि कारों का ये काफिला व सुरक्षा-कवच जनता में भय पैदा करने के साथ ही साथ उनको राजाओ-महाराजाओं के जीवन का अहसास देता है।

“विकास” की चमक के पीछे की काली सच्चाई

सच्चाई यह है कि खाद्यान्न के भण्डारण और संरक्षण के काम को भी ठीक तरीके से अंजाम दिया जाये तो भी आबादी की ज़रूरतों को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक भारत में अनाज की कोई कमी नहीं है। फिर भी तीस करोड़ से ज़्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं, जो पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। देश में हर साल 44 हज़ार करोड़ रुपये का अनाज, फल और सब्‍ज़ि‍याँ इसलिए बर्बाद हो जाती हैं क्योंकि उनके भण्डारण के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कृषि मंत्री ने संसद के पिछले मानसून सत्र में यह जानकारी दी थी। आलीशान होटल, मॉल, एअरपोर्ट, एक्सप्रेस हाइवे आदि के निर्माण पर हज़ारों अरब खर्च कर रही सरकारें आज़ादी के बाद से 66 साल में अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम नहीं बनवा पायी हैं, क्या इससे बढ़कर कोई सबूत चाहिए कि पूँजीपतियों की सेवक ये तमाम सरकारें जनता की दुश्मन हैं?