Category Archives: बोलते आँकड़े, चीख़ती सच्चाइयाँ

बढ़ती बेरोज़गारी और सत्ताधारियों की बेशर्मी

ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार बेरोज़गारी की बढ़ती दर के मामले में भारत 8.0 प्रतिशत की दर के साथ एशिया में पहले स्थान पर पहुँच गया है। उप-राष्ट्रपति के पद को शोभायमान कर रहे वंकैया नायडू ने हालिया दिनों में बयान दिया था कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं दी जा सकती व स्वरोज़गार भी काम ही है तथा साथ ही कह दिया कि चुनाव में हर पार्टी रोज़गार देने जैसे वायदे कर ही दिया करती है, तो कहने का मतलब भाजपा ने भी तो इसी गौरवशाली परम्परा को ही आगे बढ़ाया है!

असली मुद्दों को कस के पकड़ रहो और काल्पनिक मुद्दों के झूठ को समझो।

गुड़गाँव के एक औद्योगिक क्षेत्र के पास एक मज़दूर बस्ती में हज़ारों मज़दूर रहते हैं, जो मारुती और होण्डा जैसी बड़ी कम्पनियों और उनके लिए पुर्जे बनाने वाली अनेक छोटी-छोटी कम्पनियों में मज़दूरी करते हैं। इस बस्ती में अन्दर जाने पर हम देखेंगे कि यहाँ बनी लाॅजों के 10×10 फि़ट के गन्दे कमरों में एक साथ 4 से 6 मज़दूर रहते हैं जो कमरे पर सिर्फ़ खाने और सोने के लिए आते हैं। इसके सिवाय ज़्यादातर मज़दूर दो शिफ़्टों में काम करने के लिए सप्ताह के सातों दिन 12 से 16 घण्टे कम्पनी में बिताते हैं, जिसके बदले में उन्हें 6 से 14 हज़ार मज़दूरी मिलती है जो गुड़गाँव जैसे शहर में परिवार के साथ रहने के लिए बहुत कम है।

मोदी और पेट गैस की गोलियों में क्या संबंध है!

नवम्बर में औद्योगिक उत्पादन 8.4% बढ़ने के आंकड़े जारी करने के बाद मोदी सरकार और उसके भोंपू अर्थशास्त्री विशेषज्ञ अर्थव्यवस्था में फिर से तेजी का राग अलाप रहे हैं! पर लिंक में दिए औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े के पैराग्राफ 8 को पढ़ें तो कुल उत्पादन वृद्धि में से 2.5% वृद्धि तो सिर्फ पेट गैस की गोलियों और पाचन शक्ति बढ़ाने वाले टॉनिकों से हुई बताई गई है, जबकि कुल औद्योगिक उत्पादन में इनका कुल हिस्सा (weightage) चौथाई प्रतिशत से भी कम होता है – 0.22%! ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है – ये पेट गैस की गोलियों का चक्कर पिछले साल भी था! अब ये इतनी पेट गैस की गोलियां कौन खा रहा है?

”रामराज्य” में गाय के लिए बढ़ि‍या एम्बुलेंस और जनता के लिए बुनियादी सुविधाओं तक का अकाल!

एक ओर लखनऊ में उपमुख्यमन्त्री केशव प्रसाद मौर्य ने गाय ”माता” के लिए सचल एम्बुलेंस का उद्घाटन किया तो दूसरी ओर राजस्थान सरकार ने अदालत में स्वीकार किया है कि साल 2017 में अक्टूबर तक 15 हज़ार से अधिक नवजात शिशुओं की मौत हो चुकी है। नवम्बर और दिसम्बर के आँकड़े इसमें शामिल नहीं हैं। उनको मिलाकर ये संख्या और बढ़ जायेगी। डेढ़ हज़ार से अधिक नवजात शिशु तो केवल अक्टूबर में मारे गये। सामाजिक कार्यकर्ता चेतन कोठारी को सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार भारत में नवजात बच्चों के मरने का आँकड़ा बड़ा ही भयावह है और इसमें मध्य प्रदेश और यूपी सबसे टॉप पर हैं।

बेहिसाब बढ़ती आर्थिक और सामाजिक असमानता

भारत तो इनमें से भी सर्वाधिक ग़ैरबराबरी वाले चन्द देशों में से है। यहाँ तो शीर्ष पर के 10% अमीर लोग 2010 में 69% सम्पत्ति के मालिक थे और तब से सिर्फ़़ 6 वर्षों में ये बढ़कर 2016 में 81% दौलत पर क़ब्ज़ा जमा चुके हैं। वहीं तली के 50% पूरी तरह सम्पत्तिहीन ही नहीं, बल्कि क़र्ज़ में किसी तरह मालिकों के लिए श्रम करते हुए जीवन बिताने को विवश हैं।

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के शीर्ष पर जिनकी दौलत लगातार बढ़ रही है वे कौन लोग

जीडीपी की विकास दर में गिरावट और अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत

जीडीपी में माँग का एक और महत्त्वपूर्ण कारक विदेश व्यापार खाते का बैलेंस तो भारत में पहले ही नकारात्मक कारक है, क्योंकि भारत का विदेश व्यापार खाता सरप्लस नहीं बल्कि घाटे में चलता है। इस तिमाही में यह घाटा पिछले वर्ष की इसी तिमाही के मुकाबले 295% बढ़ा है यानी लगभग 4 गुना हो गया। निर्यात में मन्दी और आयात में 13% वृद्धि ने अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका दिया है। आयात में यह भारी वृद्धि तब हुई है, जबकि पेट्रोलियम समेत अनेक जिंसों के दाम अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में काफ़ी कम हैं।

‘भारत में आय असमानता, 1922-2014 : ब्रिटिश राज से खरबपति राज?’

पिछले दिनों ही भारत में सम्पत्ति के वितरण पर क्रेडिट सुइस की रिपोर्ट भी आयी थी। इसमें बताया गया था कि 2016 में देश की कुल सम्पदा के 81% का मालिक सिर्फ़ 10% तबक़ा है। इसमें से भी अगर शीर्ष के 1% को लें तो उनके पास ही देश की कुल सम्पदा का 58% है। वहीं नीचे की आधी अर्थात 50% जनसंख्या को लें तो उनके पास कुल सम्पदा का मात्र 2% ही है अर्थात कुछ नहीं। इनमें से भी अगर सबसे नीचे के 10% को लें तो ये लोग तो सम्पदा के मामले में नकारात्मक हैं अर्थात सम्पत्ति कुछ नहीं क़र्ज़ का बोझा सिर पर है। इसी तरह बीच के 40% लोगों को देखें तो उनके पास कुल सम्पदा का मात्र 17% है।

देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई के बच्चों में बढ़ता कुपोषण

मुम्बई भी ऐसा ही एक ऊपरी तौर पर चमकदार शहर है जहाँ एक ओर अम्बानी, टाटा, बिड़ला, अडानी जैसे भारी दौलतमन्द लोग रहते हैं; वहीं यहाँ की अधिकांश मेहनतकश जनसंख्या भारी ग़रीबी और तंगहाली में गन्दगी से बजबजाती, दड़बों की तरह भरी झोपड़पट्टियों में रहने को मजबूर है। हालत यह है कि इस ‘मायानगरी’ के दो तिहाई निवासियों को इस शहर की सिर्फ़ 8% जगह ही रहने को मयस्सर है। शायद इनमें से भी बहुतों ने 2014 के चुनाव के पहले के भारी प्रचार से चकाचौंध होकर नरेन्द्र मोदी के ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘अच्छे दिनों’ के वादों में भरोसा किया था, देश के चहुमुँखी विकास से अपनी जि़न्दगी में बेहतरी आने का सपना देखा था। पर नतीजा क्या हुआ?

अर्थव्यवस्था में सुधार के हवाई दावों की हक़ीक़त

11 अगस्त को ही सरकार ने अर्धवार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण जारी किया जिसकी मुख्य बात थी कि अर्थव्यवस्था पर संकुचन या डिफ़्लेशन का दबाव है और जीडीपी में वृद्धि दर सरकारी अनुमान से कम रहने की सम्भावना है। इस संकुचन का अर्थ है कम माँग के चलते दाम न बढ़ा पाने की मज़बूरी से मुद्रास्फीति या महँगाई का नहीं बढ़ना। और विस्तार में जायें तो रिज़र्व बैंक और सरकार दोनों का विश्लेषण कहता है कि महँगाई की दर कम रहने की वजह एक तो कृषि उत्पादों के दामों में कमी है; दूसरे, माँग की कमी से अन्य उत्पादक दाम बढ़ाने में असमर्थ हैं, इसलिए महँगाई की दर 4% के नीचे आ गयी है।

विश्व स्तर पर मज़दूरों की हालत और गिरी – भारत निचले 10 देशों में शामिल

पिछली सदी के आखि़री दशक की शुरुआत में कांग्रेस पार्टी की सरकार ने भारत में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों की शुरुआत की। पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़ों के रास्तों में से हर रुकावट हटाने के लिए मज़दूरों के जनवादी श्रम अधिकारों पर ज़ोरदार हमला बोला गया। केन्द्र और राज्यों में भले ही किसी भी पार्टी की सरकार हो हर सरकार ने यही नीतियाँ लागू कीं। परिणामस्वरूप, आज हालत यह हो चुकी है कि मज़दूरों को न्यूनतम वेतन, हादसों और बीमारियों से सुरक्षा के प्रबन्ध, मुआवज़ा, ईएसआई., ईपीएफ़, बोनस, छुि‍ट्टयों, ओवरटाइम, यूनियन बनाने आदि सारे क़ानूनी अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। 5-6 फ़ीसदी मज़दूरों को ही इन श्रम अधिकारों के तहत कोई हक़ हासिल होते हैं।