Category Archives: बोलते आँकड़े, चीख़ती सच्चाइयाँ

अधिक अनाज वाले देश में बच्चे भूख से क्यों मर रहे हैं?

भारत में रोज़ाना 5000 बच्चे भूख और कुपोषण के कारण मर जाते हैं। इसका कारण पूछने पर हुक्मरान इसे ग़रीबों की आबादी या भगवान की करनी पर छोड़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनके ये झूठ तर्क के दरबार में एक पल भी नहीं खड़े हो पाते। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़़ भारत में कुल आबादी की ज़रूरतों से ज़्यादा अनाज पैदा हो रहा है और ये अनाज गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ रहा है, तो भुखमरी, कुपोषण जैसी भयानक बीमारियों का कारण भगवान की मर्ज़ी या आबादी नहीं हो सकता। इसके कारण दस्त जैसी बीमारियाँ, जिनके कारण और इलाज कई दशक पहले ही ढूँढ़े जा चुके हैं, वो भी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि आज का समाज भी एक वर्गीय समाज है। मतलब कुछ लोग उत्पादन के साधनों पर क़ब्ज़ा किये हुए हैं। बहुसंख्यक आबादी इन साधनों की मुहताज़ है।

बोलते आँकड़े, चीख़ती सच्चाईयाँ

भारत में औसत आयु चीन के मुक़ाबले 7 वर्ष और श्रीलंका के मुक़ाबले 11 वर्ष कम है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर चीन के मुक़ाबले तीन गुना, श्रीलंका के मुक़ाबले लगभग 6 गुना और यहाँ तक कि बांग्लादेश और नेपाल से भी ज़्यादा है। भारतीय बच्चों में से तक़रीबन आधों का वज़न ज़रूरत से कम है और वे कुपोषण से ग्रस्त हैं। क़रीब 60 फ़ीसदी बच्चे ख़ून की कमी से ग्रस्त हैं और 74 फ़ीसदी नवजातों में ख़ून की कमी होती है।

मध्य प्रदेश – नवजात बच्चों का नर्क

रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इण्डिया की एसआरएस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में सबसे ज़्यादा बच्चों की मौत भाजपा शासित मध्य प्रदेश में होती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ मध्य प्रदेश में पैदा होने वाले 1000 बच्चों में से 52 जन्म की पहली वर्षगाँठ भी नहीं मना पाते। इस तरह मध्य प्रदेश की बाल मृत्यु दर 52 है जो सर्वेक्षण किये गये राज्यों में से सबसे ज़्यादा है।

मोदी मण्डली के जन-कल्याण के हवाई दावे बनाम दौलत के असमान बँटवारे में तेज़ वृद्धि

सन् 2014 से 2016 तक ऊपर की 1 प्रतिशत आबादी के पास भारत में कुल दौलत में हिस्सा 49 प्रतिशत से 58.4 प्रतिशत हो गया है। इस तरह ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी की दौलत में भी वृद्धि हुई है। रिपोर्ट मुताबिक़ 80.7 प्रतिशत दौलत की मालिक यह ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी सन् 2010 में 68.8 प्रतिशत की मालिक थी। यह आबादी भी मोदी सरकार के समय में और भी तेज़ी से माला-माल हुई है।

ग़रीबों के मुँह का ग्रास छीनकर बढ़ती जीडीपी और मालिकों के मुनाफ़े!

अभी भारत की अर्थव्यवस्था में तेज़ी की भी बडी चर्चा है और इसे दुनिया की सबसे तेज़ी से विकास करती अर्थव्यवस्था बताया जा रहा है। इस विकास की असली कहानी भी बहुसंख्यक श्रमिक-अर्धश्रमिक जनता की जिन्दगी पर पडे इसके असर से ही समझनी होगी। 1991 में शुरू हुए आर्थिक ‘सुधारों’ से देश की अर्थव्यवस्था कितनी मज़बूत हुई है उसकी असलियत जानने के लिए जीडीपी-जीएनपी की वृद्धि, एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट के आँकड़े, मकानों-दुकानों की कीमतें, अरबपतियों की तादाद, या सेंसेक्स-निफ्टी का उतार-चढाव देखने के बजाय हम नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो (NNMB) के सर्वे के नतीजों और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर नजर डालते हैं जो बताता है कि जीवन की अन्य सुविधाएँ – आवास, शिक्षा, चिकित्सा, आदि को तो छोड ही दें, इस दौर में ग़रीब लोगों को मिलने वाले भोजन तक की मात्रा भी लगातार घटी है। यह ब्यूरो 1972 में ग्रामीण जनता के पोषण पर नजर रखने के लिए स्थापित किया गया था और इसने 1975-1979, 1996-1997 तथा 2011-2012 में 3 सर्वे किये। इस सारे दौरान सरकारें लगातार तीव्र आर्थिक तरक्की की रिपोर्ट देती रही हैं इसलिए स्वाभाविक उम्मीद होनी चाहिये थी कि जनता के भोजन-पोषण की मात्रा में सुधार होगा लेकिन इसके विपरीत ज़मीनी असलियत उलटे ये पायी गयी कि जनता को मिलने वाले पोषण की मात्रा बढ़ने के बजाय लगातार घटती गयी है।

जनता की बदहाली के दम पर दिनों-दिन बढ़ रही है भारत के धन्नासेठों की आमदनी

जहां एक ओर तो आम लोग अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर भी चिंतित हैं कि अगर कोई घर में बड़ी बीमारी का शिकार हो जाये तो उसके इलाज पर वर्षों की कमाई लग जाती है वहीं दूसरी ओर भारत के धन्नासेठ दिनों-दिन अमीर होते जा रहे हैं और सरकारें भी अपनी नीतियों द्वारा उनकी पूरी सेवा करती रहती हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था लोगों से उनकी बुनियादी ज़रूरतें भी दिनों-दिन छीन रही है जबकि ऊपर वाला वर्ग अय्याशी में डूबा हुआ है। ऐसी मानवद्रोही व्यवस्था को बदलना आज हर इंसाफ़पसंद व्यक्ति की माँग होनी चाहिए।

बढ़ते आर्थिक अन्तर

स्विट्जरलैंड के एक बैंक क्रेडिट स्विस की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में अमीर-गरीब के बीच का अन्तर लगातार बढ़ रहा है। यह अन्तर इतिहास के किसी भी दौर से अब अधिक हो चुका है, जहाँ ऊपर की 1% आबादी की कुल संपत्ति बाकी 99% आबादी की संपत्ति के बराबर हो चुकी है। इस रिपोर्ट के अनुसार ऊपर की 1% आबादी के पास संसार की कुल सम्पदा का लगभग 50% हिस्सा है, जबकि नीचे की 50% आबादी के पास इसका 1% भी नहीं बनता| ऊपर की 10% आबादी के पास संसार की 87.7% संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है, जबकि नीचे की 90% आबादी के पास केवल 12.3% हिस्सा है।

बोलते आँकड़े, चीखती सच्चाइयाँ! – अमीर और गरीब आबादी के बीच आर्थिक गैर-बराबरी

ऑक्सफैम की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अमीर और गरीब आबादी के बीच आर्थिक गैर-बराबरी इतिहास के पहले किसी भी दौर से ज्यादा हो चुकी है। 2008 से शुरू हुए आर्थिक संकट के बाद से तो यह गैर-बराबरी और अधिक गति से बढ़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 62 सबसे अमीर व्यक्तियों की कुल संपदा विश्व की 50% सबसे गरीब आबादी की संपदा के बराबर है, यानी 62 व्यक्तियों की कुल संपदा 350 करोड़ लोगों की संपदा के बराबर है! 2010 के बाद से दुनिया की सबसे गरीब आबादी में से 50 फीसदी की संपत्ति करीब 1,000 अरब डॉलर घटी है। यानी उनकी संपत्ति में 41% की जोरदार गिरावट आई है। रिपोर्ट के अनुसार 2010 में दुनिया की सबसे गरीब आबादी के 50 फीसदी के पास जितनी धन संपदा थी, उतनी ही संपत्ति दुनिया के 388 सबसे अधिक अमीर लोगों के पास थी. उसके बाद यह आंकड़ा लगातार घट रहा है. 2011 में यह घटकर 177 पर आ गया है, 2012 में 159, 2013 में 92 और 2014 में 80 पर आ गया।

सेठों ने डकारे बैंकों के 1.14 लाख करोड़ रुपये

यह रकम कितनी बड़ी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर ये सारे कर्ज़दार अपना कर्ज़ा लौटा देते तो 2015 में देश में रक्षा, शिक्षा, हाईवे और स्वास्थ्य पर खर्च हुई पूरी राशि का खर्च इसीसे निकल आता। इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। पूँजीपतियों के मीडिया में हल्ला मचा-मचाकर लोगों को यह विश्वास दिला दिया जाता है…

क्या मेहनतकश के लिए “ख़ुशी” का मतलब यही है?

पूँजीवाद का यह निर्मम रूप है जहाँ एक तरफ ख़ुशी दिखाने के सर्वे किये जाते हैं और दूसरी तरफ मेहनतकश वर्ग के लोगों के सर से छत और उनके बच्चों के मुँह से निवाला छीन लिया जाता है। क्या इन लोगों से पूछा जाता है कि ये कितने ख़ुश हैं? मेहनतकश की यही आबादी हर तरह के उत्पादन के लिए दिन रात हाड़तोड़ मेहनत करती है। इसी आबादी के खून-पसीने से चंडीगढ़ जैसे शहरों की सुन्दरता बन पाती है और इन शहरों में रहने वाले खाये-पिये-अघाये वर्ग की ‘ख़ुशहाली’ होती है। लेकिन यही आबादी अपने बच्चों के लिए रोटी तक जुटा नहीं पाती और अब तो हालात ये हैं कि इस आबादी के सर पर कच्ची छत तक नहीं रहने दी जा रही। खाये- पिये वर्गों की ख़ुशी के लिए करोड़ों मेहनतकश पूँजीवाद का यह अभिशाप झेलने को मजबूर हैं।