मोदी सरकार के विकास के ढोल की पोल
आम लोगों के जीवनस्तर में वृद्धि के हर पैमाने पर देश पिछड़ा
‘अच्छे दिन’ सिर्फ़ लुटेरे पूँजीपतियों के आये हैं

सम्‍पादक मण्‍डल, मजदूर बिगुल

यह अनायास नहीं है कि इस बार 15 अगस्त के भाषण में नरेन्द्र मोदी ने देश की अर्थव्यवस्था के बारे में कुछ हवाई जुमले उछालने के अलावा चार साल से हो रहे ‘’विकास’’ की कोई ठोस बात नहीं की। दरअसल, झूठों और जुमलों के सिवा उनके पास बताने के लिए कुछ है ही नहीं। तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था की हालत पस्त है और इसकी सीधी मार देश के ग़रीबों और मेहनतकशों को झेलनी पड़ रही है।

संयुक्त राष्ट्र का तय किया हुआ मानव विकास सूचकांक लोगों की आमदनी, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थितियों को ध्यान में रखकर विकास का आकलन करता है। इसके आधार पर देखें तो मोदी सरकार के तहत देश ने कोई प्रगति नहीं की है। दुनिया के 188 देशों की सूची में भारत 138वें स्थान पर है – दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यस्था होने के बावजूद मानव विकास सूचकांक में हमारा देश श्रीलंका और मालदीव के बाद तीसरे स्थान पर है। मोदी सरकार भले ही ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा उछालती रही हो, मगर असलियत क्या है? विश्व आर्थिक मंच द्वारा विकसित समावेशी विकास सूचकांक (आईडीआई) प्रति व्यक्ति जीडीपी, श्रम की उत्पादकता, जीवन प्रत्याशा, रोज़गार, परिवार की औसत आय, आय तथा संपत्ति की असमानता, ग़रीबी की दर, सार्वजनिक कर्ज़ जैसे कई कारकों को आधार बनाता है। 2017 में आईडीआई में भारत का स्कोर 3.38 था जो 2018 में घटकर 3.09 हो गया। (शीर्ष पर स्थित नार्वे का स्कोर 6.08 है।) विकासशील देशों में भारत 2017 में 60वें स्थान पर था पर 2018 में खिसककर 62वें स्थान पर आ गया। विकास का एक और पैमाना है ख़ुशी सूचकांक (हैप्पीनेस इंडेक्स) जो आमदनी, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा, सामाजिक सहायता, स्वतंत्रता, विश्वास और उदारता पर आधारित है। 10 के अधिकतम अंकों में से भारत का स्कोर लगातार कम होता जा रहा है। कुल 156 देशों में यह 2017 में 122वें स्थान पर था जहाँ से खिसककर 2018 में 133वें स्थान पर आ गया है। पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और भूटान जैसे देश भी इस सूची में हमसे ऊपर हैं।

रोज़गार की हालत बद से बदतर होती जा रही है। मज़दूरी बढ़ नहीं रही है और बढ़ती महँगाई के सापेक्ष वास्तविक मज़दूरी में गिरावट आ रही है। अगर बेरोज़गारों के साथ ही अर्द्धबेरोज़गारों को भी जोड़ लें तो हालात भयावह नज़र आते हैं। काम न मिलने के कारण लाखों स्त्रियाँ श्रम बाज़ार से बाहर हो गयी हैं। हर साल एक करोड़ रोज़गार देने के जुमले के विपरीत हालत यह है कि प्रतिष्ठित ‘इंडियास्पेंड’ वेबसाइट के अनुसार 2014 से 2017 के बीच हर साल औसतन 2.13 लाख रोज़गार ही पैदा हुए। लोकनीति-सीएसडीएस-एबीपी न्यूज़ द्वारा मई 2018 में कराये गये तीसरे ‘राष्ट्र का मूड’ सर्वेक्षण में हर चार में से एक वोटर ने कहा कि देश की सबसे बड़ी समस्या रोज़गार है और हर पाँच में से तीन (57%) वोटरों ने कहा कि पिछले 3-4 वर्षों के दौरान उनके इलाक़े में रोज़गार मिलना पहले से अधिक कठिन हो गया है। जनवरी 2018 में यह आँकड़ा 49% था।

प्रधानमंत्री के अनुसार देश जल्दी ही दुनिया की बड़ी आर्थिक शक्तियों में शामिल हो जायेगा, लेकिन लोगों की सबसे बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो रही हैं। भूख और कुपोषण की स्थिति को दर्शाने वाले वैश्विक भूख सूचकांक पर भारत हर वर्ष नीचे खिसकता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 19.07 करोड़ लोग, यानी 14.5 फीसदी आबादी कुपोषण का शिकार है। जनता को महाशक्ति बनने का सपना दिखाने वाले शासकों के लिए इससे बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है कि आज भी आये दिन भूख से लोगों की मौत हो जाती है। मगर इन बेशर्मों को शर्म भला क्यों आने लगी! खेती के गहराते संकट की सबसे बुरी मार ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों पर पड़ रही है। 2014 से 2016 के बीच खेती पर निर्भर 36000 से ज़्यादा लोगों ने आत्महत्या की। इसमें स्त्रियाँ शामिल नहीं हैं।

तो फिर अच्छे दिन किसके आये हैं?

अब कहने की ज़रूरत नहीं रह गयी है कि सरकार पूँजीपतियों की ही सेवा में जीजान से लगी हुई है। ‘ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस’ सूचकांक में भारत की स्थिति 2015 में 142 से 2018 में 100 पर पहुँच गयी है। यह सूचकांक व्यापार करने के लिए बेहतर स्थितियों (जिसमें श्रम क़ानूनों को ढीला करना शामिल है) और पूँजीपतियों के सम्पत्ति अधिकारों की बेहतर सुरक्षा पर आधारित है। हरदम राष्ट्रवाद की दुहाई देने वाली भाजपा की सरकार राष्ट्र की सम्पत्तियों को बेशर्मी के साथ देशी-विदेशी पूँजीपतियों को बेच रही है; चाहे वे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम हों या फिर नदी, जंगल, खदान जैसे प्राकृतिक संसाधन हों।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से प्राइवेट सेक्टर को दिये जा रहे बेहिसाब कर्ज़ों के रूप में सरकार देश के वित्तीय संसाधनों को भी अपने आक़ाओं पर लुटा रही है। राष्ट्रीकृत बैंकों से दिये जाने वाले ऋण तेज़ी से ‘नॉन-परफ़ॉर्मिंग एसेट्स’ बनते जा रहे हैं, यानी उनकी वसूली की कोई उम्मीद नहीं है। कॉरपोरेट घरानों को दिये कर्ज़ों को रफ़ा-दफ़ा करने में भाजपा सरकार ने पिछली सरकारों को काफ़ी पीछे छोड़ दिया है। 2014 से 2016 के बीच बट्टे खाते में डाले गये कर्ज़ों की संख्या दोगुनी हो गयी। राष्ट्रवादी सरकार की देखरेख में राष्ट्र के संसाधनों को पूँजीपतियों के हवाले करने की बेशर्मी भरी दास्तान इतनी ही नहीं है! देश का चौकीदार चोरों के सामने इतना मस्त होकर खर्राटे भर रहा है कि पिछले पाँच साल में बैंक घोटालों की संख्या दोगुना बढ़ गयी है। 2015 के शुरू में बैंकों द्वारा दिये ‘’बुरे ऋणों’’ की कुल राशि लगभग 3.2 लाख करोड़ थी। दिसम्बर 2017 में यह छलाँग लगाकर 8.41 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच गयी। विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी से भी कई गुना कर्ज़े अम्बानी, अडानी, बिड़ला जैसे पूँजीपतियों ने दबा रखे हैं जिन पर सरकार कभी मुँह ही नहीं खोलती। उल्टे, बैंकों के घाटे की वसूली के लिए ग़रीब जनता की गाढ़ी कमाई के रुपयों पर डकैती डाली जा रही है। 2017-18 में सार्वजनिक क्षेत्र के 21 और निजी क्षेत्र के 3 बैंकों ने खाते में कम राशि रखने के कारण ग़रीबों से 5000 करोड़ रुपये वसूल लिये।

ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि देश की कुल सम्पदा का भारी हिस्सा ऊपर के सिर्फ़ एक प्रतिशत लोगों की मुट्ठी में क़ैद होता जा रहा है। मोदी के शासन में यह हिस्सा 49 प्रतिशत से बढ़कर 58.4 प्रतिशत तक पहुँच चुका है। देश की सम्पदा आम लोगों की मेहनत से पैदा होती है जिन्हें उनकी पैदावार का एक छोटा-सा हिस्सा ही मिलता है। बाक़ी सब मालिक लोगों और उनके लग्गुओं-भग्गुओं की जमात हड़प जाती है। 2017 में, देश में पैदा हुई नयी सम्पदा का 73 प्रतिशत हिस्सा देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों के पास चला गया। पिछले 12 महीनों में, इस तबके की सम्पत्ति में 20,913 खरब रुपये का इज़ाफ़ा हुआ है। यह राशि 2017-18 के केन्द्रीय बजट के बराबर है। मोदी सरकार आने से पहले, 2013-14 में कुल कॉरपोरेट मुनाफ़ा 3.95 लाख करोड़ था। मोदी के साथ से विकास करते हुए 2016-17 में कॉरपोरेटों का मुनाफ़ा 23 प्रतिशत बढ़कर 4.85 लाख करोड़ हो गया।

मोदी सरकार और संघ परिवार का एजेण्डा बिल्कुल साफ़ है। लोग आपस में बँटकर लड़ते-मरते रहें और वे अपने पूँजीपति मालिकों की तिजोरियाँ भरते रहें। सोचना इस देश के मज़दूरों और आम लोगों को है कि वे इन देशद्रोहियों की चालों में फँसकर ख़ुद को और आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद करते रहेंगे या फिर इन फ़रेबियों से देश को बचाने के लिए एकजुट होंगे।

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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