Category Archives: प्रवासी मज़दूर

गुजरात से उत्तर भारतीय प्रवासी मज़दूरों का पलायन : मज़दूर वर्ग पर बरपा ‘गुजरात मॉडल’ का कहर

28 सितम्बर की घटना से पहले ही गुजरात में प्रवासियों के खि़लाफ़ नफ़रत का माहौल था, क्योंकि संघ परिवार के तमाम आनुषंगिक संगठन और ठाकोर सेना जैसे तमाम प्रतिक्रियावादी संगठन लोगों की समस्याओं के लिए प्रवासियों को जि़म्मेदार ठहराने का ज़हरीला काम कर रहे थे, ताकि उनका गुस्सा व्यवस्था के खि़लाफ़ न हो जाये। ग़ौरतलब है कि 28 सितम्बर की घटना के तीन दिन पहले ही गुजरात के मुख्यमन्त्री विजय रूपानी ने गुजरात के उद्योगों में 80 प्रतिशत नौकरियाँ गुजरातियों के लिए आरक्षित करने की नीति को सख्ती से लागू करने का आश्वासन दिया था।

लुधियाना में 9 वर्ष की बच्ची के अपहरण व क़त्ल के ख़िलाफ़ मेहनतकशों का जुझारू संघर्ष

जीतन राम परिवार सहित लुधियाना आने से पहले दरभंगा शहर में रिक्शा चलाता था। तीन बेटियों और एक बेटे के विवाह के लिए उठाये गये क़र्ज़े का बोझ उतारने के लिए रिक्शा चलाकर कमाई पूरी नहीं पड़ रही थी। इसलिए उसने सोचा कि लुधियाना जाकर मज़दूरी की जाये। यहाँ आकर वह राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी करने लगा। उसकी पत्नी और एक 12 वर्ष की बेटी कारख़ाने में मज़दूरी करने लगी। सबसे छोटी 9 वर्षीय बेटी गीता उर्फ़ रानी को किराये के कमरे में अकेले छोड़कर जाना इस ग़रीब परिवार की मजबूरी थी।

अरब देशों में भारतीय मज़दूरों की दिल दहला देने वाली दास्तान

काफ़ला प्रणाली के तहत खाड़ी के देशों में पहुँचे प्रवासी मज़दूरों का भयंकर शोषण किया जाता है, उनसे जमकर मेहनत भी करवायी जाती है और बदले में न तो नियमित मज़दूरी मिलती है और न ही कोई सुविधाएँ। ये मज़दूर नरक जैसे हालात में काम करते हैं और ऐसे श्रम शिविरों में रहने को मजबूर होते हैं जहाँ शायद कोई जानवर भी रहना न पसंद करे। अरब की तपती गर्मी में ऐसे हालात में ये मज़दूर किस तरह से रहते होंगे यह सोचने मात्र से रूह कांप उठती है।

युद्ध की वि‍भीषिका और शरणार्थियों का भीषण संकट

पूँजीवादी देशों में शासक वर्गों के दक्षिणपंथी एवं वामपंथी धड़ों के बीच शरणार्थियों की समस्या पर बहस कुल मिलाकर इस बात पर केन्द्रित होती है कि शरणार्थियों को देश के भीतर आने दिया जाये या नहीं। सापेक्षत: मानवतावादी चेहरे वाले शासकवर्ग के वामपंथी धड़े से जुड़े लोग आमतौर पर शरण‍ार्थियों के प्रति उदारतापूर्ण आचरण की वकालत‍ करते हैं और यह दलील देते हैं कि शरणार्थियों की वजह से उनकी अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचता है। लेकिन शासकवर्ग के ऐसे वामपंथी धड़े भी कभी यह सवाल नहीं उठाते कि आखिर शरणार्थी समस्या की जड़ क्या है। वे ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता है कि यदि वे ऐसे बुनियादी सवाल उठाने लगेंगे तो पूँजीवादी व्यवस्था कटघरे में आ जायेगी और उसका मानवद्रोही चरित्र उजागर हो जायेगा। सच तो यह है कि साम्राज्यवाद के युग में कच्चे माल, सस्ते श्रम एवं बाज़ारों पर क़ब्ज़े के लिए विभिन्न साम्राज्यवादी मुल्कों के बीच होड़ अवश्यम्भावी रूप से युद्ध की विभीषिका को जन्म देती है।

प्रवासी स्त्री मज़दूर: घरों की चारदीवारी में क़ैद आधुनिक ग़ुलाम

घर में काम करने वाले मज़दूरों की स्थिति हमेशा से ही ख़राब रही है, लेकिन आज जब पूँजीवाद अपने सबसे अनुत्पादक और परजीवी चरण में पहुँच गया है और इसने मानवीय मूल्यों के क्षरण और पतन की सारी सीमाएँ तोड़ दी हैं तो इन परिस्थितियों में समाज का सर्वाधिक कमज़ोर और अरक्षित हिस्सा जैसे बच्चे, औरतें और घरों में काम करने वाले आदि इस क्षरण और पतन का शिकार सबसे ज़्यादा होता है। घरों में काम करने वाले स्त्री-पुरुषों के साथ मार-पीट, गालियाँ, यौन उत्पीड़न बेहद सामान्य है लेकिन पिछले एक दशक से स्त्री मज़दूरों में जो ज़्यादातर घरेलू नौकरानी का काम करती हैं, उनमें काम की जगह से भागने के दौरान मौत या आत्महत्या की घटनाएँ बहुत अधिक बढ़ी हैं। इस उत्पीड़न से बच निकली स्त्रियों के लिए लेबनान तथा यूरोप के कई देशों में कुछ आश्रय गृह बने हैं। ब्रिटेन के आश्रयगृह में रहने वाली एक औरत का कहना है कि वह भाग्यशाली है कि वह बच निकली लेकिन उसके जैसी हज़ारों-हज़ार ऐसी औरतें हैं जो चुपचाप यह अत्याचार और उत्पीड़न झेल रही हैं और उनके पास बच निकलने का कोई रास्ता भी नहीं है।

हर देश में अमानवीय शोषण-उत्पीड़न और अपमान के शिकार हैं प्रवासी मज़दूर

भारत, नेपाल तथा अन्य देशों से आये प्रवासी मज़दूर खाली जेब, कर्ज़ और घर पर छोड़ आयी ढेरों ज़िम्मेदारियों के साथ खाड़ी देशों की ज़मीन पर कदम रखते हैं। वहाँ पहुँचते ही उनके वीज़ा और पासपोर्ट दलाल जब़्त कर लेते हैं। उन्हें आकर्षक नौकरियों का जो सपना दिखाकर लाया जाता है वह यहाँ पहुँचते ही टूट जाता है। इसके उलट उन्हें घण्टों कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है और बदलें में मिलती है बेहद कम मज़दूरी। कइयों को तो बढ़िया नौकरी का सपना दिखाकर ले जाया जाता है और उनसे ऊँट या भेड़ें चराने का काम कराया जाता है। उनके चारों ओर दूर-दूर तक वीरान रेगिस्तान पसरा होता है। बातें करने के लिए एक इंसान नहीं होता। न ढंग से खाना मिलता है और न ही नहाने की इजाज़त। इस त्रासद स्थिति को बहरीन में रहने वाले एक मलयाली उपन्यासकार बेनियामिन ने अपने उपन्यास ‘अदुजीवितम’ (भेड़ के दिन) में दर्शाया है।

दुनियाभर में अमानवीय शोषण-उत्पीड़न के शिकार हैं प्रवासी कामगार

असमान आर्थिक विकास की बदौलत देशों के अन्दर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र और एक देश से दूसरे देश की तरफ़ (आमतौर पर अविकसित से विकसित की तरफ़) मज़दूरों का प्रवास जारी रहता है। स्थानीय मज़दूरों की संघर्ष की ताक़त अधिक होने के कारण विश्वभर के लुटेरे पूँजीपति स्थानीय की बजाय प्रवासी मज़दूरों को काम पर रखना पसन्द करते हैं। एक तो इन प्रवासी मज़दूरों से कम तनख़्वाह पर काम लिया जाता है, दूसरा स्थानीय और प्रवासी के झगड़े खड़े करके मज़दूरों की एकता की राह में अड़चनें पैदा की जाती हैं।

माँगपत्रक शिक्षणमाला – 6 प्रवासी मज़दूरों की दुरवस्था और उनकी माँगें मज़दूर आन्दोलन के एजेण्डा पर अहम स्थान रखती हैं

काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो पाता। कम ही ऐसा हो पाता है कि लगातार सालभर उन्हें काम मिल सके (कभी-कभी किसी निर्माण परियोजना में साल, दो साल, तीन साल वे लगातार काम करते भी हैं तो उसके बाद बेकार हो जाते हैं)। लम्बी-लम्बी अवधियों तक ‘बेरोज़गारों की आरक्षित सेना’ में शामिल होना या महज पेट भरने के लिए कम से कम मज़दूरी और अपमानजनक शर्तों पर कुछ काम करके अर्द्धबेरोज़गारी में छिपी बेरोज़गारी की स्थिति में दिन बिताना उनकी नियति होती है।

पिछले इक्कीस वर्षों से जारी उदारीकरण-निजीकरण का दौर लगातार मज़दूरी के बढ़ते औपचारिकीकरण, ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण, ‘कैजुअलीकरण’ और ‘पीसरेटीकरण’ का दौर रहा है। नियमित/औपचारिक/स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की तादाद घटती चली गयी है, यूनियनों का रहा-सहा आधार भी सिकुड़ गया है। औद्योगिक ग्रामीण मज़दूरों की कुल आबादी का 95 प्रतिशत से भी अधिक असंगठित/अनौपचारिक है, यूनियनों के दायरे के बाहर है (या एक हद तक है भी तो महज़ औपचारिक तौर पर) और उसकी सामूहिक सौदेबाज़ी की ताक़त नगण्य हो गयी है। ऐसे मज़दूरों का बड़ा हिस्सा किसी भी तरह के रोज़गार की तलाश में लगातर यहाँ-वहाँ भागता रहता है। उसका स्थायी निवास या तो है ही नहीं या है भी, तो वह वहाँ से दूर कहीं भी काम करने को बाध्य है। तात्पर्य यह कि नवउदारवाद ने मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा यहाँ-वहाँ भटकने के लिए मजबूर करके प्रवासी मज़दूरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ा दी है।

त्रिपुर (तमिलनाडु) के मजदूर आत्महत्या पर मजबूर

तमिलनाडु के त्रिपुर जिले में जुलाई 2009 से लेकर सितम्बर 2010 के भीतर 879 मजदूरों द्वारा आत्महत्या की घटनाएँ सामने आयी हैं। 2010 में सितम्बर तक388 मजदूरों ने आत्महत्या की जिनमें 149 स्त्री मजदूर थीं। सिर्फ जुलाई-अगस्त 2010 में 25 स्त्रियों सहित 75 मजदूरों ने अपनी जान दे दी। दिल दहला देने वाले ये आँकड़े भी अधूरे हैं। ये आँकड़े आत्महत्या करने वाले मजदूरों की महज वह संख्या बताते हैं जो काग़जों पर दर्ज हुई है। इससे भी अधिक दिल दहला देने वाली बात यह है कि इस जिले में हर रोज आत्महत्याओं की औसतन बीस कोशिशें होती हैं। राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि इस जिले में तमिलनाडु के दूसरे जिलों के मुकाबले पिछले तीन वर्षों में कहीं अधिक आत्महत्याओं की घटनाएँ हो रही हैं।

बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से भी वंचित रहते हैं प्रवासी मज़दूर

हर साल करोड़ों स्‍त्री-पुरुष गाँवों में फसल का काम ख़त्म होते ही रोज़गार की तलाश में देश के महानगरों की ओर चल पड़ते हैं। निर्माणस्थलों, ईंटभट्ठों और पत्थर की खदानों में कमरतोड़ काम करते हुए ये रेल की पटरियों के नीचे या सड़कों के किनारे, या गन्दे नालों के किनारे बोरी या पालिथीन की झुग्गियों में रहते हैं, और अक्सर आधा पेट खाकर ही गुज़ारा कर लेते हैं। ऐसे नारकीय हालात में शरीर का तमाम तरह की बीमारियों से ग्रस्त होना लाज़िमी ही है, फिर भी ये दर्द-तकलीफ की परवाह न करके काम में लगे रहते हैं। सरकारी अस्पतालों की सुविधाएँ उन्हें अक्सर मिल नहीं पातीं – ठेकेदार छुट्टी नहीं देता, अनजान शहर में अस्पताल दूर होते हैं और उनके पास राशन कार्ड आदि भी नहीं होते। निजी डाक्टर गली के ठगों की तरह उनकी जेब से आखि़री कौड़ी भी हड़प लेने की फिराक में रहते हैं। ज़्यादातर ठेकेदार इन प्रवासी मज़दूरों को पूरी मज़दूरी नहीं देते। उन्हें बस किसी तरह दो जून पेट भरने लायक मज़दूरी दी जाती है, बाकी ठेकेदार अपने पास रखे रहता है कि काम पूरा होने पर इकट्ठा देगा। लेकिन अक्सर इसमें भी काफी रकम धोखाधड़ी करके मार ली जाती है। ऐसे में अगर कोई गम्भीर रूप से बीमार हो गया – और कमरतोड़ मेहनत, कुपोषण तथा गन्दगी के कारण अक्सर ऐसा होता ही रहता है – तो शहर में रहकर इलाज करा पाना उसके बस में नहीं होता। अक्सर तो अपनी जमा-पूँजी लुटेरे डाक्टरों के हवाले करके उन्हें वापस गाँव लौटना पड़ जाता है।