Tag Archives: कपड़ा उद्योग

कपड़ा मज़दूरों की हड़ताल से काँप उठा बांग्लादेश का पूँजीपति वर्ग

वॉलमार्ट, टेस्को, गैप, जेसी पेनी, एच एण्ड एम, इण्डिटेक्स, सी एण्ड ए और एम एण्ड एस जैसे विश्व में बड़े-बड़े ब्राण्डों के जो कपड़े बिकते हैं और जिनके दम पर पूरी फै़शन इण्डस्ट्री चल रही है, उस पूरी सप्लाई श्रृंखला के मुनाफ़े का स्रोत बांग्लादेश के मज़दूर द्वारा किये गये श्रम का ज़बरदस्त शोषण ही है। सरकारें और देशी पूँजीपति मुनाफ़ा निचोड़ने की इस श्रृंखला का ही हिस्सा हैं और इसलिए पुरज़ोर कोशिश करते हैं जिससे कम से कम वेतन बना रहे और उनका शासन चलता रहे। पुलिस, सरकार, ट्रेड यूनियनों के कुछ हिस्सों और पूँजीपतियों का एक होकर मज़दूरों को यथास्थिति में बनाये रखने की कोशिश करना साफ़ दर्शाता है कि ये सभी मज़दूर विरोधी ताक़तें हैं।

बांगलादेश के गारमेण्ट मज़दूरों का जुझारू संघर्ष

बांगलादेशी मज़दूरों का भयंकर शोषण और उत्पीड़न जारी है। अपने वेतन के लिए तीन माह से संघर्ष कर रहे मज़दूरों को न भूख की परवाह है न ही पुलिस दमन की। पर्याप्त भोजन नहीं मिलने के कारण बहुत से मज़दूर कमजोर हो गए हैं, कई ने बिस्तर पकड़ लिया है और तमाम अस्पताल में भर्ती हैं लेकिन आन्दोलन का जोश बरकरार है। पिछले दो सप्ताह के दौरान हड़ताल के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस, सरकार और मालिकों के गुण्डों ने कई बार हमले किए और कुछ ही दिन पहले कब्जा की गयी फैक्ट्रियों में जबरन घुसकर यूनियन पदाधिकारियों को बेरहमी से पिटाई के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया। तुबा समूह के हड़ताली मज़दूरों का भयंकर उत्पीड़न और फैक्ट्री मालिकों और सरकार की बेरुखी के कारण स्थिति भयानक होती जा रही है। मज़दूर पिछले दो सप्ताह से भूख हड़ताल पर हैं। तुबा समूह का मालिक वही शख्स है जो ताजरीन फैक्ट्री का मालिक रह चुका है। ताजरीन फैक्ट्री में अग्निकांड के एक साल बाद फैक्ट्री मालिक की गिरफ्तारी हुई थी और अब उसने हड़ताल का फायदा उठाकर जमानत भी प्राप्त कर ली है।

मैट्रिक्स क्लोथिंग, गुड़गाँव में मजदूरों के हालात!

कहने को इस कम्पनी मे जगह-जगह बोर्ड लगे हुए हैं। जो कि मज़दूरों को उनके श्रम कानूनों, उनके यूनियन बनाने के अधिकार से परचित कराते रहते हैं। मगर सारे श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ती रहती हैं। और रही बात यूनियन बनाने की तो ब्रम्हा जी भी वहाँ यूनियन नहीं बना सकते। श्रम कानूनों मे से एक श्रम कानून का बोर्ड हमको यह बताता है। कि आपसे (किसी भी वर्कर से) एक हफ्ते मे 60 घण्टे से ज्यादा कोई काम नहीं ले सकता और ओवरटाइम का दोगुने रेट से भुगतान होगा। इसके उलट व्यवहार मे कम्पनी का नियम यह है कि ओवरटाइम लगाने से कोई मना नहीं कर सकता अगर सण्डे को कम्पनी खुली है तो भी आना पड़ेगा। कम्पनी की इसी मनमानी के चलते अधिकतर मज़दूर काम छोड़ते रहते हैं। और जो नही छोड़ते वो बीमार होकर मजबूरी मे गाँव की राह देखते हैं (सितम्बर 2013 मे 3 मज़दूरों ने छाती दर्द) की वजह से गाँव जाने की छुट्टी ली। अक्टूबर मे 5 नए मज़दूरों ने काम छोड़ दिया। उनकी तबीयत नहीं साथ दे रही थी। जिसमे एक को तो टायफाइड हो गया और एक यह बता रहा था। कि फैक्ट्री के अन्दर जाते हैं तो चक्कर सा आने लगता है व उल्टी सी होने लगती है। खैर ये आँकड़े तो आँखों देखे व कानों सुने हैं, असल हकीकत तो इससे भी भयंकर है ।

‘ब्राण्डेड’ कपड़ों के उत्पादन में लगे गुड़गाँव के लाखों मज़दूरों की स्थिति की एक झलक

मजदूरों से दवाब में काम करवाने और उन्हें काम न छोड़ने देने के लिये किसी भी कपड़ा कम्पनी में मजदूरों का वेतन समय पर नहीं दिया जाता। ज्यादातर मजदूर छह महीने या एक साल में ठेकेदारों के दबाव और सुपरवाइजरों द्वारा की जाने वाली गाली-गलौज और मारपीट से परेशार होकर कम्पनियाँ बदल देते हैं। मजदूरों को ओवरटाइम ठेकेदारों की मर्जी से करना पड़ता है और ओवर टाइम की जानकारी उसी दिन छुट्टी होने से सिर्फ़ थोड़ा पहले दी जाती है। ओवरटाइम से मना करने पर ठेकेदारों द्वारा गाली-गलौज व मारपीट करना और काम से निकाल देना आम बात है। कभी-कभी ज्यादा काम होने पर कम्पनियाँ अन्दर से ताला लगाकर मजदूरों से तीन से चार शिफ़्टों में लगातार काम करवाती हैं। जिन कम्पनियों में असेम्बली लाईन में कपड़ों की सिलाई और कटाई का काम होता है उनमें सुपरवाइजर लगतार मजदूरों पर नजर रखते हैं, और यदि कोई मजदूर लाइन में काम करने में देर करता है तो उसे काम से निकाल देने की धमकी देकर तेज काम करवाया जाता है। कुछ कम्पनियों में एक लाइन में कटाई, सिलाई, जैसे कामों के लिये 40-50 मजदूर होते हैं जिसके लिये ज्यादा कुशल मजदूरों की आवश्यकता नहीं पड़ती और ज्यादातर ठेके पर रखे जाने वाले मजदूरों से ही लाइन में सिलाई कटाई जैसे काम करवाये जाते हैं। एक मजदूर ने बताया कि औसत रूप में हर मजदूर एक घंटे में 35 कपड़ों पर काम करता है, यानि दो मिनट से भी कम समय में मजदूर एक कपड़े को प्रोसेस करते हैं और लगातार 12 से 16 घण्टे मशीन की तरह लगे रहते हैं।

त्रिपुर (तमिलनाडु) के मजदूर आत्महत्या पर मजबूर

तमिलनाडु के त्रिपुर जिले में जुलाई 2009 से लेकर सितम्बर 2010 के भीतर 879 मजदूरों द्वारा आत्महत्या की घटनाएँ सामने आयी हैं। 2010 में सितम्बर तक388 मजदूरों ने आत्महत्या की जिनमें 149 स्त्री मजदूर थीं। सिर्फ जुलाई-अगस्त 2010 में 25 स्त्रियों सहित 75 मजदूरों ने अपनी जान दे दी। दिल दहला देने वाले ये आँकड़े भी अधूरे हैं। ये आँकड़े आत्महत्या करने वाले मजदूरों की महज वह संख्या बताते हैं जो काग़जों पर दर्ज हुई है। इससे भी अधिक दिल दहला देने वाली बात यह है कि इस जिले में हर रोज आत्महत्याओं की औसतन बीस कोशिशें होती हैं। राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि इस जिले में तमिलनाडु के दूसरे जिलों के मुकाबले पिछले तीन वर्षों में कहीं अधिक आत्महत्याओं की घटनाएँ हो रही हैं।