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मेहनतकशों को आपस में कौन लड़ा रहा है, इसे समझो!

बिहार और यूपी के मजबूर मज़दूरों को हाल में मार-पीटकर गुजरात से भगाने वाले गुजराती मालिक नहीं, मज़दूर ही थे। उनकी झोंपड़ियों में आग अडानी ने नहीं लगायी, बल्कि ख़ुद शोषित, बेहाल गुजराती मज़दूरों ने ही ये काम अंजाम दिया। महाराष्ट्र में तो ये वहशीपन पिछले 25-30 साल से होता आ रहा है। पंजाब में भी इसी तरह के हालात बनने की सुगबुगाहट है। कभी भी कोई घटना, जैसे गुजरात में मासूम बच्ची से बलात्कार, आग भड़का सकती है। दरअसल सर्वहारा वर्ग में ये भ्रातृघाती बैर पहले ग़ुलाम राष्ट्र और मालिक राष्ट्र वाला समीकरण पैदा करता था, यूरोप के लुटेरे मुल्क़ोें के मज़दूर ख़ुद को शासक मालिक की ही तरह, भारत जैसे गुलाम मुल्क़ों के मज़दूर का मालिक समझते थे, वैसा ही अन्तर, वैसा ही वैमनस्य आज पूँजीवाद का अन्तर्निहित असमान विकास का नियम कर रहा है। शासक वर्गों के अलग-अलग धड़े और पार्टियाँ अपने निहित स्वार्थों में इस आग को और भड़कायेंगे। इसलिए ज़रूरी है क‍ि मज़दूरों के बीच इस सच्चाई का प्रचार क‍िया जाये कि सभी मज़दूरों के हित एक हैं और उनका साझा दुश्मन वे लुटेरे हैं जो देशभर के तमाम मेहनतकशों का ख़ून चूस रहे हैं।

गुजरात से उत्तर भारतीय प्रवासी मज़दूरों का पलायन : मज़दूर वर्ग पर बरपा ‘गुजरात मॉडल’ का कहर

28 सितम्बर की घटना से पहले ही गुजरात में प्रवासियों के खि़लाफ़ नफ़रत का माहौल था, क्योंकि संघ परिवार के तमाम आनुषंगिक संगठन और ठाकोर सेना जैसे तमाम प्रतिक्रियावादी संगठन लोगों की समस्याओं के लिए प्रवासियों को जि़म्मेदार ठहराने का ज़हरीला काम कर रहे थे, ताकि उनका गुस्सा व्यवस्था के खि़लाफ़ न हो जाये। ग़ौरतलब है कि 28 सितम्बर की घटना के तीन दिन पहले ही गुजरात के मुख्यमन्त्री विजय रूपानी ने गुजरात के उद्योगों में 80 प्रतिशत नौकरियाँ गुजरातियों के लिए आरक्षित करने की नीति को सख्ती से लागू करने का आश्वासन दिया था।

मोदी के विकास के “गुजरात मॉडल” की असलियत

गुजरात देश में धनी-ग़रीब के बीच सबसे अधिक अन्तर वाले क्षेत्रों में से एक है। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में अग्रणी इस राज्य में बाल कुपोषण 48 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत से ऊपर है और इथियोपिया और सोमालिया जैसे दुनिया के अति पिछड़े देशों से भी (वहाँ 33 प्रतिशत है) अधिक है। ‘ग्लोबल हंगर इण्डेक्स’ के अनुसार, गुजरात भारत के पाँच सबसे पिछड़े राज्यों में आता है। इसकी स्थिति बेहद ग़रीब देश हाइती से भी बदतर है। बाल मृत्यु दर भी गुजरात में 48 प्रतिशत है। भारत में इस मामले में सबसे बदतर राज्यों में इसका दसवाँ स्थान है। गुजरात के एक तिहाई वयस्कों का ‘बॉडी मास इण्डेक्स’ 18.5 है। इस मामले में यह भारत का सातवाँ सबसे बदतर राज्य है। प्रसव के समय स्त्रियों की मृत्यु की दर भी गुजरात में सबसे ऊपर है।

मोदी के गुजरात “विकास” का सच

यह सोचना कठिन नहीं है कि गुजरात में “विकास” हुआ है तो किसकी हड्डियों को चूसकर। और मोदी चाहे जितना चिल्ल-पों मचा ले जनता से यह सच्चाई छुपी नहीं है कि चाहे मोदी हो, यूपी सरकार या केन्द्र सरकार, मेहनतकशों के ख़ून से ही कुछ हिस्से को “विकास” का तोहफ़ा मिल रहा है।

नमक की दलदलों में

नमक की दलदलो में 50 डिग्री तापमान में झुलसाती हुयी धूप में मज़दूर घंटो काम करते हैं। काम के आदिम रूप की कल्पना इस से ही की जा सकती है कि एक परिवार को दुसरे परिवार को सन्देश देने के लिए शीशे (रोशनी से) का इस्तेमाल करना पड़ता है। नमक की दलदल नुमा खेत मज़दूरों के तलवों, एडियो, और हथेलियों को छिल देते हैं जिससे नमक मांस में और खून में मिल जाता है। जो नमक मज़दूर अपनी मेहनत से पैदा करते हैं वही उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। अगरिया मज़दूरों में कहावत है कि उनकी मौत तीन तरह यानी गार्गरिन, टीबी या अंधेपन (नमक के कारण) से होती है। कईं मज़दूर कैंसर या ब्लड प्रेशर की बीमारी से मर जाते हैं। कईं अगरिया मज़दूर जवानी में मर जाते हैं- कच्छ के खरघोडा गाँव की 12000 की आबादी में 500 विधवाएं हैं! नमक के खेतों से मज़दूरों को पीने का पानी लेने के लिए 15-20 किलोमीटर साईकिल चला कर जाना पड़ता है। मौत के बाद भी यह नमक मज़दूरों का पीछा नहीं छोडता है क्योंकि हाथ और पैरों में घूस जाने के कारण मज़दूरों के अंतिम संस्कार के दौरान उनके हाथ और पैर नहीं जलते हैं। इन्हें नमक की ज़मीन में ही दफ़न किया जाता है।

मौत के मुहाने पर : अलंग के जहाज़ तोड़ने वाले मज़दूर

अलंग-सोसिया शिप-ब्रेकिंग यार्ड में रोज़ाना जानलेवा हादसे होते हैं। विशालकाय समुद्री जहाज़ों को तोड़ने का काम मज़दूरों को बेहद असुरक्षित परिस्थितियों में करना पड़ता है। अपर्याप्त तकनीकी सुविधाओं, बिना हेल्मेट, मास्क, दस्तानों आदि के मज़दूर जहाज़ों के अन्दर दमघोटू माहौल में स्टील की मोटी प्लेटों को गैस कटर से काटते हैं, जहाज़ों के तहख़ानों में उतरकर हर पुर्ज़ा, हर हिस्सा अलग करने का काम करते हैं। अकसर जहाज़ों की विस्फोटक गैसें तथा अन्य पदार्थ आग पकड़ लेते हैं और मज़दूरों की झुलसकर मौत हो जाती है। क्रेनों से अकसर स्टील की भारी प्लेटें गिरने से मज़दूर दबकर मर जाते हैं। कितने मज़दूर मरते और अपाहिज होते हैं इसके बारे में सही-सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर मामलों को तो पूरी तरह छिपा ही लिया जाता है। लाशें ग़ायब कर दी जाती हैं। कुछ के परिवारों को थोड़ा-बहुत मुआवज़ा देकर चुप करा दिया जाता है। ज़ख्मियों को दवा-पट्टी करवाकर या कुछ पैसे देकर गाँव वापस भेज दिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक अलंग यार्ड में रोज़ाना कम से कम 20 बड़े हादसे होते हैं और कम से कम एक मज़दूर की मौत होती है। एक विस्फोट में 50 मज़दूरों की मौत होने के बाद सरकार ने अलंग में मज़दूरों का हेल्मेट पहनना अनिवार्य बना दिया। लेकिन हेल्मेट तो क्या यहाँ मज़दूरों को मामूली दस्ताने भी नहीं मिलते। चारों तरफ आग, ज़हरीली गैसों और धातु के उड़ते कणों के बीच मज़दूर मुँह पर एक गन्दा कपड़ा लपेटकर काम करते रहते हैं। ज्यादातर प्रवासी मज़दूर होने के कारण वे प्राय: बेबस होकर सबकुछ सहते रहते हैं। इन मज़दूरों की पक्की भर्ती नहीं की जाती है। उन्हें न तो कोई पहचान पत्र जारी होते हैं न ही उनका कोई रिकार्ड रखा जाता है।

गुजरात में मोदी की जीत से निकले सबक

वर्ष 2002 के जनसंहार के बाद मोदी के ‘जीवन्त गुजरात’ में मुसलमानों की क्या जगह है ? वे पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिये गये हैं । उनके मानवीय स्वाभिमान को पूरी तरह कुचलकर उनकी दशा बिल्कुल वैसी बना दी गयी है जैसी भेड़ियों के आगे सहमें हुए मेमनों की होती है । अहमदाबाद, सूरत और बड़ौदा जैसे शहरों में ज्यादातर गरीब मेहनतक़श मुसलमान आबादी ऐसी घनी बस्तियों में सिमटा दी गयी है जहाँ बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ तक ढंग से मयस्सर नहीं है ।