मोदी राज में ‘अडानी भ्रष्टाचार – भ्रष्टाचार न भवति’ !
भाजपा नेताओं के लिए तो अडानी जी ही देश हैं, इसलिए अडानी पर हमला “देश” पर हमला है, विदेशी ताक़तों की साज़िश है। इन सब (कु)तर्कों के बावजूद अडानी जी ने विदेशों में देश का डंका तो बजवा ही दिया है।
भाजपा नेताओं के लिए तो अडानी जी ही देश हैं, इसलिए अडानी पर हमला “देश” पर हमला है, विदेशी ताक़तों की साज़िश है। इन सब (कु)तर्कों के बावजूद अडानी जी ने विदेशों में देश का डंका तो बजवा ही दिया है।
मुनाफ़े की अन्धी हवस में अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भारतीय सब्सिडियरी यूसीआईएल चन्द पैसे बचाने के लिए सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर मज़दूरों से काम करवा रही थी। मालूम हो कि नगरनिगम योजना के मानकों के अन्तर्गत भी इस फैक्ट्री को लगाना गलत था लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने यू.सी.सी. का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1979 तक फैक्ट्री ने काम भी शुरू कर दिया गया, लेकिन काम शुरू होते ही कई दुर्घटनाएँ हुईं। दिसम्बर 1981, में ही गैस लीक होने के कारण एक मज़दूर की मौत हो गई और दो बुरी तरह घायल हो गये। लगातार हो रही दुर्घटनाओं के मद्देनज़र मई, 1982 में तीन अमेरिकी इंजीनियरों की एक टीम फैक्ट्री का निरीक्षण करने के लिए बुलाई गई। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि मशीनों का काफी हिस्सा ख़राब है, एवं गैस भण्डारण की सुविधा अत्यन्त दयनीय है जिससे कभी भी गैस लीक हो सकती है और भारी दुर्घटना सम्भव है। इस रिपोर्ट के आधार पर 1982 में भोपाल के कई अखबारों ने लिखा था कि ‘वह दिन दूर नहीं, जब भोपाल में कोई त्रासदी घटित हो जाए।’ फिर भी न तो कम्पनी ने कोई कार्रवाई की और न ही सरकार ने।
आज के दौर के अलग-अलग कारख़ानों में अलग से हड़ताल करके जीतना पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल है। अगर आज मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाना है तो समूचे सेक्टर, या ट्रेड यानी, समूचे पेशे, के आधार पर सभी मज़दूरों को अपनी यूनियन व संगठन बनाने होंगे। इसके ज़रिये ही कारख़ानों में यूनियनों को भी मज़बूत किया जा सकता है और कारख़ाना-आधारित संघर्ष भी जीते जा सकते हैं। इसी आधार पर ठेका, कैजुअल, परमानेन्ट मज़दूरों को साथ आना होगा और अपने सेक्टर और इलाक़े का चक्का जाम करना होगा। तभी मालिकों और सरकार को झुकाया जा सकता है। एक फैक्ट्री के आन्दोलन तक ही सीमित होने के कारण उपरोक्त तीनों आन्दोलन आगे नहीं बढ़ सके। ऐसी पेशागत यूनियनों के अलावा, इलाकाई आधार पर मज़दूरों को संगठित करते हुए उनकी इलाकाई यूनियनों को भी निर्माण करना होगा। इसके ज़रिये पेशागत आधार पर संगठित यूनियनों को भी अपना संघर्ष आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी।
मोदी सरकार द्वारा लाये गये नये लेबर कोड के तमाम मक़सदों में से एक मक़सद यह है कि मज़दूर 12-12 घण्टे बिना किसी कानूनी रोक-टोक के काम करने को मजबूर किये जा सकें। आर्थिक संकट के दौर में मोदी सरकार को अरबों रुपये ख़र्च कर तमाम पूँजीपतियों ने इसीलिए तो सत्ता में पहुँचाया था। अपने पहले कार्यकाल से ही मोदी और उसके पीछे खड़े सारे पूँजीपति तरह-तरह के बयानों से इस बात का माहौल बनाते रहे हैं मज़दूर सप्ताह में सारे दिन 12-12 घण्टे काम करने को “राष्ट्र की प्रगति” के नाम पर स्वीकार कर लें! ख़ुद प्रधानमन्त्री मोदी दिन में 18-18 घण्टे काम करने के बयान देते रहे हैं। इससे पहले इन्फ़ोसिस के नारायण मूर्ति ने हफ्ते में 70 घण्टे काम करवाने की इच्छा जतायी थी और अब लार्सन एण्ड टूब्रो के चेयरमैन ने हमसे हफ्ते में 90 घण्टे काम करवाने की चाहत अभिव्यक्त की है। और मोदी ने इन्हीं इच्छाओं को पूरा करने के लिए “देश के विकास” के नाम पर हमसे सप्ताह में 90-90 घण्टे काम करवाने का इन्तज़ाम लेबर कोड के ज़रिये कर दिया है!
यह सच है कि बीता साल भी पूरी दुनिया में मेहनतकश अवाम के लिए प्रतिक्रिया और पराजय के अन्धकार में बीता है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि कुछ भी स्थायी नहीं होता। यह समय पस्तहिम्मती का नहीं, बल्कि अपनी हार से सबक लेकर उठ खड़े होने का है। रात चाहे कितनी ही लम्बी क्यों न हो, सुबह को आने से नहीं रोक सकती। इस नये साल हमें सूझबूझ, जोशो-ख़रोश और ताक़त के साथ गोलबन्द और संगठित होने को अपना नववर्ष का संकल्प बनाना होगा। फ़ासीवाद के ख़िलाफ़, साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के ख़िलाफ़, हर रूप में शोषण, दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ समूची मेहनतकश जनता को संगठित करने के काम को नये सिरे से, रचनात्मक तरीक़े से अपने हाथों में लेना होगा।
भाजपा और संघ परिवार के पास एक ऐसा ताक़त है, जो किसी भी अन्य पूँजीवादी पार्टी के पास नहीं है: एक विशाल, संगठित, अनुशासित काडर ढाँचा। इसके बूते पर हर चुनाव में ही उसे एक एडवाण्टेज मिलता है। निश्चित तौर पर, इसके बावजूद आर्थिक व सामाजिक असन्तोष के ज़्यादा होने पर भाजपा हार भी सकती है। लेकिन जब ऐसा होने वाला होता है, तो संघ अपने आपको चुनाव की प्रक्रिया से कुछ दूर दिखाने लगता है, ताकि हार का बट्टा उसके सिर पर लगे। ऐसी सूरत में, वह अपने आपको अचानक शुद्ध रूप से सांस्कृतिक संगठन दिखलाने लगता है और भाजपा और उसकी सरकारों के बारे में कुछ आलोचनात्मक टिप्पणी भी कर देता है। इसी को कई लोग भाजपा और संघ के बीच झगड़े के रूप में देखकर तालियाँ बजाने लगते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि यह संघ परिवार की पद्धति का एक हिस्सा है। वह पहले भी ऐसे ही काम करता रहा है। इसी के ज़रिये वह संघ की छवि को सँवारे रखने का काम करता है। भाजपा भी इसे समझती है और जानती है कि संघ की छवि का बरक़रार रहना आवश्यक है।
उनका सिद्धान्त उपनिवेशवाद के रक्तरंजित इतिहास को साफ़ करने की कोशिश करता है। वे एक भी जगह उपनिवेशवाद द्वारा ग़ुलाम देशों के लोगों पर की गयी लूट, हत्या और अत्याचारों को ध्यान में नहीं रखते हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि पुरस्कार प्राप्त करने के बाद जीतने वाले एक अर्थशास्त्री ऐसमोग्लू ने कहा कि उपनिवेशवाद के कुकर्मों पर विचार करने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। उपनिवेशीकरण की रणनीतियों के जो निहितार्थ थे बस उन्हीं में उनकी दिलचस्पी थी। हालाँकि अगर इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति को छोड़ भी दिया जाये तो वैज्ञानिक व ऐतिहासिक रूप में उनका सिद्धान्त अन्य जगहों पर भी बुरी तरह विफल होता है। मसलन, उपनिवेशवाद के परिणाम उपनिवेशवादी देशों और उपनिवेशों के लिए समान या सीधे समानुपाती नहीं होते हैं। सच्चाई तो यह है कि उपनिवेशवादी देश ग़ुलाम देशों की भूमि से कच्चा माल व अन्य प्राकृतिक संसाधन लूटते हैं, वहाँ की जनता का सस्ता श्रम निचोड़ते हैं और ग़ुलाम देशों की क़ीमत पर अपने देश को समृद्ध बनाते है। इसलिए, पश्चिमी उदार लोकतंत्र वाले साम्राज्यवादी देश, जिनकी ये नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रशंसा करते नहीं थकते, उपनिवेशवाद की सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद, यानी दुनिया के तमाम देशों को गुलाम बनाकर और उन्हें लूटकर आर्थिक समृद्धि के वर्तमान स्तर पर पहुँचे हैं।
एक हिन्दू जो पैसे वाला है, कारख़ाना-मालिक है, पूँजीपति है, धनी व्यापारी है और दूसरा हिन्दू जो मज़दूर, मेहनतकश है, ग़रीब है, उनके बीच बहुत भारी अन्तर है। पहले वाला हिन्दू दूसरे वाले को न्यूनतम मज़दूरी नहीं देता, 8 घण्टेे के काम के दिन का अधिकार नहीं देता, उनके बोनस व अन्य लाभ चोरी कर-करके अपनी तिजोरी भर रहा है, जबकि दूसरा ग़रीब मेहनतकश मज़दूर हिन्दू उसके शोषण के जुए के नीचे पिस रहा है, जबकि अमीर मालिक-सेठ-व्यापारी हिन्दुओं की समस्त समृद्धि की बुनियाद में तो इस ग़रीब मेहनतकश हिन्दू की मेहनत और ख़ून-पसीना है! इन दोनों हिन्दुओं में एकता एक ही तरह से स्थापित हो सकती है: सारे हिन्दुओं को मेहनत-मशक़्क़त और शारीरिक श्रम करना चाहिए जिससे कि समाज की समूची सम्पदा पैदा होती है। अगर कुछ हिन्दू मालिक बने रहें और कुछ उनके मज़दूर, तो “हिन्दू एकता” कैसे स्थापित होगी?
सम्भल के पूरे मसले ने एक बार फिर न सिर्फ़ न्याय व्यवस्था के फ़ासीवादी चरित्र को पुष्ट किया है बल्कि यह भी दिखा दिया है कि पूरी राज्य मशीनरी का किस हद तक फ़ासीवादीकरण हो चुका है। भारत में फ़ासीवादियों ने पिछले कई दशकों के दौरान राज्य की तमाम संस्थाओं में व्यवस्थित तौर पर घुसपैठ की है जिसके परिणाम आज हमारे सामने हैं।
जहाँ तक इन नतीजों के बाद कुछ लोगों को धक्का लगने का सवाल है तो अब इस तरह के धक्के और झटके चुनावी नतीजे आने के बाद तमाम छद्म आशावादियों को अक्सर ही लगा करते हैं! 2014 के बाद से हुए कई चुनावों के बाद हम यह परिघटना देखते आये हैं। ऐसे सभी लोग भाजपा की चुनावी हार को ही फ़ासीवाद की फ़ैसलाकुन हार समझने की ग़लती बार-बार दुहराते हैं और जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है तो यही लोग गहरी निराशा और अवसाद से घिर जाते है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा की चुनावी हार से देश की मेहनतकाश अवाम और क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ हासिल नहीं होगा। ज़ाहिरा तौर पर उन्हें कुछ समय के लिए थोड़ी-बहुत राहत और मोहलत मिलेगी और इससे हरेक इन्साफ़पसन्द व्यक्ति को तात्कालिक ख़ुशी भी मिलेगी। लेकिन जो लोग चुनावों में भाजपा की हार को ही फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष का क्षितिज मान लेते हैं वे दरअसल फ़ासीवादी उभार की प्रकृति व चरित्र और उसके काम करने के तौर-तरीक़ों को नहीं समझते हैं।