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भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद – इतिहास के कुछ ज़रूरी और दिलचस्प तथ्य

हमें क्रान्ति की कतारों में नई भर्ती करनी होगी, उनकी क्रान्तिकारी शिक्षा-दीक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के काम को लगन और मेहनत से पूरा करना होगा, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को संशोधनवादियों और अतिवामपन्थी कठमुल्लों का पुछल्ला बने रहने से मुक्त होने का आह्वान करना होगा और इसके लिए उनके सामने क्रान्तिकारी जनदिशा की व्यावहारिक मिसाल पेश करनी होगी। लेकिन इस काम को सार्थक ढंग से तभी अंजाम दिया जा सकता है जबकि कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास से सबक लेकर हम अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरी को दूर कर सकें और बोल्शेविक साँचे-खाँचे में तपी-ढली पार्टी का ढाँचा खड़ा कर सकें। संशोधनवादी भितरघातियों के विरुद्ध निरन्तर समझौताहीन संघर्ष के बिना तथा मज़दूर वर्ग के बीच इनकी पहचान एकदम साफ किये बिना हम इस लक्ष्य में कदापि सफल नहीं हो सकते। बेशक हमें अतिवामपन्थी भटकाव के विरुद्ध भी सतत संघर्ष करना होगा, लेकिन आज भी हमारी मुख्य लड़ाई संशोधनवाद से ही है।

संशोधनवाद और मार्क्‍सवाद : बुनियादी फर्क

आमतौर पर संशोधनवादियों का तर्क यह होता है कि बुर्जुआ जनवाद और सार्विक मताधिकार ने वर्ग-संघर्ष और बलात् सत्‍ता-परिवर्तन के मार्क्‍सवादी सिध्दान्त को पुराना और अप्रासंगिक बना दिया है, पूँजीवादी विकास की नयी प्रवृत्तियों ने पूँजीवादी समाज के अन्तरविरोधों की तीव्रता कम कर दी है और अब पूँजीवादी जनवाद के मंचों-माध्‍यमों का इस्तेमाल करते हुए, यानी संसदीय चुनावों में बहुमत हासिल करके भी समाजवाद लाया जा सकता है। ऐसे दक्षिणपन्थी अवसरवादी मार्क्‍स और एंगेल्स के जीवनकाल में भी मौजूद थे, लेकिन इस प्रवृत्ति को आगे चलकर अधिक व्यवस्थित ढंग से बर्नस्टीन ने और फिर काउत्स्की ने प्रस्तुत किया। लेनिन के समय में इन्हें संशोधनवादी कहा गया। लेनिन ने रूस के और समूचे यूरोप के संशोधनवादियों के ख़िलाफ अनथक समझौताविहीन संघर्ष चलाया और सर्वहारा क्रान्ति के प्रति उनकी ग़द्दारी को बेनकाब किया।

निठारी के बच्चों की नरबलि हमारे विवेक और संवेदना के दरवाजों पर दस्तक देती रहेगी!

मुनाफ़े की हवस को शान्त करने के लिए इंसान के श्रम को निचोड़ने के बाद बचे–खुचे समय में आज पूँजीपति वर्ग और उसकी लग्गू–भग्गू जमातें अपनी विलासिता और भोग की पाशविक लालसा को शान्त करने के लिये मनुष्यता को, समस्त मानवीय मूल्यों को निचोड़ डाल रही हैं ।इस नव–धनिक जमात को किसी चीज़ का डर नहीं है । न पुलिस–प्रशासन का, न कानून– अदालत का । इन्हें कोई सामाजिक भय भी नहीं है । क्योंकि उससे बचने के लिये उन्होंने कानूनी–गैर कानूनी संगठित हथियारबन्द दल बना रखे हैं और मुद्रारूपी सर्वशक्तिमान सत्ता के ये स्वामी हैं । इसी शक्ति के मद में चूर थे मानव भेस धरे वहशी भेड़िये बेखौफ हो इंसानियत को रौंदते–कुचलते हुए राजमार्गों पर फर्राटा भरते हैं, शिकारों की तलाश में गली–कूचों में मँडराते हैं । मोहिन्दर जैसे लोग इसी जमात से आते हैं जो इंसानी खून और हड्डियों के बीच लोट लगाते हैं और पाशविक यौनाचार के लिये अपनी बीवियों–बच्चों को भी नहीं बख्शते । ये आधुनिक पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति की चरम पतनशीलता के वाहक प्रतीक चेहरे हैं ।