निठारी के बच्चों की नरबलि हमारे विवेक और संवेदना के दरवाजों पर दस्तक देती रहेगी!
ग़रीबों–मज़लूमों के सामने अब केवल एक ही रास्ता है-इस मानवभक्षी व्यवस्था के खिलाफ़ विद्रोह का रास्ता! अब यह हमारे ज़िन्‍दा रहने की शर्त बन गया है!

सम्पादक मण्‍डल

moninder_pandher_surendra_20090212निठारी में आम मेहनतकशों के दर्जनों बच्चों की जघन्य हत्याओं और उनके साथ पाशविक यौनाचार को केवल मोहिन्दर और सुरेन्द्र नाम के दो मनोरोगियों की करतूतों के रूप में देखना उस पूँजीवादी व्यवस्था को बेदाग़बरी करना है जिसकी कोख ऐसे नरपिशाचों को पैदा करने के लिए हमेशा जरखेज बनी रहती है । देश के मौजूदा संविधान और कानून–व्यवस्था के तहत दी जाने वाली कठोरतम सजाएँ भी हमारे समाज में इस पैशाचिक बिरादरी की तेजी से फलती–फूलती जमात पर रोक नहीं लगा सकती । “नवउदारवादी” विकास के भूमण्डलीय उन्माद और अथाह मानवीय पीड़ा–व्यथा के बीच देश का मुट्ठीभर अमीर–उमरा तबका जिस चरम विलासिता और चरम भोग का जीवन जी रहा है उसमें कितने मोहिन्दर–सुरेन्द्र मौजूद हैं इसका पता लगाना किसी जाँच एजेंसी के बूते की बात नहीं ।

इस पर शुबहा करने के पर्याप्त कारण हैं कि सी.बी.आई.जो जाँच कर रही है उससे निठारी काण्ड से जुड़े समूचे नेटवर्क का खुलासा हो पायेगा । सी.बी.आई.जाँच भी अभी तक मुख्यत: मोहिन्दर और सुरेन्द्र को मनोरोगी साबित करने पर ही केन्द्रित रही है जबकि खूनी कोठी और पास के नाले से नरकंकालों की बरामदगी शुरू होते ही इस बारे में संकेत मिले थे कि इसके तार पाशविक यौनाचार के लिए बच्चों एवं मानव अंगों की तस्करी करने वाले किसी बहुत बड़े नेटवर्क के साथ जुड़े हुए हैं । इस बात की सम्भावना भी कम ही नज़र आ रही है कि उस पूँजीपति और एक ‘हाईप्रोफाइल’ नेता के चेहरों से पर्दा उठ सकेगा जिनके फोन करने पर छह माह पहले एक बार गिरफ्तार हुए मोहिन्दर को पुलिस ने छोड़ दिया था । अगर सी.बी.आई.कुछ सबूत जुटा ले तो भी क्या हम देश की अदालतों का रंग–ढंग नहीं जानते जहाँ से ‘पर्याप्त सबूतों के अभाव में’ आये दिन सफेदपोश अपराधी बेदाग बरी होते रहते हैं । मोहिन्दर की खूनी कोठी के बग़ल में ही रहने वाले उस डाक्टर का किस्सा भी बहुत पुराना नहीं है जो ग़रीबों के गुर्दे निकालकर बेचने के आरोप में गिरफ्तार होने के बाद ‘पर्याप्त सबूतों के अभाव में’ बाइज्ज़त बरी हो गया था ।

नाले में से कंकाल निकालती पुलिस

नाले में से कंकाल निकालती पुलिस

लेकिन निठारी मामले में असल सवाल यह है ही नहीं कि किसको सज़ा मिलती है किसको नहीं । असली सवाल तो उस व्यवस्था के चेहरे की शिनाख़्त करने का है जिसकी कोख से शैतानी औलादें जन्म लेती हैं । जिस व्यवस्था में मुनाफ़े के लिए मेहनतकशों का खून सिक्कों में ढाला जाता है उसमें मोहिन्दर–सुरेन्द्र जैसे नरपिशाच पैदा हो जायें तो आश्‍चर्य कैसा ? जिस पूँजीवादी सभ्यता का समूचा इतिहास ही मानवताविरोधी अपराधों के खूनी पन्नों से भरा पड़ा है उसमें निठारी जैसी बर्बर घटनाएँ हमें झकझोरकर यह बताती हैं कि इसके मौजूद रहते इस इतिहास में नये–नये खूनी पन्ने जुड़ते रहेंगे ।

आज अमेरिका–जापान सहित यूरोप के विकसित कहे जाने वाले पूँजीवादी देशों की सम‘द्धि और वैभव की मीनारें अपने देश के साथ–साथ समूची दुनिया के मेहनतकशों के खून और हड्डियों की बुनियाद पर खड़ी है । यूरोप में जब यह पूँजीवादी सभ्यता अपनी चढ़ान पर ही थी तो उन्नीसवीं शताब्दी में लन्दन में पूँजीपतियों की एक सभा में एक मज़दूर ने चीखकर कहा था कि यदि सामन्त हमारी हड्डियाँ तोड़ेंगे तो तुम पूँजीपति पहले लोग होगे जो उनका पाउडर बनाकर बाज़ार में बेच दोगे । एक मज़दूर के इस स्वत:स्फूर्त उद्गार ने मानो समूची पूँजीवादी सभ्यता का असली चेहरा उघाड़कर रख दिया था । यह इतिहास अब आम जानकारी का हिस्सा बन चुका है कि समूची अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में एशिया–अफ्रीका–लैटिन अमेरिका के देशों की प्राकृतिक सम्पदा, श्रमशक्ति और बाज़ारों पर कब्‍ज़ा जमाने के लिये यूरोपीय औपनिवेशिक ताक़तों ने पाशविक लूटमार, कत्लेआम और बर्बरताओं के कैसे–कैसे कीर्तिमान स्थापित किये थे । बुर्जुआ सभ्यता और अपराधों के इन रिश्‍तों की चर्चा करते हुए कार्ल मार्क्स ने अपनी एक चुटीली टिप्पणी में यह सवाल उठाया था कि “—निजी अपराधों की दुनिया को छोड़ दिया जाये तो क्या यदि राष्‍ट्रीय अपराध न होते तो विश्‍व बाज़ार का कभी प्रादुर्भाव हो सकता था ? दरअसल, क्या राष्‍ट्रों का ही उदय हो सकता था ?” ऐसी है यह पूँजीवादी सभ्यता जो धीरे–धीरे पतनशीलता के उस रसातल में गहरे धँसती चली जा रही है जहाँ समाज का एक हिस्सा मनुष्‍यता की शर्तों को ही खो चुका है । मुनाफ़े के लिए मनुष्‍य की हड्डियों का पाउडर बनाकर बेचने से भी गुरेज न करने वाले पूँजीपति वर्ग का कोई सदस्य अगर नरमांस भी उबालकर खाने लगे तो भला इसमें आश्‍चर्य कैसा ?

यूँ तो पूँजीवादी समाज की अमानवीयता और क्रूरता की घटनाएँ पूरी दुनिया में आये दिन सामने आती रहती हैं । भूख–बेबसी–बेकारी, पूँजी की मार से जगह–जमीन से उजड़ती छोटे–मँझोले किसानों की आबादी, रोजी–रोटी की आस में दर–दर मारे–मारे फिरते मेहनतक़श लोग, कुपोषण– बीमारियों–महामारियों से दम तोड़ते बच्चे और बिलखते परिजन, जीने की बेबसी में अपने जिस्म का सौदा करती स्त्रियाँ, बेसहारा बुजुर्ग और युद्ध विध्वस धरती तथा कराहती मानवता-ये समूचे भूमण्डल पर पसरी पूँजीवादी अमानवीयता की आम तस्वीर हैं । राष्‍ट्रीय अपराध और बर्बरताएँ तो पूँजीवाद के जन्म और जवानी के दिनों की ही विशेषताएँ रही हैं लेकिन इस सभ्यता की चरम पतनशीलता को उजागर करने वाली प्रतिनिधि घटनाएँ उसके बुढ़ापे की शुरुआत में अर्थात पूँजीवाद के साम्राज्यवाद के दौर में प्रवेश करने के बाद उजागर होना शुरू हुई थीं ।

1930 की विश्‍व व्यापी महामन्दी के बाद पूँजीवादी सभ्यता और संस्‍कृति की चरम पतनशीलता को प्रातिनिधिक रूप से उजागर करने वाली घटनाओं से मानवता का सामना होता है । दुनिया के कच्चे मालों के प्रमुख स्रोतों और बाज़ारों पर कब्‍ज़ा जमाने की उन्मादी होड़ ने जहाँ साम्राज्यवादी देशों को दूसरे विश्‍व युद्ध में ला पटका वहीं इन्हीं समाजों के भीतर भाँति–भाँति के विक्षिप्त मनोरोगियों की जमातें फलने–फूलने लगीं । विश्‍व पूँजीवाद के आर्थिक संकटों की कोख से न केवल हिटलर–मुसोलिनी जैसे राक्षसी राजनीतिक नुमाइन्दे पैदा हुए वरन् दर्शन, कला–साहित्य–संस्‍कृति के क्षेत्र में भी कुत्सित मनुष्‍यता विरोधी विचारों–प्रवृत्तियों का घटाटोप छा गया । द्वितीय विश्‍व युद्ध के दौरान साम्राज्यवादी विनाशलीला का सबसे खौफ़नाक मंजर अमेरिका द्वारा जापान के जुड़वा शहरों हिरोशिमा–नागासाकी पर परमाणु बम गिराये जाने के बाद सामने आया । युद्ध के सात वर्षों (1938–45) के दौरान करोड़ों लोग मारे गये, करोड़ों अपंग बना दिये गये और प्राकृतिक सम्पदा व उत्पादक शक्तियों का जो विनाश हुआ उसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है । हिटलर के यातना शिविरों में लाखों पुरुषों के साथ ही स्त्रियों और बच्चों पर जो बर्बर जुल्म ढाये गये उनकी याद भी सिहरन पैदा कर देती है । दरअसल, नाजी यातना शिविरों ने पूँजीवादी सभ्यता और संस्‍कृति की पतनशीलता की प्रातिनिधिक सच्चाई को हमारे सामने खोलकर रख दिया ।

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद की समूची साम्राज्यवादी–पूँजीवादी दुनिया में सामाजिक सम्पदा के चरम भोग पर आधारित चरम विलासितापूर्ण जीवन जीने वाले परजीवी वर्ग और बुनियादी इंसानी ज़रूरतों से भी वंचित मेहनतक़श आबादी के बीच की खाई लगातार बढ़ती चली गयी है । पूँजीवादी विकास के बुनियादी आर्थिक नियमों के तकाज़े से ऐसा होना ही है । पूँजीवादी समृद्धि और विलासिता की मीनारें वंचितों के आँसुओं और खून के महासागर के बीच ही खड़ी हो सकती हैं । क्या आज भी बुश और ब्लेयर जैसे साम्राज्यवाद के बर्बर नुमाइन्दों के चेहरे हमारे सामने नहीं हैं जो तेल के स्रोतों पर कब्‍ज़ा जमाने और दुनिया पर अपनी चौधराहट कायम रखने के लिए इराक–अफ़गानिस्तान से लेकर इथियोपिया–सोमालिया तक नरसंहारों के नये–नये कीर्तिमान रच रहे हैं । अबू गरेब और गुआन्तानामो बे की जेलें कुछ मायनों में तो नाजी यातना शिविरों को भी पीछे छोड़ दे रही हैं । उस पर तुर्रा यह कि बर्बरता का यह नंग–नाच दुनिया को “सभ्यता” और “जनतंत्र” का पाठ पढ़ाने के लिये किया जा रहा है ।

पिछले शताब्दी के आखिरी दशक से भूमण्डलीकरण के नाम पर जो भूमण्डलव्यापी लूट–तंत्र खड़ा हुआ है उसमें एशिया–अफ्रीका–दक्षिण अमेरिका का पूँजीपति वर्ग भी अपनी हैसियत–औकात के मुताबिक शामिल हुआ है । दुनिया के स्तर पर मेहनतकशों की लूट में उसे भी अपना टुकड़ा मिल रहा है । इसके चलते भारत जैसे देशों में भी पूँजीपति वर्ग के साथ ही उससे जुड़ा हुआ एक चरम भ्रष्‍ट–अनैतिक परजीवी नौदौलतिया तबका विकसित हुआ है जो सामाजिक सम्पदा की लूटमार और चरम–भोग में डूबा हुआ है । इस जमात के लिये कुदरती तौर पर उपलब्ध और सामाजिक श्रम से पैदा हुई हर चीज़ केवल उसके भोग के लिये है । कार–मोटरसाइकिल–बर्गर– पिज्जा ही नहीं स्त्रियाँ और बच्चे सभी उसके सुखोपभोग के लिये हैं । मुनाफ़े की हवस को शान्त करने के लिए इंसान के श्रम को निचोड़ने के बाद बचे–खुचे समय में आज पूँजीपति वर्ग और उसकी लग्गू–भग्गू जमातें अपनी विलासिता और भोग की पाशविक लालसा को शान्त करने के लिये मनुष्‍यता को, समस्त मानवीय मूल्यों को निचोड़ डाल रही हैं ।

इस नव–धनिक जमात को किसी चीज़ का डर नहीं है । न पुलिस–प्रशासन का, न कानून– अदालत का । इन्हें कोई सामाजिक भय भी नहीं है । क्योंकि उससे बचने के लिये उन्होंने कानूनी–गैर कानूनी संगठित हथियारबन्द दल बना रखे हैं और मुद्रारूपी सर्वशक्तिमान सत्ता के ये स्वामी हैं । इसी शक्ति के मद में चूर थे मानव भेस धरे वहशी भेड़िये बेखौफ हो इंसानियत को रौंदते–कुचलते हुए राजमार्गों पर फर्राटा भरते हैं, शिकारों की तलाश में गली–कूचों में मँडराते हैं । मोहिन्दर जैसे लोग इसी जमात से आते हैं जो इंसानी खून और हड्डियों के बीच लोट लगाते हैं और पाशविक यौनाचार के लिये अपनी बीवियों–बच्चों को भी नहीं बख्शते । ये आधुनिक पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति की चरम पतनशीलता के वाहक प्रतीक चेहरे हैं ।

कहने का मतलब यह कि निठारी की घटना पूँजीवादी सभ्यता की चरम पतनशीलता को उजागर करने वाली प्रतीक घटना है । यह समाज के उस मुट्ठीभर अमीर–उमरा तबके की जीवनशैली को प्रतीक–रूप में उजागर कर रही है जो नीरोकालीन रोमन साम्राज्य के कुलीनों और पाम्पई की विलासिता को भी मात दे रही है ।

इन विलासी जमातों के लिये बच्चे–बच्चियाँ आज सबसे आसान शिकार हैं । आज भूमण्डलीकरण के जिस दौर में मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए पूँजीपति वर्ग स्त्रियों और बच्चों के श्रम के अमानवीय शोषण पर अधिक से अधिक निर्भर होता जा रहा है उसी दौर में निठारी की बर्बर घटना हमारे सामने आती है । बुर्जुआ अखबारों में भी ये खबरें कई बार आ चुकी हैं कि बच्चों के साथ पाशविक यौनाचार करना आज अन्तरराष्‍ट्रीय स्तर पर सम्भ्रान्त कहे जाने वाली मनोरोगी जमातों का नया शगल है । अन्तरराष्‍ट्रीय स्तर पर ज़िन्‍दा बच्चों और स्त्रियों के साथ ही मानव अंगों की तस्करी में कितना बड़ा नेटवर्क सक्रिय है अभी इसकी ठीक–ठीक थाह पाना भी मुश्किल है । लेकिन जितनी बड़ी तादाद में हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों में बच्चे लापता हुए हैं उसी से इसका अनुमान लगाया जा सकता है । खुद राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी किये आँकड़ों के अनुसार देश में पिछले कुछ वर्षों से करीब 45 हज़ार बच्चे हर वर्ष लापता हो रहे हैं । निठारी में नरकंकालों की बरामदगी शुरू होने के पहले ही नोएडा के सेक्टर–20 थाने में 98 बच्चों की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज की गयी थी । निठारी–काण्ड उजागर होने के बाद अब इस थाने में उन बच्चों के माता–पिता और अभिभावक आकर रिपोर्ट दर्ज करा रहे हैं जो पिछले दो साल से गायब हैं । अब तक इनकी संख्या पाँच सौ से भी ऊपर पहुँच चुकी है । पहले जब ये रिपोर्ट दर्ज कराने जाते थे तो उन्हें डरा–धमकाकर और अपमानित कर थाने से भगा दिया जाता था ।

निठारी की घटना ने समूचे शासन–प्रशासन तंत्र और समूची बुर्जुआ नेताशाही के असली चरित्र को एक बार फिर से उजागर कर दिया है । इस व्यवस्था में ग़रीबों और उनके बच्चों की ज़िन्दगी का कोई मोल नहीं है । इसी नोएडा में कुछ महीने पहले एक बहुराष्‍ट्रीय कम्पनी के अफसर के बेटे का जब अपहरण हुआ था तो स्थानीय पुलिस से लेकर समूचे प्रशासनिक अमले ने दिन–रात एक कर दिया था और आनन–फानन में बच्चा भी बरामद कर लिया था । लेकिन ग़रीबों के बच्चों के मामले में स्थानीय पुलिस–प्रशासन न केवल आँखें मूँदें रहा बल्कि खूनी कोठी के कारनामो से वाकिफ़ होने के बावजूद बच्चों को बचाने की कौन कहे पुलिस–प्रशासन के लोगों के लिए मोहिन्दर सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी बना हुआ था । उसके कुकर्मों पर पर्दा डालने की भारी कीमत वसूली जाती रही । नरकंकालों की बरामदगी शुरू होने के बाद जनभावनाओं के दबाव में ग़रीबों का मसीहा होने का दम भरने वाले मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल सिंह यादव निठारी पहुँचकर बयान देते हैं कि यह एक साधारण घटना है । समूचा सत्ता–तंत्र और नेताशाही इतनी संवेदनहीन हो चुकी है कि निठारी के बच्चों की नरबलि पर घड़ियाली आँसू बहाने के बाद अब वोटों की सौदागरी भी शुरू हो चुकी है ।

इस देश की न्यायपालिका का चरित्र भी अब लोगों के सामने इतना उजागर हो चुका है कि ग़रीब आदमी को इससे भी कोई उम्मीद नहीं रही । पर्याप्त सबूतों के अभाव में सफ़ेदपोश अपराधियों का छूट जाना आये दिन की बात हो गयी है । इसके साथ ही, जनता की आवाज उठाने और सत्ता–तंत्र में व्याप्त भ्रष्‍टाचार की पोल खोलने का दम भरने वाली मीडिया की पोल खुद ही निठारी की घटना में खुलकर सामने आ गयी । ‘खबरों से भी आगे’ रहने का दम भरने वाली इस मीडिया को भी तब भनक लगी जब नरकंकाल बरामद होने लगे । इसके बाद भी कहीं संवेदना का एक क़तरा तक नहीं । चैनलों में अब इस मानवीय त्रासदी को भी अधिक से अधिक सनसनीखेज माल बनाकर बेचने की होड़ मच गयी है । शुरू में नये साल के जश्‍न की खबरों और ‘कॉमर्शियक ब्रेक’ के बीच निठारी की सिसकियाँ दबी रहीं और बाद में अभिषेक–ऐश की सगाई के ‘चरम–उल्लास’ के बीच मानवीय संवेदना दम तोड़ती रही ।

ऐसे में देश के ग़रीबों– मेहनतकशों, तमाम शोषित– उत्पीड़ित लोगों के सामने इस पूँजीवादी सामाजिक ढाँचे की र्इंट से र्इंट बजा देने के अलावा अब दूसरा कोई भी रास्ता बाकी नहीं बचा है । बस एक ही रास्ता है और वह है विद्रोह का रास्ता । समाज का जो हिस्सा मनुष्‍यता की शर्तों को खो चुका है वह इस व्यवस्था को बचाये रखने की हरमुमकिन कोशिश करेगा ही लेकिन, इस देश का सर्वहारा वर्ग, अन्याय–अत्याचार के शिकार करोड़ों–करोड़ लोग, इस व्यवस्था को जमीदोज करने के लिए उठ खड़े होंगे, क्योंकि अब यह उनके ज़िन्‍दा रहने की शर्त बन गया है ।

हम इससे बेखबर नहीं हैं कि कुछ ताक़तें विद्रोह की इस सुलगती आग पर पानी के छींटे डालने में लगातार जुटी रहती हैं । ये ताकतें पूँजीवादी सभ्यता और उसके तथाकथित जनतंत्र के राक्षसी चेहरे पर रंगरोगन पोतकर “मानवीय” बनाने और इसी व्यवस्था में न्याय की आस जगाने की कवायदों में जुटी रहती हैं । चाहे वे पूँजीवाद–साम्राज्यवाद के टुकड़ों पर पलने वाले एन.जी.ओ.हों या विभ्रमों के शिकार मध्यवर्गीय– सुधारवादी लोग-इनकी असलियत को लगातार उजागर करते रहना आज जरूरी राजनीतिक कर्म ही नहीं एक मानवीय कर्म बन गया है । हमें पल भर भी हिचकने की जरूरत नहीं है । निठारी के बच्चों की नरबलि हमारे विवेक और संवेदना के दरवाजों पर लगातार दस्तक देती रहेगी और हमें इस व्यवस्था को धूल में मिला देने के लिए ललकारती रहेगी ।

सर्वहारा वर्ग के हरावलो! अन्याय–अत्याचार का पर्याय बन चुकी इस व्यवस्था के खिलाफ़विद्रोह की ज्वाला को भड़काओ और उसे संगठित कर क्रान्ति की ओर आगे बढ़ो । केवल तभी न्याय और समता पर आधारित नयी सभ्यता का उदय हो सकता है । केवल तभी हमारी ज़िन्दगी, हमारे बच्चे महफूज रह सकते हैं और स्त्रियाँ मानवीय गरिमा से परिपूर्ण जीवन जी सकती हैं ।

 

बिगुल, फरवरी 2007

 


 

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