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पूर्व श्रम मन्‍त्री की फ़ैक्‍ट्री में श्रम क़ानून ठेंगे पर!

दाल मिल होने के कारण कारख़ाने में चारों तरफ फैली धूल से दमघोंटू माहौल हो जाता है और भयंकर गर्मी होती है। लेकिन न तो पर्याप्त मात्रा में एग्ज़ास्ट पंखे चलाये जाते हैं और न ही मज़दूरों को मास्क आदि दिये जाते हैं। मज़दूर ख़ुद ही मुँह पर कपड़ा लपेटकर काम करते हैं। मज़दूरों को ई.एस.आई., पीएफ़ जॉब कार्ड आदि कुछ भी नहीं मिलता। कुछ बोलो तो सुपरवाइज़र सीधे धमकाते हैं कि जानते नहीं हो, लेबर मिनिस्टर की फ़ैक्‍ट्री है! वैसे तो सभी कारख़ाना मालिक श्रम विभाग को अपनी जेब में लेकर घूमते हैं लेकिन जब मामला पूर्व श्रम मन्‍त्री की फ़ैक्‍ट्री का हो तो उधर भला कौन देखने की जुर्रत करेगा?

मज़दूरों की असुरक्षा का फ़ायदा उठा रही हैं तरह-तरह की कम्पनियाँ

मालिकों का तो काम ही है लूटना, मगर लगता है जैसे हम मजदूरों ने भी इसी को अपना धर्म मान लिया है कि बाबूजी जो कहें वही सही है। इसके आगे का कोई रास्ता नहीं। आज हर मज़दूर इतना ज्यादा असुरक्षित हो चुका है कि वह अपना अस्तित्व बचाने के लिए तरह-तरह की तीन-तिकड़मों में फँसता चला जा रहा है। तनख्वाह कम होने की वजह से मज़दूरों की सोच में यह बैठ चुका है कि अगर ओवरटाइम, नाइट व डबल डयूटी नहीं लगायेंगे तो गुज़ारा नहीं होगा। और हकीकत भी यह है कि आठ घण्टे काम के लिए 3500-4000 रुपये महीने की तनख्वाह से ज़िन्दगी की गाड़ी रास्ते में ही रुक जायेगी।

मज़दूरों की लूट के लिए मालिकों के कैसे-कैसे हथकण्डे

यहीं पर मैंने देखा कि पीस रेट पर काम करने वाले कारीगरों को लूटने के लिए मालिक कैसी-कैसी तिकड़म करते थे। कारीगर सुबह जल्दी आकर लूम पर जुट जाते थे कि ज़्यादा पीस बना लेंगे तो ज़्यादा कमा लेंगे। लेकिन मालिक के चमचे फ़ोरमैन और मैनेजर आख़िर किसलिये थे? कारीगर अगर 9 या 10 चादर तैयार कर लेता था तो उसमें से 3-4 चादर मामूली फाल्ट निकाकर रिजेक्ट कर देते थे। उसका एक भी पैसा मज़दूर को नहीं मिलता था हालाँकि मालिक तो उसे बेच ही लेता था। लम्बाई में आध-पौना इंच की कमी-बेशी हो जाये तो माल रिजेक्ट। अगर बहुत हिसाब से कारीगर लम्बाई का ध्यान रखे, तो वज़न में 10-20 ग्राम कमी-बेशी निकालकर रिजेक्ट कर देते। यही हाल कढ़ाई के कारीगरों का होता था। कुछ न कुछ नुक्स निकालकर रोज़ पैसे काट लेते थे। ‘हरीसन्स एंड हरलाज’ नाम की इस कम्पनी में 3000 मज़दूर थे। जोड़ लीजिये कि अगर रोज़ 30-35 रुपये की औसत कटौती हो तो महीने में मालिक की कितनी बचत होती होगी। यहीं पर शीना एक्सपोर्ट कम्पनी में तो कुल मिलाकर 20 हज़ार से ऊपर आदमी काम करते हैं। हरीसन्स और शीना दोनों कम्पनियों का सारा माल एक्सपोर्ट के लिए जाता है। मैंने सुना है कि कोई-कोई कढ़ाईदार चादर विदेश में 3-3 लाख रुपये में बिकती है। लेकिन एक चादर पर काम करने वाले सारे कारीगरों को मिलाकर 250 रुपये भी नहीं मिलते।

क़ानून गया तेल लेने, यहाँ तो मालिक की मर्ज़ी ही क़ानून है!

ऐसे उदाहरण तो ढेरों हैं, लेकिन मेरा मक़सद उदाहरण गिनाना नहीं बल्कि यह है कि लोगों को पता चले कि चमचमाती इमारतों, महँगी लम्बी गाड़ियों, चौड़ी सड़कों, आलीशान होटलों, कोठियों वाले देश में हम जैसे मज़दूरों की क्या औक़ात है। और यह भी, कि सरकार कितने ही क़ानून बना ले लेकिन मालिकों के लिए उन क़ानूनों का कोई मतलब नहीं। क़ानून का पालन भी हम जैसे मज़दूरों और ग़रीबों को ही करना पड़ता है!

फ़ैक्ट्रियों का कुछ न बिगड़ा और मज़दूरों की बस्तियाँ भी उजाड़ दीं

इसी के उलट जब ग़रीबों-मज़दूरों की ज़िन्दगी भर की ख़ून-पसीने की कमाई से बनाये गये घरों-दुनिया को उजाड़ना होता है तब कोई दया नहीं बख्शी जाती है। एक दिसम्बर 2009 को कड़ाके की ठण्ड में सूरजपार्क (समयपुर बादली, दिल्ली) की झुग्गियों को तुड़वाने के लिए, उन निहत्थे मज़दूरों के वास्ते 1500 सौ पुलिस और सीआरपीएफ़ के जवान राइफ़ल, बुलेट प्रूफ़ जैकेट, आँसू गैस के साथ तैनात थे। चारों तरफ़ से बैरिकैड बनाकर डी.डी.ए. के आला अफ़सर, स्थानीय नेता, आस-पास के थानों की पुलिस पूरी बस्ती में परेड करते हुए मज़दूरों में दहशत पैदा कर रहे थे। सारे मज़दूर डरे-सहमे हुए, कोई किसी पुलिस वाले का पैर पकड़ रहा है, तो कोई किसी अफ़सर या नेता आगे हाथ जोड़ रहा है। कड़ाके की ठण्ड में उनका दुख देखकर किसी का भी दिल नहीं पसीजता और फिर शुरू होता है तबाही का मंज़र। पाँच इधर से पाँच उधर से बुलडोज़र धड़ाधड़-धड़ाधड़ झुग्गियाँ टूटना शुरू हो गयीं। उन डरे-सहमे मज़दूरों ने अपनी दुनिया को अपने सामने उजड़ते देखा। भगदड़ में कोई आटा घर से निकालकर ला रहा है, कोई चावल, कोई गैस— 3 घण्टे की इस तबाही ने क़रीब 5 हज़ार लोगों की दुनिया उजाड़ कर उनको सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया।

मालिक बनने के भ्रम में पिसते मज़दूर

बादली औद्योगिक क्षेत्र एफ 2/86 में अशोक नाम के व्यक्ति की कम्पनी है जिसमें बालों में लगाने वाला तेल बनता है और पैक होता है। पैकिंग का काम मालिक ठेके पर कराता है। इस कम्पनी में काम करने वाले आमोद का कहना है कि ये तो 8 घण्टे के 3000 रु. से भी कम पड़ता है। और उसके बाद दुनियाभर की सरदर्दी ऊपर से कि माल पूरा पैक करके देना है। अब उस काम को पूरा करने के लिए आमोद और उसका भाई प्रमोद और उमेश 12-14 घंटे 4-5 लोगों को साथ लेकर काम करता है। आमोद का कहना है कि कभी काम होता है कभी नहीं। जब काम होता है तब तो ठीक नहीं तो सारे मजदूरों को बैठाकर पैसा देना पड़ता है। जिससे मालिक की कोई सिरदर्दी नहीं है। जितना माल पैक हुआ उस हिसाब से हफ्ते में भुगतान कर देता है। अगर यही माल मालिक को खुद पैक कराना पड़ता तो 8-10 मजदूर रखने पड़ते। उनसे काम कराने के लिए सुपरवाइजर रखना पड़ता और हिसाब-किताब के लिए एक कम्प्यूटर ऑपरेटर रखना पड़ता। मगर मालिक ने ठेके पर काम दे दिया और अपनी सारी ज़ि‍म्मेदारियों से छुट्टी पा ली। अगर ठेकेदार काम पूरा करके नहीं देगा तो मालिक पैसा रोक लेगा। मगर आज हम लोग भी तो इस बात को नहीं सोचते हैं। और ठेके पर काम लेकर मालिक बनने की सोचते हैं। काम तो ज्यादा बढ़ जाता है मगर हमारी जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं होता। इसलिए आज की यह जरूरत है कि हम सब मिलकर मालिकों के इस लूट तन्त्र को खत्म कर दें।

घुट-घुटकर बस जीते रहना इन्सान का जीवन नहीं है

गाँव से आते समय अपना एक बीघा खेत बेचकर दिल्ली आया था। सोचा था कि दिल्ली आकर बच्चे काम करके अपना गुजारा तो कर ही सकते हैं जबकि गाँव में खेत पर काम करने से ना तो घर का ख़र्चा चल सकता है और ना ही हमारा इलाज हो सकता है। अब गाँव में सिर्फ़ घर ही है, वह भी झोंपड़ी है और जो भी था साथ ले आये थे घर पर कुछ नहीं है। जैसे-तैसे पूरा परिवार काम करके गुजारा कर लेता है। मगर ऐसे ही किसी-न-किसी तरह जीते चले जाने को तो इंसान का जीवन नहीं कहा जा सकता।

बादली औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूरों की नारकीय ज़िन्दगी की तीन तस्वीरें

उत्तर-पूर्वी दिल्ली के बादली गाँव में एक जूता फ़ैक्ट्री में काम करने वाले अशोक कुमार की फ़ैक्ट्री में काम के दौरान 4 जनवरी 2011 को मौत हो गयी। वह रोज़ की तरह सुबह 9 बजे काम पर गया था। दोपहर में कम्पनी से पत्नी के पास फोन करके पूछा गया कि अशोक के पिता कहाँ हैं, मगर उसे कुछ बताया नहीं गया। बाद में पत्नी को पता लगा कि अशोक रोहिणी के अम्बेडकर अस्पताल में भरती है। उसी दिन शाम को अशोक की मौत हो गयी। मुंगेर, बिहार का रहने वाला अशोक पिछले 5 साल से इस फ़ैक्ट्री में काम कर रहा था। उसकी मौत के बाद मालिक अमित ने अशोक की पत्नी से कहा कि तुम्हारे बच्चों को स्कूल में दाखिल दिलाउंगा और तुम्हें उचित मुआवज़ा भी दिया जायेगा। तुम्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है, अशोक का क्रिया-कर्म कर दो। घरवाले मालिक की बातों में आ गये और किसी को कुछ नहीं बताया। बाद में जब अशोक की पत्नी मुआवज़ा लेने गयी तो मालिक ने उसे दुत्कारते हुए भगा दिया और कहा कि कोई भी ज़हर खाकर मर जाये तो क्या मैं सबको मुआवज़ा देते हुए घूमूँगा? उसने धमकी भी दी कि आज के बाद इधर फिर नज़र नहीं आना।

झिलमिल और बादली औद्योगिक क्षेत्र में माँगपत्रक आन्दोलन का सघन प्रचार अभियान

7 दिसम्बर की शाम को झिलमिल के कारख़ानों से बस्ती की ओर जाने वाले रास्ते पर जोरदार नारों की आवाज ने काम से लौटते मजदूरों को रुक जाने पर विवश कर दिया। देखते ही देखते माँगपत्रक आन्दोलन की अभियान टोली के चारों ओर मजदूरों का घेरा बन गया और फिर ढपली की थाप के साथ एक जोशीले क्रान्तिकारी गीत के बाद एक कार्यकर्ता ने मजदूरों के हालात और माँगपत्रक आन्दोलन के बारे में बताना शुरू कर दिया। मजदूरों ने उत्साह के साथ प्रचार टोली की बातों को सुना, आन्दोलन के पर्चे लिये, कई मजदूरों ने माँगपत्रक पुस्तिका खरीदीं और इसके बारे में और जानने तथा इससे जुड़ने के लिए अपने नाम-पते- फोन नम्बर नोट कराये। तीन दिनों तक झिलमिल औद्योगिक इलाके में दर्जनों जगहों पर यह दृश्य दिखा।

मालिकों के लिए हम सिर्फ मुनाफा पैदा करने की मशीन के पुर्जे हैं

एक दिन वह पावर प्रेस की मशीन चला रहा था। मशीन पुरानी थी, मिस्त्री उसे ठीक तो कर गया था, लेकिन चलने में उसमें कुछ दिक्कत आ रही थी। तो उस नौजवान ने सोचा चलो मालिक को बता दे कि यह मशीन अब ठीक होने लायक नहीं रह गयी है। जैसे ही वह उठा, खुली हुई मशीन की गरारी में उसका स्वेटर फँस गया और मशीन ने उसकी बाँह को खींच लिया। स्वेटर को फाड़ती हुई, माँस को नोचती हुई मशीन से उसकी हड्डी तक में काफी गहरी चोट आयी। अगर उसके बगल वाले कारीगर ने तुरन्त उठकर मशीन बन्द नहीं कर दी होती तो वह उसकी हड्डी को भी पीस देती! उसके ख़ून की धार बहने लगी, पूरी फैक्ट्ररी में निराशा छा गयी। चूँकि उसका ई.एस.आई. कार्ड नहीं बना था। इसलिए मालिक ने एक प्राइवेट अस्पताल में उसे चार-पाँच दिन के लिए भर्ती कराया और कोई भी पुलिस कार्रवाई नहीं हुई। कोई हाल-चाल पूछने जाये तो किसी को कुछ भी बताने से मना कर देता और कहता, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो!! शायद वह इसलिए नहीं बता रहा था कि कहीं मालिक को पता न लग जाये और वह जो कर रहा है, कहीं वह भी करना बन्द न कर दे।