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कड़वे बादाम : दिल्ली के बादाम उद्योग में मज़दूरों का शोषण

बादाम से छिलका उतारने का काम बेहद कठिन और जोखिमभरा होता है। बादाम निकालने के लिए जो खोल तोड़ा जाता है वह काफ़ी सख्त होता है और उसे नरम बनाने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जाता है। यह पूरा काम नंगे हाथों से किया जाता है और लम्बे समय तक काम करने से लगभग सभी मज़दूरों की उँगलियों के पोरों पर घाव हो जाते हैं और दरारें पड़ जाती हैं जिनमें सर्दियों में बहुत अधिक दर्द होता है। ये घाव खोल के खुरदुरेपन और/या रसायनों के प्रभाव, दोनों ही वजहों से हो सकते हैं। हड़ताल के दौरान भी हम जितने मज़दूरों से मिले, उनमें से अधिकांश के हाथें और उंगलियों में घाव के निशान थे। उनके हाथों में ये घाव बादाम तोड़ते समय पडे थे। ये मज़दूर लगभग एक हफ्ते से काम पर नहीं गये थे फिर भी उनके ये घाव बहुत पीड़ादायी बने हुए थे।

करावल नगर के मज़दूरों ने बनायी इलाक़ाई यूनियन

7 जुलाई को करावल नगर मज़दूर यूनियन के गठन के लिए अगुआ टीम की बैठक हुई जिसमें मज़दूर साथियों की समन्यवय समिति बनायी गयी जिसने इलाक़े में यूनियन के प्रचार और इसके महत्व को बताते हुए सभी पेशों के मज़दूरों को सदस्य बनाने की योजना बनायी। सदस्यता का प्रमुख पैमाना सक्रियता को रखा गया। साथ ही यूनियन के संयोजक नवीन ने बताया कि जब यूनियन की सदस्यता 100 हो जायेगी तो इसके सभी सदस्यों को बुलाकर इसके पदाधिकारी, कार्यकारणी व अन्य पदों के लिए चुनाव कराया जाएगा।

मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन-2011 के तहत करावल नगर में ‘मज़दूर पंचायत’ का आयोजन

शहीदेआज़म भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव के 80वें शहादत दिवस पर करावल नगर के न्यू सभापुर इलाक़े में ‘मज़दूर पंचायत’ का आयोजन किया गया। यह आयोजन मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन-2011 की तरफ़ से किया गया था। इसमें करावल नगर के तमाम दिहाड़ी, ठेका व पीस रेट पर काम करने वाले मज़दूरों ने भागीदारी की और अपनी समस्याओं को साझा किया।

बादाम उद्योग में मशीनीकरण: मज़दूरों ने क्या पाया और क्या खोया

मज़दूरों को बेवजह डरना बन्द कर देना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि हाथ से भी वही काम करते थे और मशीनें भी वही चलायेंगे, ठेकेदारों और मालिकों के अमीरज़ादे नहीं! इसलिए चाहे कोई भी मशीन आ जाये, मज़दूरों की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं हो सकती है। चाहे मालिक कुछ भी जादू कर ले, बिना मज़दूरों के उसका काम नहीं चल सकता है। मज़दूर ही मूल्य पैदा करता है। मशीनें भी मज़दूर ही बनाता है और उन्हें चलाता भी मज़दूर ही है। बादाम मालिक मशीनीकरण के साथ कई अर्थों में कमज़ोर हुए हैं। मशीनीकरण इस उद्योग और पूरी मज़दूर आबादी का मानकीकरण करेगा। इस मानकीकरण के चलते मज़दूरों में दूरगामी तौर पर ज़्यादा मज़बूत संगठन और एकता की ज़मीन तैयार होगी, क्योंकि उनके जीवन में अन्तर का पहलू और ज़्यादा कम होगा और जीवन परिस्थितियों का एकीकरण और मानकीकरण होगा। ऐसे में, मज़दूरों के अन्दर वर्ग चेतना और राजनीतिक संगठन की चेतना बढ़ेगी। मालिक मशीन पर काम करने वाले मज़दूर के सामने ज़्यादा कमज़ोर होता है, बनिस्बत हाथ से काम करने वाले मज़दूर के सामने। इसलिए मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी ज़्यादा ताक़तवर और लड़ाकू सिद्ध हो सकती है। बादाम मज़दूर यूनियन को इसी दिशा में सोचना होगा और मज़दूरों को यह बात लम्बी प्रक्रिया में समझाते हुए संगठित करना होगा।

कविता – क्रान्ति की अलख जलाएँ

चलो मिलकर क्रान्ति की मशाल जलाए,
हर टूटे हुए, बुझे हुए दिल में रोशनी जगाऐं
वो जो डरे हुए हैं, सहमें हुए हैं
इस जालिम समाज, खूनी महफिल से, किन्तु
जिनकी आंखों में नक्शा है, दुनिया बदलने का
दिल में जज्बा है बुराई से लड़ने का
उन बिखरे हुए मोतियों को धागे में पिरोएं

करावलनगर के बादाम उद्योग का मशीनीकरण

मशीनीकरण करावलनगर के बादाम उद्योग का मानकीकरण करेगा और उसे देर-सबेर कारख़ाना अधिनियम के तहत लायेगा। मशीनीकरण मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को बढ़ाने में एक सहायक कारक बनेगा और मशीन पर काम करने वाली मज़दूर आबादी मालिकों और ठेकेदारों के लिए अकुशल मज़दूर के मुक़ाबले कहीं ज्यादा अनिवार्य होगी। अकुशल मज़दूर आसानी से मिल जाता है, लेकिन एक ख़ास प्रकार की मशीन को सही तरीक़े से चला सकने वाला मज़दूर सड़क पर घूमता नहीं मिल जाता। ऐसे में, मज़दूरों की सामूहिक मोल-भाव की ताक़त पहले के मुक़ाबले कहीं ज्यादा होगी। मशीनीकरण के शुरू होने के समय मज़दूर आतंकित थे कि अब मालिक गरज़मन्द नहीं रहा और अब उनकी ताक़त कम हो गयी है। लेकिन अब मज़दूर इस बात को समझने लगे हैं कि मशीनीकरण के कारण होने वाली छँटनी के बाद जो कटी-छँटी मज़दूर आबादी बचेगी, वह कहीं ज्यादा ताक़तवर और संगठित होगी और साथ ही मालिकों के लिए कहीं ज्यादा ज़रूरी होगी। इस रूप में मशीनीकरण ने बादाम उद्योग के साथ-साथ बादाम मज़दूरों के संगठन को भी एक नयी मंज़िल में पहुँचा दिया है।

काकोरी के शहीदों की याद में ‘अवामी एकता मार्च’

नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन और बिगुल मजदूर दस्ता की ओर से काकोरी के शहीदों की याद में करावल नगर में ‘अवामी एकता मार्च’ निकाला गया। सैकड़ों मजदूरों और नौजवानों ने शहीदों की स्मृति में जुटान किया। मार्च की शुरुआत सुबह नौ बजे शहीद भगतसिंह पुस्तकालय, मुकुन्द विहार से की गयी। मार्च में नौजवान के हाथ में काकोरी के शहीदों की तस्वीरें और नारें लिखी तख्तियां थी। छात्रें, नौजवानों और मजदूरों ने ‘अशफाकउल्ला बिस्मिल का पैगाम-जारी रखना है संग्राम’, ‘अशफाकउल्ला बिस्मिल की दोस्ती अमर रहे अमर रहे’, ‘शहीदों का सपना आज भी अधूरा – छात्र और नौजवान उसे करेंगे पूरा’ आदि नारे लगा रहे थे। इस मार्च में उपरोक्त संगठनों द्वारा पर्चा निकाला गया जिसका शीर्षक था ‘जाति-धर्म के झगड़े छोड़ो – सही लड़ाई से नाता जोड़ो’।

बादाम उद्योग मशीनीकरण की राह पर

मज़दूरों की व्यापक आबादी को भी यह समझना होगा कि मशीनीकृत होने से यह उद्योग ज्यादा संगठित होगा और मज़दूरों को उनका मज़दूरी कार्ड से लेकर अन्य अधिकार मिलने का वैधानिक आधार तैयार होगा तथा फैक्टरी एक्ट के तहत आने वाली सुविधाएँ मिलेंगी। निश्चित रूप से यह पूँजीवादी उद्योग की एक नैसर्गिक प्रक्रिया है और इसमें कई मज़दूर बेकार भी होंगे। लेकिन जो आबादी मशीनीकरण के बाद स्थिरीकृत होगी, वह लड़ने के लिए तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में होगी। तब जाकर नये सिरे से लड़ाई शुरू होगी और श्रम कानून के तहत मिलने वाले सभी अधिकारों की लड़ाई लड़ी जायेगी। लेकिन असल मायने में मज़दूरों की मुक्ति इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को ध्‍वस्त करके ही मिलेगा।

कॉमरेड के ”कतिपय बुध्दिजीवी या संगठन” और कॉमरेड का कतिपय ”मार्क्‍सवाद”

आज के समय में असंगठित सर्वहारा वर्ग कोई पिछड़ी चेतना वाला सर्वहारा वर्ग नहीं है। यह भी उन्नत मशीनों पर और असेम्बली लाइन पर काम करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह यह काम लगातार और किसी बड़े कारख़ाने में ही नहीं करता। उसका कारख़ाना और पेशा बदलता रहता है। इससे उसकी चेतना पिछड़ती नहीं है, बल्कि और अधिक उन्नत होती है। यह एक अर्थवादी समझदारी है कि जो मजदूर लगातार बड़े कारख़ाने की उन्नत मशीन पर काम करेगा, वही उन्नत चेतना से लैस होगा। उन्नत मशीन और असेम्बली लाइन उन्नत चेतना का एकमात्र स्रोत नहीं होतीं। आज के असंगठित मजदूर का साक्षात्कार पूँजी के शोषण के विविध रूपों से होता है और यह उनकी चेतना को गुणात्मक रूप से विकसित करता है। उनका एक अतिरिक्त सकारात्मक यह होता है कि वे पेशागत संकुचन, अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद जैसी ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों का शिकार कम होते हैं और तुलनात्मक रूप से अधिक वर्ग सचेत होते हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि बड़े कारख़ानों की संगठित मजदूर आबादी के बीच राजनीतिक प्रचार की आज जरूरत है और इसके जरिये मजदूर वर्ग को अपने उन्नत तत्त्‍व मिल सकते हैं। लेकिन आज का असंगठित मजदूर वर्ग भी 1960 के दशक का असंगठित मजदूर वर्ग नहीं है जिसमें से उन्नत तत्त्वों की भर्ती बेहद मुश्किल हो। यह निम्न पूँजीवादी मानसिकता से ग्रसित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का श्रेष्ठताबोध है कि वे इस मजदूर को पिछड़ा हुआ मानते हैं।

बादाम मजदूर यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली के बादाम मजदूरों की 16 दिन लम्बी हड़ताल

यह हड़ताल मजदूरों की भागीदारी के मामले में 1988 की हड़ताल से बड़ी थी और साथ ही यह गुणात्मक रूप से उस हड़ताल से अलग थी। यह एक पूरे इलाके के मजदूरों की एक इलाकाई यूनियन के नेतृत्व में हुई हड़ताल थी। वास्तव में, इस हड़ताल का प्रभाव अन्य उद्योगों पर भी पड़ने लगा था। महिला मजदूरों के पति आम तौर पर गाँधीनगर और ट्रॉनिका सिटी जैसे करीब के औद्योगिक क्षेत्रों में काम करते हैं। हड़ताल के दौरान उन्होंने काम पर जाना बन्द कर दिया था और अपनी पत्नियों के साथ हड़ताल चौक पर ही जम गये थे। नतीजा यह हुआ था कि उन उद्योगों में भी दिक्कत पैदा होने लगी थी, जिनमें ये पुरुष मजदूर काम करते थे। यह करावलनगर के प्रकाश विहार, भगतसिंह कॉलोनी और पश्चिमी करावलनगर के मजदूरों की हड़ताल में तब्दील हो गयी थी। आज जब देश के 93प्रतिशत मजदूर छोटे कारखानों, वर्कशॉपों, गोदामों में या घर में काम कर रहे हैं, या फिर रेहड़ी-खोमचे वालों, रिक्शेवालों या पटरी दुकानदारों के रूप में सेवा प्रदाता के तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब देश के केवल 7 फीसदी मजदूर बड़े कारख़ानों में औपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं; जब औपचारिक क्षेत्र के भी अच्छे-ख़ासे मजदूर ठेके/दिहाड़ी पर काम करते हुए असंगठित मजदूर आबादी में शामिल हैं और कुल असंगठित मजदूरों की आबादी कुल मजदूर आबादी की97 प्रतिशत हो चुकी हो; तो ऐसे समय में इलाकाई मजदूर यूनियन के रूप में बादाम मजदूर यूनियन और उसके संघर्ष का यह प्रयोग गहरा महत्तव रखता है।