Tag Archives: मुकेश असीम

आधार : लूटतन्त्र की रक्षा के लिए जनता पर निगरानी और नियन्त्रण का औज़ार

आधार, कैशलेस और डिजिटल के मेल से सत्ताधारियों के लिए किसी भी जनसमूह के जीवन को नियन्त्रित ही नहीं पूरी तरह बाधित करने की भी शक्ति मिल जायेगी। अभी ही हम विभिन्न स्थानों पर मोबाइल या इण्टरनेट बन्द कर देने की ख़बरें पढ़ते हैं। लेकिन इसके बाद सत्ता के लिए मुमकिन होगा पूरे समूहों के तमाम सम्पर्कों को काट देना, उनके खातों पर रोक लगाकर उनके साधनों से, कुछ ख़रीद पाने तक से रोक देना, अर्थात जीवन की ज़रूरी सुविधाओं से वंचित करना। ख़ासतौर पर भारत की धर्म, जाति, आदि पूर्वाग्रहों-नफ़रत आधारित शासक वर्ग की राजनीतिक ताक़तों और उनके संरक्षण वाले गिरोहों के हाथ में ऐसे केन्द्रीय डाटा भण्डार बहुत ख़तरनाक सिद्ध हो सकते हैं। यह भी याद रखना चाहिए कि 1984 में दिल्ली और 2002 में गुजरात दोनों जगह शासक पार्टियों ने पुलिस-प्रशासन के संरक्षण में जिन भयानक हत्याकाण्डों को अंजाम दिया था, उनमें चुन-चुनकर व्यक्तियों और उनकी सम्पत्ति को निशाना बनाया गया था और इसमें वोटर लिस्ट और अन्य सरकारी जानकारियों का इस्तेमाल हुआ था।

बजट और आर्थिक सर्वेक्षण: अर्थव्यवस्था की ख़स्ता हालत को झूठों से छिपाने और ग़रीबों की क़ीमत पर थैलीशाहों को फ़ायदा पहुँचाने का खेल

अनौपचारिक क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था में लगभग 45% है और औपचारिक क्षेत्र से अपनी कम लागत की वजह से प्रतियोगिता में बाज़ार के एक बड़े हिस्से पर छाया हुआ है। अभी इन सारे प्रावधानों-उपायों से इसे औपचारिक की ओर धकेला जा रहा है जहाँ कम लागत का फ़ायदा समाप्त हो जाने से यह बड़ी कॉर्पोरेट पूँजी के सामने नहीं टिक पायेगा। इससे बड़ी संख्या में श्रमिक बेरोज़गार होंगे, छोटे काम-धन्धों में लगे कारोबारी और छोटे किसान बरबाद हो जायेंगे। लेकिन अर्थव्यवस्था में ज़्यादा विकास-विस्तार न होने पर भी मौजूदा बाज़ार में ही इस बड़ी कॉर्पोरेट पूँजी और उसके कार्टेलों का एकाधिकार, और नतीजतन मुनाफ़ा बढ़ेगा। इसलिए इसके प्रवक्ता कॉर्पोरेट मीडिया और आर्थिक विशेषज्ञ बजट की तारीफ़ों के पुल बाँधने में लगे हैं।

नोटबन्दी को लेकर सारे सरकारी दावे झूठे: जनता की मेहनत की कमाई पर डाका

पहले से ही वंचित शोषित मेहनतकश जनता को ही नोटबन्दी के इस क़दम का सबसे ज़्यादा बोझ उठाना पड़ रहा है जबकि असली काले धन वाले अपनी कमाई को न सिर्फ़ खपाने में सफल हुए हैं बल्कि उनको अगर कहीं कुछ नुक़सान हो भी गया हो तो उसके मुआवज़े का भी इन्तज़ाम सरकार इस बजट में कर देगी – कॉर्पोरेट और इनकम टैक्स में कमी करके- जिसका फ़ायदा सिर्फ़ शीर्ष 5% लोगों को होगा जबकि उसकी भरपाई के लिए बढ़ाये जाने वाले अप्रत्यक्ष करों का बोझ बहुसंख्य मेहनतकश जनता को ही उठाना पड़ेगा। इसलिए ये लोग नोटबन्दी को ग़लत नहीं कहते, क्योंकि इन तबक़ों को तो असल में ही ‘थोड़ी असुविधा’ के बाद इससे फ़ायदा होने वाला है।

नोटबन्‍दी – जनता की गाढ़ी कमाई से सरमायेदारों की तिजोरियाँ भरने का बन्दोबस्त

लगभग 93% भारतीय श्रमिक असंगठित, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं और इनकी पूरी आमदनी नक़दी में है। नक़दी के अभाव से इनके छोटे धन्धे बन्द हो रहे हैं या इनका रोज़़गार छिन जा रहा है। इन मज़दूरों और छोटे कारोबारियों दोनों को ही इसकी वजह से या तो और भी कम मज़दूरी पर काम करने को मजबूर होना पड़ रहा है या अपना माल बड़े कारोबारियों को उनकी मनमानी क़ीमतों पर बेचकर नुक़सान उठाना पड़ रहा है। नहीं तो सूदखोरों के पास जाकर अपनी भविष्य की कमाई का एक हिस्सा सूद के रूप में उनके नाम लिख देने के साथ किसी तरह कुछ बचाकर इकठ्ठा की गयी एकाध बहुमूल्य वस्तु गिरवी भी रखने की मज़बूरी है जो फिर वापस न आने की बड़ी सम्भावना है।

ग़रीबों के मुँह का ग्रास छीनकर बढ़ती जीडीपी और मालिकों के मुनाफ़े!

अभी भारत की अर्थव्यवस्था में तेज़ी की भी बडी चर्चा है और इसे दुनिया की सबसे तेज़ी से विकास करती अर्थव्यवस्था बताया जा रहा है। इस विकास की असली कहानी भी बहुसंख्यक श्रमिक-अर्धश्रमिक जनता की जिन्दगी पर पडे इसके असर से ही समझनी होगी। 1991 में शुरू हुए आर्थिक ‘सुधारों’ से देश की अर्थव्यवस्था कितनी मज़बूत हुई है उसकी असलियत जानने के लिए जीडीपी-जीएनपी की वृद्धि, एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट के आँकड़े, मकानों-दुकानों की कीमतें, अरबपतियों की तादाद, या सेंसेक्स-निफ्टी का उतार-चढाव देखने के बजाय हम नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो (NNMB) के सर्वे के नतीजों और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी पर नजर डालते हैं जो बताता है कि जीवन की अन्य सुविधाएँ – आवास, शिक्षा, चिकित्सा, आदि को तो छोड ही दें, इस दौर में ग़रीब लोगों को मिलने वाले भोजन तक की मात्रा भी लगातार घटी है। यह ब्यूरो 1972 में ग्रामीण जनता के पोषण पर नजर रखने के लिए स्थापित किया गया था और इसने 1975-1979, 1996-1997 तथा 2011-2012 में 3 सर्वे किये। इस सारे दौरान सरकारें लगातार तीव्र आर्थिक तरक्की की रिपोर्ट देती रही हैं इसलिए स्वाभाविक उम्मीद होनी चाहिये थी कि जनता के भोजन-पोषण की मात्रा में सुधार होगा लेकिन इसके विपरीत ज़मीनी असलियत उलटे ये पायी गयी कि जनता को मिलने वाले पोषण की मात्रा बढ़ने के बजाय लगातार घटती गयी है।

बड़े नोटों पर पाबन्दी – अमीरों के जुर्मों की सज़ा ग़रीबों को

वास्तविक समस्याओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए ऐसे नाटक दुनिया भर में बहुत देशों में पहले भी खूब हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। ख़ास तौर पर मोदी सरकार जो विकास, रोजगार, आदि के बड़े वादे कर सत्ता में आयी थी जो बाद में सिर्फ़ जुमले निकले, उसके लिए एक के बाद ऐसे कुछ मुद्दे और खबरें पैदा करते रहना ज़रूरी है जिससे उसके समर्थकों में उसका दिमागी सम्मोहन टूटने न पाये क्योंकि असलियत में तो इसके आने के बाद भी जनता के जीवन में किसी सुधार-राहत के बजाय और नयी-नयी मुसीबतें ही पैदा हुई हैं। इससे काला धन/भ्रष्टाचार/अपराध/आतंकवाद ख़त्म हो जायेगा – यह कहना शेखचिल्ली के किस्से सुनाने से ज़्यादा कुछ नहीं।

उद्योग सुस्त, रोज़गार सृजन पस्त, महँगाई बढ़ी, आमदनी घटी – ”अच्छे दिनों” की बुरी हक़ीक़त!

रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि आम मज़दूरों और साधारण विश्वविद्यालय-कॉलेजों से पढ़ने वालों को तो रोज़गार की मण्डी में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक ‘सौभाग्य’ के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की ज़रूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय स्टार्ट अप वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! फ्लिपकार्ट, एल एंड टी इन्फ़ोटेक जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफ़र दिये थे वे काग़ज़ के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ज्वाइन नहीं कराया जा रहा है!

जीएसटी और अन्य टैक्स नीतियों का मेहनतकशों की ज़ि‍न्दगी पर असर

यद्यपि जीएसटी की दर कहने के लिये सब पर बराबर होगी लेकिन इसका असर अमीर और गरीब लोगों पर बराबर नही होगा। जहां ज़्यादातर गरीब लोग अपनी सारी कमाई से किसी तरह जीवन चलाते हैं तो उनकी पूरी आय पर यह 18 से 22% टैक्स लग जायेगा क्योंकि जीएसटी लगभग सभी वस्तुओं – सेवाओं पर लगेगा। वहीं क्योंकि अमीर तबका अपनी आय का एक छोटा हिस्सा ही इन पर खर्च करता है तो…