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सरकारी आँकड़ों की हवाबाज़ी और अर्थव्यवस्था की ख़स्ताहाल असलियत

पिछले कुछ वर्षों के इतिहास को देखें तो बाजार में माँग के संकट की वजह से उद्योगों के स्थापित क्षमता से कम पर काम कर पाने से उनकी लाभप्रदता में गिरावट हुई है। इससे बहुत सारे उद्योग उत्पादन क्षमता के विस्तार हेतु निवेश की गयी स्थाई पूँजी की बड़ी मात्रा पर ऋणदाताओं की मूल देनदारी ही नहीं उस पर ब्याज तक चुकाने में असमर्थ हो गए हैं। इसका नतीजा बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों की वसूली में संकट और कर्ज के डूब जाने में सामने आया। लगभग 12-14 लाख करोड़ रुपये के बैंक कर्ज इस तरह दबाव में आ गए। लगभग 9 लाख करोड़ अभी एनपीए हैं जबकि बीजेपी सरकार के पहले साढ़े तीन वर्षों में ही करीब पौने तीन लाख के कर्ज बैंकों को बट्टे खाते में (राइट ऑफ़) डालने पड़े। इस संख्या में भी इसका ब्याज शामिल नहीं है।

बैंक घोटाले, भ्रष्ट मोदी सरकार और पूँजीवाद

लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं है। एक और क़िस्म का भी फ़्रॉड है जिसे ‘विलफ़ुल डिफ़ॉल्टर’ अर्थात इरादतन ग़बन कर्त्ता कहा जाता है। रिज़र्व बैंक ने क़र्ज़ न चुकाने वालों में भी यह एक ख़ास श्रेणी बनायी है जिसमें बैंक मज़बूरीवश तभी किसी को डालते हैं जब क़र्ज़ लेने वाला ख़ुद ही सुसाइडल क़दम उठाकर उनके सामने और कोई विकल्प न छोड़े। इसका मतलब यह प्रमाणित और जगज़ाहिर हो चुका है कि उसने लिए हुए क़र्ज़ का ग़बन कर लिया, चुकाने की हैसियत है, फिर भी  इरादतन नहीं चुकाता।

छोटे व सीमान्त किसानों को उजाड़ने और कृषि के पूँजीवादी विकास की रफ़्तार तेज़ करने की दिशा में एक और क़दम

अब भारतीय पूँजीवादी राज्य छोटे-सीमान्त किसानों को ज़मीन के मालिकाने को छोड़ पाने के सांस्कृतिक प्रतिरोध को बाईपास करके इस पहले ही धीमी गति से परन्तु निरन्तर जारी प्रक्रिया को तेज़ और औपचारिक बनाने के लिए क़ानूनी प्रावधान कर रहा है। इन क़रारों के अन्तर्गत होने वाली कृषि प्रभावी रूप से व्यवसायी कॉर्पोरेट खेती ही होगी जिसमें इन छोटे ज़मीन मालिकों को ज़मीन का कुछ किराया ही प्राप्त होगा या ख़ुद श्रम शक्ति बेचने पर मज़दूरी भी। लेकिन अधिक पूँजी निवेश और उन्नत यन्त्रों के प्रयोग से श्रम शक्ति की ज़रूरत भी बहुत कम हो जायेगी तथा ये मुख्यतः अन्य उद्योगों में श्रमिक बनने के लिए मुक्त हो जायेंगे।

बेहिसाब बढ़ती आर्थिक और सामाजिक असमानता

भारत तो इनमें से भी सर्वाधिक ग़ैरबराबरी वाले चन्द देशों में से है। यहाँ तो शीर्ष पर के 10% अमीर लोग 2010 में 69% सम्पत्ति के मालिक थे और तब से सिर्फ़़ 6 वर्षों में ये बढ़कर 2016 में 81% दौलत पर क़ब्ज़ा जमा चुके हैं। वहीं तली के 50% पूरी तरह सम्पत्तिहीन ही नहीं, बल्कि क़र्ज़ में किसी तरह मालिकों के लिए श्रम करते हुए जीवन बिताने को विवश हैं।

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के शीर्ष पर जिनकी दौलत लगातार बढ़ रही है वे कौन लोग

वर्तमान आर्थिक संकट और मार्क्स की ‘पूँजी’

उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व और मुनाफ़े के लिए उत्पादन की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में इन समस्याओं का कोई समाधान सम्भव नहीं है। सिर्फ़ उत्पादन के साधनों पर निजी सम्पत्ति को समाप्त कर सामूहिक स्वामित्व में सबके द्वारा श्रम और सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन की समाजवादी व्यवस्था ही उत्पादन की शक्तियों के और ज़्यादा विकास का रास्ता खोल सकती है, क्योंकि तब सभी के लिए भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन, आदि हेतु उत्पादन को इतना बढ़ाने की आवश्यकता होगी कि समस्त वैज्ञानिक तकनीक के बाद भी सबके लिए काम न सिर्फ़ उपलब्ध हो बल्कि अनिवार्य भी। साथ ही सबके लिए काम के घण्टे कम भी किये जा सकेंगे जिससे संस्कृति, साहित्य, कला जैसी चीज़ें भी बस खाये-अघाये मालिक वर्ग की बपौती नहीं रहकर पूरे मानव समाज की सामूहिक उपलब्धि बन सकें। तभी समाज के प्रत्येक व्यक्ति की असली स्वतन्त्रता सम्भव होगी और उसका सम्पूर्ण विकास भी मुमकिन होगा।

70 साल की आज़ादी का हासिल : भूख और कुपोषण के क्षेत्र में महाशक्ति

भारत में दो वर्ष तक की उम्र के 10% से भी कम बच्चों को पर्याप्त मात्रा में पोषक भोजन उपलब्ध होता है। माँ का दूध पीते बच्चों को जब साथ में दूसरे भोजन देने की उम्र होती है, उस वक़्त सिर्फ़ 42% बच्चों को ही ठोस भोजन उपलब्ध हो पाता है। 5 साल से कम उम्र के 35% बच्चे सामान्य से कम वज़न और 38% बच्चे सामान्य से कम क़द के हैं। 21% बच्चे तो अपने क़द के हिसाब से भी कम वज़न वाले अर्थात पूरी तरह कुपोषित हैं। कुपोषित बच्चों की संख्या 2005-06 के मुक़ाबले अब 1% बढ़ गयी है। ये सब निष्कर्ष थे 2015-16 के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के। दुनिया में मात्र तीन ही और देश – दक्षिणी सूडान, जिबूती और श्रीलंका – ऐसे हैं, जहाँ 20% से अधिक बच्चे पूरी तरह कुपोषित हैं।

जीडीपी की विकास दर में गिरावट और अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत

जीडीपी में माँग का एक और महत्त्वपूर्ण कारक विदेश व्यापार खाते का बैलेंस तो भारत में पहले ही नकारात्मक कारक है, क्योंकि भारत का विदेश व्यापार खाता सरप्लस नहीं बल्कि घाटे में चलता है। इस तिमाही में यह घाटा पिछले वर्ष की इसी तिमाही के मुकाबले 295% बढ़ा है यानी लगभग 4 गुना हो गया। निर्यात में मन्दी और आयात में 13% वृद्धि ने अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका दिया है। आयात में यह भारी वृद्धि तब हुई है, जबकि पेट्रोलियम समेत अनेक जिंसों के दाम अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में काफ़ी कम हैं।

बुलेट ट्रेन के लिए क़र्ज़ देने वाले जापान के भारत प्रेम की हक़ीक़त क्या है?

चीन और जापान दोनों की अर्थव्यवस्था में मुद्रा की भयंकर अतिरिक्त नक़दी तरलता है। इसकी वजह से जापान की बैंकिंग व्यवस्था को तबाह हुए 20 साल हो चुके। 1990 के दशक में दुनिया के 10 सबसे बड़े बैंकों में 6-7 जापानी होते थे, आज कोई इनका नाम तक नहीं सुनता। जापानी सेण्ट्रल बैंक कई साल से नकारात्मक ब्याज़ दर पर चल रहा है – जमाराशि पर ब्याज़ देता नहीं लेता है! लोग किसी तरह कुछ ख़र्च करें तो माँग बढे़, कहीं निवेश हो। जीडीपी में 20 साल में कोई वृद्धि नहीं, उसका शेयर बाज़ार का इण्डेक्स निक्केई 20 साल पहले के स्तर पर वापस जाने की ज़द्दोजहद में है।

देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई के बच्चों में बढ़ता कुपोषण

मुम्बई भी ऐसा ही एक ऊपरी तौर पर चमकदार शहर है जहाँ एक ओर अम्बानी, टाटा, बिड़ला, अडानी जैसे भारी दौलतमन्द लोग रहते हैं; वहीं यहाँ की अधिकांश मेहनतकश जनसंख्या भारी ग़रीबी और तंगहाली में गन्दगी से बजबजाती, दड़बों की तरह भरी झोपड़पट्टियों में रहने को मजबूर है। हालत यह है कि इस ‘मायानगरी’ के दो तिहाई निवासियों को इस शहर की सिर्फ़ 8% जगह ही रहने को मयस्सर है। शायद इनमें से भी बहुतों ने 2014 के चुनाव के पहले के भारी प्रचार से चकाचौंध होकर नरेन्द्र मोदी के ‘सबका साथ सबका विकास’ और ‘अच्छे दिनों’ के वादों में भरोसा किया था, देश के चहुमुँखी विकास से अपनी जि़न्दगी में बेहतरी आने का सपना देखा था। पर नतीजा क्या हुआ?

अर्थव्यवस्था में सुधार के हवाई दावों की हक़ीक़त

11 अगस्त को ही सरकार ने अर्धवार्षिक आर्थिक सर्वेक्षण जारी किया जिसकी मुख्य बात थी कि अर्थव्यवस्था पर संकुचन या डिफ़्लेशन का दबाव है और जीडीपी में वृद्धि दर सरकारी अनुमान से कम रहने की सम्भावना है। इस संकुचन का अर्थ है कम माँग के चलते दाम न बढ़ा पाने की मज़बूरी से मुद्रास्फीति या महँगाई का नहीं बढ़ना। और विस्तार में जायें तो रिज़र्व बैंक और सरकार दोनों का विश्लेषण कहता है कि महँगाई की दर कम रहने की वजह एक तो कृषि उत्पादों के दामों में कमी है; दूसरे, माँग की कमी से अन्य उत्पादक दाम बढ़ाने में असमर्थ हैं, इसलिए महँगाई की दर 4% के नीचे आ गयी है।