कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (नवीं किस्त)
संविधान की प्रस्तावना : लोक-लुभावन लफ्फाज़ी के साथ रचा गया प्रपंच

 आलोक रंजन

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हम, भारत के लोग भारत को एक सम्प्रभुता-सम्पन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष जनवादी गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म

और उपासना की स्वतन्त्रता,

प्रतिष्ठा और अवसर की समता

प्राप्त कराने के लिए,

तथा उन सबमें

व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और

अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता

बढ़ाने के लिए

दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवम्बर 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

भारतीय संविधान अपनी प्रस्तावना में इन महत् उद्देश्यों की बड़बोली घोषणा करते हुए शुरू होता है। देश के 15 प्रतिशत अभिजातों की नुमाइन्दगी करने वाली संविधान सभा के सदस्यों ने पूरे भारत की जनता की ओर से यह घोषणा की। यहाँ यह उल्लेख भी ज़रूरी है कि मूल प्रस्तावना में भारत को सिर्फ ”सम्प्रभुता सम्पन्न जनवादी गणराज्य” (सॉवरेन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक) ही लिखा गया था। ”समाजवादी” और ”धर्मनिरपेक्ष” शब्द 1976 में आपातकाल के दौरान बयालीसवें संशोधन द्वारा जोड़े गये थे। इस संशोधन का विडम्बनापूर्ण समय भी उल्लेखनीय था। उस समय इन्दिरा गाँधी की सरकार ने देश में आपातकाल लागू करके रही-सही नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों को भी समाप्त कर दिया था। नेहरूवादी ”समाजवाद” की नीतियों को फासिस्ट निरंकुशता की इस विडम्बनापूर्ण परिणति तक पहुँचना ही था। उस आपातकाल की समाप्ति के बाद पुराने दक्षिणपन्थी कांग्रेसी और नेहरूपन्थी ”समाजवाद” के धुर-विरोधी मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जो पहली गैर-कांग्रेसी सरकार केन्द्र में अस्तित्व में आयी, जनता पार्टी सरकार की उस खिचड़ी में सबसे बड़ा और संगठित धड़ा आर.एस.एस. प्रवर्तित जनसंघ था जो ”समाजवाद” ही नहीं, सीमित बुर्जुआ धर्मनिरपेक्षता का भी धुर-विरोधी था। बयालीसवें संविधान संशोधन द्वारा ही ‘राष्ट्र की एकता’ के स्थान पर ‘राष्ट्र की एकता और अखण्डता’ शब्दावली रख दी गयी थी। यह बदलाव भी तत्कालीन इन्दिरा निरंकुशशाही के अतिकेन्द्रीकृत सत्ता और एकता-अखण्डता की रक्षा के नाम पर हर विरोध को कुचल देने की इच्छा और ज़रूरत को ही रेखांकित करता था।

”हम भारत के लोग” यह हूबहू वही जुमला था जिससे 1787 के फिलाडेल्फिया कन्वेंशन ने अमेरिकी संविधान की शुरुआत की थी। ”हम संयुक्त राज्य के लोग”…! वैसे देखें तो अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना की यह शब्दावली भी एक धोखाधड़ी थी! फिलाडेल्फिया कन्वेंशन न तो अश्वेत दासों का प्रतिनिधित्‍व करता था, न ही अमेरिकी संविधान ने दासता का उन्मूलन किया था। भारतीय संविधान सभा भी बहुसंख्य जनसमुदाय का प्रतिनिधित्‍व नहीं करती थी और आगे चलकर भी उस संविधान को भारत के लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों के किसी निकाय द्वारा पारित नहीं किया गया। भारतीय बुर्जुआ जनवाद के कुछ उत्साही पैरोकार दावा करते हैं कि किसी भी पश्चिमी देश ने अपने जनवाद के उद्भव के समय स्त्रियों को मताधिकार नहीं दिया, जबकि भारतीय संविधान ने ऐसा किया। ऐसे लोग ज़मीनी हक़ीक़त पर काग़जी घोषणाओं को प्राथमिकता देते हैं। ज़मीनी सच्चाई यह है कि हमारे समाज के ताने-बाने में स्त्रियों की जो स्थिति बनती है, उसमें चुनने और चुने जाने का अधिकार मिलने के छह दशक बाद भी निजी, सामाजिक और राजनीतिक मामलों में उनकी निर्णय की स्वतन्त्रता का ‘स्पेस’ अत्यन्त संकुचित है तथा उनकी नागरिकता दोयम दरजे की है। पश्चिमी बुर्जुआ जनवादी देशों में स्त्रियों को जब मताधिकार नहीं मिला था, तब भी दोयम दरजे की नागरिकता और पुरुष वर्चस्ववाद के बावजूद निजी और सामाजिक मामलों में उनकी स्थिति भारतीय स्त्रियों से बेहतर थी। एक और दावा यह भी किया जाता है कि भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता का उन्मूलन करके सामाजिक समावेशन और दलित जातियों की प्रगति की राह खोल दी। ग़ौरतलब है कि इस मामले में भारतीय संविधान और लोकतन्त्र (जनवाद) की विफलता को तो पाँच-छह वर्ष बीतते-बीतते डॉ. अम्बेडकर भी स्वीकार कर चुके थे। आरक्षण जैसे प्रावधानों ने भी बहुसंख्यक दलितों को समाज के सबसे निचले पायदान से और उजरती ग़ुलामों की सबसे अपमानित पाँत से ऊपर उठाने के बजाय उनके बीच से एक छोटी-सी जमात को आर्थिक रूप से बेहतर जीवन दे दिया है (हालाँकि सामाजिक अपमान और पार्थक्य का सामना उन्हें भी करना पड़ता है)। भारतीय पूँजीवाद यदि ”उपनिवेशीकरण और क्रमिक-विलम्बित विकास” की ऐतिहासिक प्रक्रिया के बजाय ”पुनर्जागरण/धर्मसुधार-प्रबोधन-बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति” की स्वाभाविक प्रक्रिया से विकसित हुआ होता तो पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न के बावजूद यहाँ स्त्रियों और दलितों की बेहतर सामाजिक स्थिति होती और उन्हें वास्तव में सापेक्षत: अधिक जनवादी अधिकार हासिल होते, चाहे संविधान की किताब में उनका उल्लेख होता या नहीं। औपनिवेशिक शासन-विधान (1935 के क़ानून) की निरन्तरता में और उसकी मूल अन्तर्वस्तु को अपनाकर बनाया गया भारत का संविधान जनवादी आदर्शों की चाहे जितनी लफ्फाज़ी करे, उनके अमल को सुनिश्चित करने का कोई ठोस प्रावधान नहीं करता। रही-सही कोर-कसर औपनिवेशिक क़ानूनी ढाँचा और निरंकुश नौकरशाही ढाँचा पूरी कर देता है। यूरोप और अमेरिका की पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियों के बाद सत्तारूढ़ बुर्जुआ वर्ग ने जनाकांक्षाओं के साथ विश्वासघात किया और जनमुक्ति के परचम को धूल में फेंक दिया। फिर भी क्रान्तियों की लहर ने जनजीवन में जो वैचारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक उद्वेलन पैदा किया था, उससे जनता के भीतर नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों की जो सजगता पैदा हुई थी, उसे शासक वर्ग पूरी तरह से दबा नहीं सकता था। यह स्थिति एक हद तक उन देशों के संविधानों में भी परावर्तित और अभिव्यक्त होती है। भारत में जिस प्रकार पूँजीवादी विकास क्रान्तिकारी प्रक्रिया से न होकर क्रमिक प्रक्रिया से हुआ, ”नीचे से” न होकर ”ऊपर से” हुआ, नैसर्गिक गति के बजाय, विकृत-विलम्बित गति से हुआ, उसी प्रकार संविधान भी ऊपर से लादा गया, जो उत्तरऔपनिवेशिक भारत की वास्तविक सामाजिक स्थिति को परावर्तित करने के बजाय भारतीय पूँजीपति वर्ग की वास्तविक स्थिति, विवशताओं, ऐतिहासिक सीमाओं और उनसे पैदा हुई धूर्तताओं को अभिव्यक्ति देता था। बेशक पिछले छह दशकों के दौरान स्त्रियों और दलितों की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति में कुछ सुधार हुए हैं, पर क्रमिक विकास से इतना बदलाव तो इतिहास-विकास की स्वाभाविक गतिकी है। इतना बदलाव तो किसी भी पूँजीवादी सत्ता को टिकाऊ बनाने के लिए ज़रूरी होता है। निरंकुश सर्वसत्तावादी बुर्जुआ शासन टिकाऊ नहीं हो सकता। सीमित से सीमित बुर्जुआ जनवादी अधिकार देने वाली पूँजीवादी सत्ता भी शोषित-उत्पीड़ित जनसमुदाय के ऊपर अपना राजनीतिक-वैचारिक वर्चस्व (अपने शासन के लिए सहमति प्राप्त करने के लिए) स्थापित करने के लिए कुछ जनवादी सुधारों और अपने ”मानवीय चेहरे” का दिखावा करती रहती है तथा शोषित जनसमुदाय के कुछ अग्रणी एवं मुखर लोगों को व्यवस्था में सहयोजित (को-ऑप्ट) करके अपने सामाजिक अवलम्बों-आधारों का विस्तार करती रहती है। पूर्ववर्ती शासक वर्गों के वर्ग-अधिनायकत्व के मुकाबले इसी मायने में पूँजीपति वर्ग के वर्ग-अधिनायकत्व (उसकी राज्यसत्ता) के चरित्र की एक बुनियादी भिन्नता होती है। हर किस्म का पूँजीवादी जनवाद पूँजीपति वर्ग का बहुसंख्यक जनसमुदाय पर स्थापित वर्ग-अधिनायकत्व होता है, पर देश-विशेष का पूँजीपति वर्ग शासित जनता को कितने जनवादी अधिकार देता है, यह इस पर निर्भर करता है कि उक्त देश में पूँजीवादी विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया कैसी रही है, वहाँ उत्पादक शक्तियों के विकास का स्तर कितना उन्नत है, नीचे से संगठित किसी रैडिकल सामाजिक बदलाव से निर्बन्ध होने वाली जनता की चेतना और आकांक्षा को नियंत्रित कर पाने में शासक वर्ग कितना सक्षम है, पूँजीवादी व्यवस्था के संकटों को झेल पाने में वह कितना सक्षम है तथा विश्व-पूँजीवाद के चौधरियों (साम्राज्यवादियों) के अधीन उसकी मातहती कितनी कम या ज़्यादा है! आगे जब हम ‘सम्प्रभुता’ की चर्चा करेंगे तो यह आख़िरी वाली बात और अधिक स्पष्ट हो जायेगी। भारतीय पूँजीपति वर्ग न तो साम्राज्यवादी विश्व से निर्णायक विच्छेद कर सकता था, न ही किसी रैडिकल भूमि क्रान्ति (नीचे से भूमि क्रान्ति) से निर्बन्ध हुई जन ऊर्जा के आवेग को सँभाल सकता था, इसीलिए स्वाभाविक था कि वह जनता को सीमित जनवाद ही दे सकता था। लेकिन क्रमिक विकास से सामाजिक स्थितियों और चेतना में कुछ बदलाव तो लाज़िमी तौर पर होने ही थे (ये बुर्जुआ शासन की निरन्तरता के लिए ज़रूरी भी थे)। इतिहास की इस अपरिहार्य गति का श्रेय भारतीय संविधान के ”प्रगतिशील” या ”जनवादी” चरित्र को नहीं दिया जा सकता।

यहीं पर यह ज़रूरी लगता है कि दृष्टिकोण की स्पष्टता के लिए, मूल प्रसंग से थोड़ा हटते हुए, बुर्जुआ जनवाद के बारे में थोड़ी चर्चा और कर ली जाये।

अपने शुरुआती चिन्तन के दौर से ही मार्क्‍स का मानना था कि सच्चा जनवाद तो राज्य के विलोपन तथा राज्य और नागरिक समाज के बीच के विभाजन की समाप्ति के बाद ही अस्तित्व में आ सकता है। जब तक शासक और शासित के बीच विभाजन रहेगा तब तक राजनीतिक दायरे में पूरे समाज के हित साझा नहीं हो सकते और समाज भी एकजुटता और समान हितों के जैविक तन्त्र के रूप में संगठित नहीं हो सकता। आगे चलकर, पेरिस कम्यून की उन्होंने इसीलिए प्रशंसा की कि इसके प्रतिनिधि अपने निर्वाचकों के औपचारिक अनुदेशों से बँधे हुए थे और उन्हें कभी भी वापस बुलाया जा सकता था। कम्यून कार्यपालिका भी था और विधायिका भी। संसद में शासक वर्ग के कौन से प्रतिनिधि जनता का तीन या छह वर्षों तक छद्म प्रतिनिधित्‍व करेंगे, इसके बजाय सार्विक मताधिकार कम्यूनों में संगठित जनसमुदाय की वास्तविक हितपूर्ति करता था। कम्यून सर्वहारा अधिनायकत्व का पहला मॉडल था जो सिद्ध करता था कि सर्वहारा का वर्ग-शासन किसी भी बुर्जुआ जनवाद से सैकड़ों गुना अधिक जनवादी होगा। बुर्जुआ जनवाद के बारे में मार्क्‍स का विचार था कि सार्विक मताधिकार, राजनीतिक आज़ादी, विधि का शासन और राजनीतिक प्रतियोगिता इसकी मुख्य अभिलाक्षणिकताएँ होती हैं। पूँजीवादी जनवादी गणराज्य का संविधान बुर्जुआ वर्ग की सामाजिक सत्ता का अनुमोदन करता है और उसका आधार तैयार करता है लेकिन साथ ही जनवादी स्थितियाँ विरोधी वर्गों को बुर्जुआ सत्ता की राजनीतिक गारण्टी के विरुद्ध संगठित होने और इस पर चोट करने का आधार मुहैया करा देती हैं। मार्क्‍स की स्थापनाओं को और अधिक स्पष्ट तथा विकसित-विस्तारित करते हुए लेनिन ने सामान्य तौर पर ”जनवाद” की बात करने को एक उदारतावादी विभ्रम बताया। उनके अनुसार, बुर्जुआ जनवाद राज्य के किसी भी अन्य रूप की तरह वर्ग शासन का एक रूप होता है जिसे ध्वस्त कर सोवियतों (लोक पंचायतों) की व्यवस्था के रूप में सर्वहारा अधिनायकत्व क़ायम करना होता है। यह पहले की किसी भी व्यवस्था के मुकाबले अधिक जनवादी होती है। साथ ही, लेनिन ने बुर्जुआ जनवाद की और गहरी पड़ताल करते हुए स्पष्ट किया कि अपना प्रभुत्व क़ायम रखने के लिए बुर्जुआ वर्ग कभी बल-प्रयोग और पुरानी एवं कालातीत संस्थाओं को सहारा देने का रूढ़िवादी तरीका अपनाता है तो कभी सुधारों, रियायतों, राजनीतिक अधिकारों के विकास की ”उदारतावादी” कार्यनीति अपनाता है। ये तरीके कभी पारी-पारी से इस्तेमाल होते हैं तो कभी एक-दूसरे से गुँथे-बुने होते हैं। इनका मूल कारण बुर्जुआ वर्ग की अपनी स्थिति की आधारभूत अन्तरविरोधी प्रकृति है। दृढ़तापूर्वक स्थापित प्रतिनिधिमूलक व्यवस्था और नागरिकों को (हालाँकि संस्तर के हिसाब से अलग-अलग मात्रा में) कुछ निश्चित राजनीतिक अधिकार दिये बिना सामान्य पूँजीवादी समाज का सफल विकास नहीं किया जा सकता। ऐसे समाज की चेतना व संस्कृति का धरातल ऊँचा करने की अपेक्षा होगी। यह अपेक्षा ऊँची तकनीक, जटिलता, नमनीयता, गतिशीलता, विश्व-प्रतिद्वन्द्विता आदि के तीव्र विकास के साथ स्वयं पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली की परिस्थितियों से ही पैदा होती है। लेनिन ने इस बात पर बल दिया कि आम तौर पर पूँजीवाद, और खास तौर से साम्राज्यवाद जनवाद को एक भ्रम बना देता है, लेकिन इसके साथ ही पूँजीवाद जन साधारण में जनवादी आकांक्षाएँ पैदा करता है, जनवादी संस्थाओं का निर्माण करता है तथा जनवाद को अस्वीकृत या संकुचित या भ्रम बनाने वाले साम्राज्यवाद तथा जनवाद की चाहत रखने वाले जन समुदाय के बीच के विरोध को तीखा करता है। पूँजीवाद का नाश केवल आमूलगामी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक क्रान्ति द्वारा ही हो सकता है, पर इस क्रान्ति की अगुवाई वही सर्वहारा कर सकता है, और उसके नेतृत्व में वही मेहनतकश जन इसे अंजाम दे सकते हैं जो जनवाद के संघर्ष में शिक्षित हों। बुर्जुआ वर्ग का तख्ता पलटने की तैयारी में सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ स्वयं उसी द्वारा सृजित एवं विकृत की जाने वाली जनवादी संस्थाओं एवं आकांक्षाओं का इस्तेमाल करता है। ऐसा यदि वह नहीं करता है तो संघर्ष का एक बड़ा मैदान अवसरवादियों-सुधारवादियों के लिए छोड़ देता है, जिससे पूँजीवादी व्यवस्था को काफी राहत और ताक़त मिल जाती है।

जब हम भारत के संविधान और जनवाद (लोकतन्त्र) की बुर्जुआ अन्तर्वस्तु और ऐतिहासिक विशिष्टताओं की चर्चा कर रहे हैं तो संविधान की प्रस्तावना की विवेचना से शुरुआत करते समय ही पूँजीवादी जनवाद के प्रति मार्क्‍सवादी पहुँच-पद्धति विषयक इन आम प्रस्थापनाओं का संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक था। हम यह नहीं कह सकते कि भारतीय संविधान में उल्लिखित जनवाद पूरी तरह से दिखावा था। बेशक यह अति संकुचित था और विकृत था, क्योंकि यह उस बुर्जुआ वर्ग का जनवाद था, जो उपनिवेशवाद के गर्भ से जन्मा था, ”समझौता-दबाव-समझौता” की रणनीति अपनाकर तथा साम्राज्यवादी विश्व के संकटों-अन्तरविरोधों का लाभ उठाकर राजनीतिक सत्ता हासिल करने की मंज़िल तक पहुँचा था तथा साम्राज्यवादी सदी के मधयाह्न में सत्तारूढ़ हुआ था। यह न तो साम्राज्यवादी विश्व से निर्णायक विच्छेद कर सकता था, न ही क्रान्तिकारी ढंग से प्राक-पूँजीवादी भूमि सम्बन्धों को तोड़ सकता था। अत: इसका जनवाद अति सीमित था। फिर भी, राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान जनता को साथ लेने की प्रक्रिया में इसने जनवादी आकांक्षाएँ पैदा की थीं और (साम्राज्यवाद का कनिष्ठ साझीदार होने के बावजूद) औद्योगिक पूँजीपति वर्ग होने के नाते, इसके पूँजीवादी उत्पादन एवं विनिमय तन्त्र के विस्तार के लिए भूमि सम्बन्धों का मंथर-क्रमिक रूपान्तरण भी इसके लिए ज़रूरी था तथा बुर्जुआ जनवादी संस्थाओं की मौजूदगी भी, चाहे उनका रूप जितना भी संकुचित, विकृत और मुख्यत: रस्मी ही क्यों न हो! आश्चर्य नहीं कि वैश्विक और अन्दरूनी संकटों का दबाव इसे ज़्यादा से ज़्यादा रस्मी और विकृत होने तथा क्षरित-विघटित होने की दिशा में धकेल रहा है। ऐसे में, विभिन्न सुधारवादी-उदारवादी और छद्म वामपन्थी शक्तियाँ विविध रूपों में इसी व्यवस्था के भीतर विरोध पक्ष की प्रतिसन्तुलनकारी भूमिका निभा रही हैं, दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति की भूमिका निभा रही हैं। दमन-दबाव और उदारतावाद की नीतियाँ साथ-साथ मिले रूपों में सामने आ रही हैं।

अब फिर हम भारतीय संविधान की प्रस्तावना में घोषित आभासी तौर पर उदात्त उच्चादर्शों की सच्चाई उद्धाटित करने की मूल विषयवस्तु पर वापस लौटते हैं। पहले चर्चा की जा चुकी है कि स्त्रियों को मताधिकार और अस्पृश्यता के उन्मूलन जैसी संविधान की घोषणाएँ निहायत रस्मी और खोखली थीं। इन घोषणाओं के पीछे संविधान के रैडिकल चरित्र की नहीं बल्कि विशेष ऐतिहासिक दौर की भूमिका थी। इन घोषणाओं में न तो ज़मीनी हक़ीक़त प्रतिबिम्बित होती थी, न ही उसे बदलने में उनकी कोई अहम भूमिका थी। क्रमिक गति से यदि कुछ मात्रात्मक या आंशिक गुणात्मक बदलाव आया भी, तो वह स्वाभाविक ऐतिहासिक क्रम-विकास और पूँजीवादी उत्पादन-तन्त्र की आन्तरिक ज़रूरत से आया था।

अब हम प्रस्तावना में उल्लिखित दूसरे महत्वपूर्ण शब्द ”न्‍याय” की चर्चा करेंगे जिसे अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना से उठा लिया गया है। इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए ”सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक” विशेषण जोड़ दिये गये हैं। सर्वहारा वर्ग के स्टैण्ड प्वाइण्ट से यदि सोचें तो जब तक सामूहिक उत्पादक मेहनतकश समुदाय अधिशेष के सामूहिक हस्तगतकर्ता भी न बन जायें और पूँजीवादी शोषण का खात्मा न हो जाये, तब तक आर्थिक न्याय का कोई मतलब नहीं है। उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर जब तक उत्पादक जन समुदाय काबिज़ न हो जाये और निर्णय की ताक़त उसके हाथों में न आ जाये तब तक राजनीतिक न्याय का कोई अर्थ नहीं है। वर्गीय शोषण के सभी रूपों के खात्मे की प्रक्रिया के साथ-साथ जब तक जेण्डर, जाति, नस्ल, राष्ट्रीयता, धर्म आदि पर आधारित सभी किस्म के अन्याय और शोषण-उत्पीड़न के खात्मे की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ेगी, तब तक सामाजिक न्याय की स्थापना का हर दावा खोखला और बेमानी है।

सामाजिक न्याय की बात करते हुए संविधान-निर्माताओं के ज़ेहन में संविधान में उल्लिखित वाद-योग्य (जिनको लेकर अदालत में जाया जा सकता हो) मूलभूत अधिकारों तथा ऐतिहासिक रूप से संरचित जेण्डर और जाति-आधारित उत्पीड़न की समाप्ति की बात थी। मूलभूत अधिकारों की असलियत पर आगे बात करेंगे। स्त्रियों और दलितों की स्थिति की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। राजनीतिक न्याय की चर्चा करते हुए संविधान-निर्माताओं के दिमाग़ में सार्विक मताधिकार की बात थी। बेशक यह एक बुर्जुआ जनवादी अधिकार था। पर आज सभी यह जानते हैं कि, आदर्श स्थिति में भी, बुर्जुआ संसदीय प्रणाली में आम जनता का चुनने का अधिकार सिर्फ इस बात का होता है कि उनका प्रतिनिधित्‍व करने के नाम पर शासक वर्गों का कौन-सा प्रतिनिधि आगामी तीन या पाँच वर्षों तक उन पर शासन करे! संसद केवल महँगी बहसबाज़ी का अड्डा होता है और सरकारें पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी की भूमिका निभाती हैं। आज के भारत में संसदीय चुनाव और संसदीय राजनीति में पूँजी और ताक़त का खेल इतने खुले और घृणित रूप में हो रहा है और भ्रष्टाचार का मैला भरा मटका इस तरह चौराहे पर फूट गया है कि सार्विक मताधिकार से राजनीतिक न्याय मिलने का दावा एक अश्लील प्रहसन बनकर रह गया है। विश्वास बहाली और ‘डैमेज कण्ट्रोल’ के लिए पूँजीपति वर्ग के सुलझे हुए प्रतिनिधि और स्वयं सरकार भी सक्रिय हो गयी है तथा ‘सिविल सोसायटी’ के सुधारवादी लोग व्यवस्था के दामन पर लगे दागों को साफ़ करने में जुट गये हैं।

सबसे भोंड़ा-भद्दा मज़ाक तो आर्थिक न्याय की बात है। मूलभूत अधिकारों का अध्याय इसके बारे में कुछ नहीं कहता। राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में (जो वाद-योग्य नहीं हैं, मात्र ”आदर्श और लक्ष्य” हैं) इनकी सामान्य चलताऊ चर्चा है। मूलभूत अधिकारों में सम्पत्ति का अधिकार तो शामिल है, लेकिन काम करने का अधिकार नहीं। राज्य नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति की भी ज़िम्मेदारी नहीं लेता। ऐसे में आर्थिक न्याय की बात करना खाली कनस्टर पीटने से अधिक कुछ नहीं है। इस प्रश्न पर हम आगे फिर लौटेंगे। प्रस्तावना के अगले तीन शब्दों — ”स्‍वतन्त्रता”, ”समता” और ”बन्धुत्व” — में प्रबोधनकालीन राजनीतिक दर्शन और फ़्रांसीसी क्रान्ति के आदर्शों की अनुगूँजें सुनाई पड़ सकती हैं। लेकिन कुछ परिभाषात्मक विशेषण और क्रिया-विशेषण जोड़कर इनके वास्तविक अर्थ को हल्का और विकृत बना दिया गया है। जैसे ”समता” की परिभाषा ”प्रतिष्ठा और अवसर की समता” के रूप में की गयी है। समता के बारे में रूसो की स्पष्ट धारणा थी कि भौतिक चीज़ों तक जिनकी समान पहुँच नहीं है, उनकी क़ानून तक भी समान पहुँच नहीं हो सकती। मार्क्‍सवाद इस सोच को यहाँ तक विस्तार देता है कि जो भौतिक वस्तुओं तक पहुँच के मामले में बराबर नहीं, वे ”अवसर” तक पहुँच के मामले में भी बराबर नहीं हो सकते। ”बन्धुता” के नारे को लेकर भी ऐसा ही प्रपंच रचा गया है। कैथोलिकों और प्रोटेस्टेण्टों के बीच भयंकर धर्मयुद्धों से त्रस्त यूरोप में ”बन्धुता” के मूल प्रबोधनकालीन सूत्रीकरण का निहितार्थ था विभिन्न धार्मिक विश्वासों वाले लोगों के बीच बन्धुता। धार्मिक-साम्प्रदायिक बँटवारों को पाटे बिना और वर्ग-शत्रुताओं का शमन किये बिना ”राष्‍ट्र की एकता” सम्भव नहीं थी जो पूँजीवादी राष्ट्रीय बाज़ार के निर्माण के लिए ज़रूरी थी। भारतीय पूँजीपति वर्ग ने धार्मिक-साम्प्रदायिक आधार पर देश के विभाजन के साथ उपनिवेशवादियों से सत्ता हासिल की थी। पर सत्तारूढ़ होने के पहले से ही वह जन एकजुटता को तोड़ने में साम्प्रदायिकता की भूमिका और बुर्जुआ सत्ता के वर्चस्व के सुदृढ़ीकरण में धर्म की भूमिका को बखूबी समझता था। इसीलिए धार्मिक कलह, जातिगत विभेद और वर्ग ध्रुवीकरण के प्रश्नों को दरकिनार करते हुए बन्धुता के जुमले को इसने ”व्‍यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता” तक सीमित कर दिया। यहाँ यह भी प्रतीत होता है कि संविधान-निर्माता प्रबोधनकाल के रैडिकल आदर्शों में विश्वास के दिखावे के साथ ही व्यक्तिवाद की एँग्लो-सैक्सन परम्पराओं से (जिसके वे मानस-पुत्र थे) अपने जुड़ाव का भी तालमेल करना चाहते थे।

यहीं पर प्रस्तावना की पहली ही पंक्ति में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता की भी चर्चा समीचीन होगी। यूरोपीय पुनर्जागरण और प्रबोधन काल से जन्मे क्लासिकी बुर्जुआ जनवादी अर्थों में धर्मनिरपेक्षता का स्पष्ट अर्थ था — धार्मिक संस्थाओं-अनुष्ठानों का राज्य से और राजनीतिक दायरे से पूर्ण पृथक्करण और धार्मिक विश्वासों को निजी जीवन के दायरे तक सीमित कर देना। धर्मनिरपेक्षता की अधिक रैडिकल व्याख्या धार्मिक आस्था को निजी आज़ादी या विश्वास के दायरे तक सीमित रखती है। कोई भी व्यक्ति, समुदाय या राज्य अपने धार्मिक विश्वासों को किसी अन्य नागरिक पर आरोपित नहीं कर सकता, उसके धार्मिक-अधार्मिक, आस्तिक-नास्तिक निजी विश्वासों की आज़ादी नहीं छीन सकता, और राजनीति ही नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन के हर पहलू से धर्म का पूर्ण पृथक्करण होना चाहिए। धर्मनिरपेक्षता की यह अवधारणा प्रबोधनकाल की इस उद्धोषणा से उपजी थी कि ”अब से अन्‍धविश्‍वास, अन्याय, विशेषाधिकारों तथा अत्याचार को शाश्वत सत्य, शाश्वत न्याय, स्वयं प्रकृति से उपजी समानता तथा मनुष्य के जन्मसिद्ध अधिकारों के लिए जगह खाली करनी होगी” फ्रेडरिक एँगेल्स: ‘डयूहरिंग मत-खण्डन’ की भूमिका)। भारतीय बुर्जुआ वर्ग और संविधान-निर्माता सिद्धान्तकारों की धर्मनिरपेक्षता की सोच इससे अलग थी। भारतीय बुर्जुआ वर्ग के सिद्धान्तकारों ने धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या ”सर्वधर्म समभाव” के रूप में की। व्यवहार में सर्वधर्म समभाव का विचार तमाम प्राक्पूँजीवादी विचारों-संस्थाओं की मौजूदगी, धार्मिक आधारों पर जनता को बाँटने की ज़रूरत और वोटबैंक की राजनीति के चलते राजनीतिक, शिक्षा, संस्कृति और सामाजिक-नैतिक दायरे में धार्मिक मूल्यों-अन्‍धविश्वासों की मौजूदगी, साम्प्रदायिकता की राजनीति के उद्भव और विकास तथा कालान्तर में बहुसंख्यकों की धार्मिक कट्टरपन्थी राजनीति का प्रभाव-विस्तार होना ही था। पीछे मुड़कर देखें तो राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में भी भारतीय बुर्जुआ राजनीतिज्ञ जुझारू भौतिकवाद के वाहक़ नहीं थे। अतीतोन्मुखता व नरम से लेकर कट्टर धार्मिक पुनरुत्थानवाद के तत्व उसके विचारों में तब भी मौजूद थे। सत्तासीन होने के बाद, राज्य से धर्म के पूर्ण पृथक्करण के बजाय धर्मनिरपेक्षता को ”सर्वधर्म समभाव” के रूप में परिभाषित करना तथा परस्पर-विरोधी धर्मावलम्बियों के बीच बन्धुता सुनिश्चित करने के बजाय बन्धुता के जुमले को व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता-अखण्डता से जोड़ देना (अखण्ड भारत के झण्डाबरदार हिन्दू कट्टरपन्थी भी बन्धुता की बात करते हैं, पर उसमें ”संयुक्त परिवार टाइप राष्ट्र” में अल्पसंख्यक छोटे भाइयों को हर हाल में बहुसंख्यक बड़े भाइयों का अधीनस्थ आज्ञाकारी होना होगा) भारतीय बुर्जुआ वर्ग के ऐतिहासिक चरित्र के सर्वथा अनुरूप था। आश्चर्य नहीं कि बुर्जुआ संसदीय राजनीति में भाजपा की कट्टर केसरिया लाइन के साथ कांग्रेस व अन्य दल भी समयानुसार नरम केसरिया लाइन अपनाते हैं या मतों के धार्मिक और जातिगत (जाति प्रश्न को धर्म से एकदम अलग करके नहीं देखा जा सकता) ध्रुवीकरण का लाभ उठाते रहते हैं। इस पूरी स्थिति में विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता भी ज़ाहिरा तौर पर सभी धर्मावलम्बियों के लिए (और नास्तिक विश्वास वालों के लिए भी) समान नहीं है। धर्म की सामाजिक-राजनीतिक जीवन में दखलन्दाज़ी और साम्प्रदायिकता की राजनीति और संस्कृति ने अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर ”प्रतिष्ठा और अवसर की समता” के जुमले को कितना भद्दा मज़ाक बना दिया है, यह तो राजिन्दर सच्चर आयोग की रिपोर्ट से भी साफ़ हो चुका है। दलितों और अनुसूचित जातियों की भी ऐसी ही स्थिति है, इसकी साक्षी अनेक गैर-सरकारी रिपोर्टें हैं।

वैसे यह जानना ज़रूरी है कि पश्चिम का जो बुर्जुआ वर्ग बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के बाद सत्तासीन हुआ था, उसने भी सत्तासीन होने के बाद जनता और क्रान्ति के आदर्शों के साथ विश्वासघात किया था और चर्च के साथ ”पवित्र गठबन्‍धन” करके जुझारू भौतिकवादी तर्कणा के झण्डे को किनारे रख दिया था। उत्पादन की प्रगति के लिए उसे उच्च तकनीक और विज्ञान की ज़रूरत थी, पर बुर्जुआ सत्ता को टिकाऊ बनाने के लिए जनता को धार्मिक अन्‍धविश्वासी व अतार्किक बनाये रखना ज़रूरी था। वैसे भी पूँजीवादी समाज में धर्म का एक नया भौतिक आधार तैयार हो जाता है। जीवन को प्रभावित करने वाली अदृश्य प्राकृतिक शक्तियों के बारे में अज्ञान आदिम धर्म के उद्भव का मूल कारण था। आधुनिक जीवन को संचालित करने वाली ‘माल’ (कमोडिटी) की अदृश्य सत्ता के बारे में अदृश्य ईश्वरीय सत्ता, भाग्यवाद और कर्मकाण्ड का नया सामाजिक आधार बन जाता है। पूँजीवाद के असाध्य संकटों का हल जब शासक वर्ग किसी किस्म के फासीवाद में ढूँढ़ता है तो अलग-अलग समाजों में उसका चेहरा धार्मिक कट्टरपन्थ या नस्लवाद या जातिवाद का भी हुआ करता है।

प्रबोधनकाल के महान दार्शनिकों ने अन्‍धविश्‍वास, अन्याय, विशेषाधिकारों तथा अत्याचार की जगह शाश्वत सत्य, शाश्वत न्याय, स्वयं प्रकृति से उपजी समानता तथा मनुष्य के जन्मसिद्ध अधिकारों को केन्द्र में स्थापित करने वाले बुद्धि के जिस राज की बात की थी, वह बुर्जुआ वर्ग के राज का आदर्शीकरण मात्र था। यह इन महान चिन्तकों के चिन्तन की युगीन सीमा थी। जैसा कि एँगेल्स ने लिखा था, बुर्जुआ वर्ग के सत्तासीन होने के बाद ”…शाश्वत न्याय ने बुर्जुआ न्याय में मूर्त रूप प्राप्त किया, कि समानता क़ानून के सामने नागरिक समानता बनकर रह गयी, कि बुर्जुआ सम्पत्ति को मनुष्य के सबसे मूलभूत अधिकारों में से एक घोषित कर दिया गया। बुद्धि का राज — रूसो की सामाजिक संविदा — क़ेवल बुर्जुआ जनवादी गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आया और केवल उसी रूप में अस्तित्व में आ सकता था।”

भारतीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में तो राष्ट्रीय आन्दोलन के समय भी जुझारू भौतिकवाद और क्रान्तिकारी जनवाद का झण्डा नहीं था। यह पुनर्जारण-प्रबोधन की प्रक्रिया से आगे नहीं बढ़ा था, यह कृषि-दस्तकारी-मैन्युफैक्चरिंग की नैसर्गिक गति से विकसित न होकर औपनिवेशिक सामाजिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ था। गाँधी का क्लासिकी बुर्जुआ मानवतावाद भी जुझारू तर्कणा नहीं बल्कि धार्मिक सुधारवादी था और उनका धार्मिक सुधारवाद तोल्स्तोय से भी काफी पीछे था। दलितों के नेता अम्बेडकर भी जुझारू सामाजिक संघर्षों और रैडिकल भूमि सुधार के विरोधी थे, वे ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के संवैधनिक सुधारवाद के भक्त थे और फ्रांसीसी जन क्रान्ति जैसे जिस सामाजिक तूफान ने बुर्जुआ जनवादी मूल्यों (जिनके वे हामी थे) को जन्म दिया, वैसी किसी जन क्रान्ति से भी उनका परहेज़ था। नेहरू का समाजवाद एक लोकलुभावन मध्यवर्गीय यूटोपिया से अधिक कुछ भी नहीं था। याद रखना होगा कि नौसेना विद्रोह का विरोध करने वाले और तेलंगाना किसान संघर्ष के सैनिक दमन की अनुमति देने वाले तथा केरल में पहली वामपन्थी सरकार को असंवैधनिक ढंग से बर्खास्त करने वाले व्यक्ति नेहरू ही थे। कांग्रेस के पटेल, पन्त, टण्डन, मोरारजी आदि नेता तो धुर दक्षिणपन्थी और सामाजिक मामलों में भी पुरातनपन्थी रूढ़िवादी थे। सत्ता मिलने की सम्भावना निकट आने के साथ ही कांग्रेस के समझौतों की शुरुआत हो चुकी थी। 1935 से लेकर 1946 में संविधान सभा के गठन के दौर तक की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। ऐसे में संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता, न्याय, स्वतन्त्रता, समता, बन्धुता आदि प्रबोधनकालीन आदर्शों का लेबल बरकरार रखते हुए उनके निहितार्थों को बदलने की जो मक्कारी की गयी है और उदात्त आदर्शों को खोखला नारा बनाकर जो लफ्फाज़ी की गयी है, वह ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं है।

 (अगले अंक में : संविधान की प्रस्तावना की जारी समालोचना के अन्तर्गत सम्प्रभुता, समाजवाद और लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की घोषणाओं पर चर्चा)

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2011

 


 

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