कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (दसवीं किस्त)
संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित सम्प्रभुता की असलियत

आलोक रंजन

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सम्प्रभुता की आधुनिक अवधारणा को विकसित करने में हॉब्स और रूसो जैसे प्रबोधनकालीन दार्शनिकों से लेकर अमेरिकी क्रान्ति और फ़्रांसीसी क्रान्ति के सिद्धान्तकारों तक की अहम भूमिका थी। यह ईश्वरीय स्वीकृति प्राप्त राजा की सम्प्रभु सत्ता की जगह जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की सत्ता के माध्यम से जनता को सम्प्रभु बनाने की, यानी स्वतन्त्र निर्णय लेने की सम्पूर्ण क्षमता से लैस बनाने की, क्रान्तिकारी अवधारणा थी। आन्तरिक सन्दर्भों में सम्प्रभुता का अर्थ यह था कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा नीति-निर्माण और क्रियान्वयन-सम्बन्धी निर्णय लेने की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता थी, वहीं बाह्य सन्दर्भों में इसका अर्थ राज्यसत्ता का किसी भी अन्य देश के हस्तक्षेप या दबाव से मुक्त होना था।

जहाँ तक जनता को सम्प्रभु बनाने का प्रश्न है, विश्व इतिहास में, बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों ने भी कहीं जनता को सम्प्रभु नहीं बनाया। हर प्रकार के बुर्जुआ जनवादी गणराज्य में जनता के मताधिकार के बावजूद (हालाँकि कई देशों में स्त्रियों को मताधिकार काफी बाद में मिला) वास्तव में सत्ता बुर्जुआ वर्ग के ही हाथों में केन्द्रित रही। पूँजीवाद के ऐतिहासिक युग में सम्प्रभुता का अर्थ पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता की, आन्तरिक और बाह्य सन्दर्भों में, निर्णय लेने की स्वतन्त्रता थी। जो उपनिवेशवादी देश थे, उनकी बुर्जुआ सत्ताएँ सम्प्रभु थीं। दूसरी ओर उपनिवेश, अर्द्धउपनिवेश और नाममात्र की स्वतन्त्रता वाले वित्तीय उपनिवेश थे, जहाँ सत्ताओं की सम्प्रभुता सम्भव ही नहीं थी। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के तीन दशकों के दौरान एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका के अधिकांश उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों ने राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल कर ली। कुछ देश अमेरिकी नवउपनिवेश बन गये, पर यह स्थिति भी ज़्यादा दिनों तक बनी नहीं रही। अब समय ‘बिना उपनिवेशों के साम्राज्यवाद’ का था जहाँ उत्पादक शक्तियों के विकास में अन्तर के हिसाब से, उन्नत पूँजीवादी देश पिछड़े पूँजीवादी देशों की जनता का शोषण करते थे। किसी भी नवस्वाधीन देश की बुर्जुआ सत्ता पूर्णत: सम्प्रभु नहीं थी। उनकी सम्प्रभुता खण्डित थी, अलग-अलग अंशों में सीमित थी। जिन देशों के बुर्जुआ वर्गों ने परिस्थितियों का लाभ उठाकर और समझौते करके सत्ता प्राप्त की थी, उनकी सम्प्रभुता अधिक सीमित थी। जिन देशों के बुर्जुआ वर्गों ने जुझारू जनसंघर्ष या राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तियों के ज़रिये सत्ता हासिल की थी, उनकी सम्प्रभुता सापेक्षत: अधिक थी। लेकिन पूँजीवादी विकास के रास्ते पर आगे बढ़ने के साथ ही इन देशों का बुर्जुआ वर्ग भी साम्राज्यवाद से समझौते के लिए विवश होता चला गया। कालान्तर में तीसरी दुनिया के सभी देशों के बुर्जुआ विश्व पूँजीवादी तन्त्र में अपनी-अपनी ताक़त के हिसाब से अलग-अलग सोपानों पर साम्राज्यवाद के कनिष्ठ साझीदार के रूप में व्यवस्थित हो गये।

प्रबोधनकालीन आदर्शों के मानदण्डों पर खरी उतरने वाली ‘राष्ट्र की सम्प्रभुता’ यदि कहीं ‘जनता की सम्प्रभुता’ के पर्याय के रूप में स्थापित हो सकी तो उन देशों में, जहाँ सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में हुई समाजवादी क्रान्ति (1917 की सोवियत क्रान्ति) या लोक जनवादी क्रान्तियों (चीन, कोरिया, वियतनाम आदि) ने साम्राज्यवादी विश्व से निर्णायक विच्छेद किया था।

अब हम भारत की विशेष स्थिति की ओर लौटते हैं। भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक राष्ट्रीय जनान्दोलन का नेतृत्व करते हुए, ‘समझौता-दबाव-समझौता’ की रणनीति अपनाते हुए और विश्व परिस्थितियों का सटीक ढंग से लाभ उठाते हुए सत्ता हासिल की थी। सत्ता-हस्तान्तरण के संक्रमणकालीन दौर की जिन परिस्थितियों की पहले चर्चा की जा चुकी है, उससे स्पष्ट है कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग की सत्ता की सम्प्रभुता प्रारम्भ से ही खण्डित और सीमित-संकुचित थी। राजनीतिक स्वतन्त्रता के बावजूद, भारत के शासक वर्ग ने साम्राज्यवादी विश्व से निर्णायक विच्छेद नहीं किया। कई साम्राज्यवादी देशों की प्रतिस्पर्धा का लाभ उठाते हुए, साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी की मदद लेते हुए और उसे शोषण का अवसर देते हुए उसने क्रमिक पूँजीवादी विकास का रास्ता चुना। केवल साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी की मदद से पूँजीवादी विकास का रास्ता किसी एक साम्राज्यवादी देश के नवउपनिवेश जैसी स्थिति पैदा कर सकता था या साम्राज्यवादी दबाव बहुत अधिक बढ़ा सकता था। इससे बचने के लिए अन्तर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा और साम्राज्यवादी तथा समाजवादी शिविरों के बीच के टकराव का लाभ उठाने के साथ-साथ भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने पूँजी संचय की समस्या को हल करने के लिए राजकीय पूँजीवाद (पब्लिक सेक्टर) का रास्ता चुना और आम जनता को निचोड़कर आधारभूत एवं ढाँचागत उद्योगों का ढाँचा खड़ा किया। इस तरह साम्राज्यवादी विश्व में, अपनी आर्थिक कमज़ोरी के बावजूद और साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी को लाभ कमाने की छूट देते हुए भी, भारतीय बुर्जुआ वर्ग ने निर्णय और कार्रवाई करने की अपनी स्वतन्त्रता, मूलत: और मुख्यत: बनाये रखी। इन अर्थों में भारतीय बुर्जुआ सत्ता, काफी हद तक (सम्पूर्णत: नहीं) सम्प्रभु थी, पर यह सम्प्रभुता जनता की सम्प्रभुता नहीं थी।

भारतीय राज्य का यही चरित्र हमें नेहरू की विदेश नीति में देखने को मिलता है। एक ओर नेहरू ने संरक्षणवादी तथा आयात-प्रतिस्थापन (इम्पोर्ट-सब्स्टीटयूशन) की आर्थिक नीति अपनायी, दुनिया के राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों का समर्थन (हालाँकि यह समर्थन मौखिक से आगे नहीं गया) किया, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के भागीदार बने बहुपक्षीय सामरिक सन्ध्यिों से अलग रहे, लेकिन दूसरी ओर उन्होंने माउण्टबेटन को गवर्नर जनरल बनाये रखकर, ब्रिटिश कम्पनियों की पूँजी और परिसम्पत्तियों को ज़ब्त न करके और उन्हें कारोबार जारी रखने की इजाज़त देकर तथा कॉमनवेल्थ में शामिल होकर ब्रिटेन को भविष्य में अच्छे सम्बन्धों के प्रति आश्वस्त भी किया। अन्य पश्चिमी देशों की ओर भी उन्होंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया तथा तकनोलॉजी एवं वित्त के वांछित स्रोत के तौर पर अमेरिका को देखते हुए उससे बेहतर रिश्ते बनाने की भरपूर कोशिश की। वास्तव में, यह अमेरिका था जिसने मैकार्थीवादी कम्युनिस्ट विरोधी लहर, डलेस भाइयों की विदेश नीति, सैनिक गठबन्‍धनों की नवउपनिवेशवादी नीति और शीतयुद्ध के प्रभाव में, नेहरू की ”समाजवादी” जुमलेबाज़ियों और सापेक्षत: स्वतन्त्र आर्थिक नीति को सन्देह की निगाह से देखा तथा नेहरू के दोस्ताना रुख़ की भरपूर उपेक्षा की। इस अमेरिकी रुख़ और पश्चिमी देशों के दबाव का जवाब नेहरू ने गुटनिरपेक्ष नीति पर अपना ज़ोर बढ़ाकर तथा समाजवादी शिविर के प्रति अपनी नज़दीकियाँ बढ़ाकर दिया। सोवियत संघ अब उनके लिए तकनोलॉजी और वित्त का वैकल्पिक स्रोत था। दूसरी ओर, देश के भीतर नेहरू लगातार घोर कम्युनिस्ट विरोधी बने रहे। तेलंगाना किसान संघर्ष के बर्बर सैनिक दमन को इतिहास कभी भुला नहीं सकता। केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार (हालाँकि पार्टी तब तक संसदमार्गी हो चुकी थी) को निहायत स्वेच्छाचारी तरीक़े से बखरस्त करने का काम नेहरू ने ही किया था। गुटनिरपेक्ष देशों के ब्लॉक में अग्रणी भूमिका निभाकर तथा समाजवादी शिविर के साथ नज़दीकी बढ़ाकर नेहरू ने पश्चिम के साथ सौदेबाज़ी में अपनी स्थिति मज़बूत की। सोवियत संघ से प्राप्त सहायता ने तकनीकी प्रगति और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की प्रगति के साथ ही सामरिक शक्ति बढ़ाने में भी भारत की मदद की।

लेकिन इस अवधि‍ के दौरान भी भारतीय बुर्जुआ वर्ग अमेरिका से निकटता बढ़ाने की कोशिशें करता रहा और अमेरिका भी अपने हित साधने के हर अनुकूल अवसर का लाभ उठाने की कोशिश में लगा रहा। पड़ोसी देशों के प्रति नेहरू काल से ही भारतीय बुर्जुआ वर्ग का रुख़ विस्तारवादी और प्रभुत्ववादी रहा है। चीन के साथ सीमा विवाद भड़काने में नेहरू की भूमिका इसी रुख़ से प्रेरित थी। इस सीमा विवाद ने अमेरिका के साथ सामरिक सहकार के लिए ज़मीन तैयार की थी। साठ के दशक के मध्य में रुपये के अवमूल्यन के पीछे एक अहम कारण अमेरिकी दबाव था। तथाकथित हरित क्रान्ति ने अमेरिकी सरकारी एजेंसियों और एग्रो-कॉरपोरेशनों को भरपूर अवसर प्रदान किया कि वे भारतीय कृषि में प्रवेश कर सकें और आर्थिक नीतियों को प्रभावित कर सकें। उच्च शिक्षा की आंग्ल-अमेरिकी संस्थाओं में भारतीय कुलीन बौद्धिक तबक़ा प्रशिक्षित होता रहा। अर्थतन्त्र, तकनीकी तन्त्र और सामाजिक तन्त्र के नीति-निर्माण और प्रबन्‍धन में इस तबक़े की अहम भूमिका थी। कमोबेश 1980 के दशक तक भारतीय पूँजीपति वर्ग अन्तर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का लाभ उठाकर अपनी सीमित सम्प्रभुता को सुरक्षित बनाये रख सका। 1990 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के बाद स्थितियाँ बदलीं। एक अधिक एकीकृत विश्व पूँजीवादी व्यवस्था अस्तित्व में आयी जिसमें वित्तीय पूँजी का चरित्र अभूतपूर्व भूमण्डलीय था और राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार उसकी गति निर्बाध थी। भारतीय पूँजीपति वर्ग इस नयी विश्व-व्यवस्था में पूरी तरह से शामिल हो गया। विदेशी पूँजी के लिए राष्ट्रीय बाज़ार के दरवाज़े पूरी तरह से खोल दिये गये। राजकीय उद्यमों के बेरोकटोक निजीकरण की शुरुआत हुई। पिछली आधी सदी के भीतर उत्पादक शक्तियों का विकास करके भारतीय पूँजीपति वर्ग ने जो शक्ति हासिल की है, उसके सहारे तथा साम्राज्यवादियों की प्रतिस्पर्धा का लाभ उठाकर वह आज भी अपनी सीमित सम्प्रभुता बचाये हुए है, पर साम्राज्यवादियों के कनिष्ठ साझीदार के रूप में इसका चरित्र एकदम नंगा हो चुका है और यह बात एकदम साफ़ हो चुकी है कि भारतीय राज्यसत्ता की सम्प्रभुता भारतीय जनता की सम्प्रभुता क़तई नहीं है। देशी पूँजी और विदेशी पूँजी जनता की लूट के साझीदार हैं और बुर्जुआ राज्यसत्ता साम्राज्यवादी हितों की हिफाज़त के लिए वचनबद्ध है। रहे-सहे भ्रम भी अब टूट चुके हैं। दरअसल, नवउदारवाद की वर्तमान नीतियाँ उसी दिशा में यात्रा का तार्किक परिणाम हैं जो दिशा भारतीय पूँजीपति वर्ग ने सत्तारूढ़ होने के समय चुनी थी।

भारत जैसे किसी भी कृषि प्रधान पिछड़े हुए समाज में क्रान्तिकारी ढंग से भूमि-सम्बन्धों को बदले बिना व्यापक जनसमुदाय की सामूहिक पहलक़दमी और सामूहिक निर्णय की शक्ति विकसित ही नहीं की जा सकती थी और ऐसा किये बिना साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद भी सम्भव नहीं हो सकता था। चीन की लोक जनवादी क्रान्ति ने यही काम कर दिखाया था, जबकि भारत में यह सम्भव नहीं हो सका। इसके चलते भारतीय जनता न तो आन्तरिक तौर पर सम्प्रभुता-सम्पन्न हो सकी और न ही बाहरी तौर पर। संविधान में उल्लिखित सम्प्रभुता महज़ जुमलेबाज़ी ही बनकर रह गयी।

(अगले अंक में : संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित ”लोकतन्त्रात्मक गणराज्य” और ”समाजवाद” के ढोल की पोल)

मज़दूर बिगुल, मई-जून 2011

 


 

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