कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (बारहवीं किस्त)
प्रस्तावना में जोड़े गये “समाजवादी” शब्द की बेशर्म धोखाधड़ी

आलोक रंजन

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भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद शब्द 3 जनवरी 1977 को लागू हुए कुख्यात 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती कि समाजवाद शब्द आपातकाल के काले दिनों में और उस 42वें संशोधन विधेयक द्वारा जोड़ा गया जो राज्य के तथाकथित व्यापक हित में नागरिकों के जीवन के मूलभूत अधिकार का भी अपहरण कर लेने की इजाज़त देता था। समाजवाद शब्द उन दिनों जोड़ा गया जब देश में बुर्जुआ जनवाद के तहत मिले अधिकारों को भी छीन लिया गया था। दरअसल बढ़ते पूँजीवादी संकट के कारण राज्य की बढ़ती निरंकुशता और जनता के दमन-उत्पीड़न पर पर्दा डालने के लिए ही समाजवाद का साइनबोर्ड लटकाया गया था।

संविधान में भले ही यह शब्द बहुत बाद में जोड़ा गया मगर स्वतन्त्रता आन्दोलन आज़ादी के समय से ही समाजवाद और ”समाजवादी किस्म” की अर्थव्यवस्था की बातें कांग्रेस के नेता ख़ासकर जवाहरलाल नेहरू करते रहे थे। 1947 के बाद पंचवर्षीय योजनाएँ शुरू करते और सार्वजनिक क्षेत्र के विशाल उद्योगों में भारी निवेश करते हुए नेहरू ने ”समाजवादी ढर्रे” पर भारत का निर्माण करने की वचनबद्धता दोहरायी। कई कल्याणकारी योजनाएँ भी शुरू की गयीं। मगर क्या यही समाजवाद है? पिछले 40-50 वर्षों की यात्रा बताती है कि देश लगातार लुटेरे पूँजीपतियों की गिरफ्त में और गहरे धँसता गया है और इसकी शुरुआत 1947 में ही हो गयी थी। आज़ादी के ठीक बाद ही तेलंगाना में किसान आन्दोलन को कुचलने के लिए सेना उतारकर नेहरू ने भारतीय राज्य का असली चरित्र स्पष्ट कर दिया था। आगे हम जब केन्द्र-राज्य सम्बन्धों और भारतीय राज्य के संघात्मक ढाँचे पर चर्चा करेंगे तब और स्पष्ट हो जायेगा कि किस तरीके का दमनात्मक, अति केन्द्रीकृत राज्यतन्त्र यहाँ विकसित हुआ। लेकिन समाजवाद और समाजवादी किस्म के नारों की जुगाली नेहरू और दूसरे नेता लगातार करते रहे।

नेहरू के समाजवाद का अपना अलग ब्राण्ड था लेकिन मूल रूप में यह उसी तरह का ”समाजवाद” था जिस तरह के समाजवाद की बातें घाना में क्वामे एन्क्रूमा, मिस्र में जमाल अब्दुल नासिर, इण्डोनेशिया में सुकर्ण और सीरिया तथा इराक में बाथ पार्टी के नेता करते थे। इन सबका मूल लक्ष्य एक ही था। जनता को समाजवाद की चाशनी में पगी कड़वी दवा पिलाकर जनता से निचोड़े गये संसाधनों के बूते पर पूँजीवादी विकास के लिए जरूरी आधारभूत ढाँचे और भारी उद्योगों का निर्माण करना। इसकी असलियत की पड़ताल करनी जरूरी है।

नेहरू का समाजवाद कुछ मायने में तीसरी दुनिया के इन नवस्वाधीन देशों के बुर्जुआ नेताओं के मुकाबले कहीं अधिक कपटपूर्ण और जनविरोधी था। 1936 से ही कांग्रेस नियोजित अर्थव्यवस्था की बातें करने लगी थी। 1944 में कांग्रेस ने टाटा-बिड़ला योजना को स्वीकार किया और दरअसल वही 47 के बाद आर्थिक विकास की नीतियों का आधार बनी। इसमें भी नियोजित अर्थव्यवस्था और सार्वजनिक क्षेत्र की बात की गयी थी। घनश्याम दास बिड़ला आज़ादी के पहले से ही दूसरे पूँजीपतियों को समझाते रहते थे कि नेहरू समाजवाद की जो लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं उनसे घबड़ाने की ज़रूरत नहीं है, इनमें हमारा ही भला है।

उपनिवेशवाद से आज़ादी पाने वाले सभी देशों के सामने विकास के लिए पूँजी की समस्या थी। भारतीय पूँजीपतियों के सामने भी सबसे बड़ी समस्या प्रारम्भिक पूँजी-संचय की ही थी। पूँजीवादी विकास के लिए इस्पात, बिजली भारी मशीनरी जैसे बुनियादी उद्योगों और यातायात-परिवहन, सड़कों, रेलमार्गों, संचार-व्यवस्था आदि का ताना-बाना खड़ा करना था। कृषि में पूँजीवादी विकास और कृषि क्षेत्र से अधिशेष के दोहन के लिए नहरों, बाँधें आदि का निर्माण और बड़े उर्वरक कारख़ाने लगाना था। इन सबके लिए बहुत बड़े पैमाने पर पूँजी की ज़रूरत थी। इस पूँजी के लिए विदेशों पर निर्भरता से बचने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग ने जनता से पूँजी उगाहने का रास्ता चुना। पूँजीपतियों के औद्योगिक-व्यापारिक हितों की प्रतिनिधि संस्था ‘फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ कामर्स एँड इण्‍डस्ट्री’ (फिक्की) और कांग्रेस दोनों ने ही पहले से तय कर लिया था कि राजाओं-महाराजाओं, नवाबों, जागीरदारों, ज़मींदारों, मठों-मन्दिरों-मस्जिदों-गुरुद्वारों-गिरजाघरों के पास जनता की मेहनत की कमाई की सैकड़ों साल की लूट से बटोरी गयी जो अकूत सम्पत्ति पड़ी है उसे नहीं छूना है। यही नहीं ज़मींदारी उन्मूलन के दौरान उन्हें 600 करोड़ रुपये का हर्ज़ाना देने का भी निर्णय किया गया जो आज की क़ीमत पर लगभग 2 लाख करोड़ रुपये बैठेगा। अगर भारत में जन क्रान्ति हुई होती तो इस विराट सम्पदा को निश्चय ही विकास के लिए शुरुआती पूँजी संचय के रूप में इस्तेमाल किया जाता। उस समय तक भारत में उद्योग-धन्‍धे अत्यन्त सीमित होने के कारण उनसे निचोड़े गये अतिरिक्त मूल्य से निर्मित पूँजी इतनी कम थी कि उसके सहारे तो आधारभूत संरचना का विकास होने में सैकड़ों साल लग जाते।

ऐसे में प्रारम्भिक पूँजी जुटाने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग के पास दो ही रास्ते थे। पहला यह कि मज़दूरों-किसानों की नस-नस से खून निचोड़कर सिक्कों में ढाला जाये, आम जनता की गाढ़ी कमाई से भी पाई-पाई छीन ली जाये और उन्हें बदहाली और कंगाली में धकेल दिया जाये। इसके लिए उन्होंने तरह-तरह के छल-प्रपंच और तरक़ीबें ईजाद कीं। दूसरा रास्ता विदेशों से पूँजी आयात करने का था। इसमें भी भारतीय पूँजीपति वर्ग ने दुनिया के तत्कालीन वर्ग-सन्तुलन का लाभ उठाकर अपनी राजनीतिक आज़ादी को क़ायम रखते हुए अपने आर्थिक आधारों को बढ़ाने और विकसित करने में विदेशी पूँजी का कुशलता से इस्तेमाल किया।

देश की जनता से पूँजी उगाहने में एक समस्या थी। मज़दूरों-किसानों और आम मेहनतकश लोगों को लूटकर सीधे पूँजीपतियों को पैसा नहीं दिया जा सकता था। इसलिए मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र, संयुक्त क्षेत्र और निजी क्षेत्र की नीतियाँ बनायी गयीं। सार्वजनिक क्षेत्र में आधारभूत उद्योगों और बुनियादी ढाँचे से सम्बन्धित उद्योगों को लगाने का निर्णय किया गया जिनमें मुनाफा बहुत ही कम या नाममात्र का था लेकिन जिनके दम पर निजी क्षेत्र भारी मुनाफा कमाकर अपनी पूँजी का विस्तार कर सकता था। यह बहुत चालाकी भरी नीति थी। यहाँ का पूँजीपति वर्ग अपने दम पर आधारभूत उद्योगों और इन्‍फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करने में अक्षम था। यह काम जनता की गाढ़ी कमाई से राज्य ही कर सकता था। इसी को बड़ी कुशलता से ”समाजवादी ढर्रे के समाज के विकास” का नाम दिया गया।

राजकीय पूँजीवाद का यह रास्ता कोई नई बात नहीं थी। जर्मनी में 19वीं सदी में बिस्मार्क के समय से जनता से पैसे लेकर पूँजीपतियों के हित साधने के लिए इस रास्ते का इस्तेमाल किया जा रहा है। 1930 के दशक में महामन्दी के बाद पूँजीवाद को संकट से उबारने के लिए कल्याणकारी राज्य के कीन्सियाई नुस्खे के तहत राज्य ने जनता से पैसे उगाहक़र बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निर्माण और अवरचनागत ढाँचे में पूँजी निवेश किया। भारत में यह काम समाजवाद के नारे के तहत नये तरीक़े से किया गया। जनता पूँजीपतियों को सीधे तो पैसे देती नहीं मगर समाजवाद के नाम पर राज्य ने उसके पैसे से दैत्याकार सार्वजनिक उपक्रम खड़े करके पूँजीपतियों का काम आसान कर दिया। परोक्ष करों के द्वारा आम जनता से उगाही गयी विशाल धनराशियों और पेंशन, बीमा, छोटी-छोटी बचतों आदि में जमा जनता की अरबों की धनराशि को ”उधार लेकर” सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश किया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के इन उद्योगों, बाँधों आदि को नेहरू ने ”देश के नये मन्दिरों” का नाम दिया मगर इनका असली मक़सद पूँजीपतियों के उद्योगों की मदद करना था। 50-60 साल के करार करके नाममात्र की क़ीमतों पर पूँजीपतियों को स्टील, बिजली, पानी, कोयला और औद्योगिक उत्पादन के लिए ज़रूरी अनेक सुविधाएँ प्रदान की गयीं। रेलों से माल ढुलाई आदि में उन्हें भारी छूटें दी गयीं। देहात में क्रमिक पूँजीवादी विकास के लिए राज्य ने विभिन्न तरीकों से पूँजी निवेश किया। नहरों का जाल बिछाया गया, खाद के बड़े-बड़े कारख़ाने लगाये गये। तथाकथित हरित क्रान्ति के दौरान यह प्रक्रिया और तेजी से बढ़ी।

1970 का दशक आते-आते आधारभूत ढाँचे और राष्ट्रीय बाज़ार के विकास का काम काफी हद तक पूरा हो चुका था। अब पूँजीपतियों को और अधिक विस्तार के लिए फिर से पूँजी की जरूरत पड़ने लगी थी। इसी समय एक बार फिर ‘ग़रीबी हटाओ’ और समाजवाद के नारे देते हुए इन्दिरा गाँधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे घरेलू बचत बहुत अधिक बढ़ गयी। बैंकों की शाखाएँ और विस्तारित पटल दूर-दराज़ के इलाक़ों तक पहुँच गये। समाजवाद की इस अगली किश्त से एक बार फिर पूँजीपतियों के लिए बड़े पैमाने पर पूँजी जुटायी गयी। जनता की बचत से पूँजीपतियों को अपने उद्योगों में निवेश के लिए भारी पैमाने पर उधार दिया गया। बैंकों में जमा रकम पर जनता को 4-6 प्रतिशत ब्याज मिलता था मगर उसी रकम को निवेश करके पूँजीपति 10-20 या 50 गुना मुनाफा बटोरते थे। 1980 के दशक की शुरुआत में जब स्वराज पॉल ने कई भारतीय कम्पनियों के शेयर खरीद कर उन पर कब्जा करने की कोशिश की तब आम लोगों के सामने यह उजागर हुआ कि टाटा-बिड़ला जैसे बड़े घराने भी महज 6-7 प्रतिशत शेयरों के दम पर हजारों करोड़ के सम्पत्ति साम्राज्य को नियन्त्रित करते हैं। सबसे अधिक पूँजी बैंकों और बीमा कम्पनियों ने लगायी हुई थी।

भारतीय पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों ने बड़ी कुशलता के साथ पूँजीवादी विकास के अपने रास्ते को समाजवाद के आवरण में पेश किया। भाकपा, माकपा और कुछ अन्य कम्युनिस्ट नामधारी पार्टियाँ भी इसी को समाजवाद की दिशा में कदम का दाम देती थीं और राष्ट्रीकरण की रट लगाती रहती थीं। आज भी ये पार्टियाँ सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण पर इस कदर मातम करती हैं मानो वास्तव में जनता से समाजवाद छीन लिया गया हो। क्या बड़े उद्योगों पर सरकार का स्वामित्व ही समाजवाद है? पूँजीवाद के तहत होने वाला राष्ट्रीकरण विशुद्ध पूँजीवाद ही होता है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के नौकरशाहों और टेक्नोक्रेट के रूप में एक विशाल नौकरशाह पूँजीपति वर्ग अस्तित्व में आया। इन उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों से उगाहे गये अतिरिक्त मूल्य का हस्तगतकर्ता जनता नहीं थी। इसकी भारी मात्रा पूँजीपतियों को अपने उद्योगों के विकास में मदद के लिए थमा दी जाती थी और बाकी नौकरशाह पूँजीपतियों के नये वर्ग के ऐशो-आराम और विलासिता पर खर्च होती थी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शीर्षस्थ अफसर अपने ऊपर करोड़ों रुपये खर्च करते थे।

अब भारतीय पूँजीपति वर्ग के पास इतनी पूँजी आ चुकी है कि वह प्रतिस्‍पर्द्धा करके सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को खरीद सकता है और खुद भी बड़े आधारभूत उद्योग लगा सकता है। अब उसका अपना आधार इतना विस्तारित हो चुका है कि पूँजी और तकनोलॉजी के लिए विदेशी कम्पनियों के लिए दरवाज़े खोलकर भी उसके सामने राजनीतिक आज़ादी खोने का ख़तरा नहीं है। साम्राज्यवादी बड़ी पूँजी का कनिष्ठ साझीदार बन कर वह देश की जनता की लूट में भागीदारी करता रह सकता है।

इसी वजह से पिछले कुछ वर्षों के भीतर सार्वजनिक क्षेत्र तेज़ी से सिकुड़ा है। और एक के बाद एक कारख़ाने निजी क्षेत्र में दे दिये गये हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के जो उद्योग बचे भी हुए हैं उनकी भी अन्दर से प्रकृति बदल गयी है। दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन में तो अधिकांश काम प्राइवेट ठेका कम्पनियों के मज़दूरों से कराया जाता है, रेलवे में भी किश्तों में निजीकरण लगातार जारी है। कल्याणकारी राज्य की एक-एक योजनाओं को लगातार बन्द किया जा रहा है, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों के हवाले कर दिया गया है। मनमोहन सिंह-चिदम्बरम-अहलूवालिया आदि जिस भाषा में बाज़ार की शक्तियों का गुणगान करते हैं और ”समाजवाद” की खिल्ली उड़ाते हैं, और तमाम सरकारी भोंपू और मीडिया लगातार पूँजीपतियों के सुर में सुर मिलाकर देश की तमाम समस्याओं के लिए 1947 के बाद की ”समाजवादी” नीतियों को दोषी ठहराते हैं उसे देखते हुए तो इन्हें फिर से प्रस्ताव पास कर संविधान से समाजवाद शब्द को निकाल देना चाहिए।

हालाँकि, आपातकाल के दौरान जब यह शब्द जोड़ा गया था तब और आज में एक बात की समानता है। तब भी राज्य का दमनकारी स्वरूप एकदम नग्न-निरंकुश रूप में जनता के सामने आया था। आज भी अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति बनी हुई है। मेहनतकश जनता के श्रम और देश के प्राकृतिक संसाधनों की वहशी लूट के लिए देशी-विदेशी पूँजीपतियों को खुली छूट दे दी गयी है और जहाँ भी लोग इसका प्रतिरोध कर रहे हैं उनका बर्बर दमन किया जा रहा है। ऐसे में संविधान की प्रस्तावना में मौजूद समाजवाद शब्द बार-बार आपातकाल के काले दिनों की और जनता के साथ की गयी धोखाधड़ी की याद दिलाता रहता है।

(अगले अंक में जारी)

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2011


 

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