मदरसा आधुनिकीकरण के ढोल की पोल – 50 हज़ार मदरसा शिक्षक 2 साल से तनख़्वाह से महरूम

आनन्द सिंह

नरेन्द्र मोदी ख़ुद को मुसलमानों का हितैषी साबित करने के लिए भाँति-भाँति के जतन करते नज़र आते हैं। कभी वे ट्रिपल तलाक़ के विरोध में बोलते हैं तो कभी वे और उनकी पार्टी मदरसों में आधुनिक व वैज्ञानिक शिक्षा की वकालत करते दिखायी पड़ते हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश में योगी सरकार ने भी मदरसा आधुनिकीकरण के नाम पर मदरसों में बच्चों को कुर्ता-पैजामा न पहनने के निर्देश जारी किये हैं। लेकिन इन खोखले दावों के पीछे छिपी सच्चाई देखते ही उनकी मंशा पर सवाल उठने लगते हैं। मिसाल के लिए मदरसों के आधुनिकीकरण के सवाल को ही ले लेते हैं। वैसे तो पिछले कुछ दशकों के दौरान मदरसों के आधुनिकीकरण की बातें सभी सरकारें करती आयी हैं, लेकिन मोदी सरकार के प्रवक्ता इस पर अतिशय ज़ोर देते दिखायी पड़ते हैं। हिन्दुत्ववादियों के मुँह से मुसलमानों की तरक़्क़ी और बेहतरी की बातें सुनना विडम्बनापूर्ण लग सकता है, परन्तु इस जुबानी जमा ख़र्च की बजाय मदरसा आधुनिकीकरण स्कीम की वास्तविकता जानने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि इस स्कीम पर ज़ोर देने की वजह हिन्दुत्ववादियों का हृदय परिवर्तन नहीं बल्कि समाज में मुस्लिम-विरोधी सोच और नफ़रत फैलाने की घिनौनी साजि़श है।

अगर मोदी सरकार वाक़ई मदरसों में आधुनिक व वैज्ञानिक शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध होती तो वह मदरसों में हिन्दी, अंग्रेज़ी, गणित, कम्प्यूटर और विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने के लिए नये शिक्षकों की भर्ती करती। परन्तु नये शिक्षकों को भर्ती करना तो दूर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, झारखण्ड सहित 16 राज्यों में मदरसों में आधुनिक व वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान करने के लिए नियुक्त किए गये करीब 50 हज़ार शिक्षकों को पिछले 2 सालों से केन्द्र सरकार ने कोई वेतन या मानदेय ही नहीं दिया है।

ग़ौरतलब है कि मदरसों में पढ़ाने वाले ये शिक्षक केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मन्त्रालय की ‘स्कीम फ़ॉर प्रोवाइडिंग क्वालिटी एजुकेशन इन मदरसा (एसपीक्यूईएम)’ के तहत पंजीकृत हैं। वर्ष 2008-09 से शुरू इस स्कीम में शिक्षकों को मदरसों में आधुनिक शिक्षा प्रदान करने के लिए भर्ती किया गया था। इस स्कीम के तहत ग्रेजुएट शिक्षकों को 6 हज़ार रुपये और पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षकों को 12000 रुपये केन्द्र सरकार की ओर से देने की योजना थी जो उनके वेतन का 75 से 80 फ़ीसदी हिस्सा है। शेष राशि राज्य सरकारों को वहन करना था। लेकिन दो साल से केन्द्र सरकार की ओर से कोई वेतन न मिलने की सूरत में ये शिक्षक नौकरी छोड़कर कोई दूसरा काम करने पर मजबूर हो रहे हैं। यही नहीं केन्द्र की राजग सरकार ने आते ही मदरसा आधुनिकीकरण योजना के तहत आबण्टित राशि को 340 करोड़ से घटाकर 120 करोड़ कर दिया। हाल ही में सरकार ने इस योजना को सर्वशिक्षा अभियान से जोड़ते हुए इसका नाम ‘एसपीईएमएम’ रखा है जिसे वर्ष 2018-19 से लागू करने की योजना है। परन्तु मदरसा शिक्षक अभी भी सशंकित हैं क्योंकि इस नयी स्कीम में पिछले तीन साल के बकाया मानदेय का कोई जि़क्र नहीं है। केन्द्र के अतिरिक्त भाजपा शासित राज्यों में भी मदरसों व मुस्लिम कल्याण के लिए दी जाने वाली धनराशि में कटौती का ऐलान किया है।

उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में यह समझना मुश्किल नहीं है कि मोदी सरकार के प्रवक्ताओं द्वारा मदरसों के आधुनिकीकरण पर ज़ोर देना जुबानी जमा ख़र्च से अधिक कुछ नहीं है। सच तो यह है कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार केवल 4 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे ही मदरसों में शिक्षा ग्रहण करते हैं। मदरसों में जो बच्चे शिक्षा ग्रहण करते हैं, उनमें से ज़्यादातर ग़रीबों के ही बच्चे होते हैं, क्योंकि अधिकांश मुस्लिम मोहल्लों में सरकारी स्कूल बहुत कम होते हैं और निजी स्कूल बहुत महँगे होते हैं। ऐसे में यदि कोई सरकार शिक्षा को धर्म की जकड़बन्दी से मुक्त करके वैज्ञानिक पद्धति से शिक्षा प्रदान करने के प्रति प्रतिबद्ध है तो उसे सबसे पहले ऐसे मुस्लिम बाहुल्य मोहल्लों में सरकारी स्कूल खोलने चाहिए, जहाँ स्कूलों की संख्या बेहद कम है। लेकिन नये स्कूल खोलना तो दूर, सरकार मदरसों में वैज्ञानिक व आधुनिक शिक्षा प्रदान करने के लिए नियुक्त शिक्षकों को ही वेतन या मानदेय नहीं दे रही है।

संघ परिवार पिछले कई दशकों से लगातार यह दुष्प्रचार करता आया है कि मदरसों में इस्लाम की शिक्षा-दीक्षा देने की वजह से मुस्लिम समाज से आतंकवादी पैदा हो रहे हैं। आतंकवाद की जटिल समस्या को उसकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से काटकर महज़ एक धर्म-विशेष और उसकी शिक्षा पद्धति पर अपचयित कर देने के पीछे संघ परिवार की ज़हरीली फासीवादी विचारधारा काम करती है। सरस्वती शिशु मन्दिरों सहित संघ द्वारा संचालित तमाम संस्थाओं में हिन्दू धर्म की तमाम दकियानूसी एवं अवैज्ञानिक प्रथाओं और रीति-रिवाज़ों को बेशर्मी से बढ़ावा देने वाले और उनका बचाव करने वाले संघी कूपमण्डूक मुस्लिम समाज की प्रथाओं की बात करते समय एकाएक ख़ुद को प्रगतिशील दिखाने का बेशर्मी भरा पाखण्ड करते हैं। लेकिन जैसाकि ऊपर दिखाया गया है, सच्चाई उनके इस पाखण्ड को तार-तार कर देती है।

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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