अहमदनगर में दलित हत्याकाण्ड और एक बार फिर आँखों के सामने नाचते सवाल
दलित मुक्ति की महान परियोजना अस्मितावादी और प्रतीकवादी राजनीति से निर्णायक विच्छेद करके ही आगे बढ़ सकती है

विराट

महाराष्ट्र के अहमदनगर ज़िले के जावखेड़े गाँव में 20 अक्टूबर की रात को एक दलित परिवार के तीन लोगों की बेरहमी से हत्या और उसके बाद उनके टुकड़े–टुकड़े करके बोरवेल में फ़ेंक दिये जाने के काण्ड ने एक बार फिर महाराष्ट्र की जनता को झकझोरकर रख दिया है। सभी चुनावी पार्टियों समेत तमाम दलितवादी चुनावी पार्टियाँ भी अपने संकीर्ण हितों के लिए इस घटना को एक “सुनहरे अवसर” के तौर पर देख रही हैं और दलितों के हित के नाम पर इसका पूरा फ़ायदा उठाने की कवायद में लग गयी हैं। पुलिस अभी तक किसी भी आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर पायी है और हमेशा की तरह ही उसकी पक्षधरता स्पष्ट हो गयी है। वहीं पूँजीवादी मीडिया हर बार की तरह इस बार भी या तो इस घटना पर पर्दा डालने का काम कर रहा है या फिर इस घटना को महज़ दो परिवारों के बीच आपसी रंजिश का नाम देकर दलितों पर हो रहे अत्याचारों को ढँकने का प्रयास कर रहा है। लेकिन एक बात तो साफ़ है कि चाहे मसला कुछ भी हो, हर विवाद में अन्त में दलितों को ही इन बर्बर अत्याचारों का शिकार होना पड़ता है। हर-हमेशा ग़रीब दलितों को ही इन बर्बर काण्डों का निशाना बनाया जाता है। हमेशा सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर आबादी को ही ये ज़ुल्म सहने पड़ते हैं।

अगर पिछले 40-50 वर्षों में हुई दलित-विरोधी उत्पीड़न की घटनाओं को देखा जाये तो यह साफ़ हो जाता है कि दलितों पर अत्याचार की 10 में से 9 घटनाओं में उत्पीड़न का शिकार आम मेहनतकश दलित आबादी यानी कि ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा और शहरी ग़रीब मज़दूर दलित आबादी होती है। यह समझना आज बेहद ज़रूरी है कि जातिगत उत्पीड़न का एक वर्ग पहलू है और यह पहलू आज सबसे ज़्यादा अहम है। 90 फ़ीसदी से भी ज़्यादा दलित आबादी आज भयंकर ग़रीबी और पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण का शिकार है। गाँवों में धनी किसानों के खेतों में दलितों का ग्रामीण सर्वहारा के रूप में भयंकर शोषण किया जाता है। शहरों में ग़रीब दलित आबादी को फ़ैक्टरी मालिकों, ठेकेदारों दलालों की लूट का शिकार होना पड़ता है जो कि मेहनतकश आबादी के शरीर से ख़ून की आख़िरी बूँद तक निचोड़कर अपनी जेबें गरम करते हैं। आज मेहनतकश दलित आबादी पूँजीवादी व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के “पवित्र गठबन्धन” के हाथों शोषण का शिकार है।

पूँजीवादी ब्राह्मणवाद ने अपनी सेवा के लिए दलितों के बीच से भी एक छोटा हिस्सा तैयार किया है। दलित जातियों का एक बेहद छोटा सा हिस्सा जो सामाजिक पदानुक्रम में ऊपर चला गया है, वह आज पूँजीवाद की ही सेवा कर रहा है। यह हिस्सा ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी पर होने वाले हर अत्याचार पर सन्दिग्ध चुप्पी साधता रहा है। यह खाता-पीता उच्च-मध्यवर्गीय तबका आज किसी भी रूप में ग़रीब दलित आबादी के साथ नहीं खड़ा है। फ़ि‍लहाल यह तबका बीमे और बंगलों की किश्तें भरने में व्यस्त है। इस व्यस्तता से थोड़ी राहत मिलने पर यह तबका तमाम गोष्ठियों में दलित मुक्ति की गरमा-गरम बातें करते हुए मिल जाता है। हालाँकि कई बार इसे भी अपमानजनक टीका-टिप्पणियों का शिकार होना पड़ता है, लेकिन इसका विरोध प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और दिखावटी रस्म-अदायगी तक ही सीमित है। यह पूँजीवाद से मिली समृद्धि की कुछ मलाई चाटकर सन्तोष कर रहा है। इतिहास गवाह है कि इसी खाते-पीते तबके द्वारा बनाये गये अनेकों दलितवादी-अम्बेडकरवादी संगठन आज मेहनतकश दलित आबादी के वास्तविक उत्पीड़न के खि़लाफ़ कभी आवाज़ नहीं उठाते। ये संगठन बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे में ग़रीब दलितों के हत्यारों के अदालत द्वारा छोड़ दिये जाने पर चुप रहते हैं। ये अस्मितावादी दलित राजनीति करने वाले संगठन गोहाणा, भगाणा, मिर्चपुर, खैरलांजी जैसी घटनाएँ घटने पर कोई जनान्दोलन नहीं खड़ा करते। ये कभी भी भूमिहीन दलित मज़दूरों के पक्ष में खेतिहर मज़दूरी बढ़ाने की लड़ाई नहीं लड़ते और कभी शहरी ग़रीब दलित मज़दूरों की माँगों को नहीं उठाते। बहुसंख्यक दलित आबादी के लिए वास्तव में अहमियत रखने वाले इन मुद्दों पर या तो ये संगठन चुप्पी साधे रहते हैं या फिर कुछ जुबानी जमाख़र्च और रस्मअदायगी करके बैठ जाते हैं। लेकिन अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए मेहनतकश दलित आबादी को ये अस्मितावादी राजनीति के भँवर में ज़रूर फँसा देते हैं। अस्मितावादी प्रतीकात्मक मुद्दों पर प्रतीकात्मक कार्रवाइयाँ करने में ये सबसे आगे रहते हैं। ये विश्वविद्यालयों के नामों, मूर्तियों, और कार्टूनों को लेकर ख़ूब शोर मचाते हैं। अहमदनगर में हुई घटना में भी इनकी राजनीति खुलकर सामने आयी। इस भयावह काण्ड पर भी या तो ये चुप रहे या फिर कुछ रस्मी उछल-कूद मचाकर शान्त बैठ गये। दलित मुक्ति की परियोजना पर ये संगठन अपना ‘कॉपीराइट’ मानते हैं और यदि कोई एक सही विचारधारा लेकर ग़रीब दलित आबादी को व्यापक मेहनतकश आबादी के साथ जोड़ने की कोशिश करता है तो ये तुरन्त उस पर ब्राह्मणवादी और मनुवादी होने का लेबल चस्पाँ कर देते हैं। वैसे भी इनकी दलित मुक्ति परियोजना पहले ही पूँजीवादी व्यवस्था में सुस्थिर हो चुके दलितों के छोटे से हिस्से को ही और अधिक सम्पन्‍न बनाने तक ही सीमित है।

ब्राह्मणवादी विचारधारा किसी एक जाति की नहीं बल्कि पूरे शासक वर्ग की विचारधारा है और इतिहास में हर शासक वर्ग को विचारधारात्मक उपकरण देती रही है। पहले ब्राह्मणवादी विचारधारा सामन्तवाद के साथ “पवित्र गठबन्धन” बनाये हुए थी, आज ब्राह्मणवादी विचारधारा पूँजीवाद के साथ एक “पवित्र गठबन्धन” बना चुकी है। यही कारण है कि पिछले 20-30 वर्षों में जिन लोगों ने सबसे अधिक और भयावह दलित-उत्पीड़न की घटनाओं को अंजाम दिया है, वे ज़्यादातर आर्थिक व सामाजिक रूप से उभरती हुई धनी किसान व कुलक मध्यम जातियों से आते हैं। किसान-कुलक मध्यम जातियाँ आज सबसे बर्बर दलित-उत्पीडन की घटनाओं को अंजाम दे रही हैं जो कि जातिगत पदानुक्रम में पिछड़ी जातियों में आते हैं। इसलिए यह समझना ज़रूरी है कि ब्राह्मणवादी विचारधारा किसी जाति-विशेष की विचारधारा नहीं है, बल्कि शासक वर्गों की विचारधारा है। सत्ता जिसके भी हाथ में रही हो, उसने ब्राह्मणवाद की ऊँच-नीच की विचारधारा का इस्तेमाल ग़रीब जनता को दबाने और बाँटने के लिए किया है। यहाँ तक कि मुगलों और तुर्क शासकों ने भी ब्राह्मणवाद की विचारधारा को ईर्ष्या की निगाह से देखा था। आज की पूँजीवादी व्यवस्था में ब्राह्मणवादी विचारधारा पूँजीवाद की विचारधारा है। आज ब्राह्मणवादी विचारधारा के ज़हर को पूँजीवाद का प्रश्रय प्राप्त है। ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरुद्ध कोई भी सच्ची लड़ाई पूँजीवादी मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के ख़िलाफ़ भी जंग का एलान किये बिना नहीं लड़ी जा सकती है। जो ब्राह्मणवाद का विरोध करने की तो बात करता है लेकिन पूँजीवाद को कठघरे में नहीं खड़ा करता, वह या तो ख़ुद मूर्ख है या मेहनतकश दलित आबादी को मूर्ख बना रहा है। मिसाल के तौर पर, चन्द्रभान प्रसाद जैसे बाज़ारू अस्मितावादी दलितवादी चिन्तक हैं जो दलितों के बीच एक पूँजीपति वर्ग पैदा होने पर ख़ुशी मनाते हैं और कहते हैं कि अब दलितों का भी एक हिस्सा शोषण कर सकता है! वे इस बात पर चुप्पी साध लेते हैं कि जिनका वे शोषण कर रहे हैं उनका एक बड़ा हिस्सा भी वास्तव में दलित आबादी ही है! आज यह स्पष्ट हो चुका है कि रामदास आठवले, मायावती, उदित राज, रामविलास पासवान, थिरुमावलवन आदि जैसे दलित हितों के “रखवाले” सवर्णवादी ताक़तों की गोद में जा बैठने में ज़रा भी नहीं शर्माते। तमाम ईमानदार कार्यकर्ताओं के होने के बावजूद भी आज उच्च मध्यवर्गीय अम्बेडकरवादी-दलितवादी संगठन अस्मितावादी राजनीति के भँवर में ही फँसे रह जाते हैं। पिछले तीन-चार दशकों के रैडिकल अस्मितावाद और प्रतीकवाद से दलित आबादी को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। अब वक़्त आ गया है कि दलित मुक्ति के आन्दोलन के ठहराव के असली कारणों को समझा जाये। अब वक़्त आ गया है कि हम अस्मितावाद और प्रतीकवाद और ‘सिर के बल खड़े जातिवाद’ को छोड़कर इस बात को समझें कि दलित मुक्ति की पूरी परियोजना समूची पूँजीवादी व्यवस्था के ध्वंस की परियोजना के साथ जुड़कर ही मुकाम तक पहुँच सकती है। आज यह साफ़ तौर पर दिखायी दे रहा है कि पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद नाभिनालबद्ध हैं।

तमाम दलितवादी-अम्बेडकरवादी चुनावी पार्टियाँ आज ब्राह्मणवादी विचारधारा से मुकाबला करने की रत्ती भर भी ताक़त नहीं रखती। रामदास आठवले, उदित राज, रामविलास पासवान जैसे दलित-मुक्ति की बात करने वाले लोग आज भाजपा जैसी धुर दक्षिणपन्थी और ब्राह्मणवादी विचारधारा की वाहक पार्टी की गोद में जाकर बैठ चुके हैं और इनकी अवसरवादिता बिल्कुल नंगी हो चुकी है। मायावती के शासन-काल में उत्तर प्रदेश में दलितों पर हुए असंख्य अत्याचारों के बारे में हर कोई जानता है। इसलिए इन पार्टियों से उम्मीद लगाना आज बेकार है और इनकी दलित-मुक्ति की बात पर तो केवल हँसा ही जा सकता है। आज पूरी ताक़त के साथ ऐसी पार्टियों की अस्मितावादी राजनीति को नंगा करने की ज़रूरत है। आज दलितों के एक हिस्से को यह भी लगता है कि दलितवादी पार्टियों द्वारा किया जाने वाला भ्रष्टाचार न्यायोचित है। उन्हें लगता है कि यदि मुलायम सिंह की जगह मायावती भ्रष्टाचार करे और ग़रीबों को लूटे तो यह ठीक है। अगर ऊँची और मँझोली जाति के शासकों ने इतने समय तक लूट और भ्रष्टाचार मचाया तो अब कुछ मौक़ा दलित शासकों को भी मिलना चाहिए! कई खाते-पीते दलित बुद्धिजीवी यह भी तर्क करते हैं कि यदि दलित पूँजीपति ग़रीब मेहनतकश आबादी का ख़ून निचोड़कर तिजोरियाँ भरता है तो ग़रीब दलित आबादी को इस पर ख़ुश होना चाहिए! इस बात पर ख़ुश होना नासमझी ही होगी कि सवर्णों की जगह दलित लूटे और सवर्ण मालिक की जगह दलित मालिक हमारी मेहनत को लूटे क्योंकि तब भी सबसे ज़्यादा दलित मज़दूर और मेहनतकश ही लूटा जायेगा। बात केवल सवर्ण पूँजीपतियों द्वारा लूट के ख़िलाफ़ खड़े होने की नहीं है, बल्कि लूट की समूची व्यवस्था के ही ख़िलाफ़ खड़े होने की है। देश भर के मज़दूर वर्ग का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा दलित जातियों से आता है। यह आबादी पूँजीवादी शोषण और सवर्णवादी उत्पीड़न के जुवे तले दबी हुई है और इस जुवे को वह एक साथ ही उतारकर फेंक सकती है, अलग-अलग नहीं।

बहुसंख्यक दलित आबादी को जातिगत उत्पीड़न और पूँजीवादी शोषण से आज किस तरह से आज़ादी मिल सकती है? क्या अस्मितावादी राजनीति के रास्ते से उसे पिछले छह दशकों में कुछ मिला है? वास्तव में, दलित मुक्ति की परियोजना के रास्ते में आज सबसे बड़ी बाधा अस्मितावादी राजनीति ही है। जब तक इस अस्मितावादी राजनीति को इतिहास की कचरा-पेटी में पहुँचाकर समूची मेहनतकश आबादी की वर्ग एकजुटता नहीं बनायी जाती, तब तक पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद के गठजोड़ को बरबाद नहीं किया जा सकता है। यह सही है कि मेहनतकश आबादी के भीतर भी अनेकों जातिगत पूर्वाग्रह मौजूद हैं। लेकिन उनको दीर्घकालिक संघर्ष और क्रान्तिकारी प्रचार के ज़रिये तोड़ा जा सकता है।

यह समझना आज बेहद ज़रूरी है कि वर्ग दृष्टिकोण से कटी कोई भी राजनीति और विचारधारा पूँजीवाद की ही सेवा करेगी। वर्ग एकजुटता व वर्ग दृष्टिकोण के अभाव ने पहले ही दलित मुक्ति के लक्ष्य को पर्याप्त नुक़सान पहुँचाया है। अस्मितावादी राजनीति ने स्वयं दलित आबादी को ही तमाम जातियों में बाँट दिया है। अस्मितावादी राजनीति के ज़हर ने विभिन्न दलित जातियों के बीच ही दीवार खड़ी कर दी है। अगर आज भी हम अस्मितावादी और प्रतीकवादी राजनीति करने वाली ऐसी ही लुटेरी पार्टियों और अवसरवादी संगठनों से उम्मीद लगाते रहेंगे तो आगे भी मिर्चपुर, खैरलांजी, भगाणा, अहमदनगर घटित होते रहेंगे! अगर हम इनकी जकड़बन्दी को तोड़ते नहीं तो दलित मुक्ति की महान परियोजना अस्मितावाद और प्रतीकवाद के भँवर में घूमती रहेगी। अब हमें हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे रहना होगा और वर्तमान की जड़ता को तोड़ना होगा। दलित मुक्ति की महान परियोजना को सफल बनाने के लिए आज मेहनतकश दलित आबादी के बीच जाकर लगातार क्रान्तिकारी प्रचार के ज़रिये अस्मितावादी और प्रतीकवादी राजनीति को नंगा करना होगा और उसे व्यापक मज़दूर आबादी से जोड़ना होगा। तभी जाकर जाति व्यवस्था को हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास की कचरा-पेटी में फेंका जा सकेगा।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2014


 

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