अयोध्‍या फ़ैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (दूसरी व अन्तिम किस्त)

अभिनव

पहली किश्‍त का लिंक

फैसले का सर्वहारा विश्लेषण

अब इस फैसले पर भी एक निगाह डाल ली जाये। इस फैसले पर पूँजीवादी मीडिया लोटपोट हो गया है। वह इसे भारतीय सेक्युलरिज्म और लोकतन्त्र की विजय बतला रहा है। ज़ाहिर है, पूँजीवादी मीडिया अपना फर्ज़ अदा कर रहा है – पूँजीवाद के पक्ष में जनता की आम राय बना रहा है। अब यह एक दीगर बात है कि वह जो बोल रहा है, सच्चाई उसके बिल्कुल विपरीत है! चूँकि फैसले में विवादित भूमि को तीन बराबर हिस्सों में बाँटकर तीन पक्षों को देने की बात की गयी है,इसलिए इसे एक ऐसे फैसले के रूप में देखा जा रहा है जो साम्प्रदायिक भाईचारे को बनाये रखने के लिए दिया गया है और यह भी कहा जा रहा है कि इससे धार्मिक वैमनस्य का ख़ात्मा होगा। लेकिन वास्तव में यह फैसला बहुसंख्यावादी,अतार्किक और साम्प्रदायिकता के पक्ष में जाकर खड़ा होता है। वास्तव में, यह बाबरी मस्जिद ढहाने वाली साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतों को वस्तुगत तौर पर सही ठहराता है और दोषमुक्त करता है। अनकहे तौर पर यह फैसला कहता है कि चूँकि एक हिन्दू धार्मिक स्थल के खण्डहर पर मस्जिद का निर्माण किया गया था, इसलिए मस्जिद को ढहाना सही था। इस पूरे फैसले में बाबरी मस्जिद को फासीवादी भीड़ द्वारा ढहाये जाने की निन्दा या भर्त्सना कहीं भी नहीं की गयी है। यह अपने आप में कई बातों को स्पष्ट कर देता है। आइये, अब इस फैसले के सभी पहलुओं पर एक नज़र डालें।

Ayodhyaअयोधया पर फैसला देने वाली इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के तीन सदस्य थे – जस्टिस ख़ान, जस्टिस अग्रवाल और जस्टिस शर्मा। जस्टिस ख़ान ने अपने निर्णय में कहा कि बाबरी मस्जिद के निर्माण के लिए किसी मन्दिर को ढहाया नहीं गया था, हालाँकि जिस जगह पर उसे बनाया गया वहाँ किसी हिन्दू पूजा स्थल का खण्डहर था। पहले हिन्दू यह मानते थे कि जिस पूरे परिसर में मस्जिद है वहीं कहीं राम का जन्म हुआ था। लेकिन 1949 के कुछ दशक पहले से ही यह बात की जाने लगी कि राम का जन्मस्थल मुख्य गुम्बद के नीचे है। उसके बाद से यह एक संयुक्त पूजा-स्थल बन गया, जहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अपनी पूजा और नमाज़ करते थे। इसीलिए इसे तीन हिस्सों में बाँट दिया जाना चाहिए।

जस्टिस अग्रवाल ने कहा कि इस बात का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है कि बाबर द्वारा या उसके किसी मातहत  द्वारा किसी मस्जिद का निर्माण करवाया गया था। बस इतना दावे से कहा जा सकता है कि 1776 के पहले से मस्जिद वहाँ मौजूद थी। इसके अतिरिक्त, रामलल्ला की मूर्तियाँ इस ढाँचे के भीतर प्रकट नहीं हुई थीं, बल्कि उन्हें वहाँ 23 दिसम्बर 1949 को रखा गया था। जस्टिस शर्मा का कहना था कि वहाँ पर मस्जिद का निर्माण इस्लाम के सिध्दान्तों का उल्लंघन करके किया गया था और जिस ढाँचे को गिराया गया उसे मस्जिद माना ही नहीं जा सकता है। कुल मिलाकर, पूरी बेंच ने यह निर्णय दिया कि पूरी विवादित ज़मीन को हिन्दू पक्ष, मुसलमान पक्ष और निर्मोही अखाड़े के बीच तीन बराबर-बराबर हिस्सों में बाँट दिया जाना चाहिए और बेंच ने 2-1 के बहुमत से यह माना कि चूँकि हिन्दू राम के जन्मस्थान को मुख्य गुम्बद के नीचे मानते हैं इसलिए मुख्य गुम्बद के नीचे वाली जगह को हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए।

अगर इस फैसले पर ग़ौर करें तो हम पाते हैं कि इस फैसले ने मस्जिद गिराये जाने के कृत्य को पूरी तरह से दोषमुक्त कर दिया है। पूरे फैसले में एक जगह भी उस साम्प्रदायिक फासीवादी भीड़ और भगवा गिरोह के सरगनाओं की निन्दा नहीं है या उन्हें दोषी नहीं ठहराया गया है, जिन्होंने उस ऐतिहासिक इमारत को सारे मीडिया और सशस्त्र बलों के सामने मिट्टी में मिला दिया था।

दूसरी बात, जो भारतीय न्यायपालिका के सेक्युलर चरित्र पर सवालिया निशान खड़ा करती है वह है इस फैसले में पुरातात्विक प्रमाणों की जगह बहुसंख्यक हिन्दू आबादी की आस्था को महत्त्‍व देना। वैसे इस बात का जमकर प्रचार किया जा रहा है कि दो न्यायाधीशों ने गुम्बद के नीचे के स्थान को राम का जन्मस्थान करार दिया है, लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि इसके लिए पुरातत्व विभाग की पूरी रिपोर्ट को आधार नहीं बनाया गया है, बल्कि हिन्दुओं की आस्था को आधार बनाया गया है। धार्मिक बहुसंख्या की आस्था को एक न्यायिक निर्णय का आधार बनाया गया है। प्रसिध्द इतिहासकार डी.एन. झा कहते हैं कि एक न्यायिक निर्णय में आस्था को स्थान देने का कोई अर्थ नहीं है। यह पुरातत्वशास्त्र का मसला था, धर्मशास्त्र का नहीं। और अगर धार्मिक आस्था के आधार पर ही निर्णय देना था तो न्यायपालिका ने पुरातत्व विभाग को वहाँ खुदाई करने का आदेश क्यों दिया? पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट बताती है कि जिस जगह पर मस्जिद थी वहाँ पहले किसी हिन्दू पूजास्थल के अवशेष थे। लेकिन यह दावे से नहीं कहा जा सकता कि वह कोई मन्दिर था या किसी घर के अन्दर का पूजा-स्थल। दूसरी बात, संघ के भोंपू यह क्यों नहीं बताते कि उसी पुरातात्विक स्थल से कब्र और हड्डियाँ भी मिली हैं। अब किसी मन्दिर के भीतर कब्र या हड्डी का कैसा अस्तित्व?इसलिए यह भी दावे से कह पाना मुश्किल है कि वहाँ कोई पूजा-स्थल था भी या नहीं। या फिर वह किसी मिश्रित रिहायश की जगह थी जहाँ हिन्दू और मुसलमान दोनों ही रहते थे और इसीलिए दोनों की रिहायश के प्रमाण मिल रहे हैं। दो न्यायाधीशों ने पुरातत्व विभाग की रपट के अपने मन से चुने गये कुछ हिस्सों के आधार पर फैसला सुना दिया कि रामलल्ला का जन्मस्थान गुम्बद के नीचे है। यह पूरे निर्णय की निष्पक्षता पर संगीन सवाल खड़े करता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पुरातत्ववेत्ता सुप्रिया वर्मा जो कि उस टीम की प्रेक्षक थीं जिसने बाबरी मस्जिद वाली जगह की खुदाई की, कहती हैं कि न्यायाधीशों ने पुरातत्व विभाग के नतीजों का इस्तेमाल नहीं किया है। वे कहती हैं कि ऐसा लगता है कि न्यायाधीश स्वयं ही पुरातत्व विभाग की खोज से सन्तुष्ट नहीं थे। भारत के पूर्व सॉलिसिटर जनरल टी.आर. अन्धयारुजीना ने फैसले की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए कहा कि ज़मीन के बँटवारे का सवाल ही नहीं उठता, अगर मस्जिद को ढहाया नहीं गया होता। मस्जिद ढहाये जाने से पहले से यह मुकदमा चल रहा था। इसलिए कोई फैसला तब तक नहीं दिया जा सकता था जब तक कि यथास्थिति को बहाल नहीं किया जाता, जिसे साम्प्रदायिक भीड़ ने संघ के नेतृत्व में बिगाड़ डाला था। यानी कि मस्जिद के ग़ैर-कानूनी तरीके से गिराये जाने पर फैसला दिये बगैर ज़मीन के बँटवारे का सवाल ही नहीं पैदा होता है।

स्पष्ट है कि यह फैसला पुरातात्विक प्रमाण को धयान में रखकर नहीं बल्कि धार्मिक बहुसंख्या की आस्था को धयान में रखकर दिया गया है। यह भारतीय न्यायपालिका की धर्मनिरपेक्षता पर गहरा सवाल खड़ा करता है।

हमारा दृष्टिकोण क्या हो?

जहाँ तक एक सही सर्वहारा दृष्टिकोण का प्रश्न है, हमें इस सवाल के जाल में फँसना ही नहीं चाहिए कि राम थे या नहीं?अगर थे तो उनका ठीक-ठीक जन्मस्थल कहाँ है? बाबरी मस्जिद मन्दिर को तोड़कर बनी थी या नहीं? क्योंकि ऐसे सवाल वास्तव में सवाल हैं ही नहीं। वास्तव में अगर इनको सवाल माना जाये तो हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों के तर्कों पर भी सवाल खड़े किये जा सकते हैं। तमाम हिन्दू मन्दिर बौध्द पूजा-स्थलों को तोड़कर बनाये गये। ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि अयोधया में ही ऐसे तमाम मन्दिर मौजूद हैं जो बौध्दों का नरसंहार करके और फिर उनके पूजा-स्थलों को तोड़कर बनाये गये। तो क्या अब उन मन्दिरों को तोड़कर फिर से बौध्द पूजा-स्थलों को बनाया जाना चाहिए? अयोधया में ही ऐसे कम से कम एक दर्जन मन्दिर हैं जो यह दावा करते हैं कि वास्तव में वे राम का जन्मस्थल हैं। उनका क्या जवाब होगा?आज ऐसी तमाम मस्जिदें मौजूद हैं जो शायद हिन्दू धर्मस्थलों को तोड़कर या उनके अवशेष पर बनीं। तो क्या उन सबको तोड़कर वहाँ फिर से मन्दिर बनाया जाये?

हम देख सकते हैं कि सवाल वास्तव में यह है ही नहीं। इतिहास में पहले जो घटनाएँ घटित हुईं उनका हिसाब वर्तमान में चुकता नहीं किया जा सकता और न किया जाना चाहिए। इतिहास को पीछे नहीं ले जाया जा सकता और न ले जाया जाना चाहिए। आज का ज़िन्दा सवाल यह है ही नहीं। जिस देश में 84 करोड़ लोग 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीते हों; जहाँ के बच्चों की आधी आबादी कुपोषित हो; जहाँ 28 करोड़ बेरोज़गार सड़कों पर हों; जहाँ 36 करोड़ लोग या तो बेघर हों या झुग्गियों में ज़िन्दगी बिता रहे हों; जहाँ के 60 करोड़ मज़दूर पाशविक जीवन जीने और हाड़ गलाने पर मजबूर हों; और जहाँ समाज जातिगत उत्पीड़न और स्त्री उत्पीड़न के दंश को झेल रहा हो, वहाँ मन्दिर और मस्जिद का सवाल प्रमुख कैसे हो सकता है? वहाँ इतिहास के सैकड़ों वर्ष पहले हुए अन्याय का बदला लेना मुद्दा कैसे हो सकता है,जबकि वर्तमान समाज में अन्याय और शोषण के भयंकरतम रूप मौजूद हों? और अगर यह मुद्दा है तो हर उस स्थान के सुदूरतम इतिहास तक को देखा जाना चाहिए जहाँ आज कोई मन्दिर या मस्जिद है। उसी जगह पर न जाने उससे पहले कितने किस्म के धर्मस्थल रहे होंगे। आप किस-किसको तोड़ेंगे और किस-किसको बनायेंगे? इस मामले पर ज़रा-सा तार्किक विचार करते ही स्पष्ट हो जाता है कि यह कितना निरर्थक, पश्चगामी और प्रतिक्रियावादी है। इतिहास को पीछे ले जाने वाली ताकतें ही आज इसका इस्तेमाल कर रही हैं और जनता के पिछड़ेपन का और वर्ग चेतना के अभाव का लाभ उठाकर उसे भी इन मुद्दों से भरमा रही हैं। उनकी दिलचस्पी आज ग़रीब मेहनतकश आबादी के साथ हो रहे अन्याय के ख़िलाफ लड़ने में नहीं है जो वास्तव में इतिहास को आगे ले जाता। उनकी दिलचस्पी सुदूर अतीत में हुए किसी ऐसे अन्याय के ख़िलाफ लड़ने में है, जिसके बारे में अभी दावे से कहा भी नहीं जा सकता है कि वह हुआ था या नहीं। साम्प्रदायिक फासीवाद ऐसी ही एक ताकत है जो आम भारतीय जनता के बीच तार्किक दृष्टि की कमी, वर्ग चेतना की कमी, वैज्ञानिकता की कमी का फायदा उठाते हुए उसे धार्मिक तर्क के आधार पर विभाजित कर देती है। पूँजीपति वर्ग के लिए यह एक बहुत बड़ी सेवा सिध्द होता है क्योंकि यह सर्वहारा वर्ग के भी एक विचारणीय हिस्से को एक ऐसे सवाल पर ध्रुवीकृत कर देता है जो वास्तव में उसके लिए सवाल है ही नहीं।

हमें चाहिए कि हम एक सही वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हुए इन अनैतिहासिक और अतार्किक सवालों को दरकिनार करें और शासक वर्गों की साज़िश को समझें। वास्तव में आज की लड़ाई आज के अन्याय के ख़िलाफ है। आज का पूँजीवादी शोषण और अन्याय सर्वहारा वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन है और हमारा पूरा संघर्ष उसके ख़िलाफ होना चाहिए। हमें साम्प्रदायिकता के झाँसे में आकर इस मन्दिर-मस्जिद की बहस में नहीं फँसना चाहिए। हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली तमाम पार्टियाँ, चाहे वह कांग्रेस हो, भाजपा हो, सपा हो या बसपा, मन्दिर के मुद्दे के इर्द-गिर्द अपनी-अपनी तरह से जनता को बाँटना चाहती हैं। दरअसल, भारतीय आम जनता का एक बड़ा हिस्सा इस बात को समझने भी लगा है। यही कारण था कि इस बार इस मुद्दे पर कोई ध्रुवीकरण नहीं किया जा सका। लेकिन सैद्धान्तिक तौर पर भी हमें समाज में लगातार इस प्रतिक्रियावादी सोच पर हमला करते रहना चाहिए जो इतिहास के काल्पनिक अन्यायों के लिए आज आम मेहनतकश जनता की बलि चढ़ाना चाहती है। यह सोच मज़दूर वर्ग और पूरे इतिहास की दुश्मन है।

 

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2010


 

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