नताशा – एक महिला बोल्शेविक संगठनकर्ता – एक संक्षिप्त जीवनी (पाँचवीं किश्त)  

एल. काताशेवा
अनुवाद : विजयप्रकाश सिंह

रूस की अक्टूबर क्रान्ति के लिए मज़दूरों को संगठित, शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने बरसों तक बेहद कठिन हालात में, ज़बरदस्त कुर्बानियों से भरा जीवन जीते हुए काम किया। उनमें बहुत बड़ी संख्या में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता भी थीं। ऐसी ही एक बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता थीं नताशा समोइलोवा जो आखि़री साँस तक मज़दूरों के बीच काम करती रहीं। हम ‘बिगुल’ के पाठकों के लिए उनकी एक संक्षिप्त जीवनी का धारावाहिक प्रकाशन कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि आम मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। – सम्पादक 

adamya bolshevik natashaपुलिस बहुत परेशान थी, ”एक बार फिर उनसे देर हो गयी!” पुलिस की घेराबन्दी के बावजूद प्रसन्न और उत्साह से भरी भीड़ लगातार बढ़ती गयी। कलाश्निकोव एक्सचेंज के हाल में भीड़ समा न सकी।
‘प्रावदा’ ने उस दिन एक विशेष संस्करण छापा, जिसकी सामग्री अत्यन्त क्रान्तिकारी थी।
उसने अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस पर स्‍त्री मज़दूरों का स्वागत किया और जुझारू सर्वहारा की कतारों से जुड़ने के लिए उन्हें बधाई दी। उसने इस दिन को एक प्रतीक के रूप में चिन्हित किया जब स्‍त्री मज़दूर उठकर समूचे मेहनतकश वर्ग के आम आन्दोलन के स्तर पर पहुँच गयी थीं। उसने घोषणा की कि स्‍त्री मज़दूरों ने उसके आह्नान पर उत्साहपूर्वक अमल किया। इस यादगार बैठक में बोलने वाले नये वक्ताओं ने उन पर किये गये काम और उनसे लगायी गयी उम्मीदों को सही साबित किया।
‘प्रावदा’ ने लिखा :
”श्रोताओं को स्‍त्री मज़दूरों के वर्ग की एक मुग्ध कर देने वाली तस्वीर देखने को मिली, ऐसी स्त्रियाँ जो आधुनिक समाज में सभी अधिकारों से वंचित थीं। इसी के साथ वक्ताओं ने, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि इस आन्दोलन से आम सर्वहारा का मोर्चा बिखरना नहीं चाहिए बल्कि और मज़बूत होना चाहिए, स्पष्ट शब्दों में अपनी बात रखते हुए मज़दूर वर्ग की स्त्रियों के आन्दोलन और पूँजीवादी स्‍त्री संगठनों के हितों और कामों के बीच तीखे अन्तर पर, और मज़दूर वर्ग की स्त्रियों के आन्दोलन के समूचे मज़दूर वर्ग के हितों और कार्यों के साथ नज़दीकी जुड़ाव पर अत्यधिक बल दिया। अगर मज़दूर आन्दोलन प्रचण्ड वेग वाली नदी है तो स्‍त्री आन्दोलन उसकी ताकत को सशक्त और समृद्ध करने वाली एक सहायक नदी है।”
कलाश्निकोव एक्सचेंज पर हुई बैठक के अलावा ”साइण्टिफिक मैटिनि” के आयोजन बोल्शेविक संगठनों द्वारा नियंत्रित क्लबों और दूसरी समितियों में भी हुए।
‘प्रावदा’ ने सिलसिलेवार कई अंकों में पहले अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के आयोजन के तौर-तरीकों के ब्योरे छापे। भाषणों के सारांश और वक्ताओं के नाम दिये गये ताकि सभी कामकाजी महिलाएँ उनको जान सकें क्योंकि वे नये काडर थे जिन्होंने पहली बार दुनिया के सामने घोषणा की कि रूसी स्‍त्री मज़दूर दमन और दमनकारियों के ख़िलाफ संघर्ष करने वालों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रही हैं।
यह आह्नान सुना गया। अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के आयोजन ने मेहनतकश स्त्रियों की ओर से ज़बरदस्त समर्थन प्राप्त किया। ‘प्रावदा’ ने टेलीफोन आपरेटरों, घरेलू नौकरों, अस्पतालों के मज़दूरों, धोबिनों की टेलीफोन वार्ताएँ प्रकाशित कीं। उसने पहले अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के आयोजन पर विभिन्न शहरों से आये शुभकामना सन्देश छापे।
मेहनतकश वर्ग को एकजुट करने, और उसे क्रान्तिकारी सेनाओं के उभार के रूप में संगठित करने का सबसे बड़ा काम था सर्वहारा की क्रान्तिकारी माँगों के अनुकरण और अशिष्टीकरण के ख़िलाफ लेनिनवादी दर्शन की लड़ाई।
समोइलोवा ने विभिन्न सवालों पर ‘प्रावदा’ में सिलसिलेवार कई लेख लिखे। वह विवादों में भी पड़ीं लेकिन उनके तीरों का निशाना हमेशा मेंशेविकों का अख़बार ‘लुच’ हुआ करता था, जिसने दावा कर रखा था कि वर्गचेतना सम्पन्न स्‍त्री मज़दूरों के नब्बे फीसदी का मुखपत्रा ‘प्रावदा’ नहीं, बल्कि वह है, और यह भी कि ‘प्रावदा’ सिर्फ पिछड़े तबकों को आकर्षित करता है। उनका हमला इतना ज़ोरदार और सटीक था कि लेनिन ने उनके एक लेख का विशेष रूप से उल्लेख किया जो ‘प्रावदा’ के 12 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ था।
स्‍त्री आन्दोलन स्थिर गति से आगे बढ़ता रहा लेकिन लेनिन ने दिसम्बर 1913 में अपनी बहन अन्ना एलिज़ारोवा को एक विशेष पत्र भेजा। उस पत्र में उन्होंने संघर्ष के लिए जागरूक हो रही स्‍त्री मज़दूरों का हवाला देते हुए नयी शक्तियों को संगठित करने के लिए ‘वूमन वर्कर’ नाम से स्त्रियों के एक विशेष अख़बार के प्रकाशन की आवश्यकता बतायी। उन्होंने सुझाव दिया कि उसका संयोजन उन्हें ही करना चाहिए। लेनिन कामकाजी स्त्रियों के आन्दोलन के विकास पर विशेष रूप से नज़र रखते थे और जिसे वह विशेष महत्त्व देते थे।
अपनी पुस्तक ‘द इपोक आफ ज़्वेस्दा’ और ‘प्रावदा’ में कामरेड एलिज़ारोवा ने लिखा है कि उनके भाई ने उन्हें जो काम सौंपा था उन्होंने उसे किस तरह पूरा किया, इसका वर्णन करते हुए वह कहती हैं :
”दिसम्बर 1913 में मुझे व्लादीमिर इल्यीच का अंग्रेज़ी में लिखा पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मुझे स्‍त्री मज़दूरों के एक अख़बार का आयोजन करना ही चाहिए, और मुझे सम्पादक मण्डल के लिए उपयुक्त लोगों का चुनाव करने और फिलहाल उसे गुप्त ही रखने का सुझाव दिया। आगे चलकर अख़बार के प्रकाशन के विचार को उन्हीं दिनों विदेश से लौटे रोजिमरोव और समोइलोवा ने सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया।
”उन दिनों समोइलोवा ‘प्रावदा’ की सचिव थीं और उन पर काम का अत्यधिक बोझ था। उन्होंने इस बाबत मुझे बताया भी था। और मैंने सोचा कि शायद वह इस समय नया काम हाथ में लेने पर राजी नहीं होंगी लेकिन उन्होंने इसे बड़े ही उत्साह से किया। पाँचवें सम्पादक के रूप में हमने मेंजिंस्काया को आमंत्रित किया, और तुरन्त अख़बार ‘वूमन वर्कर’ के पहले संस्करण के लिए लेख जुटाना शुरू कर दिया, जिसे अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस, 23 फरवरी तक आ जाना था। हमने इसे लोकप्रिय अख़बार बनाने का फैसला किया। धनाभाव सबसे बड़ी अड़चन था। हमने ‘प्रावदा’ में एक चन्दा सूची जारी कर दी और धन जुटाना शुरू किया। मज़दूरों ने कोपेकों में, शब्दशः कोपेकों में, धन भेजना शुरू किया। लम्बे समय तक हम सम्पादकीय कार्यालय के लिए कमरे नहीं तलाश सके।”
अन्ततः सम्पादकीय मण्डल की पहली बैठक 6 फरवरी, 1914 को समोइलोवा के आवास पर हुई और कामयाब रही, सम्पादक मण्डल – रोजिमरोविच, ड्रेप्किना, समोइलोवा और निकोलेयेवा को गिरफ्तार कर लिया गया और उसी दिन शाम को मेंजिंस्काया भी गिरफ्तार कर ली गयीं। अकेली एलिज़ारोवा बची रह गयी थीं। फिर भी, काफी मुश्किलों के बाद अख़बार का पहला अंक आ ही गया। उसने ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा और फैक्टरियों में चर्चा का अकेला विषय यही था। सम्पादक मण्डल के पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो जाने और फैक्टरियों में बड़े पैमाने पर मज़दूरों की गिरफ्तारी की वजह से अख़बार की स्थिति गम्भीर हो गयी। और सच पूछिये तो हालात बहुत ही कठिन थे – पैसे नहीं थे, काम करने वाले लोग नहीं थे और कोई सम्पर्क नहीं बचे रह गये थे। इस समय समोइलोवा जेल में थीं, जो यह काम करने के लिए अत्यन्त व्यग्र थीं।
लेकिन पुलिस के आड़े आने के बावजूद काम जारी रहा। कामरेड एलिज़ारोवा अपनी कहानी जारी रखते हुए लिखती हैं :
”जब मैं याम्सकाया स्ट्रीट पर पहुँची जहाँ ‘वूमन वर्कर’ का कार्यालय था, मुझे नये अख़बार के नाम पत्रों और बधाइयों का अम्बार लगा मिला, उनसे इतना उत्साह और साहस मिला और इतनी ख़ुशी हुई कि मेरा मूड फौरन बदल गया। रूस के दूर-दराज के हिस्सों से भेजे गये पत्रों में इतनी प्रसन्नता, नये लक्ष्य की सफलता में ऐसी अनन्य आस्था, त्याग की ऐसी तत्परता व्यक्त की गयी थी कि मैं फूली न समायी। सामूहिक रूप से भेजे गये चन्दे की रकमों का अम्बार लग गया। ये रकमें एक-एक कोपेक जुटाकर जमा की गयी थीं। मैं महसूस कर सकती थी कि अपना मंच पाने की भावना आम जन मानस में गहरे तक उतर गयी थी। मैं उन लोगों के उत्साह और उनकी आकांक्षा को महसूस कर रही थी।
”उसके बाद स्‍त्री मज़दूर दफ्तर में आने लगीं, हालाँकि शुरुआत में संकोच करती हुई ही, लेकिन बाद में वे ‘प्रावदा’ के दफ्तर में भी आने लगीं। मुझे अपनी सबसे जीवन्त सहायक ऐवास फैक्टरी की एमिल्या सोल्निन अच्छी तरह याद हैं। सबने अपने अख़बार को लेकर एक-सा उत्साह व्यक्त किया, एक-सी अनन्य आस्था व्यक्त की कि हर रुकावट के बावजूद, यह अपने पैरों पर खड़ा होगा, इसे अपने पैरों पर खड़ा होना ही है।
”स्‍त्री मज़दूरों ने फैक्टरियों में नये सिरे से सम्पर्क बनाने शुरू किये। अख़बार के वितरण में विश्वास अनुभव करना शुरू किया। एक छापाख़ाना मिल गया और मैंने दूसरे अंक की तैयारियाँ शुरू कर दीं। आमुख कथा की जगह ऐवास फैक्टरी की स्‍त्री कर्मचारियों के नाम यह कहते हुए एक अपील जारी की गयी कि साथी स्‍त्री मज़दूरो, बड़े बलिदान और काफी प्रयासों के बाद हमने अपना अख़बार, ‘वूमन वर्कर’ शुरू किया है। पहला अंक आ चुका है। स्‍त्री मज़दूरो, अख़बार की मदद करना हमारा कर्तव्य है। स्‍त्री मज़दूरों से बड़े पैमाने पर अख़बार का प्रसार करने का आह्नान करें। लगातार चन्दे जुटायें। धन जुटायें और सबसे बड़ी बात यह कि हमें पत्रा लिखें।”
इस तरह समोइलोवा का सपना साकार हो गया।
अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के प्रोत्साहकों और संयोजकों को पुलिस ने, ज़ार के एजेण्टों ने उनके पदों से हटा दिया। लेकिन जो ज़ोरदार लहर उमड़ पड़ी थी उसे रोका नहीं जा सकता था।
23 फरवरी, 1914 के ‘प्रावदा’ के अंक में समोइलोवा ने अपनी आसान, भावप्रवण और संक्षिप्त शैली में अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस का मुद्दा उठाया जिसने लाखों मेहनतकश स्त्रियों को जगाया था। उन्होंने लिखा :
दिनों-दिन पूँजीवाद का बढ़ता प्रसार न सिर्फ पुरुषों बल्कि उनकी पत्नियों, बहनों और बेटियों को भी औद्योगिक जीवन के चक्रवात में खींच रहा है। उद्योगों की तमाम शाखाओं में धातु उद्योग समेत हज़ारों – दसियों हज़ार स्त्रियाँ काम करती हैं। पूँजी ने उन सब पर ठप्पा लगा दिया है और उन सबको श्रम बाज़ार में फेंक दिया है। वह युवाओं की, स्त्रियों की शारीरिक कमज़ोरी की और मातृत्व के उत्साह की उपेक्षा करती है। जब स्त्रियाँ फैक्टरियों में जाती हैं और उन्हीं मशीनों पर काम करती हैं जिन पर मर्द करते हैं, तो वे एक नयी दुनिया का सन्धान करती हैं। उद्योग की प्रक्रिया में लोगों के नये सम्बन्धों का सन्धान करती हैं। वे मज़दूरों को अपने हालात सुधारने के लिए संघर्ष करते देखती हैं। और हर आने वाले दिन के साथ स्‍त्री मज़दूरों का इसका अधिकाधिक विश्वास होता गया कि काम की स्थितियों ने उन्हें फैक्टरियों के पुरुष मज़दूरों के साथ जोड़ दिया है, कि उन सबके हित साझा हैं, और स्‍त्री मज़दूरों ने यह महसूस करना शुरू किया कि वे औद्योगिक परिवार का हिस्सा हैं, कि उनके हित समूचे मेहनतकश वर्ग के साथ जुड़े हैं।
”यह सच है कि ऐतिहासिक और पारिवारिक हालात वग़ैरह के चलते उनकी वर्ग चेतना का विकास बहुत धीमा है, फिर भी स्‍त्री मज़दूरों की चेतना की जागृति ऐसी सच्चाई है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। स्‍त्री मज़दूर बड़ी से बड़ी तादाद में हड़तालों, मज़दूर संगठनों के आन्दोलनों और बीमा अभियान में शामिल हो रही हैं। वे दूसरे देशों की स्‍त्री मज़दूरों के जीवन में रुचि लेती हैं और अन्तरराष्ट्रीय दृष्टिकोण रखती हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस अत्यन्त सांगठनिक महत्त्व का आयोजन है।”
उसके बाद उन्होंने मई 1 के आयोजन के साथ अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के आयोजन की तुलना की। 1913 में रूस में पहले अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस का आयोजन एक उत्तेजक अभियान था जिसने जनता के सामने स्‍त्री मज़दूरों की दोहरी ग़ुलामी के कारण और उनकी मुक्ति के तरीके पेश किये। लेकिन उसने सर्वहारा स्‍त्री मज़दूरों के लिए सांगठनिक आधार नहीं तैयार किया। इसलिए 1914 में आरएसडीएलपी की केन्द्रीय कमेटी ने व्यापक और गहन स्तर पर गतिविधियाँ चलाने का निश्चय किया। साल के प्रारम्भ में केन्द्रीय कमेटी के तत्वावधान में सर्वहारा ज़िलों में कई हालों में स्‍त्री दिवस सभाओं के आयोजन के लिए एक विशेष कमेटी का गठन किया गया। उन्हें सभाओं के आयोजन और ‘वूमन वर्कर’ के सम्पादकीय मण्डल में काम करने के लिए भी फैक्टरियों और कारख़ानों से प्रतिनिधियों की सूची तैयार करने का काम सौंपा गया।
तेज़ी से काम चलता रहा। व्याख्यानों की व्यवस्था करने के लिए अनुमति ली गयी, हाल तलाशे गये। मीटिंगों के चेयरमैन नियुक्त किये गये और फैक्टरियों के जीवन के विस्तृत ब्योरों के साथ मुख्य व्याख्यानों के पूरक के तौर पर स्‍त्री मज़दूरों के बीच से वक्ता चुनी गयीं जो व्याख्यानों में व्यक्त किये गये मुख्य विचारों की व्याख्या और पुष्टि करतीं। व्याख्यानों के विषय पर न सिर्फ कमेटी में बल्कि फैक्टरियों के विभिन्न बोल्शेविक सेलों में भी चर्चा की गयी जो कमेटी की बैठकों में प्रायः अपने प्रतिनिधि भेजते रहते थे। विशेष रूप से ऐवास फैक्टरी से प्रायः प्रतिनिधि निकोलेयेवा, एमिल्या सोल्निन आते रहते थे। ऐवास फैक्टरी उस समय काम करने की अगली कतारों में थी।
लेकिन काम की व्यापकता और उसकी गहनता के अपने प्रतिकूल प्रभाव भी थे। प्रतिकूल इस मामले में कि उन्होंने 23 फरवरी के आने के काफी पहले ही उसकी ओर पुलिस का ध्यान खींच लिया। एक दिन पुलिस ने दफ्तर में मौजूद सारे लोगों को अचम्भे में डालते हुए वहाँ छापा मार दिया। मण्डल की बैठक पूरी तरह कानूनी थी क्योंकि अख़बार ‘स्वीकृत’ अख़बारों की सूची में था लेकिन यह स्वीकृति पुलिस के लिए महज़ काग़ज़ का एक टुकड़ा थी। सम्पादक मण्डल को आधिकारिक आदेश दिखाया गया जिस पर ये अपशगुनी शब्द लिखे थे : ”जगह की तलाशी लो और तलाशी में कुछ मिले या न मिले, वहाँ मौजूद सभी प्रतिनिधियों को गिरफ्तार कर लो।” नयी शामिल हुई स्‍त्री मज़दूरों समेत कुल मिलाकर तीस लोग गिरफ्तार किये गये।
‘द कम्युनिस्ट वूमन’ ने 1923 में समोइलोवा का एक लेख छापा जिसमें उन्होंने इसका जीवन्त ब्योरा दिया था कि कैसे गिरफ्तार लोगों ने जेल में अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस मनाया। उसका कोलाहल सुनकर समूचा जेल प्रशासन भयभीत हो गया और वह कोलाहल सड़कों पर भी सुना गया।
लेकिन अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस केवल जेल में ही नहीं मनाया गया। यह सच है कि सेण्ट पीटर्सबर्ग में हर तरह की सभाओं पर रोक लगी हुई थी। सिर्फ बोल्शेया ग्रेबेत्स्काया स्ट्रीट पर स्थित फ्ऱयोदोरोवा हाल में एक आयोजन हुआ। लेकिन बड़ी संख्या में स्‍त्री-पुरुष उन हालों पर भी पहुँचे जहाँ सभाएँ होनी थीं, इससे सड़कों पर भारी भीड़ जमा हो गयी। फ्योदोरोवा हाल पर इतने सारे लोग आये कि उनमें से आधे हाल में पहुँच ही नहीं सके। हाल में पाँच सौ लोग जमा थे। वक्ताओं में मेंजिंस्काया और पोवलोवा नाम की एक स्‍त्री मज़दूर शामिल थी। दूसरी सभाएँ इसलिए नहीं हो सकीं कि वक्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। पुलिस ने फ्योदोरोवा हाल की सभा में भी खलल डाला – पुरुषों की क्रुद्ध भीड़ सड़क पर आ गयी और मार्सेलेज गाने लगी। पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर कर दिया। बहरहाल पुरुषों का विशाल मोर्चा विभिन्न सड़कों पर से होकर मार्सेलेज और दूसरे क्रान्तिकारी गीत गाते हुए नेव्स्की प्रास्पेक्ट तक गया। दूसरे अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस समारोह के आयोजन में स्त्रियों में बेहतर वर्ग चेतना और ज़्यादा एकजुटता देखने में आयी।
अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस सिर्फ पीटर्सबर्ग में ही नहीं बल्कि मास्को और दूसरे कई शहरों में भी मनाया गया। सारी रूसी मज़दूर स्त्रियाँ इसके बारे में जान गयी थीं। दमन के बावजूद ‘वूमन वर्कर’ बहुत तेज़ी से बिका, बार-बार एक हाथ से दूसरे हाथ में, एक पाठक से दूसरे पाठक तक पहुँचा और संघर्ष के लिए लगातार नयी ताकतों को उत्तेजित करता रहा।
इस अख़बार ने रबड़ उद्योग में घटी त्रासद घटनाओं के मामले में बड़ी भूमिका निभायी, जिसमें उत्पादकों के लालच और ज़ारवादी निरीक्षकों की लापरवाही के चलते बड़ी तादाद में स्‍त्री-पुरुष विषाक्तता के शिकार हुए थे। एलिज़ारोवा ने ”वे नाराज़ हैं” शीर्षक से एक बड़ा ही विचारोत्तेजक लेख लिखा जिसके लिए ‘वूमन वर्कर’ का तीसरा अंक जब्त कर लिया गया।
‘वूमन वर्कर’ बोल्शेविक अख़बार बन गया जिसकी स्थापना स्‍त्री मज़दूरों के कोपेकों की बदौलत हुई थी और उन्हीं का समर्थन उसे चला रहा था।

 

बिगुल, मई 2009

 


 

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