अदम्य बोल्शेविक – नताशा – एक संक्षिप्त जीवनी

एल. काताशेवा
अनुवाद : विजयप्रकाश सिंह

रूस की अक्टूबर क्रान्ति के लिए मज़दूरों को संगठित, शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने बरसों तक बेहद कठिन हालात में, ज़बर्दस्त कुर्बानियों से भरा जीवन जीते हुए काम किया। उनमें बहुत बड़ी संख्या में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता भी थीं। ऐसी ही एक बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता थीं नताशा समोइलोवा जो आख़िरी साँस तक मज़दूरों के बीच काम करती रहीं। हम बिगुल के पाठकों के लिए उनकी एक संक्षिप्त जीवनी का धारावाहिक प्रकाशन कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि आम मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। – सम्पादक 

स्कूल और कॉलेज के दिन 

adamya bolshevik natashaपेशेवर क्रान्तिकारी बोल्शेविक कंकोर्डिया निकोलायेव्ना ग्रोमोवा-समोइलोवा हमारी पार्टी से उस समय जुड़ीं जब लेनिन के नेतृत्व में पुराने बोल्शेविकों की बुनियादी कतारें ढाली जा रही थीं। कम्युनिज्म के इतिहास में उनका नाम एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दर्ज रहेगा जिसने इस लेनिनवादी सिद्धान्त पर कुशलता से अमल किया कि सर्वहारा के सबसे पिछड़े तबके को लड़ाकों की कतार में शामिल करना, सर्वहारा स्त्रियों को सक्रिय संघर्ष से जोड़ना आवश्यक है।
कामरेड समोइलोवा एक पादरी की बेटी थीं, और हालाँकि उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि सर्वहारा के अन्तरराष्ट्रीय और धर्मविरोधी विचारों के प्रतिकूल थी, इसके बावजूद वह साइबेरिया के इर्कुत्स्क, जहाँ उनका जन्म हुआ था, के रूसी जीवन के स्पष्ट अन्तरविरोधों से प्रभावित हुए बिना न रह सकीं।
हाईस्कूल के दौरान ही, कामरेड समोइलोवा युवा क्रान्तिकारियों के एक समूह के सम्पर्क में आ गयीं। हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए सेण्ट पीटर्सबर्ग गयीं। वह फौरन उन ‘राजद्रोही’ छात्रों की जमात में शामिल हो गयीं जिनसे जारशाही बड़े ही हिंसक ढंग से लड़ रही थी।
वह क्रान्तिकारी उभार के उस दौर में सेण्ट पीटर्सबर्ग पहुँची थीं जब मज़दूर तबका क्रान्तिकारी संघर्ष (1896 की सेण्ट पीटर्सबर्ग की हड़तालें) के मंच पर पहली बार सामान्य से अधिक ऊर्जा के साथ उभरा था, जब ज़ारशाही सरकार ने क्रान्तिकारी छात्रों की माक्र्सवादी विचारधारा के रूप में अकस्मात एक नये दुश्मन की शिनाख्त की थी।
कामरेड समोइलोवा ख़ुद को आम युवा आन्दोलन से अलग नहीं रख सकीं। जिज्ञासु चेतना और दृढ़ चरित्र की धनी कामरेड समोइलोवा तत्काल ही योद्धाओं की कतार में शामिल हो गयीं।
पीटर और पॉल के किले में हुई एक भयावह घटना के बाद 1897 में सारे छात्र उग्र क्षोभ से भड़क उठे थे। एक राजनीतिक कैदी एम. एफ. वेत्रोवा ने एक लैम्प के मिट्टी के तेल से अपने कपड़े गीले करके आग लगा ली और बुरी तरह जल जाने से उनकी दर्दनाक मौत हो गयी। सशस्त्र पुलिस द्वारा सभी घटनाओं के बारे में इसी प्रकार की कहानी बतायी जाती थी, लेकिन विदेशों में ऐसी बातें की जा रही थीं कि दुर्व्‍यवहार के बाद वेत्रोवा को ज़िन्दा जला दिया गया था। इस भयावह घटना ने समोइलोवा पर गहरा प्रभाव डाला। छात्राओं ने इसके विरोध में प्रदर्शन करने और सभी विश्वविद्यालयों के तमाम छात्रों को जगाने का संकल्प किया। एक व्याख्यान कक्ष में बैठक बुलायी गयी। एक ”समझदार” छात्रा ने विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के ख़िलाफ भाषण दिया। तत्काल एक दूसरी छात्रा, जिसके बारे में कुछ ही लोग जानते थे और जो तब तक उतनी नामचीन नहीं थी, फौरन मंच पर आयी। विरोध प्रदर्शन का आह्नान करते हुए उसने ऊँचे और उत्तोजित स्वर में बोलना शुरू किया। वह समोइलोवा थीं। उनके जोशीले भाषण ने श्रोताओं को उद्वेलित कर दिया। सबने विरोध प्रदर्शन के पक्ष में वोट दिया।
समोइलोवा की जुझारू भावना ने स्वयं को अभिव्यक्त कर दिया था। अपने जीवन में पहली बार वह सार्वजनिक तौर पर बोली थीं, जो खुद उनके लिए भी अनपेक्षित था।
उस पहले भाषण ने उनका भावी जीवन तय कर दिया। उन्होंने पूँजीवादी विज्ञान के ”गम्भीर अध्‍ययन” को त्याग दिया जिसे विश्वविद्यालयों के ज़ारशाही समर्थक प्राध्‍यापकों ने मृत और जीवन से काटकर अलग कर दिया था।
सरकार ने 1901 में इस आशय का कानून पारित किया कि गड़बड़ी करने वाले छात्रों को अनिवार्य भर्ती के तहत फौरन सेना में भर्ती किया जाये। उस विशाल देश में जहाँ शिक्षित लोग अज्ञान और अशिक्षा के सागर में बूँद की तरह थे, इस कानून ने छात्रों के मन में गुस्से की आग भड़का दी। प्रतिरोध करने वालों में समोइलोवा भी शामिल थीं।
नतीजतन उनके कमरे पर छापा मारा गया, गिरफ्तार करके उन्हें जेल भेजा गया और विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया।
फरवरी 16, 1901 को सेण्ट पीटर्सबर्ग में छात्र आन्दोलन जारी रखने के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए छात्रा फोकिना के कमरे में आयोजित प्रतिनिधियों की एक बैठक से समोइलोवा को गिरफ्तार कर लिया गया। समोइलेवा के कमरे की तलाशी के दौरान क्रावचिंस्की का प्रतिबन्धित उपन्यास ‘आन्द्रे कुझुखोव’, चेर्नीशेव्स्की का उपन्यास ‘क्या करें?’ और एक रिवॉल्वर मिली।
आरोप लगाये जाने पर समोइलेवा ने स्वीकार किया कि वह फोकिना के कमरे में इसलिए नहीं गयी थीं कि उससे परिचित थीं बल्कि इसलिए गयी थीं कि उन्हें पता था कि छात्र वहाँ जमा होते थे। उस बैठक में उन्होंने छात्र आन्दोलन को जनता और प्रेस से पर्याप्त समर्थन न मिलने पर चर्चा की। उन्हें वे किताबें एक छात्रा से मिली थीं और रिवॉल्वर वह साइबेरिया से ले आयी थीं जहाँ उन्होंने उसे सुरक्षा के लिए रखा था। उन पर लगाये गये आरोप तीन महीने बाद ख़ारिज हो गये, इस बीच समोइलेवा को हिरासत में रखा गया; लेकिन उन्हें विश्वविद्यालय छोड़ना पड़ा।
तीन महीने की इस प्रारम्भिक कैद ने समोइलेवा को यह देखने का मौका दिया कि ज़ारशाही की असलियत क्या थी, और इसमें सन्देह नहीं कि इस अनुभव ने क्रान्ति के लिए अपना जीवन समर्पित करने के उनके फैसले को और भी मज़बूत किया। उन्होंने विदेश जाने और अलग और अपेक्षाकृत अधिक मुक्त परिस्थितियों में अपना अध्‍ययन जारी रखने का निश्चय किया, जिसमें इतना बर्बर व्यवधान पड़ गया था।
अक्तूबर 11, 1902 को वह पेरिस के लिए रवाना हुईं। पेरिस में फ्री रशियन स्कूल ऑफ सोशल साइन्सेज़ नाम का एक स्कूल था। उसका संचालन बुर्जुआ उदारवादी प्राध्‍यापकों का एक समूह करता था, उदार विचारों की वजह से रूसी विश्वविद्यालयों में उनके पढ़ाने पर पाबन्दी लगा दी गयी थी। रूसी विश्वविद्यालयों में ठहराव आ जाने के बाद ज्ञान के भूखे नौजवानों के झुण्ड इस स्कूल में पहुँचते थे।
उन दिनों लेनिन का अखबार इस्क्रा (”चिंगारी”) पेरिस से प्रकाशित होता था और लेनिन और इस अखबार के उनके सहकर्मी उन सबसे ज़हीन युवाओं को, जिन्होंने ज़ारशाही का दमन झेला था और उससे बचने के लिए पेरिस आ गये थे, उन उदारवादी प्राध्‍यापकों के प्रभाव से निकालने के लिए व्यग्र थे। लिहाजा वे भी इस स्कूल में लेक्चर देते थे और उसका उपयोग रूस में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी मज़दूर समुदाय में काम करने के लिए प्रचारकों के प्रशिक्षण के छोटे-छोटे कोर्स चलाने के लिए करते थे।
समोइलेवा इन कोर्सों से जुड़ीं और उनकी उत्साही छात्रा बन गयीं। इस तरह उन्हें माक्र्सवादी अध्‍ययन के स्कूल में पढ़ने और स्वयं लेनिन के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में सैद्धान्तिक प्रशिक्षण पाने का सुअवसर मिल गया।

 

पहली रूसी क्रान्ति के दौरान व्यावहारिक कार्य (त्वेर, एकातेरिनोस्लाव, ओदेस्सा, बाकू, मास्को और अन्य कस्बे)


समोइलोवा को व्यावहारिक काम का पहला अनुभव त्वेर में मिला जहाँ वह आरएसडीएलपी (रूसी सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी) के दूसरे अधिवेशन से कुछ ही दिन पहले 1903 की गर्मियों में पेरिस से लौटने के बाद सीधो पहुँचीं थीं। (अनुवादक की टिप्पणी : आजकल सामाजिक-जनवादी शब्द का अर्थ नकली कम्युनिस्ट होता है, लेकिन उन दिनों सच्चे कम्युनिस्ट सामाजिक-जनवादी ही कहलाते थे।)
समोइलोवा के त्वेर पहुँचने से कुछ ही दिन पहले आरएसडीएलपी की त्वेर कमेटी पर छापा मारकर उसके ज्यादातर सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया था। इस तरह समोइलोवा का आगमन सही समय पर हुआ। वह कमज़ोर पड़ गये सामाजिक-जनवादी संगठन को मजबूत करने आयी थीं, जो विदेश से इस्क्रा द्वारा भेजे जाने वाले निर्देशों के तहत संघर्ष चला रहा था।
गिरफ्तारी से किसी तरह बच गये कामरेडों ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया, और जल्द ही वह कमेटी की सदस्य चुन ली गयीं। समोइलोवा ने पहली मुलाक्फ़ात में त्वेर कमेटी की सदस्य कामरेड कुदेल्ली पर जो छाप छोड़ी वह उसका वर्णन इस तरह करती हैं:
”वह नौजवान लड़की थीं,” वह कहती हैं, ”लम्बी, छोटी-भूरी चमकीली ऑंखों और चमकदार, धूप से सँवलाई रंगत वाली। उनका चेहरा-मोहरा असमान था और उनकी हल्की तिरछी भौहें उनको किसी हद तक मंगोलियाई या चीनी शक्ल-सूरत प्रदान करती थीं। कुल मिला कर वह हँसमुख और मिलनसार व्यक्ति का प्रभाव छोड़ती थीं। उनको देखना आनन्ददायी होता था। उन्हें देख कर लगता था कि जैसे वह हमेशा सेवा के लिए प्रस्तुत हों, अपने काम में दिलोजान से लग जाने के लिए तैयार हों।”
ज़ारशाही रूस में भूमिगत रह कर काम करने वाले क्रान्तिकारियों के रिवाज़ के मुताबिक कामरेड समोइलोवा ने अपनी पहचान छिपाने के लिए एक छद्म नाम रख लिया। कामरेड उन्हें ”नताशा” कहने लगे और अपने गुप्त क्रान्तिकारी काम की पूरी अवधि के दौरान वह इसी नाम से जानी जाती रहीं। (भूमिगत जीवनकाल की चर्चा करते समय हम समोइलोवा को ”नताशा” ही कहेंगे)।
वह प्रचार-कार्य को समझती थीं क्योंकि पेरिस की सामाजिक-जनवादी कक्षाओं में उन्हें उसका प्रशिक्षण मिला था और इसलिए भी कि त्वेर कमेटी के कामों में प्रचार-कार्य सबसे लचर था।
त्वेर कमेटी के सदस्य की हैसियत से उन्होंने कमेटी की रणनीतिक और सांगठनिक दिशा तय करने में भागीदारी की जिसे कि गिरफ्तारियों के बाद नये सिरे से संगठित करने की जरूरत थी। यहाँ उन्होंने फौरन साबित कर दिखाया कि उन्हें इस्क्रा की सांगठनिक योजनाओं में महारत हासिल है, कि वह ”दोस्तों के आहत होने” की परवाह किये बिना लगातार ऐसी रणनीतियाँ अपनाने में सक्षम हैं जिन्हें वह सही समझती हैं।
हालाँकि उन्हें कोई अनुभव नहीं था और वह पहली बार व्यावहारिक काम कर रही थीं लेकिन उन्होंने त्वेर कमेटी के काम-काज की ख़ामियों को समझ लिया – उसकी बिखरी प्रकृति, निरन्तरता के अभाव, और उन दूसरी ख़ामियों को जिनका ज़िक्र लेनिन के इस्क्रा ने किया था।
नताशा के त्वेर आने के कुछ ही दिनों बाद दूसरे अधिवेशन में, जिसका आयोजन 1903 में विदेश में हुआ, आरएसडीएलपी बोल्शेविक और मेंशेविक, दो धड़ों में बँट गयी। विभाजन की खबर मिलने पर आरएसडीएलपी की त्वेर कमेटी और पूरा संगठन लेनिन के नेतृत्व का अनुसरण करने वाले क्रान्तिकारी माक्र्सवादी धड़े में शामिल हो गया और उसके बाद से स्वयं को बोल्शेविक कहने लगा। नताशा भी बोल्शेविकों के साथ जुड़ गयीं।
लेकिन उन्हें जल्द ही त्वेर छोड़ना पड़ा। उन्होंने अपने प्रचार-कार्य को अभी बढ़ाना शुरू ही किया था कि जाड़े का मौसम आ गया; और सर्दियों के मौसम में जंगलों में बैठकें आयोजित नहीं की जा सकती थीं और उनके सामने यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि अपनी बैठकें वे कहाँ किया करें। चूँकि मज़दूरों के साथ बहुत ही कम सम्पर्क था इसलिए जो भी कमरा दे सकता था उन्हें उसे स्वीकार करना पड़ता था। उनके समूह में घुस आये एक ग़द्दार ने सशस्त्र पुलिस को उनके बारे में बता दिया और नताशा को भूमिगत हो जाना पड़ा। संयोग से मज़दूरों ने उस ग़द्दार को मार डाला।
उनके भूमिगत रहकर काम करने की अगली जगह एकातेरिनोस्लाव (अब द्नीप्रोपेत्रोव्स्क) थी। यहाँ के हालात त्वेर से बिलकुल अलग थे। त्वेर उत्तारी रूस के कपड़ा उद्योग क्षेत्र में स्थित था जहाँ दक्षिण के खान और धातुकर्म उद्योग, एकातेरिनोस्लोव जिसका केन्द्र था, के मुवफाबले मज़दूरों का शोषण अधिक होता था। उत्तारी कपड़ा उद्योग क्षेत्र में मज़दूरी सबसे कम थी और चौदह-सोलह घण्टे काम करना पड़ता था। और त्वेर के संगठन समेत समूची नार्दर्न वर्कर्स यूनियन लेनिन और इस्क्रा की बनायी हुई नीतियों पर अमल करती थी।
दूसरी ओर, दक्षिण में विदेशी पूँजी की बदौलत पूँजीवादी विकास अधिक हुआ था, लोहा और इस्पात उद्योग बहुत विकसित था। वहाँ के मज़दूरों की स्थिति उत्तार के कपड़ा उद्योग के मज़दूरों से काफी बेहतर थी। स्थिति अधिक जटिल थी और मेंशेविक प्रभाव भी अधिक था। ख़ास तौर से नब्बे के दशक की औद्योगिक तेज़ी के दौरान जब रेलमार्ग के द्रुत निर्माण की वजह से रेलों के बड़े-बड़े आर्डर पूरे किये जा रहे थे, दक्षिण के सर्वहारा की स्थिति उत्तार के कपड़ा उद्योग मज़दूरों के मुवफाबले काफी अच्छी थी – उन्हें वेतन अधिक मिलता था, काम के घण्टे कम थे, वगैरह।
लेकिन नताशा के पहुँचने के कुछ ही दिन पहले इस जिले के मज़दूरों ने रूसी मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में एक गौरवशाली पन्ना जोड़ा था। उन्होंने लाल झण्डे के साथ ”ज़ारशाही मुर्दाबाद”, ”काम के घण्टे आठ करो” – जैसे नारे लगाते हुए सिलसिलेवार कई हड़तालें और प्रदर्शन किये थे। पुलिस और सेना के साथ कई झड़पें हुई थीं जिनमें कितने ही लोग मारे गये थे और घायल हुए थे और जेलें कैदियों से भर गयी थीं जिनके साथ बर्बर दुर्व्‍यवहार किया गया।

”अदम्य बोल्शेविक” नताशा


आम तौर पर हालात कठिन थे और हालाँकि बड़े कारख़ानों के मज़दूर बोल्शेविकों के साथ सहानुभूति रखते थे लेकिन शहरी ज़िलों में मेंशेविकों की भरमार थी। इन कठिन हालात में नताशा ने स्वयं को अदम्य बोल्शेविक साबित किया और अन्तिम साँस तक वैसी ही बनी रहीं। जब नताशा एकातेरिनोस्लाव में काम कर रही थीं उस वक्त एकातेरिनोस्लाव कमेटी के सदस्य रहे कामरेड एगोरोव थे जो उनकी गतिविधियों का इस प्रकार ब्योरा देते हैं :
”मैं सांगठनिक काम करता था जबकि नताशा प्रचार और कस्बे में सम्पर्क का काम करती थीं। कठिन वक्त था वह। हम शाम के वक्त सांगठनिक और प्रचार-कार्य करते थे जबकि रात में, जब हम थके होते थे, हम प्राय: बैठकर परचे तैयार करते थे। नताशा मुझे उकसाती रहतीं। मैं प्राय: थकान से चूर होकर सर हिलाता रहता और मेरे दिमाग में कोई विचार ही न आता। उसके बाद अपना ओवरकोट फर्श पर बिछाकर मैं उस पर लेट जाता। सुबह नताशा मुझे जगातीं और फिर से काम के लिए तैयार करतीं। इन कामों के अलावा हमें मेंशेविकों से भी लड़ना पड़ता था जो संगठन को अपने हाथ में कर लेना चाहते थे। यह कठिन और अड़ियल लड़ाई थी क्योंकि कमेटी में कुछ ढुलमुल तत्व थे जो मेंशेविकों के सम्पर्क में थे। उनकी रणनीति यह थी कि एकातेरिनोस्लोव में जो भी मेंशेविक आ जाये उसे मज़दूर संगठनों में घुसा दिया जाये। नाताशा और मुझे इन हमलों को नाकाम करके मज़दूर संगठनों पर अपना प्रभाव बनाये रखना था। फैक्ट्री वाले जिलों में अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए हमें अपना पूरा ज़ोर लगाना पड़ा, लेकिन हम कामयाब रहे। नताशा ने मज़दूर समूहों के बीच अपनी गतिविधियाँ चलाने में अपनी सारी ऊर्जा और ताकत झोंक दी। हमारी हर शाम इस काम के लिए समर्पित थी। इसके अलावा हमें एक छापाख़ाना और मुद्रित सामग्री के वितरण के लिए तकनीकी मशीनरी का भी बन्दोबस्त करना था। मुझे याद है कि कामरेडों की अनुभवहीनता के चलते छपी सामग्री की पहली खेप का नुकसान हो गया था और हमें घोर निराशा हुई थी। सच है कि वह हमारे पास का सारा साहित्य नहीं था लेकिन हज़ारों प्रतियाँ बेकार हो गयी थीं। लेकिन हमारी जीत यह थी कि उसी दिन, सशस्त्र पुलिसकर्मियों को धता बताकर फैक्ट्रियों में बड़ी तादाद में बचे हुए परचे बाँट दिये गये। परचों की वह खेप दुर्घटनावश हमारे हाथ से निकल गयी थी। हुआ यह था कि चौकसी कर रहे एक पुलिसकर्मी ने परचों को अन्दर लाते देख लिया और उसे सन्देह हुआ कि वह चोरी का माल है और उसने घर में छापा मार दिया।
”एकातेरिनोस्लोव में नताशा अपने निजी पासपोर्ट पर रह रही थीं। त्वेर वाले मामले पर पुलिस विभाग की ओर से जारी सरकुलर से उनके बारे में जानकारी पाकर सशस्त्र पुलिस उनके पीछे लग गयी। मैंने उनसे एक गैरकानूनी पासपोर्ट बनवा लेने का अनुरोध किया और तकरीबन उन्हें राज़ी कर ले गया था लेकिन तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। उन्हें गिरफ्तार करके त्वेर ले जाया गया जहाँ उनके ख़िलाफ त्वेर और एकातेरिनोस्लोव के मामलों में आरोप लगाये गये। उनकी गिरफ्तारी संगठन के लिए भारी आघात थी हालाँकि वह इकलौती कामरेड थीं जिन्हें गिरफ्तार किया गया था। मुझे राजनीतिक पुलिस की रणनीति का अनुभव था और मैंने ताड़ लिया था कि वे उनका पीछा कर रहे हैं। लेकिन लम्बे समय तक वह यही सोचती रहीं कि मैं ज़रूरत से ज्यादा सन्देह कर रहा हूँ। उन्हें यकीन आया तब तक काफी देर हो चुकी थी।
”मैंने एकातेरिनोस्लोव में आख़िरी बार उन्हें पुलिस थाने की हवालात के सीखचों के पीछे देखा। हवालात की खिड़की सड़क की तरफ खुलती थी और किसी ने मुझसे कहा कि मुझे उनसे मिलने की अनुमति माँगनी चाहिए। मैंने सोचा कि मैं इसका लाभ उठाऊँगा और अलविदा कहने जाऊँगा लेकिन जैसे ही मुझ पर उनकी नज़र पड़ी वह इतनी तेजी से अपना हाथ और सर हिलाने लगीं कि मुझे लगा कि मेरे लिए भी ख़तरा मँडरा रहा है और मुझे एकातेरिनोस्लोव से दूर चले जाना चाहिए। मैंने अपना सारा काम एक बोल्शेविक कामरेड के हवाले करके वैसा ही किया।”
नताशा चौदह महीने त्वेर की जेल में रहीं। उनकी बहन के लम्बे और लगातार आवेदनों के बाद मार्च 1905 में एक हज़ार रूबल की ज़मानत पर मास्को के पब्लिक प्रासीक्यूटर के आदेश पर उन्हें रिहा किया गया, जिसने उन्हें पुलिस की देख-रेख में रहने के लिए अपनी पसन्द के कस्बे के चुनाव की अनुमति दी थी।
नताशा ने अपना क्रान्तिकारी काम जारी रखने के लिए दक्षिण में लौटने का फैसला लिया। पहले वह बड़े बन्दरगाह और नौपोत निर्माण केंद्र निकोलेयेव गयीं। लेकिन चूँकि उनकी निगरानी हो रही थी और जहाँ कहीं भी जातीं उसके बारे में पुलिस को सूचना देनी होती थी इसलिए वह भूमिगत काम नहीं कर सकीं। जल्द ही उन्होंने चोरी-छिपे नेकोलेयेव छोड़ दिया और ओदेस्सा चली गयीं।
जिन चौदह महीनों तक वह कैद में रहीं उस दौरान रूस का पूरी तरह कायाकल्प हो चुका था। देश में चारों तरफ क्रान्तिकारी उथल-पुथल मची हुई थी। जैसा कि लेनिन ने कहा, आश्चर्यजनक तेज़ी से घटनाएँ घटित हो रही थीं। लेकिन देश के शेष हिस्सों के मुवफाबले दक्षिण कुछ पीछे था, और ओदेस्सा के सर्वहारा वर्ग ने जून की हड़ताल (जून 13-25, 1905) के इकलौते वाकये को छोड़कर सेण्ट पीटर्सबर्ग के सर्वहारा वर्ग के वीरोचित उदाहरण का अनुसरण नहीं किया।
ओदेस्सा का सामाजिक-जनवादी संगठन, जैसा कि नताशा ने जल्द ही भाँप लिया, लेनिन के बताये रास्ते पर नहीं चल रहा था।
ओदेस्सा कमेटी के सारे बोल्शेविक, जो पार्टी के तीसरे अधिवेशन के प्रस्तावों पर चर्चा और उनके अध्‍ययन के लिए जमा हुए थे, गिरफ्तार करके जेल में डाल दिये गये। उससे ऐन पहले गुप्त छापाखाना ढूँढ़ा और जब्त कर लिया गया था। महज कुछ गिने-चुने, अलग-थलग पड़े जुझारू बोल्शेविक ही बचे रह गये थे, जो हाल ही में ओदेस्सा पहुँचे थे और जिन्हें पार्टी संगठन के लोगों से ठीक से सम्पर्क करने का समय नहीं मिल सका था। इन्हीं बोल्शेविकों में नताशा भी थीं।
इस तरह क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादियों का नेतृत्व बहुत कमज़ोर था। जो कुछ बचा रह गया था उनमें थी, मेंशेविक कमेटी, द बुन्द, कुछ छिट-पुट बोल्शेविक और चन्द बिचौलिये। (बुन्द यानी यहूदी लेबर लीग-मेंशेविक ऐसा संगठन था, जो यहूदी सांस्कृतिक स्वायत्ताता, और यहूदी मज़दूरों के एक अलग संगठन की स्थापना को अपने कार्यक्रम में सबसे अधिक महत्व देता था।) जब ऐतिहासिक दिन शुरू हुए तो नताशा को काम करने का वक्त ही नहीं मिला था। पहली मई से हड़तालें शुरू हुईं और लगभग पूरे महीने चलती रहीं। मज़दूरों की भावनाएँ इतनी उत्तोजित थीं कि मामूली झटका एक बड़ा और फैसलाकुन आन्दोलन खड़ा कर सकता था।
जून के प्रारम्भ में जब मज़दूरों के चुने हुए प्रतिनिधि गिरफ्तार किये गये तो जनता ने उनकी रिहाई की माँग की और जनदबाव में अधिकारियों को उन्हें रिहा करना पड़ा। मज़दूर मार्सेइएज़ गीत गाते हुए अपने रिहा हुए कामरेडों को घर ले गये।
एक मामूली-सी घटना ने बारूद की नली में होने वाली कौंध की तरह जनता की दबी हुई ऊर्जा को निर्बन्धा कर दिया और उसी पल से ओदेस्सा के प्रसिद्ध ‘जून दिनों’ का श्रीगणेश हुआ। 13 जून को कज्ज़ाकों ने हान फैक्टरी पर शान्तिपूर्ण और निहत्थे मज़दूरों पर हमला बोलकर गोलीबारी शुरू कर दी। उन्होंने दो मज़दूरों की हत्या कर दी और कइयों को घायल कर दिया। आसपास के इलाकों के लोगों ने हड़तालें शुरू कर दीं और उसके बाद सारा कस्बा उसमें शामिल हो गया। पुलिस और सेना के साथ टकराव हुए। मज़दूरों ने मोर्चाबन्दी कर दी और सड़कों पर रक्तरंजित लड़ाई शुरू हो गयी। मज़दूरों ने सामाजिक-जनवादियों से खुद को हथियार मुहैया कराने का अनुरोध किया। सेना आ गयी। उनके पीछे से महाविपत्तियाँ आयीं, फैक्टरियों के भोंपू बज उठे, ज़बरदस्त भीड़ नेसिप की ओर, रेलवे के तटबन्ध की ओर बढ़ीं, जहाँ मज़दूरों ने एक ट्रेन रोक रखी थी, यात्रियों को गाड़ी से उतार कर उन्होंने इंजन की भाप निकाल दी। कज्ज़ाक आये, लेकिन जब उन्होंने एक भारी भीड़ देखी, कृतसंकल्प और अवज्ञाकारी भीड़, तो उन्होंने हाथ लहराये और पलटकर वापस चले गये। रेलवे के पुल के पास इतनी बड़ी सभा हुई कि इतनी बड़ी सभा इससे पहले रूस में कभी देखी नहीं गयी थी। सामाजिक-जनवादी वक्ताओं के उत्तोजक भाषणों ने मज़दूरों की भावनाओं को और भी भड़का दिया, उनकी वर्गीय चेतना को जगाकर उनकी एकजुटता को और भी मज़बूत कर दिया।
अगले दिन, जून 14 को ओदेस्सा के सारे मज़दूर हड़ताल पर चले गये। शहर अजीब-सा दिखने लगा। स्टोर, कार्यशालाएँ और दफ्तर सभी बन्द थे। एक भी फैक्टरी, एक भी वर्कशॉप नहीं खुली थी। सड़कों पर ट्रामकारें रोक दी गयी थीं। बहुतों को उलट दिया गया था और गाड़ियों और दूसरी चीजों के साथ उनका भी बैरिकेड के रूप में प्रयोग किया जा रहा था। नौजवानों ने भी इसमें भाग लिया और आन्दोलनकारियों के रूप में भाषण दिये।
सेना और पुलिस के साथ हर जगह टकराव हो रहे थे। कज्ज़ाकों की तलवारों और पुलिस की गोलियों ने मज़दूरों का ख़ून बहाया। गुस्साये मज़दूरों ने हथियारों के लिए चीख-पुकार मचायी लेकिन हथियार नदारद थे… ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई रास्ता ही नहीं बचा था… उसके बाद अचानक 14 जून की शाम क्रान्ति का लाल परचम लहराते पहले क्रान्तिकारी युद्धपोत को ओदेस्सा के बन्दरगाह में आते देखकर वे सुखद आश्चर्य से भर गये।
बाज़ी पलट गयी थी। पुलिस ने तत्काल बन्दरगाह खाली कर दिया। उल्लास से भरी उत्तोजित भीड़ पोतेमकिन की अगवानी के लिए लपकी।
युद्धपोत पोतेमकिन में उसी तरह का विद्रोह भड़क उठा था जैसा मज़दूरों के बीच भड़का था। सामाजिक-जनवादी आन्दोलन नाविकों के बीच पहले ही चलाया गया था लेकिन उसके विद्रोह की शुरुआत पूरी तरह अनपेक्षित थी।
पोत की कमान सँभालने के लिए युद्धपोत पर तीस नाविकों की एक क्रान्तिकारी कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने बिना समय गँवाये कस्बे के मज़दूर संगठनों से सम्पर्क किया। एक साझा अधिवेशन बुलाया गया लेकिन उसमें मेंशेविक प्रभाव, अनिश्चय और ढुलमुलपन अपना असर दिखाने लगा। और बेशवफीमती पल हाथ से निकल गये। हमला करने की बजाय – उस इकलौते रास्ते का सहारा लेने की बजाय, माक्र्सवाद हमें जिसकी शिक्षा देता है – काले सागर के स्क्वॉड्रन में दूसरे पोतों के आने का इन्तज़ार करने का फैसला लिया गया।
चार बजे, युद्धपोत पर बैठक के बाद, सामाजिक-जनवादी संगठनों के प्रतिनिधि सागर तट पर आये और हथियारों और नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहे मज़दूरों के सामने घोषणा की कि नाविक किनारे पर नहीं आयेंगे और यह भी कि वे चाहें तो अपने-अपने घर लौट सकते हैं।
रात उतर आयी। और उसी के साथ प्रतिरोध, उकसावा और अपराध शुरू हो गया।
कस्बे में पुलिस ने योजनाबद्ध ढंग से कत्लेआम शुरू कर दिया। उन्होंने शराबख़ाने खोल दिये, ”ब्लैक हण्ड्रेड” नाम के प्रतिक्रियावादी गिरोह के सदस्यों ने छककर शराब पी, गोदामों में आग लगा दी, उन्हें तहस-नहस कर डाला, घरों में आग लगा दी। कस्बे को आगज़नी, नरसंहार और तबाही के हवाले कर दिया गया।
नताशा ने जो उस समय ओदेस्सा में ही थीं, इस सबको बहुत ही गहराई से महसूस किया। वह अभी-अभी जेल से निकल कर आयी थीं। उन्हें सेण्ट पीटर्सबर्ग में पढ़ाई के दिनों में देखी ज़ारशाही की क्रूरता, जीवन पर लगी कठोर पाबन्दियाँ याद आयीं जहाँ प्रदर्शनकारी छात्रों के किसी समूह के दिखते ही कज्ज़ाक उन पर चाबुक फटकारते, गोलियाँ बरसाते थे।
अब नताशा ने लेनिनवादी इस्क्रा के चट्टानी एकजुटता वाली पार्टी के लिए संघर्ष के आह्नान का मतलब बड़ी ही शिद्दत से महसूस किया जिसके बिना सर्वहारा की जीत नामुमकिन होती है। लेनिन का ”पहले अलग करो और फिर एकजुट होओ” का नारा उनकी गतिविधियों का मार्गदर्शक सितारा बन गया, जिसका आशय था कि बोल्शेविकों को पहले निर्णायक रूप से मेंशेविकों से अलग हो जाने दो और फिर उनके साथ संगठित कार्रवाई के सवाल पर चर्चा करो।
नताशा ने मेंशेविक और बोल्शेविक रणनीति की व्याख्या पर सबसे ज्यादा बल देते हुए ओदेस्सा में प्रचार-कार्य जारी रखा। लेकिन बोल्शेविक संगठन के मज़बूत होने और कुछ सांगठनिक सफलताओं के बावजूद बाद के घटनाक्रमों ने साबित किया कि नेतागण क्रान्तिकारी विकास को पीछे धकेल रहे हैं – जैसे अक्तूबर 1905 की घटनाओं में जब समूचे रूस में नये क्रान्तिकारी फैले हुए थे, मेंशेविक और बुन्दवादी ज्यादा संगठित थे और नतीजतन बोल्शेविकों में बहुत से लोग समझौते और एकीकरण की प्रवृत्ति से ग्रस्त थे।
”अदम्य बोल्शेविक” नताशा, ओदेस्सा में उन्हें इसी नाम से जाना जाता था, ख़ुद पर काबू न रख सकीं। वह घटनाक्रमों के केन्द्र में रहने और सही बोल्शेविक रणनीति सीखने के लिए मास्को चली गयीं। वह ऐन सशस्त्र विद्रोह की रात मास्को पहुँची। वह उसके दमन तक वहीं रुकीं और उसके बाद ओदेस्सा लौट गयीं।
इन तमाम नाटकीय और ऐतिहासिक घटनाक्रमों ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। नताशा को लगा कि वह महज़ प्रचार-कार्य को जारी रखने के लिए ओदेस्सा में रुकी नहीं रह सकतीं। उन्होंने खुद ही रोस्तोव-ऑन-दोन जाने का फैसला किया। वहाँ भी सशस्त्र विद्रोह हुआ था। वह जानती थीं कि अब उनके सामने नये कार्यभार उपस्थित थे, रोस्तोव के सर्वहारा के लिए संघर्ष के हालिया रूपों के अनुभवों से सीखने और उनमें महारत हासिल करने का काम, सेना तैयार करने और उसको संगठित करने का काम ताकि नये विद्रोह को हथियारबन्द किया जा सके और सही ढंग से संगठित किया जा सके।

ओदेस्सा छोड़ने के नताशा के फैसले ने उन्हें काफी तकलीफ दी। मज़दूर उनके वहाँ से चले जाने का ग़लत अर्थ न निकालें, इसके लिए उन्होंने ओदेस्सा के सामाजिक-जनवादी संगठन के ग़लत रणकौशलों पर स्पष्ट और मुखर बयान दिया। उनका पत्र इस प्रकार था :
मैं ओदेस्सा कमेटी के सदस्यों (बोल्शेविकों) के समक्ष बयान देती हूँ कि निम्न कारणों से स्थानीय संयुक्त संगठन में बने रहना मुझे सम्भव नहीं जान पड़ता :
”पहली बात तो यह कि रणकौशलात्मक सवालों पर बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच की असहमतियाँ अभी भी इतनी गम्भीर हैं कि इस समय एकता करना समझौते के रास्ते पर कदम बढ़ाना है और एकमात्र सच्चे क्रान्तिकारी रणकौशलों से किनारा करने के समान है, जिसे बोल्शेविक अभी तक अपनाते आये हैं, और जिसने उन्हें वामपन्थी और सही अर्थों में आरएसडीएलपी (रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी) का क्रान्तिकारी धड़ा बनाये रखा है।
”महत्‍वपूर्ण मसलों पर असहमत होते हुए एकता करना सिर्फ यान्त्रिक ही होगा और स्थानीय परिस्थितियों में व्यावहारिक तौर पर इसका नतीजा बोल्शेविकों पर मेंशेविकों का वर्चस्व होगा, जबकि, मौजूदा हालात में वर्चस्व के लिए सैद्धान्तिक लड़ाई निश्चित रूप से निरर्थक होगी और सिर्फ नये मतभेद, टकराव और नये विभाजन का कारण बनेगी। यह एकता काम को और भी असंगठित करेगी और चीज़ों को सुधारने में कोई मदद नहीं करेगी। मैं यह भी मानती हूँ कि यहाँ जो एकता हुई है वह पार्टी अनुशासन की सभी धारणाओं का बुनियादी तौर पर उल्लंघन करती है, जिसका बोल्शेविकों ने मेंशेविकों की पार्टी विरोधी और विघटनकारी प्रवृत्तियों के ख़िलाफ अपने संघर्ष में हमेशा ही ज़ोरदार बचाव किया है।
”मैं बाहरी ज़िलों की एक बैठक में बोलने वालों में से उस एक व्यक्ति के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हूँ जिसने घोषणा की थी कि ‘हमें तीसरी कांग्रेस की काग़ज़ी घोषणा पर ध्‍यान देने की ज़रूरत नहीं है’, मुझे लगता है कि स्थानीय संगठन को पूरी पार्टी (यानी बोल्शेविकों) की सहमति के बिना मेंशेविकों के साथ एकता जैसा महत्तवपूर्ण फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं है, और इस मामले में एकमात्र उचित और विश्वसनीय रास्ता पार्टी के तमाम कार्यकर्ताओं की चौथी कांग्रेस बुलाना है।
”एकता के रास्ते पर समझ में न आने वाली हड़बड़ी से आगे बढ़ रहे ओदेस्सा के संगठन ने केन्द्रीय कमेटी या बोल्शेविकों की दूसरी कमेटियों को सूचित करना भी ज़रूरी नहीं समझा। उसने सेण्ट पीटर्सबर्ग और मास्को की कमेटियों के उस उदाहरण की भी सिरे से अवहेलना की जिन्होंने सिर्फ संघीय लाइन पर ही एकता को सम्भव माना था।
”इस तरह स्थानीय संगठन को स्थापित केन्द्रों और पार्टी की सीमाओं से बाहर रखकर, एकता ने पार्टी सम्बन्‍धों में और भी अफरातफरी पैदा कर दी है, ख़ासकर तब जबकि हम मानकर चलें कि चौथी कांग्रेस ने पार्टी के दोनों धड़ों के बीच सिर्फ संघीय आधार पर ही एकता का निर्णय किया था। तब ओदेस्सा का संगठन, एकता करने वाले संगठन के तौर पर, किसी भी पार्टी से बाहर होगा।
”संक्षेप में मैं कहूँगी कि जिन लोगों के नेतृत्व में मैंने कई महीने काम किया है, अब तक जिन्हें मैं गम्भीर राजनीतिक सिद्धान्तों वाले भरोसेमन्द नेता मानती थी, वे हालात का सामना करने में अक्षम साबित हुए हैं। ऐसे महत्तवपूर्ण क्षण में जब बाहरी ज़िलों के अपेक्षाकृत कम विश्वसनीय हिस्से एकता का रुझान दर्शा रहे थे, उन ढुलमुल कॉमरेडों को प्रभावित करने के नज़रिये से बातचीत करने के बजाय वे बहाव के साथ बह गये और अपनी असंगति से उन सिद्धान्तों को नीचा दिखाया, पहले मैं उन्हें, जिनका पैरोकार मानती थी।
”वही दिग्गज जो हफ्ते भर पहले तक एकता की बात भी नहीं सुनना चाहते थे, किसी जादू के ज़ोर से उन्होंने एकता का पक्ष लेना शुरू कर दिया, और यह कहते हुए उसका औचित्य सिद्ध करने लगे कि जब बाहरी ज़िले एकता चाहते हैं तो संघ का आग्रह करना अटपटा जान पड़ता है। यह सच है कि उनमें से कुछ ने दावा किया कि सिद्धान्तत: वे संघ के पक्ष में हैं, लेकिन बाहरी ज़िलों की बैठकों में उन्होंने एकता के सवाल का कोई विरोध नहीं किया, और हमारे नेताओं ने पार्टी में हुए पिछले विभाजन के बारे में लोकरंजक शब्दावली, जैसेकि उसे ‘सिर्फ नेताओं ने उकसाया था’, कि वह एकता में बाधा डालने की इच्छा रखने वाले ‘मुट्ठीभर’ बुद्धिजीवियों का काम था, का जवाब सिर्फ शर्मनाक और आपराधिक चुप्पी से दिया।
”इस तरह की सैद्धान्तिक अस्थिरता ने स्थानीय नेतृत्व में मेरा सारा विश्वास हिलाकर रख दिया और उपर्युक्त कारणों के साथ मिलकर इसने मुझे ओदेस्सा का संगठन छोड़ने पर विवश कर दिया।”
लेकिन ”प्रचारक नताशा” की यह आपत्ति अपना लक्ष्य पूरा न कर सकी। वह डाकपेटी में पत्र डाल ही रही थीं कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें रोस्तोव जेल में डाल दिया गया और उनका पत्र ज़ारशाही के एजेण्टों के हाथ लग गया (1917 की क्रान्ति ने ओखराना ”राजनीतिक पुलिस” के धूल भरे अभिलेखागार से निकालकर इसे सार्वजनिक किया)।
एक बार फिर उन्हें महीनों तक जेल में रहना पड़ा और फिर उन्हें निर्वासित कर दिया गया – इस बार बिना कोई विकल्प दिये, पुलिस की निगरानी में उन्हें उत्‍तरी रूस के वोलोग्दा में भेज दिया गया।
लेकिन क्रान्ति अभी ख़त्म नहीं हुई थी। नताशा फिर से काम करने के लिए बेचैन थीं और जल्दी ही वह वोलोग्दा की पुलिस की निगरानी से निकल भागने में कामयाब रहीं।
वह ग़ैरकानूनी ढंग से मास्को जाकर रहने लगीं। बेशक इसके साथ तमाम किस्म की भौतिक और कानूनी परेशानियाँ जुड़ी हुई थीं।
इस अवधि की नताशा की गतिविधियों का ब्यौरा कॉमरेड बोब्रोव्स्काया इस तरह देती हैं :
”क्षेत्रीय कमेटी की एक सदस्य कांकोर्दिया समोइलोवा थीं जिन्हें हम ‘नताशा’ के नाम से पुकारते थे। अभी कुछ ही समय पहले उनकी मृत्यु हुई है। उत्कट क्रान्तिकारी नताशा एक दिन मितिषी के जंगलों में जनसभा में जुझारू भाषण देतीं, दूसरे दिन गोलुत्विनो में सांगठनिक बैठक बुलातीं, उसके अगले दिन कोलोमैन वक्र्स के प्रतिनिधियों के साथ सम्मेलन में बैठतीं, वहाँ से वह श्चेल्कोवो, कुन्त्सेवो, पुश्किनो जातीं; हर जगह उनकी व्यग्रता से प्रतीक्षा की जाती थी, हर जगह वह सोये हुए विचारों को जगाती थीं, हर जगह वह बेचैन इच्छाओं को झकझोरती थीं, मास्को के उपनगरों की बिखरी हुई सर्वहारा जनता को जो 1905 की हार से धीरे-धीरे उबर रही थी, मज़बूत सांगठनिक डोर से बाँधती थीं। अपना दौरा पूरा करके भूखी और थकी-माँदी नताशा मास्को लौटती थीं और उनकी रिपोर्टें मेहनतकश जनता के जीवन और उसकी उफष्मा से ओतप्रोत होती थीं… सुरक्षा की दृष्टि से मैंने और नताशा ने एक-दूसरे से दूर ही रहने का समझौता किया, हालाँकि यह आसान नहीं था, क्योंकि हम बहुत गहरी दोस्त थीं, और उनकी मृत्यु तक हमारी गहरी दोस्ती कायम रही।
”एक रात बारह बजे वह मेरे आवास पर आयीं और बोलीं कि वह अपना समझौता तोड़ने पर विवश हैं, क्योंकि जिन तीन पार्टी हमदर्दों के यहाँ उन्होंने ठहरने का अनुरोध किया उन सभी ने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया था और वे सड़क पर आ गयी थीं। उस रात हम दोनों बहुत कम सोयीं लेकिन हमने हमदर्दों और ख़ुद अपना ख़ूब मज़ाक बनाया। और कुछ किया भी नहीं जा सकता था, क्योंकि उस सँकरी और टूटी चारपाई पर हम दोनों का सो पाना मुमकिन नहीं था।”
यह 1906 की बात है जब नताशा मास्को के ज़िला पार्टी संगठन में काम कर रही थीं। लेकिन वह वहाँ ज्यादा देर तक काम नहीं कर सकीं क्योंकि पुलिस के जासूसों ने परछाईं की तरह उनका पीछा करना शुरू कर दिया था। उन्हें लग गया कि यह मास्को में उनके पार्टी कार्य का अन्त था, और गिरफ्तारी और जेल से बचने के लिए उन्हें कहीं और जाना होगा।
उन्होंने बेसिन में लुगान्स्क का कस्बा चुना।
1906 के आख़िरी महीनों में संयुक्त पार्टी में गहन गुटबाज़ी का समय था (आरएसडीएलपी की एकता कांग्रेस 1906 में स्टॉकहोम में हुई थी)।
लुगान्स्क दोनेत्स इलाके के ”मेंशेविक समुद्र” में एक छोटा बोल्शेविक द्वीप था। दूसरी दूमा के चुनाव करीब आ रहे थे और वहाँ बोल्शेविक कतारों को सुदृढ़ करना ज़रूरी था, न सिर्फ लुगान्स्क को बनाये रखने के लिए और वहाँ सही ढंग से चुनाव प्रचार अभियान चलाने के लिए, बल्कि अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए भी। प्रोफेसर पिंकेविच, जो उन दिनों लुगान्स्क में काम कर रहे थे, उस समय का इस प्रकार वर्णन करते हैं :
”हम दिसम्बर के मध्‍य में लुगान्स्क पहुँचे और निर्धारित जगह पर गये, कॉमरेड पैलोव्स्की (एक छोटे स्थानीय अख़बार ‘दोनेत्स्की कोलोकोल’ के ठिकाने पर, और कुछ घण्टों के बाद हम दो पेशेवर क्रान्तिकारियों, कामरेडों अन्तोन और नताशा के साथ बात कर रहे थे।
”मुझे दो कमरों का छोटा और साधारण-सा अपार्टमेण्ट याद आता है। मुझे नताशा का सजीव, गुलाबी और प्रफुल्लित चेहरा, और अन्तोन (ए.ए. समोइलोव – नताशा के पति) का बड़ा काला और घुँघराले बालों वाला सिर याद आता है। मुझे दोनों की याद है, ख़ुश और जीवन्त, पार्टी के रणकौशलों के बारे में हम पर सवालों की बौछार करते हुए और इस या उस पार्टी कॉमरेड के बारे में पूछते हुए। उनके बहुत-से सवाल थे – दूमा के लिए चुनाव प्रचार, चुनावी समझौतों के प्रश्न पर, लन्दन की पार्टी कांग्रेस, जारी होने वाले नारों, सेण्ट पीटर्सबर्ग में चलने वाली गुटबाज़ी, इत्यादि मसलों पर।
”बोल्शेविक कार्यकर्ताओं की सक्रिय भागीदारी सहित असाधारण प्रसन्नता और जीवन्तता के साथ जमकर काम किया गया। दुर्भाग्य से मुझे उन सबके नाम याद नहीं हैं। कमेटियों ने काफी सक्रियता दिखायी। कई बार हार्टमैन फैक्टरी में ही या उसके गेट पर, रेलवे की कार्यशालाओं में, कारतूस कारख़ाने पर साभाएँ आयोजित हुईं। लेकिन मुख्य ठिकाना बेशक हार्टमैन फैक्टरी ही थी, जहाँ सभी कॉमरेडों के मज़बूत सम्पर्क थे और वे बेहद लोकप्रिय थे, ख़ासकर वोरोशिलोव और प्रिफ़डकिन।
”इस काम में भी नताशा लाजवाब थीं। उस समय वह बड़ी सभाओं में नहीं बोलती थीं – यह यूरिन का और मेरा दायित्व था, लेकिन वह कमेटी की जान और उसकी आत्मा थीं। बेहतरीन संगठनकर्ता, क्रान्ति के मकसद के प्रति पूरी तरह निष्ठावान, मुखर और स्पष्टवादी, एक असाधारण, उच्च विचारों वाली और नेक इंसान थीं। जो भी उनसे मिलता था उन्हें प्यार करने लगता था। वह अन्तोन की देखभाल करती थीं जो हम लोगों को हमेशा एक ऐसे बड़े बच्चे की तरह प्रतीत होता था जो मानो इस दुनिया के लिए न बना हो। वह हमारी देखभाल करती थीं, एक अध्‍ययन मण्डल चलाती थीं, और तकनीकी कार्यों का निर्देशन करती थीं, पूरे दिन सांगठनिक गतिविधियों में दौड़-भाग करती थीं और कभी शिकायत नहीं करती थीं। सर्वहारा की अन्तिम जीत में गहन आस्था की ज्वाला उनमें सदा जलती रहती थी। उनमें काम करने की ज़बरदस्त क्षमता थी और वह हमेशा ऊर्जा से लबरेज़ रहती थीं और इसी के साथ असाधारण शालीनता उनकी अनूठी पहचान थी।
”जब पार्टी कांग्रेस के लिए चुनाव का सवाल उठा (फरवरी 1907 में) और जब उम्मीदवार के रूप में पहली बार उनका नाम सामने आया, तो उन्होंने यह कहते हुए एकदम इंकार कर दिया कि ‘मैक्सिम या यूरिन या मज़दूरों में से किसी को जैसेकि वोलोद्या को, जाना चाहिए।’ ज़ारशाही की सशस्त्र पुलिस ने यूरिन और मुझे गिरफ्तार करके इस समस्या का समाधान कर दिया और लुगान्स्क समूह ने नताशा को वोलोद्या (वोरोशिलोव) के साथ कांग्रेस में भेजा।”
लन्दन की कांग्रेस में उन्होंने, 1902-1903 में जब वह पेरिस में रहती थीं उसके बाद, पहली बार लेनिन को फिर से देखा। अब वह बोल्शेविकों के नेता थे। उन्होंने लेनिन के विस्मयकारी भाषणों को सुना जिनमें उन्होंने मेंशेविक केन्द्रीय कमेटी की राजनीतिक लाइन की ध्‍वस्त कर देने वाली आलोचना की। ये मेंशेविक अब इस कदर नीचे गिर गये थे कि यह नारा देने लगे थे कि मज़दूरों को कैडेट (संवैधानिक-जनवादी-उदार बुर्जुआओं की पार्टी) सरकार का समर्थन करना चाहिए, और यहाँ तक कि मुआवज़ा दिये बिना ज़मींदारों की ज़मीन पर कब्ज़ा करने की माँग अस्वीकार करने लगे थे। नताशा ने लेनिन का वह भाषण सुना जिसमें उन्होंने यह सिद्धान्त दिया कि रूस में क्रान्ति की विजय सर्वहारा और किसानों के जनवादी अधिनायकत्व के रूप में होगी और यह कि सर्वहारा वर्ग क्रान्ति का नेता है। जैसाकि हम जानते हैं, नताशा हमारी पार्टी की बड़ी सिद्धान्तकार या रणनीतिकार नहीं थीं। वह व्यवहार के प्रति समर्पित थीं, और इसमें दो राय नहीं कि पाँचवीं कांग्रेस ने उन पर ज़बरदस्त प्रभाव डाला, बोल्शेविज्म की उनकी समझ को और गहरा किया और बाकी की पूरी ज़िन्दगी के लिए उन्हें एक अटल लेनिनवादी योद्धा बना दिया।
कांग्रेस में बोल्शेविकों की जीत हुई और नताशा जिस उत्साह से भरकर रूस वापस लौटीं उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। वह हार्टमैन फैक्टरी के मज़दूरों के पास लुगान्स्क वापस लौटने को उत्सुक थीं। वह प्रतिनिधि की हैसियत से उन्हें अपनी रिपोर्ट देने और क्रान्ति के उस काम को और भी उत्साह से आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक थीं जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर रखा था। इस बीच पुलिस विभाग सावधानी के साथ कांग्रेस की निगरानी कर रहा था। उसके विदेशी एजेंट साये की तरह प्रतिनिधियों के पीछे लगे थे और उनके असली नाम जानने और रूस लौटते समय सीमा पर उन्हें गिरफ्तार करने का वे हरसम्भव प्रयास कर रहे थे। बहरहाल, नताशा सुरक्षित रूप से सीमा पार कर गयीं और अपनी निशानदेही छिपाने के लिए कुछ दिन खार्कोव में रुकी रहीं।

पुलिस से बचने के लिए खार्कोव में रहते हुए नताशा लुगान्स्क पार्टी संगठन के साथ पत्र-व्यवहार करती थीं, बेशक नाम बदलकर और अपने पत्र मित्रों के पते पर मँगाकर। वोरोशिलोव (वोलोद्या), जो तत्काल बाद लुगान्स्क लौट आये थे, ने नताशा को एक पत्र लिखा, जिसे ओखराना ने पकड़ लिया और उसका चित्र उतार लिया (एक प्रति पुलिस विभाग के रिकार्ड में रख ली गयी)। पत्र में उन्होंने लिखा :
”मेरी राय में आपका यहाँ आना अत्यन्त ख़तरनाक होगा, क्योंकि एकिम इवानोविच के घर पर छापा पड़ा है। उसने कहा है कि जो किताबें उसके घर से मिली हैं वे आपने उसे दी थीं। पुलिस आपके बारे में भूली नहीं है, जैसाकि मैं साबित कर सकता हूँ। हमारे घर पर हर समय निगरानी रखी जा रही है, हम सन्देह के दायरे में हैं, इसलिए आप तुरन्त पकड़ ली जायेंगी”
लुगान्स्क न लौट पाने के कारण नताशा बुरी तरह निराश थीं। उन्हें मज़दूर वर्ग का दूसरा केन्द्र तलाशना पड़ा जहाँ जाकर वह अपना काम जारी रख सकें। वह कुछ समय के लिए मास्को गयीं और उसके बाद बाकू चली गयीं। वह तेल उद्योग का विशाल केन्द्र था। बाकू में डोन्बास और एकातेरिनोस्लाव के धातु उद्योग की तरह पूँजीवाद विकास के उच्चतर स्तर पर पहुँच चुका था। लेकिन यहाँ, तेल उद्योग के इस केन्द्र में, जो ज़ारशाही साम्राज्यवाद की महत्तवपूर्ण नस था और मालिकों को ज़बरदस्त मुनाफा देता था, उस सम्पदा का उत्पादन करने वाला सर्वहारा अत्यन्त दयनीय हालात में जी रहा था और यह भी तब जबकि बाकू के लिए क्रान्तिकारी गतिविधियाँ कोई नयी चीज़ नहीं थीं और बाकू के सर्वहारा ने मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी इतिहास में बहुत-से वीरतापूर्ण अध्‍याय जोड़े थे।
बाकू की एक विशेषता यह थी कि वहां सत्रह राष्ट्रीयताओं के मज़दूर थे, जो सभी अलग-अलग भाषाएँ बालते थे। बोल्शेविकों और मेंशेविकों के अलावा वहाँ कई अन्य राष्ट्रीय पार्टियाँ भी थीं। मेहनतकश वर्ग के हितों के साथ मेंशेविकों के ग़द्दारी करने के कारण बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच टकराव असाधारण रूप से तीखा हो गया था।
पार्टी कार्य और जीवन के हालात अत्यन्त जटिल और कठिन हो गये थे। तेल के क्षेत्र एक-दूसरे से और बाकू से बहुत दूर-दूर तक बिखरे हुए थे। मज़दूरों के अध्‍ययन मण्डल चलाने के लिए शाम के वक्त पैदल चलने में ख़तरा रहता था। तेल के डेरिकों पर आग लगाने वालों की निगरानी के लिए पहरेदार लगे रहते थे। पूरा इलाका अंधेरा और सुनसान था। किसी राहगीर को गोली या चाकू मार दिया जाना असामान्य घटना नहीं थी।
नताशा को कई बार बहुत ही कष्टदायी अनुभव हुए। रेल कर्मियों के ज़िले में चेर्नी गोरोडोक में मज़दूरों के एक अध्‍ययन मण्डल में जाते समय कुछ औरतों ने गालियाँ देते हुए उनका पीछा किया : ”तुम….तुम हमारे पतियों को हमसे छीन लेना चाहती हो! हम तुम्हें दिखा देंगी….!”
उन समय नताशा, और आम तौर पर पूरी पार्टी को, औरतों द्वारा डाली जाने वाली बाधा का सामना करना पड़ रहा था। कुछ कॉमरेडों ने यह राय ज़ाहिर की है कि अनपढ़ औरतों की यह और इसी तरह की अन्य मूर्खतापूर्ण घटनाएँ थीं जिन्होंने नताशा को औरतों के बीच काम करने को उकसाया, जिस क्षेत्र में वे एक महान राजनीतिक हस्ती बन गयीं। उनका नाम संगठनकर्ताओं की पहली कतार में आता है – लाखों कामकाजी औरतों और किसान औरतों के नेताओं में जिन औरतों ने सत्ता के संघर्ष और समाजवाद के निर्माण में मज़दूर वर्ग की कतारों को मज़बूती प्रदान की।

 

प्रावदा में काम 
काली प्रतिक्रिया के साल शुरू हो गये। 1909 में, पहली मार्च को नताशा फिर गिरफ्तार कर ली गयीं और लगभग साल भर के लिए जेल में डाल दी गयीं। लकिन ज़ारवादी अधिकारियों ने उनके ख़िलाफ इतना लचर मामला बनाया था कि ज़ारशाही की अदालत ने ही उन्हें रिहा कर दिया। उन कठिन दिनों में नताशा सन्देह या झिझक से एकदम परे थीं। सेण्ट पीटर्सबर्ग के जीवन ने रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन के द्रुत पुनर्जन्म में नताशा की अडिग आस्था की पुष्टि कर दी।
दिसम्बर 1912 में नताशा ने बोल्शेविकों के लड़ाकू दल में ज़िम्मेदारी का एक पद ग्रहण किया। वी. एम. मालोतोव की गिरफ्तारी के बाद उन्‍होंने प्रावदा के सम्पादक मण्डल में सचिव का पदभार सम्हाला। प्रावदा में काम करने वाले कॉमरेड इस पद पर उनकी गतिविधियों के बारे में इस प्रकार बताते हैं :
”कॉमरेड समोइलोवा हमारे सम्पादकीय दल से 1913 में जुड़ीं। वह सम्पादक मण्डल की सचिव थीं और अथक ऊर्जा से भरी कार्यकर्ता थीं। उन्‍होंने बहुत-से लेख स्वयं ही लिखे जिनमें से कई बिना नाम के थे और अन्य छद्म नाम से लिखे गये थे। हालाँकि उनकी शैली एकरस थी लेकिन उनके लेख इस तरह लिखे गये होते थे कि आम पाठक कतारों को आसानी से समझ में आ जाते थे और सर्वहारा के जीवन और संघर्ष में उठने वाले सवालों का जवाब देते थे।
लेकिन लेखन कार्य और सम्पादक मण्डल के काम में हाथ बँटाना प्रावदामें कॉमरेड समोइलोवा के काम का सबसे महत्तवपूर्ण हिस्सा नहीं था। उनके सचिव के काम से कहीं ज्यादा महत्तवपूर्ण था उनका लिपिकीय कार्य। उस समय मज़दूरों का अख़बार एकमात्र साधन था जिसमें फैक्टरियों में काम करने वाले मज़दूरों की आवाज़ और उनकी भावनाएँ अभिव्यक्ति पाती थीं। सैकड़ों मज़दूर अख़बार में पत्र भेजते थे और स्वयं उसके सम्पादकीय कार्यालय में आते थे।
साधारण-सा सम्पादकीय कार्यालय मधुमक्खी के छत्तो की तरह था। वहाँ मज़दूरों का रेला-सा पहुँचता था : हड़ताली फैक्टरियों के प्रतिनिधि, ट्रेडयूनियनों, बेनेफिट सोसाइटियों और मज़दूर क्लबों के प्रतिनिधि अपने काम और जीवन के हालात के बारे में बताने के लिए वहाँ आते थे। फैक्टरियों में होने वाली मज़दूर सभाएँ ”हमारे प्यारे प्रावदा” के लिए छोटी-छोटी रकमें इकट्ठा करती थीं।
मज़दूर-कवि अपनी कविताओं की समीक्षा के लिए और यह जानने के लिए कि वे छपेंगी या नहीं, बेसब्री से इन्तज़ार करते थे। मज़दूर दादागीरी करने वाले किसी फोरमैन, निदेशक या प्रबन्धाक की शिकायत करने के लिए वहाँ इस तरह आते थे जैसे कि वह कोई शिकायत ब्यूरो हो या मालिकों के ख़िलाफ मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा करने के बारे में सलाह लेने के लिए आते थे। वे अपनी पारिवारिक तकलीफों और अपने पैतृक गाँवों के विवाद लेकर आते थे।
वे जानते थे कि वे अपने ही अख़बार में जा रहे हैं, जहाँ उनका स्वागत होगा, उनकी बात सुनी जायेगी और किसी न किसी तरह उनकी समस्या का समाधान किया जायेगा। यही कारण था कि हर दिन दफ्तर में लोगों की भीड़ उमड़ आती थी। अक्सर ही ऐसा होता था कि एक-एक दिन में तीन से चार सौ आगन्तुक वहाँ पहुँचते थे।
वे दोपहर में खाने की छुट्टी के दौरान, अपना काम ख़त्म करने के बाद, शाम को या काम के घण्टों में ही फैक्टरी से निकलकर आते थे – फटेहाल, खरादिये, लुहार, मैकेनिक, बढ़ई, राजगीर, सज्जाकार, तेल में सने कपड़े पहने मज़दूर, पेण्ट, तेल, तम्बाकू और मेहनत-मशक्कत के कारण पसीने की गन्धा से सराबोर। ये सभी मज़दूरों के अख़बार के सम्पादकीय कार्यालय में आते थे और सबको जोश दिलाने वाले शब्द सुनने को मिलते थे। अख़बार में छपने वाले लेख मज़दूरों की दृढ़ लेकिन दो टूक भाषा में अनगढ़ तरीके से किसी न किसी कारख़ाने में काम की स्थितियों के बारे में बताते थे और इससे पूरी फैक्टरी में ख़तरे की घण्टी बज उठती और सम्पादकीय कार्यालय में और भी नये आगन्तुक और मददगार पहुँचने लगते।
अक्सर कोई धोबी या रसोइया, कोई लुहार या अकुशल मज़दूर सिर्फ अपनी तकलीफें ”अख़बार को बताने” के लिए आते थे। और तब अख़बार के कार्यकर्ता या स्वयं सचिव उस मज़दूर के पास बैठ जातीं और उनके अपने शब्दों में उनकी आपबीती दर्ज करतीं।
जब औरतें आतीं तो नताशा को ख़ास तौर पर ख़ुशी होती। पत्र या अपने जीवन की कहानी बयान करने वाली हर महिला मज़दूर में नताशा विशेष दिलचस्पी लेतीं।
पूँजीवादी दुनिया में मज़दूरों के कष्टों और उनके ग़ुस्से की असंख्य कहानियाँ थीं और अख़बार उसके एक छोटे हिस्से को ही छाप पाता था।
इसके अलावा आने वालों में हड़ताल-तोड़क भी होते थे जिन्होंने संघर्ष में अपने भाइयों के साथ गद्दारी की थी और पूँजी के पाले में चले गये थे और प्रावदा में उनकी निन्दा की जाती थी।
उन समय जो मज़दूर संगठित थे वे ऐसे गद्दारों का कठोरता से बहिष्कार करते थे और उन्होंने यह नियम बना रखा था कि अपनी गद्दारी के लिए पश्चाताप करने वाले हड़ताल-तोड़कों को मज़दूरों के अख़बार प्रावदा के पन्नों पर सार्वजनिक रूप से माफी माँगनी होगी।
कनसुनवे, चुगलख़ोर, जी-हुजूरिये, मालिकों के तलवे चाटने वाले, वे सभी जिन्हें प्रावदा में कभी बख्शा नहीं जाता था, सम्पादकीय कार्यालय में खण्डन छपवाने, माफीनामा छपवाने या ”बीती बातों को भुलाकर” मज़दूर बिरादरी में शामिल करने का अनुरोध लेकर आते थे। कई बार इस तरह का पत्र प्रकाशित करने से अख़बार के इनकार करने का मतलब होता था कि वे किसी भी फैक्टरी में काम करने लायक नहीं रह जाते थे और वास्तव में कोढ़ियों की तरह समाज से बहिष्कृत हो जाते थे।
अख़बार के पन्ने छोटे थे और मज़दूरों के जीवन, उनके काम की परिस्थितियों और उनके संघर्ष की सामग्रियाँ-पाण्डुलिपियाँ अनगिनत थीं और इसलिए पछतावे के पत्रों को अख़बार में मामूली-सी जगह ही दी जा सकती थी। लेकिन इस तरह के पत्रें का ढेर बढ़ता गया। और कई बार अपने पत्र के छपने का इन्तज़ार करते-करते थक जाने वाला हड़ताल तोड़क, ऑंखों में ऑंसू लिये सचिव के पास आता और भविष्य में ईमानदारी से पेश आने और कॉमरेडों के साथ कन्धो से कन्धा मिलाकर चलने का वादा करते हुए अपने पत्र को जल्द से जल्द छापने की गुज़ारिश करता। नताशा सम्पादकों की कोठरी में जातीं और उनसे आग्रह करतीं कि इस ‘हड़ताल भेदी’ का पत्र खूँटी में टँगे पत्रें की ढेर से निकालकर अपनी बारी आने से पहले ही छाप दें। अपने कमरे में वापस जाते हुए दरवाज़े पर खड़ी होकर वह कहतीं, ‘मैंने इस आदमी से वायदा किया है कि कल ज़रूर छप जायेगा’। अख़बार के उनके सहकर्मी उन पर तंज करते हुए उन्हें ‘हड़ताल तोड़कों की अम्मा’ और सचिव के उनके कार्यालय को ‘पश्चाताप गृह’ कहते थे।
लोगों की यह बाढ़ नताशा के छोटे-से कमरे से होकर गुज़रती। वह हर आनेवाले की बात अत्यन्त सावधानी, सहानुभूति और गर्मजोशी से सुनतीं। वे हर मज़दूर के साथ बहुत स्नेह और दोस्ताना ढंग से बात करतीं, और प्रावदा और मज़दूरों की पार्टी के प्रति उसकी सहानुभूति जगाने की कोशिश करतीं।
कभी-कभी अपनी फैक्टरी के बारे में किसी मज़दूर का लेख सम्पादकीय कार्यालय में पड़ा रह जाता। जगह की कमी और सामग्री के अम्बार की वजह से इस तरह की देरी हो ही जाती थी। लेकिन जब लेखक इस आशंका से कि शायद लापरवाही के कारण उसका लेख नहीं छप रहा है, पूछताछ करने के लिए आता तो नताशा उसके साथ बहुत ही हमदर्दी से पेश आतीं और सम्पादकों के पास जाकर उनसे प्रकाशन में तेज़ी लाने का आग्रह करतीं।
उनके कामों में एक हिस्सा ऐसा था जो बहुत कठिन और अरुचिकर था। उन दिनों ज़ारशाही का विरोध करने वाले हर लेख के प्रकाशन के बाद प्रावदा पर जुर्माना लगाया जाता था, सम्पादकों को गिरफ्तार किया जाता था और आख़िर में अख़बार को दबाया जाता था।
जुर्माना भरने के लिए पर्याप्त कोष नहीं होता था। और जुर्माना न भरने का मतलब था सम्पादक को तीन महीने की जेल। अगर वास्तव में सम्पादक का काम करने वाला पार्टी कॉमरेड हर बार जेल जाने लगता तो पार्टी में पर्याप्त सम्पादक ही नहीं बचते। ऊपर से हमारे सबसे अच्छे सम्पादक विदेशों में रहने को मजबूर थे।
अख़बार को बन्द होने से बचाने के लिए असली सम्पादक को बचाने के लिए मज़दूर उनके स्थानापन्न के तौर पर अपनी सेवाएँ हाज़िर करते। अख़बार में उनका नाम दिया जाता था जबकि सम्पादन का काम दूसरे लोग करते थे। मेहनतकश वर्ग के पक्ष में छपा कोई साहसिक लेख उन्हें जेल भिजवा देता था।
नताशा अक्सर इन काल्पनिक सम्पादकों से बातचीत करतीं। उनमें से सभी पूरी तरह वर्ग सचेत नहीं थे या वे अपने जेल जाने का कारण ठीक-ठीक नहीं समझते थे। उनमें से कुछ तो महज़ इसलिए आते थे कि वे बेरोज़गार थे और उनका दूसरा कोई ठिकाना नहीं था और हम उन्हें पच्चीस-तीस रूबल मासिक देते थे और जब वे जेल में रहते उस दौरान इससे भी कुछ अधिक।
बेशक इनमें से कुछ लोग विचलित हो जाते थे। नताशा अक्सर उनसे बात करतीं और उन्हें एक मज़दूर अख़बार की अहमियत समझातीं। बेशक, किसी को यह बताना कि : ”हम लेख लिखेंगे और आप उसके लिए जेल जाकर हम पर मेहरबानी करेंगे।” सुखद नहीं होता था। मज़दूर अख़बार के लक्ष्य के प्रति उन्हें बड़ी हमदर्दी के साथ प्रेरणा देने की ज़रूरत होती थी। उन पर नैतिक प्रभाव डालना ज़रूरी था ताकि वे जेल जाने का अप्रिय काम करने के लिए तैयार हो सकें। उनमें से कुछ को लम्बी कैद की सजा भी झेलनी पड़ती थी। नताशा ने यह दुष्कर काम कई महीने तक किया।
उन दिनों मेहनतकश जनता पर प्रावदा का ज़बरदस्त प्रभाव था। उसने बोल्शेविक पाठकों की पूरी एक पीढ़ी को प्रशिक्षित किया जिन्होंने 1917 की क्रान्ति की शुरुआत में एक ठोस समूह का रूप धारण कर लिया था, वे एक भावना से ओतप्रोत थे और एक फौलादी अनुशासन से आपस में जुड़े हुए थे। बहुत-से कामरेड प्रावदा के काम में हिस्सा लिया करते थे। लेकिन नताशा का ओहदा ही इन सभी कामों की जान था। मेहनतकशों और क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं के बीच काम करते हुए वे आन्दोलन से पहली बार जुड़ने वाले मज़दूर समूहों का बड़ी सावधानीपूर्वक जायज़ा लेतीं और अख़बार में उनका पद उन्हें इन मज़दूरों के साथ सीधा सम्पर्क करने और उनकी चेतना को बोल्शेविक धारा की तरफ मोड़ने के अनेक अवसर देता था।

महिला मज़दूरों के बीच काम और अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के आयोजन की तैयारी 

महिला मजदूरों के साथ विशेष रूप से नताशा ने संगठनकर्ता का उत्कृष्ट गुण प्रदर्शित किया। उन्होंने रूस में पहले अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस समारोह के आयोजन में अग्रणी भूमिका निभायी। यह रोचक तथ्य है कि नताशा के प्रावदा से जुड़ने के बाद अखबार के दफ्रतर में औरतों की आवाजाही बढ़ गयी थी। दफ्रतर के अपने छोटे-से कमरे में बैठ कर वह मेहनतकशों के आम आन्दोलन से औरतों को जोड़ने की योजनाएँ बनाती रहती थीं।
रूस की कामकाजी औरतों को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस की जानकारी 1913 में मिली और उस दिन से कमोबेश नियमित रूप से इसका आयोजन शुरू हुआ। कामकाजी औरतों ने दुनिया भर की अपनी जैसी दूसरी कामरेडों के साथ हमदर्दी महसूस की। उन्होंने यह समझना शुरू किया कि गरीबी और किल्लत से औरतों को तभी छुटकारा मिल सकता था जब मेहनतकश वर्ग पूँजीपति वर्ग के खिलाफ अपने संघर्ष को निर्णायक जीत के मुकाम पर पहुँचाये। बहरहाल, हमें आन्दोलन पर हावी रहने के लिए मेंशेविकों से लड़ना था क्योंकि वे उसे पूँजीवादी पार्टियों के वर्चस्व के आधीन करने की कोशिश कर रहे थे।
समोइलोवा ने पहले अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के आयोजन के पार्टी के महती कार्य में अग्रणी भूमिका निभायी। महिला मजदूरों ने इस दिन को अपने दिन, अपनी वर्गीय चेतना को जागृत करने और अन्तरराष्ट्रीय भाईचारे की समझ के स्तर तक अपने दायरे को बढ़ाने के लिए तय किये गये एक खास दिन के रूप में स्वीकार किया। नताशा ने अपना सृजनात्मक प्रयास विशेष रूप से हमारे पार्टी के निर्माण की इस शाखा को समर्पित किया।
क्रान्तिकारी काम के बरसों के अनुभव से सम्पन्न एक बोल्शेविक के तौर पर नताशा ने इस काम को बोल्शेविक ढंग से अंजाम दिया। इस काम के आयोजन की योजना पर विचार करते हुए उन्होंने इस मुद्दे पर सावधानी से काम किया। इस मामले पर प्रावदा के कामरेडों से वे अक्सर सलाह लेतीं और काम को इस प्रकार संचालित करतीं ताकि वह क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष की मुख्यधारा को मजबूत करे।
समोइलोवा अपने कामरेडों के साथ महिलाओं की एक पत्रिका के प्रकाशन के सवाल पर अक्सर चर्चा किया करती थीं। इस समय रूस के मजदूर आन्दोलन के आम तौर पर पुनर्जीवित होने का प्रमाण आन्दोलन में कामकाजी महिलाओं की बढ़ती दिलचस्पी से भी मिल रहा था। उन्होंने यूनियनें बनायीं, हड़ताली आन्दोलनों में, बीमा आन्दोलनों में हिस्सा लिया, अखबार में लिखा, मई दिवस के प्रदर्शनों में शामिल हुईं। महिला आन्दोलन पर पर्याप्त ध्‍यान दे पाना प्रावदा के लिए असम्भव था। महिलाओं की पत्रिका वूमेन वर्कर का प्रकाशन समोइलोवा की चिर संचित अभिलाषा थी। आगे चल कर उनका यह सपना साकार हुआ, और कहा जा सकता है कि समोइलोवा को उनका असली कार्यक्षेत्र मिल गया; उन्होंने अपनी सारी उफर्जा को महिला आन्दोलन पर केंद्रित कर दिया। और इस काम में महिलाओं की उत्कृष्ट संगठनकर्ता और आन्दोलनकर्ता, जैसा कि समोइलोवा ने क्रान्ति के बाद अपने आप को सिद्ध किया, के रूप में विकास किया और आगे बढ़ीं।
प्रावदा के ग़ैरकानूनी काम के दौरान और क्रान्ति के बाद महिला सम्मेलनों में जिन्होंने समोइलोवा को देखा था, उनके समक्ष स्पष्ट था कि समोइलोवा की असली रुचि इसी काम में थी, यही उनका मूल तत्व था।
महिला मजदूरों के सवाल पर पार्टी के एक निर्णय पर पहुँचने के बाद नताशा पार्टी में पहले से ही शामिल महिला मजदूरों के एक समूह और अनेक बोल्शेविक कामरेडों (एसएम पोज्नर, पीएफ कुंदेली और अन्य) के साथ पूरे उत्साह से महिला दिवस की तैयारियों में जुट गयीं।
जनवरी 1913 में उदार बुद्धिजीवियों के एक पूँजीवादी समूह ने महिलाओं की शिक्षा पर एक अधिवेशन का आयोजन किया था जिसमें कुछ चुनिन्दा महिला कार्यकर्ताओं को ही शामिल होने की अनुमति दी गयी थी। इस अधिवेशन में मुख्य रूप से ‘पुरुष वर्चस्व’ के मुद्दे पर ही चर्चा की गयी। प्रावदा ने इस सम्बन्धा में लिखा कि इस अधिवेशन में नहीं बल्कि प्रावदा की ओर से आयोजित अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के आयोजन से बड़े नतीजे सामने आयेंगे और महिलाओं की असली आवाज सुनी जायेगी।
महिला मजदूरों को संबोधित प्रावदा का पहला लेख जुझारू मजदूर वर्ग की कतारों से जुड़ने, अन्तरराष्ट्रीय क्रान्तिकारी मजदूर आन्दोलन के शक्तिशाली झंझावात का हिस्सा बनने के लिए रूसी महिलाओं का भावनात्मक आह्नान था।
इस लेख के बाद प्रावदा ने अपने लेखों में सिलसिलेवार मुहिम चलायी। अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के कामों और उसके आयोजन के तौर-तरीके पर लेखों की एक श्रृंखला छपीे ताकि रूसी महिला मजदूर इसे अपना दिन महसूस करें। लेकिन पहला अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस हमारी ताकत का आकलन करने के एक अवसर के रूप में भी देखा गया।
इस उद्देश्य से प्रावदा ने ”महिलाओं के काम” पर एक स्तम्भ चलाया। ‘एक वैज्ञानिक सामाजिक ग्रंथालय, महिला श्रम और स्त्री प्रश्न’ शीर्षक से बहुत सी सामग्री प्रकाशित की गई। विभिन्न फैक्टरियों और उद्योगों की विभिन्न शाखाओं में महिलाओं की दशा पर प्रावदा में एक प्रश्नावली छापी गयी। इसी तरह प्रावदा ने बहुत-सी सोसाइटियों और मजदूर संगठनों (सिलाई के पेशे से जुड़े मजदूरों, कपड़ा उद्योग के मजदूरों वगैरह) से महिला मजदूरों की दशाओं की तफ्रतीश और अध्‍ययन करने और अपने ऑंकड़े प्रावदा को भेजने का अनुरोध किया। सारा ध्‍यान औरतों की वर्ग स्थिति, उद्योग में उनकी स्थिति, वगैरह पर केन्द्रित था। जैसे-जैसे सामग्री आने लगी तो ‘महिलाओं के काम’ वाला स्तम्भ और ‘अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस’ के लिए एक नया खण्ड प्रावदा में और जल्दी-जल्दी छपने लगे।
पूँजीवादी हमले के खिलाफ विकसित हो रहे वर्ग संघर्ष ने, जो प्रतिक्रिया के इस दौर में तथाकथित तीन जून दूमा की संवैधानिक स्थितियों के अनुरूप बहुत ही सफलतापूर्वक ढाला गया था, महिलाओं के स्तम्भ के लिए पर्याप्त स्पष्ट और ठोस सामग्री उपलब्धा करायी। कपड़ा मिलों में भी तालाबन्दियाँ होने लगीं। आने वाले संकट के चलते मजदूरी में कटौती होने लगी, और औरतों से अपमानजनक तरीके से ”सड़कों पर जाकर अतिरिक्त कमाई करने” को कहा गया। लाफेर्मे फैक्टरी की आठ सौ औरतें हड़ताल पर चली गयीं।
समोइलोवा ने यह सारी सामग्रियाँ जमा की और ”महिलाओं के स्तंभ” के अलावा उन्होंने बहुत-से लेख लिखे जो इस मुद्दे पर इस तरह ध्‍यान केन्द्रित करते थे जो महिलाओं को दिलचस्प लगता था – हड़तालों के नतीजे और जीवनयापन के खर्च हुई वृद्धि के खिलाफ संघर्ष में उनकी भूमिका, महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर सरकारी खिलवाड़ और फैक्टरियों में महिला फैक्टरी निरीक्षकों की नियुक्ति सम्बन्‍धी विधोयक लाने की उसकी मंशा।
महिलाओं को अपने संगठनों की ओर खींचने की नियोक्ताओं की कोशिशों ने नताशा को एक उत्तोजक लेख लिखने के लिए उकसाया जिसमें उन्होंने महिलाओं का अपने वर्ग के संगठनों, यानी ट्रेड यूनियनों से जुड़ने का आह्नान किया।
साथ ही साथ पार्टी की भूमिगत महिला कार्यकर्ताओं द्वारा गुप्त रूप से तैयारी का ठोस काम अंजाम दिया जा रहा था। बहुत-सी महिलाएँ, जो बोल्शेविक पार्टी की कार्यकर्ताएँ थीं, बैठकों, ट्रेड यूनियनों, क्लबों और विभिन्न मजदूर समितियों से प्रावदा द्वारा जुटायी सामग्रियों का इस्तेमाल रिपोर्टें तैयार करने और सक्रिय महिला मजदूरों के बीच से (अलेक्सेयेवा, एक बुनकर, पावलोवा, इत्यादि) वक्ता तैयार करने के लिए करती थीं, जो पहले ही विख्यात हो चुकी थीं। नताशा इस काम में सक्रिय हिस्सेदारी करती थीं। इस तरह पहले अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिला मजदूरों ने सीधो फैक्टरियों के जीवन से ली गयी ठोस सामग्री के आधार पर स्पष्ट और प्रभावशाली भाषण दिये। उन्होंने महिला मजदूरों के शोषण की गहनता का खुलासा किया और बताया कि किस प्रकार महिला मजदूर दोहरे उत्पीड़न की शिकार थीं और उन नाममात्र के अधिकारों से भी वंचित थीं जो पुरुष मजदूरों को हासिल थे।
फरवरी 23 (नये कैलेण्डर के अनुसार मार्च 8) आ पहुँचा। प्रावदा द्वारा चलाये गये आन्दोलन के कारण मजदूर वर्ग के दुश्मन हरकत में आने को विवश हो गये थे। उदारवादियों के एक समूह, जो विमेंस हेरल्ड का प्रकाशन करता था, ने प्रावदा के खिलाफ गाली-गलौच का अभियान छेड़ दिया और घोषणा की कि पीपुल्स यूनिवर्सिटी भी महिला दिवस का आयोजन करेगी।
समोइलोवा ने इन नारीवादियों का अत्यन्त भावप्रवण जवाब दिया और महिला मजदूरों की ओर से विश्वासपूर्वक कहा कि उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के आयोजन में भाग लेने का पक्का निश्चय कर लिया है। विमेंस हेरल्ड के हमले ने स्पष्ट कर दिया कि बोल्शेविकों ने महिला मजदूरों बहुतायत को संगठित करने की जो रणनीति अपनायी थी वह पूरी तरह क्रान्तिकारी माक्र्सवाद के सिद्धान्तों और विचारधारा के अनुरूप थी।
पहले अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के लिए नियत तारीख 23 फरवरी 1913 को रविवार का दिन था। इस दिन सभा करने के लिए पुलिस की अनुमति लेने के लिए (4 मार्च 1906 के अन्तरिम नियमों के अनुसार) बैठकों को ”साइंटिफिक मैटिनीज” का नाम देने का निश्चय किया गया।
यह दिन जैसे-जैसे करीब आता जा रहा था उसे लेकर पुरुष और महिला मजदूरों की बढ़ती दिलचस्पी के बारे में जानने के लिए प्रावदा के 1913 के अंक देखना शिक्षाप्रद होगा। सबसे पहले एक मजदूर (या शायद कोई महिला मजदूर जो अपना नाम देते हुए डरती है) महिला मजदूरों की कठिन परिस्थितियों, कम वेतनमान, उस गुस्से के बारे में लिखता है जिसे एक अच्छी दिखने वाली महिला मजूदर को फोरमैन के कारण भुगतना पड़ता है, इत्यादि। इसके कुछ दिन बाद उसी फैक्टरी की एक महिला मजदूर लिखती है (जाहिर है कि वह नताशा के दफ्रतर जा चुकी है)। पहले हम प्रतिरोध के शब्द पढ़ते हैं और उसके बाद हड़ताल की सूचना आती है।
महिला मजदूरों के नये संस्तर लगातार शामिल किये जा रहे थे; पहले कपड़ा उद्योग के मजदूर, उसके बाद सिलाई व्यापार के मजदूर, धुलाई करने वाली औरतें और कपड़ा बेचने वाली औरतें, वगैरह।
लम्बे समय तक रबड़ उद्योग की महिला मजदूर आन्दोलन से बाहर रहीं। हालांकि, 1914 में ट्राइऐंगल रबड़ फैक्टरी और रबड़ उद्योग की दूसरी फैक्टरियों में बड़े पैमाने पर विषाक्तता की कई घटनाओं ने न सिर्फ सेण्ट पीटर्सबर्ग बल्कि समूचे रूस के सर्वहारा को क्रोध से भर दिया।
सबसे पहले औरतों को मजदूर बीमा अधिनियम के तहत दुर्घटनाओं के लिए बीमा कराने के लिए प्रेरित किया गया। चूँकि यह उन्हें संगठित करने का एक जरिया था। लेकिन औरतों ने ऐसा करने से मना कर दिया और उन्होंने बीमा के फार्म फाड़कर फेंक दिये। उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि उनकी स्थिति दूसरे उद्योगों की औरतों से बेहतर थी बल्कि इसलिए कि धुएँ भरी फैक्टरियों में ओवर टाइम करके वे प्रति दिन अस्सी कोपेक से एक रूबल तक कमा लेती थीं जबकि कपड़ा उद्योग के मजदूर ज्यादा से ज्यादा साठ कोपेक कमाते थे और औसत मजदूरी बारह रूबल मासिक बनती थी। लेकिन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के आयोजन की सफलता ने उनका रवैया बदल दिया। पूँजी के इन गुलामों ने भी अपने मालिकों की फरमाबरदारी से इनकार कर दिया। उन्होंने प्रतिरोध करना शुरू कर दिया और हड़ताल की धमकी देने लगीं। इससे प्रबन्धान हक्का-बक्का रह गया और खीझ उठा।
समोइलोवा ने भावुकता और गहन और निरन्तर बढ़ते उत्साह से देखा कि प्रावदा की देखभाल और सरोकार की बदौलत एक नयी क्रान्तिकारी सेना तैयार हो रही थी, युगों से दबी-कुचली और गुलाम महिला मजदूर जाग रही थीं:
खुशी और जीवन से भी वंचित,
लम्बे समय तक तुमने पहनीं
गुलामी की जंजीरें,
लंबे समय तक तुमने पराजय में रखा
अपना सिर झुकाये,
लंबे समय तक तुम जीती रहीं
अज्ञान के अंधेरे में,
लंबे समय तक तानाशाहों ने उड़ाया
तुम्हारा मज़ाक,
तुम्हारी कमजोरी से होकर निर्भय…

लेकिन तिलिस्म टूट चुका है।
जीवन की किताब में हम लिखेंगे
तुम्हारी विजय-गाथा।
साहस के साथ बढ़ो आगे, महिला मजदूरों।
अपना मार्ग आलोकित कर दो
मुक्ति की मशाल से।

जान लो कि पुरुष मजदूर देंगे तुम्हारा साथ,
इस कठिन और महान संघर्ष में।
        – इल्या वोलोदिंस्की 

(1913-14 के अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस को समर्पित एक सर्वहारा कविता। यह कविता छापने के लिए वूमन वर्कर पत्रिका को ज़ब्त कर लिया गया था (अंक 3, 1914))
प्रावदा और समोइलोवा का काम अपेक्षाओं से कहीं बढ़कर सफल रहा। 23 फरवरी को, पुलिस को अचंभित करते हुए ”साइंटिफिक मैटिनी” में सभी पेशों और उद्योगों से जुड़ी महिला मजदूरों ने हिस्सा लिया, जो क्रान्तिकारी महिला मजदूरों की एक विशाल सेना थी।

 पुलिस बहुत परेशान थी, ”एक बार फिर उनसे देर हो गयी!” पुलिस की घेराबन्दी के बावजूद प्रसन्न और उत्साह से भरी भीड़ लगातार बढ़ती गयी। कलाश्निकोव एक्सचेंज के हाल में भीड़ समा न सकी।
‘प्रावदा’ ने उस दिन एक विशेष संस्करण छापा, जिसकी सामग्री अत्यन्त क्रान्तिकारी थी।
उसने अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस पर स्‍त्री मज़दूरों का स्वागत किया और जुझारू सर्वहारा की कतारों से जुड़ने के लिए उन्हें बधाई दी। उसने इस दिन को एक प्रतीक के रूप में चिन्हित किया जब स्‍त्री मज़दूर उठकर समूचे मेहनतकश वर्ग के आम आन्दोलन के स्तर पर पहुँच गयी थीं। उसने घोषणा की कि स्‍त्री मज़दूरों ने उसके आह्नान पर उत्साहपूर्वक अमल किया। इस यादगार बैठक में बोलने वाले नये वक्ताओं ने उन पर किये गये काम और उनसे लगायी गयी उम्मीदों को सही साबित किया।
‘प्रावदा’ ने लिखा :
”श्रोताओं को स्‍त्री मज़दूरों के वर्ग की एक मुग्ध कर देने वाली तस्वीर देखने को मिली, ऐसी स्त्रियाँ जो आधुनिक समाज में सभी अधिकारों से वंचित थीं। इसी के साथ वक्ताओं ने, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि इस आन्दोलन से आम सर्वहारा का मोर्चा बिखरना नहीं चाहिए बल्कि और मज़बूत होना चाहिए, स्पष्ट शब्दों में अपनी बात रखते हुए मज़दूर वर्ग की स्त्रियों के आन्दोलन और पूँजीवादी स्‍त्री संगठनों के हितों और कामों के बीच तीखे अन्तर पर, और मज़दूर वर्ग की स्त्रियों के आन्दोलन के समूचे मज़दूर वर्ग के हितों और कार्यों के साथ नज़दीकी जुड़ाव पर अत्यधिक बल दिया। अगर मज़दूर आन्दोलन प्रचण्ड वेग वाली नदी है तो स्‍त्री आन्दोलन उसकी ताकत को सशक्त और समृद्ध करने वाली एक सहायक नदी है।”
कलाश्निकोव एक्सचेंज पर हुई बैठक के अलावा ”साइण्टिफिक मैटिनि” के आयोजन बोल्शेविक संगठनों द्वारा नियंत्रित क्लबों और दूसरी समितियों में भी हुए।
‘प्रावदा’ ने सिलसिलेवार कई अंकों में पहले अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के आयोजन के तौर-तरीकों के ब्योरे छापे। भाषणों के सारांश और वक्ताओं के नाम दिये गये ताकि सभी कामकाजी महिलाएँ उनको जान सकें क्योंकि वे नये काडर थे जिन्होंने पहली बार दुनिया के सामने घोषणा की कि रूसी स्‍त्री मज़दूर दमन और दमनकारियों के ख़िलाफ संघर्ष करने वालों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा रही हैं।
यह आह्नान सुना गया। अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के आयोजन ने मेहनतकश स्त्रियों की ओर से ज़बरदस्त समर्थन प्राप्त किया। ‘प्रावदा’ ने टेलीफोन आपरेटरों, घरेलू नौकरों, अस्पतालों के मज़दूरों, धोबिनों की टेलीफोन वार्ताएँ प्रकाशित कीं। उसने पहले अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के आयोजन पर विभिन्न शहरों से आये शुभकामना सन्देश छापे।
मेहनतकश वर्ग को एकजुट करने, और उसे क्रान्तिकारी सेनाओं के उभार के रूप में संगठित करने का सबसे बड़ा काम था सर्वहारा की क्रान्तिकारी माँगों के अनुकरण और अशिष्टीकरण के ख़िलाफ लेनिनवादी दर्शन की लड़ाई।
समोइलोवा ने विभिन्न सवालों पर ‘प्रावदा’ में सिलसिलेवार कई लेख लिखे। वह विवादों में भी पड़ीं लेकिन उनके तीरों का निशाना हमेशा मेंशेविकों का अख़बार ‘लुच’ हुआ करता था, जिसने दावा कर रखा था कि वर्गचेतना सम्पन्न स्‍त्री मज़दूरों के नब्बे फीसदी का मुखपत्रा ‘प्रावदा’ नहीं, बल्कि वह है, और यह भी कि ‘प्रावदा’ सिर्फ पिछड़े तबकों को आकर्षित करता है। उनका हमला इतना ज़ोरदार और सटीक था कि लेनिन ने उनके एक लेख का विशेष रूप से उल्लेख किया जो ‘प्रावदा’ के 12 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ था।
स्‍त्री आन्दोलन स्थिर गति से आगे बढ़ता रहा लेकिन लेनिन ने दिसम्बर 1913 में अपनी बहन अन्ना एलिज़ारोवा को एक विशेष पत्र भेजा। उस पत्र में उन्होंने संघर्ष के लिए जागरूक हो रही स्‍त्री मज़दूरों का हवाला देते हुए नयी शक्तियों को संगठित करने के लिए ‘वूमन वर्कर’ नाम से स्त्रियों के एक विशेष अख़बार के प्रकाशन की आवश्यकता बतायी। उन्होंने सुझाव दिया कि उसका संयोजन उन्हें ही करना चाहिए। लेनिन कामकाजी स्त्रियों के आन्दोलन के विकास पर विशेष रूप से नज़र रखते थे और जिसे वह विशेष महत्त्व देते थे।
अपनी पुस्तक ‘द इपोक आफ ज़्वेस्दा’ और ‘प्रावदा’ में कामरेड एलिज़ारोवा ने लिखा है कि उनके भाई ने उन्हें जो काम सौंपा था उन्होंने उसे किस तरह पूरा किया, इसका वर्णन करते हुए वह कहती हैं :
”दिसम्बर 1913 में मुझे व्लादीमिर इल्यीच का अंग्रेज़ी में लिखा पत्र मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मुझे स्‍त्री मज़दूरों के एक अख़बार का आयोजन करना ही चाहिए, और मुझे सम्पादक मण्डल के लिए उपयुक्त लोगों का चुनाव करने और फिलहाल उसे गुप्त ही रखने का सुझाव दिया। आगे चलकर अख़बार के प्रकाशन के विचार को उन्हीं दिनों विदेश से लौटे रोजिमरोव और समोइलोवा ने सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया।
”उन दिनों समोइलोवा ‘प्रावदा’ की सचिव थीं और उन पर काम का अत्यधिक बोझ था। उन्होंने इस बाबत मुझे बताया भी था। और मैंने सोचा कि शायद वह इस समय नया काम हाथ में लेने पर राजी नहीं होंगी लेकिन उन्होंने इसे बड़े ही उत्साह से किया। पाँचवें सम्पादक के रूप में हमने मेंजिंस्काया को आमंत्रित किया, और तुरन्त अख़बार ‘वूमन वर्कर’ के पहले संस्करण के लिए लेख जुटाना शुरू कर दिया, जिसे अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस, 23 फरवरी तक आ जाना था। हमने इसे लोकप्रिय अख़बार बनाने का फैसला किया। धनाभाव सबसे बड़ी अड़चन था। हमने ‘प्रावदा’ में एक चन्दा सूची जारी कर दी और धन जुटाना शुरू किया। मज़दूरों ने कोपेकों में, शब्दशः कोपेकों में, धन भेजना शुरू किया। लम्बे समय तक हम सम्पादकीय कार्यालय के लिए कमरे नहीं तलाश सके।”
अन्ततः सम्पादकीय मण्डल की पहली बैठक 6 फरवरी, 1914 को समोइलोवा के आवास पर हुई और कामयाब रही, सम्पादक मण्डल – रोजिमरोविच, ड्रेप्किना, समोइलोवा और निकोलेयेवा को गिरफ्तार कर लिया गया और उसी दिन शाम को मेंजिंस्काया भी गिरफ्तार कर ली गयीं। अकेली एलिज़ारोवा बची रह गयी थीं। फिर भी, काफी मुश्किलों के बाद अख़बार का पहला अंक आ ही गया। उसने ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा और फैक्टरियों में चर्चा का अकेला विषय यही था। सम्पादक मण्डल के पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो जाने और फैक्टरियों में बड़े पैमाने पर मज़दूरों की गिरफ्तारी की वजह से अख़बार की स्थिति गम्भीर हो गयी। और सच पूछिये तो हालात बहुत ही कठिन थे – पैसे नहीं थे, काम करने वाले लोग नहीं थे और कोई सम्पर्क नहीं बचे रह गये थे। इस समय समोइलोवा जेल में थीं, जो यह काम करने के लिए अत्यन्त व्यग्र थीं।
लेकिन पुलिस के आड़े आने के बावजूद काम जारी रहा। कामरेड एलिज़ारोवा अपनी कहानी जारी रखते हुए लिखती हैं :
”जब मैं याम्सकाया स्ट्रीट पर पहुँची जहाँ ‘वूमन वर्कर’ का कार्यालय था, मुझे नये अख़बार के नाम पत्रों और बधाइयों का अम्बार लगा मिला, उनसे इतना उत्साह और साहस मिला और इतनी ख़ुशी हुई कि मेरा मूड फौरन बदल गया। रूस के दूर-दराज के हिस्सों से भेजे गये पत्रों में इतनी प्रसन्नता, नये लक्ष्य की सफलता में ऐसी अनन्य आस्था, त्याग की ऐसी तत्परता व्यक्त की गयी थी कि मैं फूली न समायी। सामूहिक रूप से भेजे गये चन्दे की रकमों का अम्बार लग गया। ये रकमें एक-एक कोपेक जुटाकर जमा की गयी थीं। मैं महसूस कर सकती थी कि अपना मंच पाने की भावना आम जन मानस में गहरे तक उतर गयी थी। मैं उन लोगों के उत्साह और उनकी आकांक्षा को महसूस कर रही थी।
”उसके बाद स्‍त्री मज़दूर दफ्तर में आने लगीं, हालाँकि शुरुआत में संकोच करती हुई ही, लेकिन बाद में वे ‘प्रावदा’ के दफ्तर में भी आने लगीं। मुझे अपनी सबसे जीवन्त सहायक ऐवास फैक्टरी की एमिल्या सोल्निन अच्छी तरह याद हैं। सबने अपने अख़बार को लेकर एक-सा उत्साह व्यक्त किया, एक-सी अनन्य आस्था व्यक्त की कि हर रुकावट के बावजूद, यह अपने पैरों पर खड़ा होगा, इसे अपने पैरों पर खड़ा होना ही है।
”स्‍त्री मज़दूरों ने फैक्टरियों में नये सिरे से सम्पर्क बनाने शुरू किये। अख़बार के वितरण में विश्वास अनुभव करना शुरू किया। एक छापाख़ाना मिल गया और मैंने दूसरे अंक की तैयारियाँ शुरू कर दीं। आमुख कथा की जगह ऐवास फैक्टरी की स्‍त्री कर्मचारियों के नाम यह कहते हुए एक अपील जारी की गयी कि साथी स्‍त्री मज़दूरो, बड़े बलिदान और काफी प्रयासों के बाद हमने अपना अख़बार, ‘वूमन वर्कर’ शुरू किया है। पहला अंक आ चुका है। स्‍त्री मज़दूरो, अख़बार की मदद करना हमारा कर्तव्य है। स्‍त्री मज़दूरों से बड़े पैमाने पर अख़बार का प्रसार करने का आह्नान करें। लगातार चन्दे जुटायें। धन जुटायें और सबसे बड़ी बात यह कि हमें पत्रा लिखें।”
इस तरह समोइलोवा का सपना साकार हो गया।
अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के प्रोत्साहकों और संयोजकों को पुलिस ने, ज़ार के एजेण्टों ने उनके पदों से हटा दिया। लेकिन जो ज़ोरदार लहर उमड़ पड़ी थी उसे रोका नहीं जा सकता था।
23 फरवरी, 1914 के ‘प्रावदा’ के अंक में समोइलोवा ने अपनी आसान, भावप्रवण और संक्षिप्त शैली में अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस का मुद्दा उठाया जिसने लाखों मेहनतकश स्त्रियों को जगाया था। उन्होंने लिखा :
दिनों-दिन पूँजीवाद का बढ़ता प्रसार न सिर्फ पुरुषों बल्कि उनकी पत्नियों, बहनों और बेटियों को भी औद्योगिक जीवन के चक्रवात में खींच रहा है। उद्योगों की तमाम शाखाओं में धातु उद्योग समेत हज़ारों – दसियों हज़ार स्त्रियाँ काम करती हैं। पूँजी ने उन सब पर ठप्पा लगा दिया है और उन सबको श्रम बाज़ार में फेंक दिया है। वह युवाओं की, स्त्रियों की शारीरिक कमज़ोरी की और मातृत्व के उत्साह की उपेक्षा करती है। जब स्त्रियाँ फैक्टरियों में जाती हैं और उन्हीं मशीनों पर काम करती हैं जिन पर मर्द करते हैं, तो वे एक नयी दुनिया का सन्धान करती हैं। उद्योग की प्रक्रिया में लोगों के नये सम्बन्धों का सन्धान करती हैं। वे मज़दूरों को अपने हालात सुधारने के लिए संघर्ष करते देखती हैं। और हर आने वाले दिन के साथ स्‍त्री मज़दूरों का इसका अधिकाधिक विश्वास होता गया कि काम की स्थितियों ने उन्हें फैक्टरियों के पुरुष मज़दूरों के साथ जोड़ दिया है, कि उन सबके हित साझा हैं, और स्‍त्री मज़दूरों ने यह महसूस करना शुरू किया कि वे औद्योगिक परिवार का हिस्सा हैं, कि उनके हित समूचे मेहनतकश वर्ग के साथ जुड़े हैं।
”यह सच है कि ऐतिहासिक और पारिवारिक हालात वग़ैरह के चलते उनकी वर्ग चेतना का विकास बहुत धीमा है, फिर भी स्‍त्री मज़दूरों की चेतना की जागृति ऐसी सच्चाई है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। स्‍त्री मज़दूर बड़ी से बड़ी तादाद में हड़तालों, मज़दूर संगठनों के आन्दोलनों और बीमा अभियान में शामिल हो रही हैं। वे दूसरे देशों की स्‍त्री मज़दूरों के जीवन में रुचि लेती हैं और अन्तरराष्ट्रीय दृष्टिकोण रखती हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस अत्यन्त सांगठनिक महत्त्व का आयोजन है।”
उसके बाद उन्होंने मई 1 के आयोजन के साथ अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस के आयोजन की तुलना की। 1913 में रूस में पहले अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस का आयोजन एक उत्तेजक अभियान था जिसने जनता के सामने स्‍त्री मज़दूरों की दोहरी ग़ुलामी के कारण और उनकी मुक्ति के तरीके पेश किये। लेकिन उसने सर्वहारा स्‍त्री मज़दूरों के लिए सांगठनिक आधार नहीं तैयार किया। इसलिए 1914 में आरएसडीएलपी की केन्द्रीय कमेटी ने व्यापक और गहन स्तर पर गतिविधियाँ चलाने का निश्चय किया। साल के प्रारम्भ में केन्द्रीय कमेटी के तत्वावधान में सर्वहारा ज़िलों में कई हालों में स्‍त्री दिवस सभाओं के आयोजन के लिए एक विशेष कमेटी का गठन किया गया। उन्हें सभाओं के आयोजन और ‘वूमन वर्कर’ के सम्पादकीय मण्डल में काम करने के लिए भी फैक्टरियों और कारख़ानों से प्रतिनिधियों की सूची तैयार करने का काम सौंपा गया।
तेज़ी से काम चलता रहा। व्याख्यानों की व्यवस्था करने के लिए अनुमति ली गयी, हाल तलाशे गये। मीटिंगों के चेयरमैन नियुक्त किये गये और फैक्टरियों के जीवन के विस्तृत ब्योरों के साथ मुख्य व्याख्यानों के पूरक के तौर पर स्‍त्री मज़दूरों के बीच से वक्ता चुनी गयीं जो व्याख्यानों में व्यक्त किये गये मुख्य विचारों की व्याख्या और पुष्टि करतीं। व्याख्यानों के विषय पर न सिर्फ कमेटी में बल्कि फैक्टरियों के विभिन्न बोल्शेविक सेलों में भी चर्चा की गयी जो कमेटी की बैठकों में प्रायः अपने प्रतिनिधि भेजते रहते थे। विशेष रूप से ऐवास फैक्टरी से प्रायः प्रतिनिधि निकोलेयेवा, एमिल्या सोल्निन आते रहते थे। ऐवास फैक्टरी उस समय काम करने की अगली कतारों में थी।
लेकिन काम की व्यापकता और उसकी गहनता के अपने प्रतिकूल प्रभाव भी थे। प्रतिकूल इस मामले में कि उन्होंने 23 फरवरी के आने के काफी पहले ही उसकी ओर पुलिस का ध्यान खींच लिया। एक दिन पुलिस ने दफ्तर में मौजूद सारे लोगों को अचम्भे में डालते हुए वहाँ छापा मार दिया। मण्डल की बैठक पूरी तरह कानूनी थी क्योंकि अख़बार ‘स्वीकृत’ अख़बारों की सूची में था लेकिन यह स्वीकृति पुलिस के लिए महज़ काग़ज़ का एक टुकड़ा थी। सम्पादक मण्डल को आधिकारिक आदेश दिखाया गया जिस पर ये अपशगुनी शब्द लिखे थे : ”जगह की तलाशी लो और तलाशी में कुछ मिले या न मिले, वहाँ मौजूद सभी प्रतिनिधियों को गिरफ्तार कर लो।” नयी शामिल हुई स्‍त्री मज़दूरों समेत कुल मिलाकर तीस लोग गिरफ्तार किये गये।
‘द कम्युनिस्ट वूमन’ ने 1923 में समोइलोवा का एक लेख छापा जिसमें उन्होंने इसका जीवन्त ब्योरा दिया था कि कैसे गिरफ्तार लोगों ने जेल में अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस मनाया। उसका कोलाहल सुनकर समूचा जेल प्रशासन भयभीत हो गया और वह कोलाहल सड़कों पर भी सुना गया।
लेकिन अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस केवल जेल में ही नहीं मनाया गया। यह सच है कि सेण्ट पीटर्सबर्ग में हर तरह की सभाओं पर रोक लगी हुई थी। सिर्फ बोल्शेया ग्रेबेत्स्काया स्ट्रीट पर स्थित फ्ऱयोदोरोवा हाल में एक आयोजन हुआ। लेकिन बड़ी संख्या में स्‍त्री-पुरुष उन हालों पर भी पहुँचे जहाँ सभाएँ होनी थीं, इससे सड़कों पर भारी भीड़ जमा हो गयी। फ्योदोरोवा हाल पर इतने सारे लोग आये कि उनमें से आधे हाल में पहुँच ही नहीं सके। हाल में पाँच सौ लोग जमा थे। वक्ताओं में मेंजिंस्काया और पोवलोवा नाम की एक स्‍त्री मज़दूर शामिल थी। दूसरी सभाएँ इसलिए नहीं हो सकीं कि वक्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। पुलिस ने फ्योदोरोवा हाल की सभा में भी खलल डाला – पुरुषों की क्रुद्ध भीड़ सड़क पर आ गयी और मार्सेलेज गाने लगी। पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर कर दिया। बहरहाल पुरुषों का विशाल मोर्चा विभिन्न सड़कों पर से होकर मार्सेलेज और दूसरे क्रान्तिकारी गीत गाते हुए नेव्स्की प्रास्पेक्ट तक गया। दूसरे अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस समारोह के आयोजन में स्त्रियों में बेहतर वर्ग चेतना और ज़्यादा एकजुटता देखने में आयी।
अन्तरराष्ट्रीय स्‍त्री दिवस सिर्फ पीटर्सबर्ग में ही नहीं बल्कि मास्को और दूसरे कई शहरों में भी मनाया गया। सारी रूसी मज़दूर स्त्रियाँ इसके बारे में जान गयी थीं। दमन के बावजूद ‘वूमन वर्कर’ बहुत तेज़ी से बिका, बार-बार एक हाथ से दूसरे हाथ में, एक पाठक से दूसरे पाठक तक पहुँचा और संघर्ष के लिए लगातार नयी ताकतों को उत्तेजित करता रहा।
इस अख़बार ने रबड़ उद्योग में घटी त्रासद घटनाओं के मामले में बड़ी भूमिका निभायी, जिसमें उत्पादकों के लालच और ज़ारवादी निरीक्षकों की लापरवाही के चलते बड़ी तादाद में स्‍त्री-पुरुष विषाक्तता के शिकार हुए थे। एलिज़ारोवा ने ”वे नाराज़ हैं” शीर्षक से एक बड़ा ही विचारोत्तेजक लेख लिखा जिसके लिए ‘वूमन वर्कर’ का तीसरा अंक जब्त कर लिया गया।
‘वूमन वर्कर’ बोल्शेविक अख़बार बन गया जिसकी स्थापना स्‍त्री मज़दूरों के कोपेकों की बदौलत हुई थी और उन्हीं का समर्थन उसे चला रहा था।

नताशा, स्त्री मज़दूर और अक्टूबर क्रान्ति। 

”हमे यूरोप की मौजूदा शमशान-जैसी नीरवता के धोखे में नहीं आना चाहिए”, लेनिन ने कहा। ”यूरोप क्रान्तिकारी भावना से आवेशित है। साम्राज्यवादी युद्ध की राक्षसी भयावहता, महँगाई से पैदा हुई बदहाली, हर जगह क्रान्तिकारी भावना को जन्म दे रही है। और सत्ताधारी वर्ग, अपने चाकरों के साथ बुर्जुआ वर्ग, सरकारें अधिकाधिक एक अन्‍धी गली की तरफ बढ़ रही हैं, जहाँ से ज़बरदस्त उथल-पुथल के बिना वे कभी भी बाहर नहीं निकल सकतीं।
”ठीक वैसा ही जैसाकि 1905 में रूस में एक जनवादी गणराज्य की स्थापना के लक्ष्य के साथ सर्वहारा के नेतृत्व में ज़ारशाही शासन के ख़िलाफ एक आम बग़ावत हुई थी, आने वाले वर्षों में, यूरोप में भी, इसी परभक्षी युद्ध की वजह से सर्वहारा के नेतृत्व में वित्तीय पूँजी की शक्ति के ख़िलाफ, बड़े बैंकों के ख़िलाफ, पूँजीपतियों के ख़िलाफ आम बग़ावतें होंगी और समाजवाद की विजय के बिना, बुर्जुआ वर्ग के स्वामित्वहरण के बिना इन विप्लवों का अन्त नहीं होगा।”

(1905 की क्रान्ति पर लेनिन का भाषण, लेनिन, संकलित रचनाएँ, खण्ड 19)

लेनिन ने ये बातें 1917 की जनवरी में कही थीं। उसी साल 23 फरवरी को मेहनतकश जनता का एक आन्दोलन शुरू हुआ। एक ऐसा आन्दोलन जिसे 1914 में अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद ने बाधित कर दिया था। युद्ध ने मामले को सिर्फ टाल दिया था, और इस देरी से बेड़ियाँ और भी कस गयीं। आन्दोलन की शुरुआत एक उच्चतर धरातल, एक व्यापक आधार पर हुई। 12 मार्च को जब लेनिन अभी जेनेवा में ही थे, आगामी घटनाक्रमों के बारे में उनका निम्न आकलन था :
”उन समाजवादियों की भविष्यवाणी सच साबित हुई जो युद्ध की नृशंस और पाशविक भावना से अप्रभावित रहकर समाजवाद के प्रति वफादार बने रहे। विभिन्न देशों के पूँजीपतियों के बीच छिड़ गये विश्वव्यापी परभक्षी युद्ध के चलते पहली क्रान्ति फूट पड़ी। साम्राज्यवादी युद्ध, यानी पूँजीपतियों द्वारा लूट के माल के बँटवारे के लिए, कमज़ोर जनता को कुचलने के लिए छिड़ा युद्ध, गृहयुद्ध में, अर्थात एक ऐसे युद्ध में तब्दील होने लगा जो पूँजीपतियों के ख़िलाफ मज़दूरों का, ज़ारों और राजाओं, ज़मींदारों और पूँजीपतियों के ख़िलाफ मेहनतकशों और उत्पीड़ितों का युद्ध था, युद्धों से मानवता की, ग़रीबी से जनता की और इन्सान के हाथों इन्सान के शोषण से सम्पूर्ण मुक्ति का युद्ध था।
”क्रान्ति का, यानी अकेला विधिसंगत, न्यायोचित और महान युद्ध का, उत्पीड़कों के ख़िलाफ उत्पीड़ितों के युद्ध का, प्रणेता होने का गौरव और सौभाग्य रूसी मज़दूरों को मिला है।
”पेत्रोग्राद के मज़दूरों ने ज़ारशाही राज को उखाड़ फेंका है। पुलिस और ज़ार की सेनाओं के ख़िलाफ अपने साहसिक युद्ध में, मशीनगनों के सामने निहत्थे मज़दूरों ने बग़ावत की शुरुआत कर पेत्रोग्राद की दुर्ग सेना के अधिकांश सिपाहियों को अपनी तरफ कर लिया। मास्को और दूसरे शहरों में भी यही हुआ। अपनी सेनाओं द्वारा ठुकराये गये ज़ार को आत्मसमर्पण करना पड़ा उसने अपने और अपने बेटे के राजगद्दी छोड़ने के काग़ज़ पर हस्ताक्षर किये। उसने प्रस्ताव रखा कि राजगद्दी उसके भाई माइकेल के हवाले कर दी जाये।
”विद्रोह की अत्यन्त द्रुतगति के चलते, अंग्रेज़-फ्रांसीसी पूँजीपतियों की सीधी मदद के चलते, पेत्रोग्राद के मज़दूरों, जनता के बीच पर्याप्त वर्गीय चेतना के अभाव के चलते, तथा रूसी ज़मींदारों और पूँजीपतियों के संगठन और तैयारी के चलते पूँजीपति राजसत्ता पर कब्ज़ा करने में कामयाब रहे।” (लेनिन, रूस में क्रान्ति और सभी देशों के मज़दूरों के कार्य, संकलित रचनाएँ, खण्ड 20, पृष्ठ 64)
1917 में ज़ारशाही का तख्ता पलटे जाने के बाद बनी केरेंस्की की अन्तरिम सरकार को लेनिन ने इसी तरह परिभाषित किया था।
दरअसल, मज़दूर इस तरह की सरकार पर विश्वास नहीं कर सके। मज़दूरों ने रोटी, अमन और आज़ादी की ख़ातिर लड़ते हुए राजतन्त्र को उखाड़ फेंका था। पेत्रोग्राद के मज़दूरों ने ज़ारशाही को पराजित करने के फौरन बाद, स्वयं अपना संगठन मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियतें बनाया और उसे तत्काल संगठित व विस्तारित करना तथा सैनिकों और किसानों के प्रतिनिधियों की स्वतन्त्र सोवियतों का गठन करना शुरू कर दिया।
इत्तेफाक से फरवरी क्रान्ति का पहला दिन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का दिन भी था। युद्ध ने स्त्री मज़दूरों और किसानों की भारी आबादी को रूसी जीवन की वास्तविकता के रू-ब-रू कर दिया था। रूसी स्त्रियों का घरेलू जीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया था और उन्हें देश के आर्थिक जीवन के भँवर में घसीट लिया गया था। मज़दूर औरतें युद्ध में गये अपने पतियों की जगह मशीनों पर काम कर रही थीं। जबकि किसान औरतें खेत में हल चला रही थीं (युद्ध के लिए उनके पति और घोड़े अक्सर बलात् भरती कर लिये जाते थे)।
1916-17 की सर्दियों के दिन बहुत विकट थे। खाद्य पदार्थों के दाम तेज़ी के साथ आसमान छूने लगे। खाने-पीने की चीज़ों की किल्लत थी और दूकानों पर लम्बी कतारें लगी रहतीं।
फरवरी 1917 के अन्त में ”युद्ध मुर्दाबाद”, ”राजशाही मुर्दाबाद” के नारे के साथ पेत्रोग्राद और मास्को की तमाम बड़ी फैक्टरियों में एक के बाद एक हड़तालें होती गयीं। इस आन्दोलन का मार्गदर्शन बोल्शेविक कर रहे थे। स्त्री मज़दूरों ने, जिनकी तादाद फैक्टरियों में काफी बढ़ गयी थी और जिनके कन्‍धों पर अपने परिवारों के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी आ पड़ी थी, इस आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। स्त्रियों का आन्दोलन स्वत:स्फूर्त ढंग से शुरू हो गया। अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस ने उन्हें संगठन के कुछ बुनियादी तत्वों से परिचित करा दिया था और वे स्त्रियाँ ”रोटी और अमन”, तथा ”हमारे पतियों को मोर्चे से वापस लाओ” के नारे के साथ सड़कों पर उतर पड़ीं।
फरवरी क्रान्ति के पहले दिन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का संयोगवश होना कोई बड़ी घटना नहीं थी। युद्ध के पहले ही इस दिन की सांगठनिक और शैक्षणिक अहमियत स्पष्ट हो चुकी थी। युद्ध के भी पहले स्त्री मज़दूर यह समझने लगी थीं कि वे समग्रता में मेहनतकश वर्ग के आन्दोलन में भाग लेकर ही मुक्ति पा सकती हैं। युद्ध के दौरान देश के आर्थिक जीवन में औरतों की भूमिका बढ़ जाने के साथ महिला आन्दोलन उच्चतर मंज़िल में पहुँच गया।
23 फरवरी को पेत्रोग्राद में पुरानी सरकार ने औरतों को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने से रोकने की कोशिश की। इससे पुतिलोव कारख़ाने में विवाद खड़ा हो गया जो बढ़कर विरोध प्रदर्शन और क्रान्ति में तब्दील हो गया। इस प्रकार जीवन की भीषण परिस्थितियों से जन्मे एक स्वत:स्फूर्त आन्दोलन ने अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस में अपना सांगठनिक आधार हासिल किया जो बोल्शेविकों के पार्टीकार्य की शृंखला की एक कड़ी था।
लेनिन अप्रैल में आये और बोल्शेविक शक्तियों को एकजुट करने, संगठित करने, उन्हें कार्य बाँटने, तथा आने वाली लड़ाइयों के लिए उन्हें प्रशिक्षित करने के काम ने लम्बे डग भरे। समोइलोवा जो उन दिनों पेत्रोग्राद में थीं, लेनिनवादी बोल्शेविक कतारों के साथ अपनी समस्त स्वाभाविक ऊर्जा और उत्साह से काम करने लगीं। वह महिला कार्यकर्ताओं के बीच चल रहे आन्दोलन का वर्णन इन शब्दों में करती हैं : ”शुरू में हमारे पास अगुवा स्त्री मज़दूरों का एक छोटा-सा समूह था जो 1913-14 में ‘वूमन वर्कर’ के पहले प्रकाशन के समय से ही उसके इर्दगिर्द इकट्ठा हो गया था।”
उसके बाद वह स्त्री मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा के लिए युद्ध के क्रान्तिकारी प्रभाव के बारे में प्रचार करती हैं। यह 23 फरवरी, 1917 की एक ऐसी स्वत:स्फूर्त कार्रवाई थी, जिसने सैनिकों के दिलों में घर कर लिया और उन्होंने लोगों पर, जो बग़ावत करने के लिए उठ खड़े हुए थे, गोलियाँ चलाने की जगह अपनी संगीनों का मुँह ज़ारशाही राजतन्त्र की ओर मोड़ दिया और तीन दिनों के भीतर ज़ारशाही के सड़े-गले तख्तेताज को नेस्तनाबूद कर दिया। फरवरी क्रान्ति ने स्त्री मज़दूरों के मन में संगठन के प्रति गहरी दिलचस्पी जगायी। वे पार्टी का सदस्य बनने के लिए लालायित हो पार्टी में आने लगीं और उसमें से कई ट्रेड यूनियनों में शामिल हो गयीं।
लेनिन ने जब 21 अप्रैल, 1917 की कार्रवाई को ”दुश्मन की स्थिति की टोह लेने” के रूप में निरूपित किया तब उनका यह मानना था कि क्रान्ति के पहले चरण से दूसरे चरण में संक्रमण के दौरान कार्रवाई के लिए उपयुक्त नारा ”क्रान्ति के दूसरे चरण में जीत के लिए तैयार रहो” ही होगा।
और अचानक आज़ाद देश धोबिनों की आर्थिक हड़ताल से भौंचक्का रह गया। यह स्त्री मज़दूरों की कतार में भी सबसे पिछड़ा तबका था। लेकिन यह हैरत तब और बढ गयी जब पता चला कि उन्होंने जो माँगें रखी हैं उनमें लॉण्ड्रियों के राष्ट्रीयकरण और उनको स्थानीय दुमा (नगरपालिकाओं) के हवाले करने की माँग पहली माँग है। यह माँग पूँजीवादी सरकार में मज़दूर वर्ग के हितों के ”प्रतिनिधि” श्रम मन्त्री सामाजिक-जनवादी ग्वोज्देव के सामने तौरिदा पैलेस (अन्तरिम सरकार के मुख्यालय) में रखी गयी।
लेकिन मज़दूर वर्ग के हितों के ”संरक्षक” ने इन माँगों को ”अपरिपक्व” बताया।
पेत्रोग्राद की स्त्री मज़दूरों में, जो ”तौरिदा पैलेस पर बारीकी से नज़र रख रही थीं” और जो वहाँ बैठे अपने ”संरक्षकों” की राय से सहमत नहीं थीं, क्रान्तिकारी भावना के बढ़ने से लॉण्ड्री हड़ताल को समर्थन मिला। मज़दूर औरतों ने लिखा कि ”अप्रैल 21 का अन्त असन्तोषजनक रहा” लेकिन इसने हमारी ऑंखें खोल दीं। पूँजीपतियों के ख़िलाफ भरी नफरत और बढ़ गयी और मेंशेविकों और समाजवादी क्रान्तिकारियों से भरोसा उठ गया।
स्त्री मज़दूरों में बढ़ती क्रान्तिकारी भावना उर्जस्वी अक्टूबर क्रान्ति के महान संगठनकर्ता की नज़रों से छिपी नहीं रही, बोल्शेविक केन्द्रीय कमेटी के फैसले के अनुरूप ‘वूमन वर्कर’ का पुनर्प्रकाशन (10 मई) शुरू किया गया और इस पत्रिका ने पेत्रोग्राद की स्त्री मज़दूरों के बेहतरीन तत्वों को अपने इर्दगिर्द फौरन एकजुट कर लिया।
सम्पादकीय मण्डल में क्रुप्सकाया, इनेस्सां अरमां, स्ताल, कोल्लोन्ताई, एलिज़ारोवा, कुदेली, समोइलोवा, निकोलेयेवा और पेत्रोग्राद की बहुत-सी मज़दूर स्त्रियाँ शामिल थीं।
‘वूमन वर्कर’ के सम्पादकों ने अपने इर्दगिर्द स्त्री मज़दूरों को एकजुट किया, सभाओं के ज़रिये व्यापक आन्दोलनात्मक काम किये, युद्ध के ख़िलाफ, बढ़ी कीमतों के ख़िलाफ परचे बाँटे।
चिनीजेली सर्कस में जून में आयोजित सभा ने विशेष रूप से युद्ध के ख़िलाफ एक बड़ी भूमिका निभायी। जिस समय मोर्चे पर युद्ध अपने चरम पर था, जंग के ख़िलाफ यह अन्तरराष्ट्रीय सभा थी, जिसके विरोध में केरेंस्की और समूचे पूँजीवादी प्रेस ने ज़बरदस्त मुहिम चला रखी थी। सभा में इतनी बड़ी तादाद में मज़दूर शामिल हुए कि वहाँ पहुँचने वाले सभी स्त्री-पुरुष इमारत में समा न सके। यह तख्ता पलटने के लिए की गयी सभा थी, जिसमें समोइलोवा ने भाषण दिया। इस सभा ने पूँजीवादी अख़बारों को बहुत क्षुब्ध किया।
‘वूमन वर्कर’ के सम्पादकों ने कारख़ानों में भी काफी सांगठनिक काम किये। समोइलोवा और निकोलेयेवा इस काम में विशेष रूप से महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही थीं। हर फैक्टरी ने ‘वूमन वर्कर’ के सम्पादकीय मण्डल में अपने प्रतिनिधि नियुक्त कर रखे थे। हर सप्ताह यह अकेली ”सोवियत” एकत्र होती थी और विभिन्न इलाकों की रिपोर्टों पर चर्चा करती थी। इस तरह सम्पादक मण्डल फैक्टरियों में चल रही हर चीज़ के बारे में जानता था और पेत्रोग्राद के सर्वहारा के बीच उठ रही क्रान्तिकारी लहर को पहचान सकता था।
क्रान्ति अपने क्रान्तिकारी रूप ख़ुद पैदा करती है और कारख़ानों की ये महिला प्रतिनिधि भावी महिला संगठनकर्ताओं का आदि रूप थीं, जिन्हें मज़दूर स्त्रियों के बीच काम करने के लिए कारख़ाना सेल द्वारा नियुक्त किया गया।
1917 के ”जुलाई दिनों” में, जब ‘प्रावदा’ के कार्यालयों को ध्‍वस्त कर दिया गया था, ‘वूमन वर्कर’ ने अपने जुलाई अंक में बोल्शेविक केन्द्रीय कमेटी के सदस्यों के लेख प्रकाशित किये। इन लेखों में मज़दूरों को ”जुलाई दिनों” का आशय समझाया गया था और उस रास्ते के बारे में इंगित किया गया था जिसे भविष्य में अपनाया जाना था। उसके बाद सरकार ने ‘वूमन वर्कर’ पर भी दमन का पाटा चलाने का फैसला किया। अंक निकलने के दूसरे दिन जब केरेंस्की की पुलिस सम्पादकीय कार्यालय पर पहुँची तो वहाँ कोई भी नहीं था। मज़दूर औरतें रात ही में अख़बार की प्रतियाँ फैक्टरियों में उठा ले गयी थीं।
यह सच है कि बोल्शेविक प्रेस के दमन के बाद बोल्शेविकों के ख़िलाफ जो उन्मादी अभियान चलाया गया उसने स्त्री मज़दूरों के आन्दोलन में कुछ दुविधा पैदा कर दी। उनमें से कुछ तो बोल्शेविक विरोधी अख़बारों के उस कुत्सा प्रचार से भी प्रभावित होती जान पड़ीं जिसमें लेनिन पर जर्मन जासूस होने का आरोप लगाया गया था।
अपने एक परचे में समोइलोवा ने कटुता से (और साथ ही साथ इस बात पर ज़ोर देते हुए कि हमें आलोचनाओं और ग़लतियों के सामने आने से नहीं डरना चाहिए) कहा कि ”जुलाई दिनों” के बाद कुछ स्त्री मज़दूर जो बोल्शेविक पार्टी में पहले ही शामिल हो चुकी थीं, डाँवाडोल होने लगीं। उनमें से एक-दो ने ‘वूमन वर्कर’ के कार्यालय में आकर यह कहते हुए अपने पार्टी कार्ड फेंक दिये कि ”वे जर्मन जासूसों की पार्टी में नहीं बने रहना चाहतीं।”
लेकिन इन उतारों-चढ़ावों ने समोइलोवा और निकोलेयेवा को अपने सांगठनिक, आन्दोलनात्मक और प्रचारात्मक कार्यों को और तेज़ करने की प्रेरणा दी।

समोइलोवा की पहल पर उन्होंने स्त्री कार्यकर्ताओं के अध्‍ययन के लिए छोटी अवधि वाले पाठयक्रम आयोजित किये और कारखानों की हमारी अधिकतर संगठनकर्ता इन पाठ्यक्रमों में शामिल हुईं। सेमोयलोवा इन पाठ्यक्रमों का निर्देशन करतीं और उनमें पढ़ाती भी थीं। उसके बाद मजदूर स्त्रियों के बीच काम का एक नया तरीका सोचा गया यानी स्त्री मजदूर कार्यकर्ता सम्मेलन बुलाना।
निश्चित रूप से यह तो नहीं कहा जा सकता कि यह फॉर्म समोइलोवा की निर्विवाद संगठनात्मक प्रतिभा से प्रेरित था या इस क्षेत्र में काम कर रहे उन सभी साथियों के दिमाग़ में स्वत:स्फूर्त ढंग से आया था जो अक्टूबर क्रान्ति की जबरदस्त तैयारियों में लगे हुए थे। चाहे जिस भी वजह से यह हुआ हो, जनसंगठन के इस नये रचनात्मक रूप की तैयारियों का काम जल्दी ही जोर-शोर से शुरू हो गया। सभी फैक्टरियों में चुनाव कराये गये जिससे पिछड़ी चेतना की स्त्री मजदूर कार्यकर्ताओं को जागृत करने और साहसी हरावल के स्तर तक उनका उन्नयन करने में मदद मिली जिन्होंने लाल अक्टूबर की सर्जना की। यह चुनाव सक्रिय काम का, सक्रिय क्रान्तिकारी संघर्ष का आह्नान था।
वे बैठकें, जिनमें स्त्री मजदूरों की प्रतिनिधि अपनी जुझारू सहायक – समोइलोवा और निकोलेयेवा से विचार-विमर्श करतीं, खेरसन स्ट्रीट के ”यूनिटी” क्लब में शनिवार के दिन होती थीं। मजदूरों की आम कतारों को रिपोर्टें दी जातीं और सम्मेलन में चुनावों के नतीजों की रिपोर्टें भी होतीं। ये रिपोर्टें पेत्रोग्राद के सर्वहारा में व्याप्त आम जज्बे का वास्तविक बैरोमीटर होतीं।
समोइलोवा अच्छी तरह जानती थीं कि बैरोमीटर ”तूफान” का संकेत दे रहा है। सम्मेलन अक्टूबर के अन्त में बुलाया गया था। यह शुरू हुआ और अपना काम करने लगा, परन्तु इस काम के शुरू होने के साथ ”दस दिन जब दुनिया हिल उठी” का आगाज भी हो गया। तब सम्मेलन को किसी भावी तिथि तक के लिए स्थगित कर देने का निर्णय लिया गया ताकि वे प्रतिनिधि, जो अपनी-अपनी फैक्टरियों में जनता के संगठनकर्ता थे, इन निर्णायक दिनों में अपनी तैनाती वाली जगहों पर बने रहने और अक्टूबर क्रान्ति के संघर्ष में अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हो सकें। अक्टूबर क्रान्ति के सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाने के बाद नवम्बर में सम्मेलन दोबारा शुरू हुआ। निकोलेयेवा अध्‍यक्ष और समोइलोवा उसके अध्‍यक्षीय मण्डल की सदस्य थीं। सम्मेलन में पेत्रोग्राद की सभी सक्रिय महिला कार्यकर्ताएँ थीं – ऐवास संयन्त्र की एमिल्या सोल्निन, बेसली आइलैण्ड पाइप फैक्टरी की विनोग्रेदोवा, वायवोर्ग स्थित ”नित्का” फैक्टरी की स्पिनर वासिना, एरिक्सन फैक्टरी की मिआश (जो बाद में युदेनिच के मोर्चे पर वीरगति को प्राप्त हुईं) वग़ैरह।
बिलकुल शुरुआत से ही, सम्मेलन ने सभी मौजूद लोगों की उन्नत वर्गीय चेतना को प्रकट किया। सम्मेलन स्वयं को मजदूर वर्ग की सत्ता का अंग महसूस करता था। अधयक्ष मण्डल पर टिप्पणियों की झड़ी लग गयी। यह पूछा गया कि जिनोविएव और केमेनेव ने पार्टी की कन्द्रीय कमेटी क्यों छोड़ी थी, रिकोव और लुनाचार्स्की ने जनकमीसार की परिषद से इस्तीफा क्यों दिया था? (जिनोविएव और केमेनेव अक्टूबर क्रान्ति शुरू करने के निर्णय से असहमत थे। रिकोव और लुनाचेर्स्की तथाकथित जनवादी पार्टियों के खिलाफ पार्टी द्वारा अख्तियार किये गये सख्त रुख से असहमत थे।) उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए पार्टी ने क्या किया? सम्मेलन ऐसे क्षणों में निष्क्रिय नहीं रहना चाहता था, जब निष्क्रियता मजदूर वर्ग की सत्ता को कमजोर कर सकती थी।
समोइलोवा के भाषण के फौरन बाद निम्न प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया : ”स्त्री मजदूर कार्यकर्ताओं की यह बैठक माँग करती है कि सदस्यगण पार्टी अनुशासन का पालन करें और यह भी कि क्रान्तिकारी सर्वहारा की पार्टी की अखण्डता और एकता को बनाये रखने के लिए – जो इस समय अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा के क्रान्तिकारी आन्दोलन के हरावल का द्योतक है – मौजूदा हालात से निकलने का कोई रास्ता निकाला जाये। सिर्फ सुनिश्चित क्रान्तिकारी वर्गीय लाइन पर डटे रहकर ही रूस का सर्वहारा समाजवाद के लिए अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा के क्रान्तिकारी आन्दोलन को मजबूती प्रदान कर सकता है।”
डाँवाडोल होने वाले साथियों को उन स्त्री मजदूरों की जुझारू भावनाओं से अवगत कराने के लिए एक प्रतिनिधि मण्डल स्मोल्नी भेजा गया, जहाँ पेत्रोग्राद में संघर्ष कर रहे क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं का आम मुख्यालय था। उन स्त्री मजदूरों ने उनके आचरण की कठोर शब्दों में निन्दा की। देर रात यह फैसला लिया गया। समय गँवाने का अवसर नहीं था। प्रतिनिधि मण्डल रातों-रात स्मोल्नी रवाना हो गया।
स्त्री मजदूर कार्यकर्ता इस सम्पूर्ण विश्वास के साथ बैठक से विदा हुईं कि बतौर स्त्री मजदूर प्रतिनिधि वे पार्टी अनुशासन भंग करने वाले कॉमरेडों को प्रभावित कर लेंगी। मजदूर स्त्रियाँ इस बात से आक्रोश में थीं कि ऐसे वक्त जब सारी दुनिया की नजरें रूस पर टिकी हुई थीं, हमारी कतारों में कोई फूट पड़े, जिसके चलते वह खतरा जो हम पर मँडरा रहा है, हमारे दुश्मनों की निगाहों में आ जाये। स्मोल्नी पहुँचकर वे सबसे पहले लेनिन से मिलने गयीं। उन्होंने यह कहकर उन्हें शान्त करा दिया कि ऐसे कॉमरेडों का भ्रम जल्द ही दूर हो जायेगा, जो यह मानते हैं कि तथाकथित जनवादी संगठनों के साथ समझौते की अभी भी कोई गुंजाइश बची है।
”सत्ता पर कब्जा कर लें, कॉमरेड लेनिन, हम मजदूर औरतें बस यही चाहती हैं”, प्रतिनिधि मण्डल ने लेनिन से कहा। इसके जवाब में उनका कहना था : ”मुझे नहीं बल्कि आप मजदूरों को सत्ता अपने हाथ में ले लेनी चाहिए। अपनी-अपनी फैक्टरियों में वापस जाइये और मजदूरों से यही बताइये।”
पेत्रोग्राद की स्त्री मजदूर हर परिस्थिति में साथ रहीं। वे एकजुट होकर लेनिन के पीछे चल रहे पेत्रोग्राद के सर्वहारा वर्ग के साथ, कन्‍धे से कन्धा मिलाकर चलीं। सही नेतृत्व और कम्युनिस्ट पार्टी के महान कार्यों की वजह से (समोइलोवा इस काम में पहली कतार के लोगों में से एक थीं) मजदूर औरतें पेत्रोग्राद के उन तमाम क्रान्तिकारी मजदूरों के कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ीं, जिनके हाथों में उस वक्त अक्टूबर क्रान्ति का भविष्य था।
स्त्री श्रमिकों और माँओं व नवजात शिशुओं की सुरक्षा के सवाल पर सम्मेलन ने कई प्रस्ताव पारित किये, जो आगे चलकर सोवियत सरकार द्वारा इस क्षेत्र में बनाये गये कानूनों का आधार बने। उसने कॉमरेड निकोलेयेवा के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मण्डल किसान प्रतिनिधियों की सोवियतों के अधिवेशन में भेजने का निर्णय किया, जिसका सत्र उस समय चल रहा था। यह प्रतिनिधि मण्डल जनकमिसार परिषद को, जिसे हाल ही में बोल्शेविकों ने मजदूर वर्ग की सरकार के एक अंग के रूप में संगठित किया था, समर्थन देने के पेत्रोग्राद की स्त्री मजदूरों के फैसले की सूचना देने के लिए भेजा गया था।
समोइलोवा ने अक्टूबर क्रान्ति में अपनी तमाम क्रान्तिकारी सक्रियता को, क्रान्ति की जीत में सहभागी बनी, मजदूर स्त्रियों के इस सशक्त सर्जनात्मक उभार के साथ एकरूप कर दिया। आगे चलकर उन्होंने पार्टी के और प्रेस के क्षेत्र में सोवियतों के काम में सक्रिय भूमिका निभायी, पर साथ ही उन्होंने एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में अपनी रचनात्मक प्रतिभा का भी परिचय दिया और स्त्री मजदूरों तथा बाद में किसान स्त्रियों को कम्युनिस्ट पार्टी की कतारों तक, सोवियत सत्ता के लिए संघर्षरत योद्धाओं की कतारों तक, सोवियत सत्ता के निर्माताओं की कतारों तक लाने में अपनी मेहनत लगा दी। उन्होंने जनता के बीच आन्दोलन, संगठन और प्रचार के नये रूप लागू किये। ये सारे नये रूप सम्भवत: उनके सुझाये हुए नहीं थे, लेकिन वे हमेशा उन पर विस्तार से काम करतीं और लोगों के बीच उन्हें लागू करतीं। नतीजा हमेशा एक ही रहा, जनता संघर्ष और रचनात्मक क्रान्तिकारी काम के लिए जागृत, संगठित और उद्वेलित हो जाती।

 1918। लेनिन ख़तरे से आगाह करते हैं ”अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद ने रूस पर हमला कर दिया है। वह हमारे देश को लूट रहा है।”
यह हस्तक्षेप की शुरुआत थी, गृह युद्ध की शुरुआत थी। नयी समस्याएँ उठ खड़ी हुईं, मसलन दुश्मन का मुकाबला करने के लिए स्त्री मज़दूरों को कैसे प्रोत्साहित, संगठित और आन्दोलित किया जाये। ये समस्याएँ हल कर ली गयीं। अक्टूबर क्रान्ति के दौरान हुए पेत्रोग्राद महिला सम्मेलन की याद उसके आयोजकों के दिमाग़ में अभी तक ताज़ा थी। उन्होंने समूचे युवा रूसी गणराज्य की स्त्री मज़दूरों का ग़ैरपार्टी सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया। आगे चलकर इस सम्मेलन में न केवल स्त्री मज़दूरों बल्कि किसान स्त्रियों को भी शामिल करने के लिए इसके दायरे को और विस्तारित किया गया। इसकी शुरुआत करने वालों में निस्सन्देह समोइलोवा भी थीं।
कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने, अपने सचिव स्वेर्दलोव के ज़रिये, इस प्रस्ताव का समर्थन किया। उन्होंने न केवल इसका समर्थन किया बल्कि इसे भारी मदद भी दी। उन्होंने इस नये और कठिन काम में कई ठोस उपाय सुझाये। इलाके की पार्टी कमेटियों से उन्होंने सहयोग का आह्नान किया। इस अधिवेशन की तैयारी के लिए एक आयोजक समूह का गठन किया गया। उसके सदस्य अधिवेशन के लिए आन्दोलन चलाने, क्रान्ति की कगार पर खड़े उस विशाल देश के सभी हिस्सों से अधिवेशन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव कराने निकल पड़े जो ख़ुद अपने अस्तित्व के लिए अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद के ख़िलाफ संघर्ष कर रहा था। हर तरफ युद्ध का मोर्चा खुला हुआ था, ज़िले के ज़िले तबाह-बर्बाद हो रहे थे, मार-काट मची हुई थी।
समोइलोवा ने सांगठनिक समस्याओं पर काम किया और ‘कम्युनिस्ट पार्टी और स्त्री मज़दूर’ पर एक रिपोर्ट तैयार की। सोवियत सत्ता के संघर्ष और इस सत्ता को सुदृढ़ करने के संघर्ष के इतिहास में इस अधिवेशन का विशिष्ट स्थान है। लेनिन ने इस कांग्रेस में बोलते हुए इसके महत्व को यदि रेखांकित किया, तो ऐसा करने का पर्याप्त कारण उनके पास मौजूद था।
इस अधिवेशन में आये प्रतिनिधियों के प्रामाणिक काग़ज़ात, जो अभिलेखागारों में सुरक्षित रखे हुए हैं, बताते हैं कि इसके आयोजन के लिए किस हद तक जाकर काम किया गया था और कितनी बड़ी तादाद में स्त्री मज़दूर इसमें शामिल हुई थीं। उस समय जब देश में गृहयुद्ध चल रहा था, जब अन्तरराष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के दलाल मेहनतकशों के नवजात गणराज्य का जन्मते ही गला घोंटने की कोशिशों में लगे हुए थे, कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति के आह्नान पर हर जगह फैक्टरियों में पुरुष और स्त्री मज़दूर संघर्ष के लिए कार्यकर्ताओं की नयी कतार में शामिल होने के लिए आगे आये। समूची पार्टी और सभी फैक्टरियों ने इस आह्नान का जवाब दिया और इसकी अहमियत को समझा था।
उदाहरण के लिए, उन प्रामाणिक काग़ज़ातों के घुँधले पड़े पन्ने पलटने पर हम देखते हैं कि किस प्रकार कपड़ा उद्योग के मज़दूर कार्यकर्ताओं की कतार में शामिल हो गये थे। उनमें अधिकांश स्त्रियाँ कपड़ा मज़दूर थीं। फैक्टरियों में पुराने नामों के साथ-साथ, जो पूँजीवादियों के ख़िलाफ पहले के संघर्षों के चलते जाने जा चुके थे, नये नाम भी दिखायी पड़े। इस प्रकार, ओरेखोवो जुएवो स्थित मोरोज़ोव फैक्टरी ने, जिसमें 16,214 महिला मज़दूर थीं, कांग्रेस में अपने प्रतिनिधि भेजे; उनके बाद ताम्बोव गुबेर्निया स्थित रेजोरोनोव, वाखरोमेयेव, देदोव और रेज्काजोव फैक्टरियों की प्रतिनिधियाँ आयीं। पर्म और समारा से कई प्रतिनिधियों को भेजा गया। फैक्टरियों के पुराने नामों के अलावा नये क्रान्तिकारी नाम भी देखने को मिलते हैं, जैसेकि दी रशियन रिपब्लिक फैक्टरी, दी फिफ्थ पीपुल्स टोबैको वर्क्‍स। पार्टी संगठनों, फैक्टरी कमेटियों, ट्रेडयूनियनों, ज़िला कार्यकारी समितियों द्वारा प्रामाणिक काग़ज़ात जारी किये गये हैं। सभी मज़दूर स्त्रियाँ हैं, सिर्फ एक स्कूल अध्यापिका और एक किसान औरत पेलेजेया पर्फिल्येवा के अपवाद को छोड़कर, जो कोसिलोवो गाँव की है और ग़रीब किसानों की कमेटी का प्रतिनिधित्व करती है। आगे चलकर मास्को में स्त्रियों के कांग्रेस की ख़बर पाकर किसान औरतें स्वेच्छा से आयीं।
इस अधिवेशन ने, जिसमें यातायात सुविधाओं की भारी किल्लत के बावजूद विभिन्न ज़िलों से थोड़े समय में ही ग्यारह सौ महिला प्रतिनिधि आ पहुँची थीं, संगठन और शिक्षा के महान और जुझारू काम को अंजाम दिया। इसने क्रान्तिकारी अनुभवों के आदान-प्रदान में पहल की। दूर-दराज के इलाकों की मज़दूरों ने जाना कि पेत्रोग्राद की मज़दूर स्त्रियाँ किस प्रकार एक नयी जीवनशैली का आगाज़ कर रही हैं। इसने संघर्ष और निर्माण कार्य के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया। समोइलोवा लिखती हैं : ”इस अधिवेशन ने सक्रिय मेहनतकश औरतों के बीच कई कार्यकर्ताओं को पैदा किया।”
लेनिन ने, जो अभी भी अपनी चोटों के चलते अस्वस्थ थे, इस अधिवेशन को सम्बोधित किया और इस दायरे में काम करने के बुनियादी सिद्धान्त प्रस्तुत किये। वह वहाँ उस समय पहुँचे जब एक खेतिहर स्त्री मज़दूर कुलक (धनी किसान) द्वारा शोषण की परेशानियों का ज़िक्र कर रही थी। उस खेत मज़दूर को यह अहसास हो चुका था कि शोषकों के ख़िलाफ संघर्ष के लिए सभी मेहनतकशों के साथ संगठित होकर ही जीवन की कठिनाइयों से निजात पाया जा सकता है। उसने इस बात का ऐलान किया कि अनपढ़ होने के बावजूद वह समझ गयी है कि उसके इर्द-गिर्द क्या चल रहा है, और ज़रूरत पड़ी तो वह बन्दूक उठाकर मोर्चे पर जा पहुँचेगी। उसने कहा कि ”जिनके दिल कमज़ोर हैं और जो बन्दूक नहीं उठा सकतीं, उन्हें नर्सों की हैसियत से जाना चाहिए और अपनी बातों से साथियों का हौसला बढ़ाना चाहिए।”
लेनिन ने इशारा किया कि उसे बीच में न टोका जाये। वे तब तक उसकी बात सुनते रहे जब तक कि वह बोलती रही। उन्होंने अधिवेशन का अपना स्वागत भाषण इस तरह तैयार किया कि इस किसान औरत की बातों का जवाब दिया जा सके। उन्होंने कहा कि पिछली क्रान्तियाँ इसलिए पराजित हो गयीं क्योंकि गाँवों ने कस्बों का साथ नहीं दिया था। लेकिन अगर एक बार गाँवों के ग़रीब शहरी मज़दूरों का साथ दें और कुलकों के ख़िलाफ ख़ुद को संगठित कर लें, तो हम सच्ची समाजवादी क्रान्ति के नये दौर में पहुँच जायेंगे। कुलकों के ख़िलाफ चलने वाला संघर्ष किसान औरतों को भी आकर्षित करेगा।
”साथियो”, उन्होंने कहा, ”कुछ अर्थों में सर्वहारा सेना की स्त्री आबादी का यह अधिवेशन विशेष रूप से अत्यन्त महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि अन्य सभी देशों की स्त्रियाँ बड़ी ही मुश्किल से सक्रिय होती हैं। तमाम मुक्ति आन्दोलनों का अनुभव यह बताता है कि उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उनमें औरतें किस हद तक भाग लेती हैं। सोवियत सत्ता यह सुनिश्चित करने की हर चन्द कोशिश कर रही है कि स्त्रियाँ अपने सर्वहारा समाजवादी कार्य को स्वतन्त्रतापूर्वक अंजाम दे सकें।
”मेहनकश औरतों के बड़े हिस्से की व्यापक भागीदारी के बिना कोई भी समाजवादी क्रान्ति नहीं हो सकती।
”अभी तक कोई भी गणतन्त्र स्त्री को मुक्त नहीं कर सका है। सोवियत सत्ता उसकी मदद करेगी। हमारा लक्ष्य अपराजेय है क्योंकि सभी देशों में एक अपराजेय मज़दूर वर्ग आन्दोलित हो रहा है। इस आन्दोलन का अर्थ है अपराजेय समाजवादी क्रान्ति का उदय।
”हमें अवश्य याद रखना चाहिए”, उन्होंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, ”कि क्रान्ति की सफलता इस बात पर निर्भर है कि उसमें स्त्रियाँ किस हद तक भागीदारी करती हैं। चूँकि वे सिर्फ अपनी मुक्ति के लिए ही नहीं बल्कि समाजवाद (समाजवादी अर्थव्यवस्था) के लिए भी संघर्ष में उतरने लगी हैं, इसलिए समाजवादी क्रान्ति का लक्ष्य हासिल करने के बारे में हम आश्वस्त हो सकते हैं।”
अन्त में उन्होंने कहा :
”स्त्रियाँ जाग रही हैं, समाजवाद की जीत सुनिश्चित है।”
आगे चलकर लेनिन के विचार अख़बारों और स्त्रियों के अन्य सम्मेलनों, जैसेकि 1919 में मास्को में आयोजित हुए सम्मेलन, में विस्तार से रखे गये। उन्हें नारों के रूप में देशभर में प्रचारित-प्रसारित किया गया, जिससे और स्त्रियाँ भी प्रेरित हुईं। क्रान्तिकारी कामों और राजनीतिक जीवन में अपनी भूमिका तय करने के लिए लेनिन ने उनका आह्नान किया था।
समोइलोवा ने बार-बार अपने लेखों में इस अधिवेशन की चर्चा की है। उन्होंने इस पर अलग से एक पुस्तिका लिखी। और उन्हीं की पहल पर 1920 में इस अधिवेशन के प्रस्तावों को खारकोव में पुन: प्रकाशित किया गया। बाद में जब किसान औरतों के बीच काम करने का सवाल आया, तो उनकी स्मृति में उस किसान औरत की जीती-जागती तस्वीर उभर आयी जिसने युद्ध में अपना पति खो दिया था और यह सुनकर कि स्त्री और पुरुष मज़दूर गाँवों में ग़रीबों की मदद के लिए जा रहे हैं, उसने घोषणा की थी कि वह अपने बच्चों को छोड़ जायेगी और बन्दूक उठाकर इन तमाम ”ज़मीन हड़पने वालों” के ख़िलाफ लड़ने जायेगी।
इस अधिवेशन का प्रभाव सिर्फ उन ग्यारह सौ प्रतिनिधियों पर ही नहीं पड़ा जो इसमें शामिल हुई थीं बल्कि उन दसियों हज़ार और कई जगह तो सैकड़ों हज़ार मज़दूरों पर भी पड़ा जिन्होंने उन्हें भेजा था।
कांग्रेस में समोइलोवा ने सांगठनिक सवालों पर चर्चा की। प्रतिनिधियों के साथ उनकी अनगिनत बार बातचीत हुई और उन्होंने उनके सामने स्पष्ट किया कि महिला मज़दूरों और किसानों को किस तरह निर्माण-कार्य में भाग लेना चाहिए। कांग्रेस में उपलब्ध प्रचुर सामग्री के आधार पर उन्होंने स्त्रियों के बीच उन बहुआयामी कामों की शुरुआत की जिससे हमारी पार्टी मज़बूत हुई और जनकार्य के उसके तौर-तरीकों का विकास हुआ। अधिवेशन की समाप्ति के बाद रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने स्त्रियों के बीच काम करने के लिए केन्द्रीय समिति और सभी स्थानीय पार्टी संगठनों, दोनों, के मार्गदशर्न में विशेष मशीनरी संगठित करने का निर्णय लिया।
इस अधिवेशन के परिणाम क्या रहे? इसे सोवियत सत्ता के इतिहास से जाना जा सकता है, उसके निर्माण-कार्य के उस सर्वतोमुखी विकास से जाना जा सकता है जो गृहयुद्ध के बावजूद जारी था, जो उन तमाम मोर्चों के खुल जाने के बावजूद जारी था जिनकी हिफाज़त की जानी थी – पूरब में, उत्तर में, दक्षिण में और साइबेरिया में, यूराल्स में और काकेसस में, जबकि यूदेनिच पेत्रोग्राद के और देनीकिन ओरेल के ऐन दरवाज़े पर आ पहुँचा था। हर जगह महिला मज़दूरों और किसान औरतों ने सोवियत सत्ता के लिए संघर्ष किया, ख़ुद को निर्माण-कार्यों में झोंक दिया और उस समय चल रहे संगठन के महान काम में भागीदारी की।
लाल सेना की मदद करने के लिए लाल नर्सों के प्रशिक्षण के पाठयक्रम आयोजित किये गये थे (लाल सेना के कितने ही जवान अपने जीवन के लिए इन औरतों की निष्ठा के प्रति ऋणी हैं।) लाल सेना और मज़दूरों को रसद पहुँचाने में मदद के लिए स्त्रियों ने उन रसद टुकड़ियों में काम किया जिन्हें खाद्यान्न और दूसरे उत्पादों के कोटे में जमा करने के लिए भेजा गया था। परन्तु इन सबसे बढ़कर वे मज़दूर स्त्रियाँ थीं, जिन्हें बच्चों की देखभाल करने, नर्सरियाँ और बाल गृह चलाने, स्कूलों में गर्म भोजन की व्यवस्था करने, सिलाई केन्द्रों का संचालन आदि करने के लिए भेजा गया था। आज की युवा पीढ़ी जो दूसरी पंचवर्षीय योजना के तहत समाजवाद का निर्माण कर रही है, अपने जीवन और अपनी ऊर्जा के लिए पहले महिला अधिवेशन की सक्रिय कार्यकर्ताओं की ऋणी है।
स्त्रियों ने सिर्फ पीछे के मोर्चे पर रहकर, सिर्फ चिकित्सीय दल का काम करके ही लाल सेना की मदद नहीं की थी। सोवियत सत्ता के पहले तीन साल का संक्षिप्त ब्योरा देते हुए कोम्मुनिस्तका (”वूमन कम्युनिस्ट”) नामक पत्रिका साहस से भरपूर उन पलों का उल्लेख करती है जब देश की रक्षा के लिए मज़दूर स्त्रियों ने युद्ध में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जैसे 1919 में लुगांस्क, और तुला का युद्ध, जब मज़दूर स्त्रियों ने यह कसम खायी थी कि अगर रेनिकिन तुला के रास्ते मास्को पहुँचना चाहता है, तो वह उनकी लाशों पर से गुज़रकर ही वहाँ पहुँच पायेगा। और अन्त में लेनिनग्राद की वे मज़दूर स्त्रियाँ थीं जिन्होंने पुरुषों के कन्‍धे से कन्धा मिलाकर अपने क्रान्तिकारी केन्द्र की हिफाज़त की।

पेत्रोग्राद में 1917 में हुए ग़ैर-पार्टी स्‍त्री सम्मेलन और समूचे सोवियत गणराज्य की मज़दूर और किसान स्त्रियों की ग़ैरपार्टी कांग्रेस ने साबित किया कि संगठन के ये रूप मेहनतकश औरतों के जन आन्दोलन में प्राण संचार के लिए आयोजित किये जाते हैं। समोइलोवा ने अपनी ओर से यह सुनिश्चित कराने की हर चन्द कोशिश की कि ग़ैर-पार्टी सम्मेलन को जनता के पिछड़े तबकों के बीच पार्टी कार्यशैली के रूप में स्वीकार किया जाये। इन सभी सम्मेलनों में कॉमरेड समोइलोवा ने हर किसी को अपनी अद्वितीय क्षमता से प्रभावित किया। वह दृढ़, अधिकारपूर्वक काम करने वाली और साथ ही सहानुभूति रखने वाली चेयरमैन थीं। इन्हीं सम्मेलनों में समोइलोवा की सांगठनिक और आन्दोलनात्मक क्षमता का भरपूर इस्तेमाल हुआ। और यहीं उन्होंने स्‍त्री मज़दूरों से कार्यकर्ता तैयार किये। वह ग़ैर-पार्टी सम्मेलनों को एक तरह का सांगठनिक और आन्दोलनात्मक कार्य मानती थीं, जिसका उपयोग तब किया जाना चाहिए जब आम जनता को सीधी कार्रवाई के लिए प्रेरित और निर्देशित करने की ज़रूरत हो। 1919 में आयोजित मास्को का ग़ैर-पार्टी सम्मेलन इसका उदाहरण है। मास्को में उन दिनों कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी और भुखमरी का आलम था। मज़दूर और किसान औरतों का ग़ैर-पार्टी सम्मेलन आयोजित हुआ लेकिन उनके बीच कामों की शुरुआत शायद ही हो पायी थी। और इन कठिन परिस्थितियो में ही ग़ैर-पार्टी स्‍त्री मज़दूर जेव्यालोवा की दमदार आवाज़ स्वागत भाषण में गूँज उठती है : ”हम मज़दूर स्त्रियाँ फौलादी दीवार की तरह हैं जिसे कोई भी भेद नहीं सकता।” किसान औरतों ने अभाव और तंगी के बारे में शिकायत करने के बजाय इस बात का विरोध किया कि कुलक उन्हें काम करने का मौका नहीं देते। उन्होंने कहा, ”हमारे पास कॉमरेडों को भेजिये जो ग़रीब जनता का साथ देंगे, और सोवियत सत्ता का हम स्वागत करेंगे”। या यूक्रेन में मज़दूर और किसान स्त्रियों के सम्मेलन को ही लीजिये जहाँ कई बार मज़दूर विजयी रहे हैं और फिर अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद के नेतृत्व में जहाँ प्रतिक्रान्ति के ज़रिये निर्दयतापूर्वक प्रतिशोध लिया गया है। उस दौरान औरतों ने वहाँ क्या-क्या दु:ख नहीं झेले – वे बर्बर आतताइयों के उन गिरोहों से घिरी हुई थीं जो कम्युनिस्टों का शिकार करते, औरतों को प्रताड़ित करते, तथा स्‍त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े किसी को भी नहीं बख्श रहे थे। यूक्रेन की पार्टी की अग्रणी संगठनकर्ता कॉमरेड होपनर उन दिनों के यूक्रेन की तस्वीर पेश करती हैं :

”जब हम लाल सेना के साथ यूक्रेन लौटे, तो हमें ऐसा नज़ारा देखने को मिला, जिससे सख्त से सख्त लोगों का दिल दहल उठा था। सर्दी में नंगे पाँव, चीथड़ों में लिपटी, बदहाल कम्युनिस्ट स्त्रियों का रेला, कम्युनिस्टों की बहन और बेटियाँ या साधारण मज़दूर और किसान स्त्रियाँ – ये सभी सोवियत या पार्टी संगठनों की ओर बढ़ती जा रही थीं।

”कोई भी सोच सकता था कि उनकी यातनाएँ राजनीतिक काम के आड़े आयेंगी, कि हमें सिर्फ उन्हें खाना, कपड़ा और सिर छिपाने की जगह वग़ैरह ही देनी चाहिए, कि दूसरे सवालों में अब उनकी कोई ख़ास रुचि नहीं होगी….”

वह आगे कहती हैं कि उनके खारकोव पहुँचने के छह हफ्ते बाद कॉमरेड समोइलोवा खारकोव आयीं और ग़ैर-पार्टी स्‍त्री सम्मेलन बुलाया। वहाँ ऐसे सन्देहवादी भी थे जिन्हें ग़लतफहमी और शत्रुता से सामना होने की आशंका सता रही थी।

”लेकिन पहले ही सत्र ने”, कॉमरेड होपनर कहती हैं, ”साबित कर दिया कि हम कितना ग़लत समझ रहे थे। स्वागत और शुरुआती भाषणों ने सोवियत सत्ता और कम्युनिस्ट पार्टी में ग़ैर-पार्टी स्त्रियों की सम्पूर्ण आस्था को प्रकट कर दिया। बाद में, सम्मेलन के दौरान जब उन्होंने उन ज़ुल्मों के बारे में बताना शुरू किया जो उन्हें झेलने पड़े थे तो यह स्पष्ट हो गया कि यह वर्गीय चेतना उन कड़वे सबकों का नतीजा थी। दु:स्वप्न के उन यातनाप्रद वर्षों ने हर सर्वहारा के दिल में इस चेतना की लौ जगा दी थी। बिना किसी शिकायत के, और उसी दृढ़ता के साथ उन्होंने श्वेत आतंक की बात की। एक का भाई फाँसी पर लटका दिया गया था, दूसरे के पति को गोली मार दी गयी थी, तीसरे का बेटा उसकी ऑंखों के सामने काट डाला गया था। उन परिवारों को कोड़े मारे गये और छड़ों से पीटा गया, जिन पर कम्युनिस्टों से सम्बन्‍ध होने का सन्देह था। कई प्रतिनिधियों के शरीर पर मार के निशान अभी तक मौजूद थे – उनके सिर, हाथ और पैरों पर चोटें थीं।”

सम्मेलन के बाद आम जनता के बीच सघन कामों की शुरुआत हुई। सैकड़ों की संख्या में ग़ैरपार्टी मज़दूर स्त्रियाँ वर्कर्स एण्ड पीज़ेण्ट्स इंस्पेक्शन से, शैक्षणिक विभागों से और स्वास्थ्य सम्बन्‍धी विभागों से जुड़ीं। सभाएँ, व्याख्यान कक्ष और पार्टी स्कूल स्त्रियों से ठसाठस भरे होते थे। ”सोवियत के चुनावों में”, कॉमरेड होपनर लिखती हैं, ”जब मेंशेविक और उग्रराष्ट्रवादी उम्मीद कर रहे थे कि अकाल के चलते सोवियत सरकार का पतन हो जायेगा, और जब वे अपने कुत्सा-प्रचार में इस अकाल के लिए कम्युनिस्टों को ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे, उस वक्त मज़दूर स्त्रियाँ, लाल सेना से जुड़ी स्त्रियाँ, जो हमारी अर्थव्यवस्था की एकाएक गिरावट की मार सबसे ज्यादा झेल रही थीं, कम्युनिस्ट पार्टी का एक मज़बूत दुर्ग साबित हुईं, और इसका श्रेय उन्हीं को जाता है कि हमारी सोवियतें कम्युनिस्ट हैं।”

अन्त में, वोल्गा के ग़ैर-पार्टी सम्मेलन को लें, जहाँ 1920 में सबसे ज्वलन्त और सबसे महत्‍वपूर्ण सवाल अनाज के कोटे का था। सूखे की सम्भावना आसन्न लग रही थी और कुलकों ने अपना अनाज दबा रखा था। समोइलोवा ने 1920 में सरातोव में ग़ैरपार्टी मज़दूर सम्मेलन बुलाया, और इसमें अपने सक्षम मार्गदर्शन के बूते वह मज़दूर स्त्रियों से स्वेच्छापूर्वक तीन सौ पचास स्त्रियों के गाँव जाने और पैदावार की जाँच करने के वास्ते उन्हें आपूर्ति दस्ते में भेजने के पक्ष में वोट दिलाने में कामयाब रहीं। ”क्योंकि कुलक अकाल के हड़ीले हाथों द्वारा नवजात सोवियत सत्ता का गला घोंटना चाहते हैं।” एक सौ मज़दूर स्त्रियाँ स्थायी रूप से देहातों में काम करने चली गयीं। समोइलोवा ने अख़बारों में इसकी झलकियों के बारे में लिखा, केन्द्रीय समिति और सीपीएसयू के स्‍त्री विभाग को इसकी सूचना दी और अपने पर्चों में इस सम्बन्‍ध में लिखा। वह सरातोव की स्त्रियों द्वारा प्रदर्शित इस पहलकदमी का और व्यापक प्रचार करना चाहती थीं, ताकि दूसरे कस्बों की मज़दूर स्त्रियाँ उनके उदाहरण पर अमल कर सकें।

सरातोव सम्मेलन के बाद समोइलोवा ने पार्टी के तमाम सक्रिय कार्यकर्ताओं को एकत्रित किया और सम्मेलन के फैसलों को कैसे अमल में लाया जाये – इस पर उनके साथ विस्तार से चर्चा की, क्योंकि उन्हें इसका पूरी तौर से अहसास था कि जिन स्‍त्री प्रतिनिधियों को आपूर्ति कार्य में मदद के लिए सम्मेलन भेज रहा है, उनके कामों के इर्दगिर्द एक वर्गसंघर्ष विकसित हो जायेगा।

कई सिलसिलेवार ग़ैर-पार्टी सम्मेलनों के आयोजन के बाद समोइलोवा इस नतीजे पर पहुँचीं कि स्त्रियों के बीच पार्टी-कार्य जारी रखने का सबसे अच्छा तरीका यही है। उन्होंने लिखा :

”ग़ैर-पार्टी सम्मेलन कम्युनिज्म के जन-स्कूल और एक ऐसी आरक्षित सेना हैं, जहाँ से नये जीवन के निर्माण के लिए हम कार्यकर्ताओं की फौज निकाल सकते हैं। सम्मेलनों में आने वाले प्रतिनिधि अपने अगुआ कामरेडों के अनुभव को पिछड़े ज़िलों तक ले जाते हैं।”

उन्होंने ऐसे सांगठनिक रूप विकसित करने के नज़रिये से, जो कम्युनिज्म के लक्ष्य के लिए पिछड़ी जनता को राजनीतिक जीवन में खींच सके, हर सम्मेलन का विशेष रूप से अध्‍ययन किया। साथ ही, इन सम्मेलनों ने उन्हें यह देखने का मौका भी दिया कि उनके भाषणों, उनके पर्चों, समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में लिखे उनके लेखों को आम जनता ने किस रूप में लिया है। आलोचनाओं से बिना डरे वे लगातार उन बिन्दुओं को स्पष्ट करती रहीं, जहाँ जनता ने उनके सही आशय को समझा नहीं था। जिस दूसरे तरह के काम को समोइलोवा काफी महत्‍व देती थीं, वह था अख़बारों में ”स्‍त्री मज़दूरों का पन्ना”। ऐसे पन्ने अपने जन्म के लिए पूर्णत: उन्हीं के ट्टणी हैं। वह पहली व्यक्ति थीं जिन्होंने 1918 में ‘लेनिनग्राद प्रावदा’ में ”स्‍त्री मज़दूरों के पन्ने” के लिए जगह निकलवायी थी और उसे इस ढंग से संगठित किया था कि ”वह पन्ना” पार्टी के अन्य अख़बारों के लिए मॉडल बन गया। पर यही एकमात्र मूल्यवान विचार नहीं था, जिससे समोइलोवा ने इस काम में योगदान किया था। वह इस ”पन्ने” को स्‍त्री मज़दूरों के पिछड़े तबके के बीच प्रयोग में आने वाली विशेष पद्धति के रूप में देखती थीं, स्‍त्री मज़दूरों के सक्रिय समूह बनाने के उपाय के रूप में देखती थीं।

”स्त्रियों का पन्ना” पुरानी पत्रिका ‘वूमन वर्कर’ की तरह सर्वोपरि तौर पर एक ऐसा स्थान था, जहाँ मज़दूर स्त्रियाँ ख़ुद को व्यक्त कर सकती थीं, अपने कार्यकर्ता-बलों की समीक्षा कर सकती थीं और अपने कार्यभारों को पहचान सकती थीं। वह स्‍त्री विभाग के प्रेस को ”मज़दूर और किसान स्त्रियों” के लिए प्रेस के अंग के रूप में नहीं, बल्कि ख़ुद मेहनतकश जनता के अपने अख़बार के रूप में देखती थीं। वह स्‍त्री मज़दूरों से लगातार कहतीं कि ”यह आपका अपना अख़बार है, इसमें आप अपनी ख़ुद की राय व्यक्त कर सकती हैं।”

कॉमरेड समोइलोवा स्‍त्री प्रतिनिधियों की बैठकों को भी काफी महत्‍व देती थीं। समूचे सोवियत संघ में प्रतिनिधिमण्डलों की बैठकों को स्त्रियों में कामों का सबसे उल्लेखनीय रूप माना जाता है। सीपीएसयू की तेरहवीं कांग्रेस में पार्टी के नेता कॉमरेड स्तालिन ने उनके महत्‍व का उल्लेख करते हुए उन्हें पार्टी और स्‍त्री समुदाय के बीच की ”कन्वेयर बेल्ट” कहा था। इस तरह के कामों में समोइलोवा ने कई नयी बातें की शुरुआत की। उन्होंने इसकी सांगठनिक-शैक्षणिक सम्भावनाओं का अध्‍ययन किया और इसे पूरी गहराई से उद्धाटित किया।

समोइलोवा ने गाँवों में प्रतिनिधिमण्डलों, किसान औरतों के प्रतिनिधिमण्डलों की बैठकों को संगठित करने पर विशेष रूप से कड़ी मेहनत की। उस समय यह काम अभी बस अस्तित्व में आया ही था और इसके अच्छी तरह से संगठित होने की शुरुआतभर हुई थी, लेकिन इसका सारा सांगठनिक स्वरूप – इसके कार्यभार, नियम, दिशा-निर्देश सब कुछ समोइलोवा ने तय किये थे और प्रान्तीय स्‍त्री विभागों के प्रमुखों के तीसरे सम्मेलन में उन्हें व्यक्त किया था – यह एक तरह से विधायी संस्था का सम्मेलन था, जिसे पार्टी ने मज़दूर वर्ग के स्‍त्री तबके के बीच ज़िम्मेदारी के कामों का दायित्व सौंपा था।

सांगठनिक सवालों पर समोइलोवा ही रिपोर्टें तैयार करती और उन पर काम करती थीं। पार्टी की केन्द्रीय समिति के संयोजन ब्यूरो के माध्‍यम से जब भी स्‍त्री विभाग से सम्बन्धित कोई मामला उठाने की ज़रूरत होती तब हमेशा कॉमरेड समोइलोवा को ही यह काम सौंपा जाता। महज़ उनकी उपस्थिति ही प्राय: किसी विवादास्पद सवाल के समाधान को आसान बना देती।

कॉमरेड समोइलोवा की पहल पर पार्टी के नौवें अधिवेशन में एक प्रस्ताव को मंज़ूरी दी गयी थी, जिसने स्‍त्री सम्बन्‍धी विभागों की और स्त्रियों के बीच काम को तेज़ करने की आवश्यकता को एक बार फिर से पुष्ट किया।

समोइलोवा ने स्‍त्री सम्बन्‍धी विभागों की अग्रणी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने में, ख़ासकर जनपदीय स्‍त्री प्रभागों के संगठनकर्ताओं को प्रशिक्षण देने में काफी मेहनत की। उन्होंने मज़दूर आबादी के बीच से युवा प्रतिभाओं को तलाशने, मज़दूर और किसान औरतों के मन में स्वयं अपनी क्षमताओं के प्रति विश्वास जगाने, उन्हें काम का तरीका सिखाने, योद्धाओं और नये समाज के निर्माताओं के रूप में उन्हें प्रशिक्षित करने में विलक्षण क्षमता का परिचय दिया। ऐसी प्रतिभा कुछ ही लोगों में होती है। समोइलोवा के अनेक शिष्य (स्‍त्री और पुरुष दोनों) रूस में चारों तरफ फैले हुए हैं और महत्‍वपूर्ण कामों को अंजाम दे रहे हैं।

समोइलोवा को प्रकृति का एक और वरदान हासिल था अर्थात उनमें अद्भुत रूप से सहज, स्पष्ट और सीधो-सादे लोकप्रिय पर्चे लिखने की योग्यता थी। स्‍त्री मज़दूरों और किसानों के लिए लिखे गये ये पर्चे, ‘कम्युनिस्ट वूमन’ और ‘वूमन वर्कर’ के ”स्त्रियों के पन्ने” में उनके लेखों की ही तरह, जनता के लिए लेखन के बेहतरीन नमूने हैं। वह दृढ कम्युनिस्ट नज़रिये के साथ-साथ सरलता से पेश आना और जनता के जीवन के करीब की साधारण्ा घटनाओं को लेकर उनसे उन अहम मुद्दों के रूप में निष्कर्ष निकालना जानती थीं जो मज़दूर वर्ग को उसके संघर्ष में चुनौती दे रहे थे। उन्हें अलंकृत और लच्छेदार जुमले पसन्द नहीं थे। उनकी शैली सरल और उनके पाठकों के अनुरूप होती थी। वह ईमानदारी और गर्मजोशी से हमेशा विषय के उपयुक्त बोलती थीं। समोइलोवा द्वारा शिक्षित कार्यकर्ताओं ने उनके पर्चों से रिपोर्टें तैयार करना और उन कठिन परिस्थितियों में, जिनमें ये ग्रामीण संगठनकर्ता ख़ुद को उलझा हुआ पाते थे, समाधानमूलक वार्ताएँ आयोजित करना सीखा। वे विशाल सोवियत संघ के कोने-कोने में भेजे गये, अधिकांश को कोई वेतन नहीं मिलता, रिहाइश की कोई जगह नहीं होती, पन्द्रह-पन्द्रह, बीस-बीस मील पैदल चलना होता, और जहाँ जो मिल जाये खा लेना पड़ता, ऐसे में अपनी निरन्तर जारी यात्राओं में सुनियोजित पार्टी नेतृत्व से वंचित होकर ये संगठनकर्ता आन्दोलनपरक सामग्री के लिए समोइलोवा के पर्चों का सहारा लेते थे। 

गृह युद्ध समाप्त हो गया। पार्टी ने फौरन मोर्चा बदलने का आह्नान किया – श्वेतों के खिलाफ युद्ध के मोर्चे से बदलकर आर्थिक बर्बादी से संघर्ष का मोर्चा खोलने का आह्नान किया। पार्टी की कतारों और महिला विभागों के काम में अनिश्चय और ऊहापोह की स्थिति से संक्रमण का दौर और भी जटिल हो गया था। लेकिन समोइलोवा, हमेशा की अपराजेय बोल्शेविक नताशा, किसी भी तरह के ऊहापोह से मुक्त थीं, उनके सामने मार्ग स्पष्ट था और उन्होंने महिला विभागों को समाप्त करने की किसी भी कोशिश का डटकर प्रतिरोध किया। इस काम में पार्टी की केन्द्रीय समिति ने उनका साथ दिया।

अब मजदूर फैक्टरियों में वापस लौट आये थे, और किसान गाँवों में, स्त्रियों के बीच दो लाइनों पर कामों को आगे बढ़ाना था : पहला, प्रतिनिधि मण्डलों की बैठकों के शैक्षणिक कार्यों को बढ़ाकर, स्टडी सर्किल और छोटी अवधि के कोर्स चलाकर, मजदूरों के कॉलेजों के लिए बेहतरीन कार्यकर्ताओं की नियुक्ति आदि करने का काम कर स्त्रियों को अध्‍ययन की सुविधाएँ उपलब्धा कराना; और दूसरा, उन स्त्री मजदूरों की, जो अभी भी फैक्टरियों में थीं, अपने नये कामों के साथ तालमेल बिठाने, उत्पादन बढ़ाने और अपने कॉमरेडों, यानी पुरुषों को उत्कृष्टता में अपने से आगे न होने देने में उनकी मदद करना।

समोइलोवा ने जल्दी ही इन समस्याओं के समाधान का रास्ता खोज लिया। जैसेकि स्त्री मजदूरों को सम्बन्धिात उद्योग में उत्पादन की प्रक्रिया, कारखाने की तकनीक आदि से अवगत कराने के लिए उद्योग की विभिन्न शाखाओं मसलन कपड़ा उद्योग, सुई उद्योग के उत्पादन सम्मेलन और उत्पादन चक्र आयोजित करना। अब इन कामों को ट्रेडयूनियन से ज्यादा घनिष्टता के साथ जोड़ने का प्रश्न उठा और तब ट्रेडयूनियन की महिला संगठनकर्ताओं की नियुक्ति हुई।

समोइलोवा ने लाखों औरतों – मजदूर और किसान औरतों और तमाम मेहनतकशों को आर्थिक तबाही विरोधी संघर्ष में खींचने के लिए जबरदस्त आन्दोलनात्मक काम किये। उन्होंने सिलसिलेवार पर्चे लिखे, भाषण दिये, ग़ैरपार्टी सम्मेलन आयोजित किये और खतरे से आगाह करते हुए, और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की तबाही के खिलाफ आम जनता को संघर्ष के लिए प्रोत्साहित करते हुए आन्दोलनपरक स्टीमर ‘रेड स्टार’ से वोल्गा और कामा के किनारे-किनारे लम्बी यात्राएँ कीं। अपने आन्दोलनपरक भाषणों में वह सटीक ऑंकड़े देने, सभी सवालों का गहन अध्‍ययन करने और देश के आर्थिक जीवन को संचालित करने वाली सोवियत संस्थाओं को इस काम से जोड़ने में कभी नहीं चूकती थीं। उन्होंने अपने काम में जबरदस्त आर्थिक और प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन किया।

स्त्री मजदूरों ने उनके आह्नान का जवाब दिया : ”औद्योगिक मोर्चे पर आगे बढ़ो! पढ़ो, अपनी योग्यता बढ़ाओ।”

नताशा के जीवन का व्यक्तिगत पहलू और काम के मोर्चे पर डटे हुए उनकी मृत्यु

सेमोइलोवा की बोल्शेविक क्रान्तिकारी अर्काडी अलेक्सान्द्रोविच सेमाइलोव से शादी हुई थी। उनकी जोड़ी असाधारण रूप से एक-दूसरे के अनुरूप जोड़ी थी, एक साथ काम करने और अपने काम से सीखने वाली जोड़ी। उनकी पहली मुलाकात ओडेसा में हुई थी और रोस्तोव-आन-डॉन के मजदूर तबकों के बीच दोनों ने प्रचारक के रूप में एक साथ काम किया था। वे मास्को में साथ-साथ रहे, जहाँ एक जमाने में सेमोइलोव मास्को जिला पार्टी संगठन के भूमिगत अखबार ‘द स्ट्रगल’ के सम्पादक थे। ”वर्कर्स क्रॉनिकल” सेक्शन का कार्यभार सँभालकर सेमोइलोवा ने भी इसमें महत्तवपूर्ण योगदान दिया था। इसके लिए उन्होंने बहुत-सी सामग्री अपनी यात्राओं के दौरान जुटायी थी। वे साथ-साथ लुगान्स्क गये। वह ”अन्तोन” के नाम से काम करते थे और सेमोइलोवा ने अपना नाम ”नताशा” ही बहाल रखा। वे न सिर्फ प्यार से बल्कि साझा दृष्टिकोण और प्रयासों से भी परस्पर जुड़े हुए थे। बाद में, 1913 और 1914 में दोनों ने ‘प्रावदा’ के सम्पादकीय कार्यालय में काम किया, उनके पति ”ए. यूरिएव” के उपनाम से लिखते थे।

वकील की हैसियत से सेमोइलोव ने बहुत-से राजनीतिक मुकदमों में कॉमरेडों की पैरवी की और वे ट्रेड-यूनियनों के कानूनी सलाहकार थे।

बहुसंख्य कॉमरेड जो सेमोइलोवा को उनके काम से जानते थे, हमेशा उनका बहुत सम्मान करते थे और उन्हें ”सख्त नताशा”, ”दृढ़ निश्चयी बोल्शेविक”, ”साम्यवाद की अडिग समर्थक”, वग़ैरह कहते थे। वह हमेशा आत्मसंयमी रहीं। लेकिन अगर कोई काम उन्हें गम्भीरता से प्रभावित करता था तो वह अपनी सामर्थ्यभर पूरी गहनता से उसे पूरा करती थीं। वह संवेदनशील स्वभाव की थीं, लेकिन भावुक नहीं थीं। वह प्राय: अन्दर तक भावविभोर हो जातीं और उनका चेहरा ओज से दमक उठता और ऑंखें आसुँआें से भर जातीं।

उनके स्वभाव की यह विशेषता थी कि वह बहुत गहरे तक आन्दोलित हो जाती थीं, सामाजिक घटनाओं से विक्षुब्धा हो उठती थीं और उनकी यही विशेषता उन्हें दूसरे बहुत-से कॉमरेडों से अलग कर देती थी। ये भावनाएँ इतनी गहरी होती थीं कि कभी-कभी उनके अंश सारी जिन्दगी बने रह जाते। इसी तरह 1897 में वह वेत्रोवा नामक छात्रा की कैद में हुई मृत्यु से विचलित हो गयीं और इस घटना पर सेमोइलोवा के पहले भाषण् ने उसका भविष्य तय कर दिया – उन्होंने क्रान्तिकारी बनने का फैसला कर लिया।

दूसरी घटना जिसने उन्हें अन्दर तक आन्दोलित किया, वह ओडेस्सा का आन्दोलन थी। ओडेस्सा की घटनाओं और उनके अपने कटु अनुभवों ने इस तथ्य की ओर से उनकी ऑंखें खोल दीं कि मेंशेविक लेबर पार्टी के आकाओं के एजेण्ट हैं, कि वे मजदूरों के दुश्मन हैं। इस अनुभूति ने मेंशेविकों और बिचौलियों के प्रति उनकी रणनीति तय कर दी। वह कभी विचलित नहीं हुई और लेनिन की रणनीतियों की सटीकता को लेकर हमेशा आश्वस्त रहीं। उस समय जबकि अभी सेमोइलोवा अखबार की मामूली और अशिक्षित कर्मचारी ही थीं, लेनिन ने विसर्जनवादियों के खिलाफ उनके वाद-विवाद को स्वीकृति दे दी थी।

हमें 1921 में अस्त्राखन में उनके काम की चर्चा अवश्य करनी चाहिए, जिसका समापन उनकी मौत के साथ हुआ।

अस्त्राखन के मत्स्य क्षेत्र अत्यन्त महत्तवपूर्ण थे, क्योंकि ऐसे वक्त में वे मजदूरों और लाल सेना के लिए भोजन आपूर्ति के अक्षय स्रोत थे, जबकि कुलकों के वर्गीय प्रतिरोध ने देश की मांस आपूर्ति रोक रखी थी। चरम आर्थिक तनाव के इस दौर में जब 1921 के आसन्न अकाल की छाया तैर रही थी – पार्टी की केन्द्रीय कमेटी ने इन मत्स्य क्षेत्रों के महत्तव को पहचाना और सेमोइलोवा को पोत के राजनीतिक विभाग की मुखिया बनाकर, प्रतिरोध स्टीमर, रेड स्टार को अस्त्राखन भेजा गया।

स्टीमर वसन्त के प्रारम्भ (अप्रैल 1921) में रवाना हो गया ताकि मछलियाँ पकड़ने के वसन्त के मौसम में समय से पहुँच सके, जो वोल्गा के नौचालन योग्य होने, यानी बर्फ के पिघलने और वसन्त की बाढ़ आने के साथ शुरू होता था। अपनी रवानगी से पहले सेमोइलोवा ने उस जिले की आर्थिक क्षमता सम्बन्धी तमाम उपलब्धा ऑंकड़ों का अध्‍ययन किया। उससे भी पहले 1918 में जब पूरे रूस में सोवियत सत्ता का संघर्ष चल रहा था, उन्हें अपने कॉमरेड और पति से इन मत्स्य क्षेत्रों के बारे में कुछ बहुत ही सटीक सूचनाएँ मिली थीं, जो 1918 के मछलियाँ पकड़ने के मौसम यानी पतझड़ में वहाँ काम करने गये थे और जिनकी वहीं पर मृत्यु हो गयी थी।

उनकी मृत्यु ने उन्हें बहुत ही गहराई से प्रभावित किया। यह साम्यवाद के लिए एक ऐसे लड़ाके की मृत्यु का अनकहा दृष्टान्त था, जो दुनिया की सबसे बड़ी क्रान्ति का प्रत्यक्ष गवाह रहा था और जिसके लिए उसने अपना जीवन समर्पित कर दिया था। अजनबियों के बीच, गुप्त शत्रुओं के बीच या उदासीन लोगों के बीच सेमोयलोव अकेले थे। उन्हें पहले पेचिस हो गयी, और उसके बाद जब वह अस्पताल में बिस्तर पर पड़े थे, वहाँ उन्हें मीयादी बुखार हो गया और उसी के चलते उनकी मृत्यु हो गयी। और अब अपने गम को कलेजे में छिपाये सेमोइलोवा ख़ुद भी उसी मोर्चे पर रवाना हो रही थीं।

सेमोइलोव ने मृत्यु से पहले अपने पत्रों में लिखा था कि मछुआरों के बन्दरगाह पर ऐसे लोगों की भरमार है जो हमारे और हमारे निर्माण कार्य के दुश्मन हैं, और ये सभी विभिन्न प्रकार के ”विशेष खाद्य संगठनों”, ”आपूर्ति समितियों” वग़ैरह के निदेशक होने के ”प्रमाणपत्रों” से लैस हैं।

स्टीमर के रवाना होते ही सेमोइलोवा सांगठनिक कार्यों में व्यस्त हो गयीं। उनकी पहल पर स्टीमर पर मौजूद स्त्री कम्युनिस्टों की बैठक बुलायी गयी, एक पार्टी प्रकोष्ठ का गठन किया गया और एक कमेटी चुनी गयी। कमेटी के चुनाव के लिए स्टीमर के कर्मी दल की भी एक आम सभा बुलायी गयी। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि ट्रेड यूनियन कमेटी की मदद से पार्टी प्रकोष्ठ को स्टीमर के कर्मी दल और उस पर मौजूद तमाम लोगों के बीच व्यापक स्तर पर राजनीतिक शिक्षा का काम करना चाहिए।

रेड स्टार ने पहली मई से अपना आन्दोलनात्मक काम शुरू किया। तय किया गया कि सिम्‍बीर्स्‍क कारतूस फैक्ट्री पर रुका जाये और पार्टी की क्षेत्रीय और ज़िला कमेटियों की ओर से आयोजित हो रहे समारोहों में हिस्सा लिया जाये और शाम कोरेड स्टार पर एक मीटिंग और संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया जाये। मनोरंजन के लिए नया मोर्चा नाम का एक नाटक विशेष रूप से लिखा गया था।

लगभग तीन सौ मज़दूर स्त्री-पुरुष कारतूस फैक्ट्री के पास चौराहे पर जमा हुए जहाँ ताज़ा हरी घास बिछायी गयी थी और जिसे बिजली के लैम्पों से सजाया गया था।

इस अवसर पर विशेष रूप से बनाये गये मंच से एक वक्ता ने भाषण दिये। छुट्टी के दिन के कपड़े पहने बहुत-से मज़दूर उदासीन भाव से और बेमन से खड़े थे। अचानक वे भीड़ बनाकर पास आ गये और उनके चेहरे दोस्ताना भाव से दमक उठे, हर्षध्‍वनि गूँज उठी। सेमोइलोवा आर्थिक तबाही के ख़िलाफ संघर्ष पर अपना पहला भाषण दे रही थीं। ऐसा भाषण जिसे उन्होंने इस यात्रा के दौरान कई बार दुहराया, लेकिन हर बार नये तथ्यों, नयी ऊर्जा, जोश और शक्ति के साथ। शाम को जहाज़ पर भी उन्होंने भाषण दिया जहाँ उन्होंने कारतूस कम्पनी की स्त्री मज़दूरों को सम्बोधित किया। उन्होंने उनमें अपना विश्वास जताया, वह उन्हें आर्थिक तबाही के ख़िलाफ संघर्ष के लिए जगाना चाहती थीं।

सिम्‍बीर्स्‍क से रवाना होकर स्टीमर बिना रुके ज़ारित्सिन (बाद में स्तालिनग्राद) पहुँचा। यह पड़ाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि अस्त्राखान में काम करने वाले मज़दूरों में से बहुत-से ज़ारित्सिन क्षेत्र से आते थे – मुख्यत: कुशल स्त्री मज़दूर। लिहाज़ा, सेमोइलोवा ने वहाँ एक ग़ैर-पार्टी स्त्री सम्मेलन बुलाने की योजना बनायी थी और ज़ारित्सिन के कामरेडों को फोन पर पहले ही इसकी सूचना दे दी गयी थी। ज़ारित्सिन की कामकाजी औरतें उनकी पिछली यात्रा के समय से ही उन्हें जानती थीं और एक बार फिर उन्हें सुनने के लिए बड़ी ही उत्सुकता से जमा हुईं। ”राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में स्त्री मज़दूर”,शीर्षक उनके भाषण ने श्रोताओं में सनसनी भर दी, उनका उत्साह जगा दिया। और बहुत-सी कामकाजी औरतों ने मंच पर आकर घोषणा की कि वे संघर्ष में मदद करने के लिए तैयार हैं।

अस्त्राखान में ”फोरपोस्ट” (मेहनतकशों की आबादी वाला अस्त्राखान का एक उपनगर) से फिशरी में काम करने वाली औरतों की प्रतिनिधि आयी थीं। उन्होंने अपनी कठिन कामकाजी परिस्थितियों के बारे में बताया और कहा कि उनके लिए कुछ भी कर पाना नामुमकिन है क्योंकि उन्हें पार्टी की क्षेत्रीय कमेटी से बिल्कुल समर्थन नहीं मिलता। गुस्से से भर कर सेमोइलोवा ने प्रशासनिक कामकाज के नेता कामरेड एरेमेयेव को बुलवाया और उनसे कहा कि इस तरह की काहिली बरतने वालों के साथ ”सख्ती से पेश आयें” और इस बात पर ज़ोर दें कि मछली उद्योग में अपने कामकाज को संगठित करने में स्त्री विभाग की मदद की जाये। वोल्गा के मुहाने के टापुओं में फैली बहुत-सी फिशरी में पचास-साठ फीसदी कामकाजी औरतें काम करती थीं। स्टीमर ने फिशरी वाले इलाके का एक चक्कर लगाया।

अस्त्राखान, में या यह कहना बेहतर होगा कि अस्त्राखान की फिशरियों में, सेमोइलोवा ने आन्दोलनात्मक कार्य के साथ एक और काम किया, स्त्री-पुरुष मज़दूरों के हालात की जाँच-पड़ताल का काम, जो उस समय बड़ी तादाद में मत्स्य क्षेत्र में काम करते थे (लगभग चालीस हज़ार)। उन्होंने जीजान से ख़ुद को इस काम में खपा दिया। हालाँकि मास्को में ही उन्हें वहाँ की मज़दूर औरतों की दुर्दशा और उनके काम की कठिन स्थितियों से आगाह किया गया था लेकिन वहाँ उन्हें जो कुछ देखने को मिला उससे वह हतप्रभ रह गयीं। बीते युग ने, इन दूरदराज़ के द्वीपों में उस दौर की भयावह विरासत छोड़ी थी जब वहाँ पूँजीवादी लोलुपता राज करती थी।

उन्होंने कामकाजी स्त्री-पुरुषों की जीवन परिस्थितियाँ सुधारने के काम में कोताही बरतने के लिए फिशरियों के प्रबन्धन और उनकी कमेटियों के साथ-साथ आपूर्ति मज़दूरों की ट्रेड यूनियन के संगठनों पर बार-बार हमला बोला।

शाम की बैठकों में उनकी बातें और भी ज्यादा असरदार होती थीं जब वे स्त्री और पुरुष मज़दूरों से संगठित होने, सोवियत सत्ता और कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर आर्थिक तबाही के ख़िलाफ संघर्ष करने का आह्नान करती थीं।

वह बैरकों में अत्यन्त अस्वास्थ्यकर स्थितियों में रहने वाले बच्चों की स्थिति को लेकर विशेष रूप से चिन्तित थीं। वह बच्चों की संगीत सभाओं या छुट्टियों के लिए कुछ घण्टे निकालने के लिए हमेशा तैयार रहतीं। कभी-कभी हज़ार या इससे भी अधिक बच्चे जमा हो जाते। वह उन्हें कहानियाँ सुनातीं, उनसे बातें करतीं। बच्चों के साथ उनके व्यवहार में ज़बर्दस्त धौर्य और उदारता झलकती थी। वह बच्चों की दुर्दशा देखकर नाराज़ थीं और स्थानीय कार्यकर्ताओं और प्रबन्धन के साथ बैठकों में इस मुद्दे पर बहुत ज़ोर देती थीं। बच्चों और मातृत्व की रक्षा के सवाल पर उन्होंने लाल फीताशाही के प्रति किसी तरह के धौर्य का प्रदर्शन नहीं किया और ठोस कदम उठाये जाने की माँग की। पूरे मत्स्य क्षेत्र में जहाँ कहीं भी पार्टी प्रकोष्ठ थे वहाँ नर्सरियों और बच्चों की कालोनियों के गठन के प्रयास किये गये। रेड स्टार ने कई जगहों पर उनके गठन में मदद की।

लेकिन उपयुक्त जगह और उपकरण और सबसे बढ़कर आवश्यक कर्मचारियों का अभाव इन चीज़ों के लिए लड़ने वालों के सामने सबसे बड़ी बाधा थे। क्षेत्रीय मत्स्य क्षेत्र परिषद उनकी माँगों की अनसुनी करता रहा। केन्द्र का प्रभाव इस दूर-दराज के इलाके में अब तक नहीं पहुँचा था। नेतृत्वकारी संगठनों के साथ सम्पर्क के अभाव में पार्टी के सेल और मत्स्य क्षेत्र कमेटियाँ क्षेत्रीय मत्स्य क्षेत्र परिषद के मातहत बनी हुई थीं।

सेमोइलोवा ने रेड स्टार के राजनीतिक विभाग में हुई बैठकों और रेड स्टार से छपने वाले अखबार में लिखे लेखों में भी अपना रोष व्यक्त किया। स्टीमर वोल्गा के मुहाने में जितना आगे बढ़ता गया ये लेख उतने ही अधिक जीवन्त होते गये।

15 मई को वे ”ओरेंजरी फिशरी” पर पहुँचे। अपने लेख ‘स्त्री मज़दूरों ने अपना फर्ज़ निभाया है” में सेमोइलोवा ने लिखा :

”श्वेत गार्ड के दस्युओं ने हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तहस-नहस कर दी, उसे पतन के कगार पर ला खड़ा किया, खेती और उद्योगों को तबाह कर दिया है, मत्स्य क्षेत्रों के कामकाज को अस्त-व्यस्त कर दिया है। हमारे लिए मत्स्य क्षेत्रों में, कीचड़ और पानी में काम करना कठिन है। लाल सेना के लिए भी अपने परिवारों से दूर खन्दकों में डटे रहना आसान नहीं था। लेकिन लाल सेना के सिपाहियों ने समाजवादी पितृभूमि के प्रति अपना फर्ज़ पूरा किया और हमारे दुश्मनों को हराया। हम उनके पदचिन्‍हों पर चलेंगे।”

20 मई को निकितिना फिशरी से उन्होंने एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था ”ज्ञान ही हमारी शक्ति और हमारी जीत के संकल्प की बुनियाद है”। उन्होंने लिखा :

”स्त्री और पुरुष मज़दूर नये समाजवादी आधार पर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को संगठित कर सकें, इसके लिए न सिर्फ उनका शिक्षित होना ज़रूरी है बल्कि इसके लिए उनको व्यावसायिक-तकनीकी शिक्षा भी मिलनी चाहिए। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सोवियत सरकार तकनीकी कोर्स और स्कूलों की व्यवस्था कर रही है। हमें अशिक्षा का ख़ात्मा करना ही होगा जो पुरानी व्यवस्था की अभिशप्त विरासत है। ज्ञान हासिल करके ही हम अपने तमाम दुश्मनों को परास्त कर सकते हैं और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को उसके पैरों पर खड़ा कर सकते हैं।”

उन्होंने अपना आख़िरी लेख 31 मई को फ्योदोरोव फिशरी से लिखा। ”जहाँ शिक्षा की दरकार है (राजनीतिक शिक्षा विभाग की विज्ञप्तिद्ध” शीर्षक लेख में वह लिखती हैं :

”अस्त्राखान के बहुत-से मत्स्य क्षेत्र शैक्षणिक-सांस्कृतिक कार्य की दृष्टि से रेगिस्तान जैसे हैं। वोल्गा के मुहाने के पास बिखरे, शहर के शैक्षणिक हलकों से अलग-थलग इन इलाकों को न तो शैक्षणिक हलकों से कोई मदद मिलती है और न ही राजनीतिक शिक्षा विभागों से। लेकिन मेहनतकश जनता में हर जगह शिक्षा की प्यास देखी जा सकती है। समूचे मत्स्य क्षेत्र में वयस्कों को पढ़ना-लिखना सिखाने के लिए ख़ुद मज़दूरों की पहल पर स्कूल खुल रहे हैं। स्थानीय क्लबों का गठन किया जा रहा है। लेकिन वे बस किसी तरह अपने अस्तित्व को बनाये हुए हैं क्योंकि उनके पास किताबें नहीं हैं, क्लबों में कोई अख़बार नहीं आते और मत्स्य क्षेत्रों के मज़दूरों को पता नहीं रहता कि दुनिया में क्या चल रहा है। यह सच है कि किताबों की कमी का कारण आम आर्थिक तंगी है जिससे हम गुज़र रहे हैं। राजनीतिक शिक्षा विभाग के पास निश्चित तादाद में स्कूली किताबें हैं और वह स्कूलों में कुछ किताबें मुहैया भी कराता है। आज चालीस हज़ार स्त्री-पुरुष मज़दूरों को व्यापक सांस्कृतिक-शैक्षणिक काम की दरकार है, ख़ासकर तब जबकि मत्स्य क्षेत्र गणराज्य की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए इतने महत्वपूर्ण हो गये हैं।

”पार्टी, ट्रेड यूनियनों और शैक्षणिक संस्थानों को इस मेहनकश अवाम की शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्‍यान देना चाहिए।”

यह उनका अन्तिम लेख था।

मई 31 को सेमोइलोवा ने अपना आख़िरी भाषण दिया। वह फ्योदोरोव फिशरी में गयीं और औरतों से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका की चर्चा की। उसी दिन शाम को वह बीमार पड़ गयीं और दो दिन बाद उनकी मृत्यु हो गयी।

अस्त्राखान में सेमोइलोवा को एक और दिल तोड़ देने वाला अनुभव हुआ था। एक सम्मेलन में उनके पास जो चिटें भेजी गयी थीं उनमें से एक चिट कामरेड श्पाकोवा की भेजी हुई थी जिन्होंने उनसे व्यक्तिगत मुलाकात का अनुरोध किया था। श्पाकोवा उस समय पेत्रोग्राद की एक सक्रिय स्त्री मज़दूर हुआ करती थीं, जब सेमोइलोवा ने संघर्ष के शुरुआती दिनों में वहाँ स्त्रियों को संगठित किया था। सेमोइलोवा ने उन्हें फौरन रेड स्टार पर आमन्त्रित किया जहाँ श्पाकोवा ने उन्हें अपनी कहानी सुनायी।

सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी से सम्बद्ध स्त्री मज़दूरों के केन्द्रीय संगठन की ओर से कुछ और कामरेडों के साथ श्पाकोवा को मत्स्य क्षेत्र में काम करने के लिए भेजा गया था। इन सभी को वहाँ अनजानी और कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। वे अस्त्राखान की क्षेत्रीय पार्टी कमेटी से अलग-थलग पड़ गये थे। वे वोल्गा के मुहाने के विभिन्न सुनसान द्वीपों में बिखरे हुए थे, जो पार्टी कार्य की दृष्टि से सचमुच वीरान ही थे; और चारों ओर से शत्रुतापूर्ण तत्वों से घिरे हुए थे; जल्द ही उनके समूह के भीतर नेतृत्व नाम की कोई चीज़ नहीं बची। उनकी कतारों की आपसी एकजुटता कमज़ोर पड़ गयी। वे सब ओर से कट-से गये और आपसी सम्पर्क की कमी से बिखराव के शिकार हो गये। सेमोइलोवा के सरोकार और कामरेडाना ध्‍यान से प्रभावित होकर श्पाकोवा ख़ुद को रोक न सकीं। वह सब कुछ कह देना चाहती थीं, सारी कहानी सुना देना चाहती थीं। वह अपनी हालत का बयान करते हुए रो पड़ीं। उनके पास वास्तव में कुछ भी नहीं था। सेमोइलोवा दंग रह गयीं। उन्होंने श्पाकोवा को रेड स्टार पर साथ ले चलने का फैसला कर लिया लेकिन जब तक स्टीमर आया तब तक श्पाकोवा के लिए काफी देर हो चुकी थी। सेमोइलोवा से मिलने के अगले ही दिन उनकी मृत्यु हो गयी, वह अस्त्राखान में हैज़े का पहला शिकार थीं। उनकी मौत से सेमोइलोवा को भारी सदमा लगा। लेकिन सेमोइलोवा को खुद भी हैज़ा हो गया और 2 जून को उनकी मृत्यु हो गयी।

ज़ारशाही की देन तीन महाविपत्तियों – गरीबी, अज्ञान और दमन – पर पलने वाले दुश्मन के ख़ूनी पंजे ने पेत्रोग्राद की स्वस्थ, युवा और उत्साही स्त्री कार्यकर्ता श्पाकोवा को छीन लिया। उसी दुश्मन ने दिल से हमेशा युवा और क्रान्तिकारी ऊर्जा से भरपूर अदम्य योद्धा सेमोइलोवा को भी निगल लिया।

कम्युनस्टि पार्टी ने अस्त्राखान के मत्स्य क्षेत्र के सोवियतीकरण की कठिन लड़ाई को जारी रखा।

बोल्शेविकों – सेमोइलोवा और उनके पति ने सहजवर्गीय बोध से सही मूल्यांकन किया था कि अस्त्राखान मत्स्य क्षेत्र के काम में ”विरोधी तत्व” घुस आये हैं। अतीत में यही मत्स्य क्षेत्र अपने पूँजीवादी मालिकों को ज़बर्दस्त मुनाफा देता था। पुराने मालिकों के वफादार कारिन्दों ने केन्द्र से लम्बी दूरी और स्थानीय कार्यकर्ताओं की कमज़ोरी का फायदा उठा कर मत्स्य क्षेत्र में अपनी जड़ें जमा लीं और सोवियत सरकार के निर्माण कार्यों को तबाह कर डाला।

वर्ष 1926 में कहीं जाकर कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सोवियत सरकार व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बहाल करने और फिर उसका पुनर्निर्माण करने के काम को ठीक तरह से सम्भाल सकी। अस्त्राखान से तोड़-फोड़ करने वालों को उखाड़ फेंका गया और सम्पूर्ण आर्थिक-सामाजिक पुनर्निर्माण का काम शुरू हुआ।

अस्त्राखान मत्स्य क्षेत्र के विनाशकारियों के मामले की गूँज पूरे सोवियत संघ में सुनी गयी; लेकिन तोड़-फोड़ की इस कार्रवाई के अन्तिम ड्डोत अस्त्राखान में नहीं तलाशे जा सकते थे।

जब बड़े अन्तरराष्ट्रीय मुकदमे शुरू हुए, इण्डस्ट्रियल पार्टी और मेंशेविकों के ख़िलाफ मुकदमे चले तब यह तथ्य सामने आया कि अस्त्राखान मत्स्य क्षेत्र में चल रही तोड़-फोड़ के तार विदेश में, रूसी पूँजीपतियों तक फैले हुए हैं, जिन्हें अन्तरराष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग पनाह दिये हुए था।

लेकिन मेहनतकश वर्ग, यानी समाजवाद का निर्माण कर रहे करोड़ों स्त्री-पुरुष मज़दूर विजयी भाव से सभी पुरानी चीज़ों को,जिनके दिन लद चुके हैं, झाड़ू मारकर परे हटा रहे हैं। उन्होंने इस समृद्ध क्षेत्र में द्नीप्रोस्त्रोय और कुज्बास की टक्कर का मज़दूरों का शहर खड़ा कर लिया है, और यह उस कामरेड का सबसे उपयुक्त स्मारक है जो इस संघर्ष में शहीद हो गयी,अदम्य बोल्शेविक वीरांगना नताशा की सर्वश्रेष्ठ यादगार है।

———- समाप्त ————


 

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