कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (पाँचवीं किस्त)
माउण्टबेटन योजना, विभाजन और आज़ादी

आलोक रंजन

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इस धारावाहिक लेख की चौथी किस्त ‘नई समाजवादी क्रान्ति का उद्धोषक बिगुल’ अख़बार के अन्तिम अंक (जून, 2010)में प्रकाशित हुई थी। उसी अख़बार के उत्तराधिकारी के रूप में नवम्बर 2010 में जब ‘मज़दूर बिगुल’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो प्रवेशांक में कुछ अपरिहार्य कारणों से इस लेख की अगली किस्त नहीं दी जा सकी। इस अंक से पुन: इस धारावाहिक लेख का प्रकाशन शुरू किया जा रहा है जो आगे के अंकों में जारी रहेगा।

नौसेना विद्रोह, 1947 के देशव्यापी मज़दूर उभार, तेलंगाना-तेभागा-पुन्नप्रा वायलार (विशेषकर तेलंगाना) किसान संघर्षों और साम्राज्यवाद-विरोधी देशव्यापी जनउभार की सम्भावनाओं ने किसी क्रान्तिकारी राजनीतिक विकल्प को भले ही जन्म नहीं दिया, लेकिन भारतीय बुर्जुआ वर्ग और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों – दोनों को ही आतंकित ज़रूर कर दिया। मुख्यत: इसी आतंक के चलते भयंकर साम्प्रदायिक रक्तपात और बँटवारे के साथ सत्ता का ”शान्तिपूर्ण” हस्तान्तरण सम्भव हो सका। उस दौर के शासकीय दस्तावेज़ों (जैसे नौकरशाह वी.पी. मेनन द्वारा वायसराय वेवेल को भेजी गयी रिपोर्टें) से पता चलता है कि कम्युनिस्ट ख़तरे से अंग्रेज़ और कांग्रेस दोनों ही आतंकित थे।

अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ भी सत्ता हस्तान्तरण के लिए अंग्रेज़ों को बाध्‍य कर रही थीं। दूसरे महायुध्द में यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएँ धवस्त हो चुकी थीं, जबकि अमेरिका और मज़बूत होकर उभरा था। अपनी विपुल वित्तीय पूँजी के बल पर वह अपना राजनीतिक-सामरिक वर्चस्व स्थापित कर चुका था और ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, हॉलैण्ड और पुर्तगाल के उपनिवेशों को अपना बाज़ार बनाने के लिए आतुर था। प्रत्यक्ष औपनिवेशिक लूट के स्थान पर ”बिना उपनिवेश के साम्राज्यवाद” का दौर अब कायम होने जा रहा था। आर्थिक कारणों के अतिरिक्त वर्ग-संघर्ष का वैश्विक परिदृश्य भी एक अहम कारण था। नात्सी सत्ता के विरुध्द लाल सेना के विजयी अभियान के बाद पूरा पूर्वी यूरोप समाजवादी शिविर में शामिल हो चुका था। चीन, कोरिया, वियतनाम और मंगोलिया में कम्युनिस्ट नेतृत्व में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तियों की विजय आसन्न थी। चारों ओर से उठ रहा लाल बवण्डर राष्ट्रीय मुक्ति-युध्दों की ऑंधी के साथ मिलकर चक्रवाती तूफान का माहौल रच रहा था। भयाक्रान्त साम्राज्यवादी शिविर आत्म-रक्षा के लिए नयी महाशक्ति अमेरिका की चौधराहट स्वीकारने को विवश था। अमेरिका चाहता था कि चीन के पड़ोसी देश भारत में बुर्जुआ वर्ग को सत्ता यथाशीघ्र हस्तान्तरित हो जाये। लाल क्रान्ति का भय उसे भी था और भारत के बाज़ार में घुसपैठ और आधिपत्य की व्यग्रता भी। भारतीय बुर्जुआ वर्ग के चतुर राजनीतिक प्रतिनिधियों ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया। जनता की एकजुटता और क्रान्तिकारी पहल के अपने हाथ से निकल जाने का भय उन्हें भी था, अत: जुझारू जनसंघर्ष के बजाय उन्होंने साम्प्रदायिक हिंसा और बँटवारे के साथ सत्ता-हस्तान्तरण का विकल्प चुना। यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय तक भारतीय पूँजीपति वर्ग की आर्थिक शक्ति और आत्मविश्वास भी काफी बढ़ चुका था। वह यह भी जानता था कि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के समक्ष एकमात्र विकल्प यही है कि वे बुर्जुआ वर्ग की मुख्य प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस को सत्ता सौंपें। भारतीय पूँजीपति वर्ग सत्तासीन होने के बाद ब्रिटिश पूँजी के हितों की सुरक्षा और उसके साथ सहकार के लिए विवश था और वचनबध्द भी। साथ ही, वह अन्य साम्राज्यवादियों की पूँजी को भी आमन्त्रित कर सकता था। पर इतना तय था कि साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद वह कतई नहीं कर सकता था।

20 फरवरी 1947 को हाउस ऑफ कॉमन्स में ब्रिटिश लेबर पार्टी सरकार के प्रधानमन्त्री एटली ने घोषणा की कि जून 1948तक भारतीय राजनीतिज्ञ यदि किसी संविधान पर, या केन्द्रीय सरकार की स्थापना के प्रश्न पर सहमत नहीं होंगे तो सत्ता विभिन्न प्रान्तों की सरकारों को सौंपकर अंग्रेज़ भारत छोड़ देंगे। इस घोषणा में यह भी निहित था कि ऐसे सत्ता-हस्तान्तरण के बाद रजवाड़ों से भी ब्रिटिश सत्ता समाप्त हो जायेगी और वे स्वतन्त्र हो जायेंगे। इस तरह, यह भारत के विखण्डन का भी संकेत था। यह न तो कांग्रेस चाहती थी, न ही मुस्लिम लीग। सत्ता-हस्तान्तरण की भावी अनुकूल योजना पर अमल के लिए वेवेल की जगह माउण्टबेटन को नया वायसराय नियुक्त किया गया। विभाजन सहित राजनीतिक स्वतन्त्रता की बात इस समय तक लगभग सभी को स्वीकार्य हो चुकी थी। माउण्टबेटन ने कैबिनेट मिशन की पुरानी योजना को नयी परिस्थितियों में अव्यावहारिक मानते हुए ‘प्लान बाल्कन’ गुप्त नामवाली नयी वैकल्पिक योजना बनायी। इसमें विभिन्न प्रान्तों या उनके संघों को सत्ता हस्तान्तरण का प्रावधान था, पंजाब और बंगाल की विधायिकाओं को अपने प्रान्तों के विभाजन का अधिकार दिया जाना था तथा ऐसी सभी इकाइयों और रियासतों-रजवाड़ों को यह अधिकार दिया जाना था कि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हों या स्वतन्त्र रहें। माउण्टबेटन से इस योजना की जानकारी मिलने पर नेहरू ने इसका तीखा विरोध किया। फिर डोमीनियन स्टेटस के आधार पर भारत और पाकिस्तान की दो केन्द्रीय सरकारों को सत्ता हस्तान्तरित करने की नयी वैकल्पिक योजना माउण्टबेटन ने प्रस्तुत की। इसका आधार सरकारी अफसर वी.पी. मेनन द्वारा जनवरी 1947 में भारत सचिव को दिया गया सुझाव था। डोमीनियन स्टेटस के आधार पर सत्ता हस्तान्तरण कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन के प्रस्ताव से पीछे हटना था, पर पटेल इस सुझाव से सहमत थे। उनका मानना था कि इससे शीघ्र और शान्तिपूर्वक सत्ता-हस्तान्तरण सम्भव होगा तथा औपनिवेशिक नौकरशाही व सेना की निरन्तरता भी बनी रहेगी जो नये केन्द्रीकृत बुर्जुआ शासनतन्त्र के लिए ज़रूरी है। साथ ही ब्रिटेन से भारत के अच्छे सम्बन्ध भी बने रहेंगे जो स्वतन्त्र भारत के लिए उचित रहेगा। इसीलिए, वी.पी. मेनन के पुराने सुझाव पर पटेल की सहमति पर आधारित नयी माउण्टबेटन योजना जब पेश की गयी तो उस पर आम सहमति बनते देर न लगी।

माउण्टबेटन योजना इस प्रकार थी :

(1) उपमहाद्वीप में दो डोमीनियन – भारतीय संघ और पाकिस्तान – स्थापित किये जायेंगे; (2) पंजाब और बंगाल के विभाजन का प्रश्न इन प्रान्तों के हिन्दू या मुस्लिम बहुल प्रतिनिधियों के पृथक मतों द्वारा तय होगा; (3) उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त तथा असम के मुस्लिम बहुल सिलहट ज़िले में जनमत-संग्रह होगा; (4) सिन्ध का भविष्य प्रान्तीय विधानमण्डल में मतदान द्वारा तय होगा; (5) रजवाड़ों-रियासतों के भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय उनके शासकों द्वारा लिया जायेगा; (6) संविधान सभा दोनों देशों की अलग-अलग संविधान सभाओं में बँट जायेगी।

3 जून को माउण्टबेटन ने अपनी नयी योजना की घोषणा की और यह प्रस्ताव रखा कि जून 1948 की जगह 15 अगस्त1947 को ही सत्ता हस्तान्तरित की दी जाये। कांग्रेसी, लीगी और सिख नेताओं ने उसे तत्काल स्वीकार कर लिया। उसी महीने में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिवेशन ने इस योजना को 61 के मुकाबले 157 मतों से स्वीकार कर लिया। इस योजना के आधार पर ‘इण्डिया इण्डिपेण्डेण्ट एक्ट’ बना, जिसकी ब्रिटिश संसद और सम्राट ने 18 जुलाई को पुष्टि कर दी। 15 अगस्त को इसे लागू कर दिया गया।

माउण्टबेटन योजना के अनुरूप बंगाल और पंजाब की विधायिकाएँ क्रमश: 20 और 23 जून को ही विभाजन का प्रस्ताव पारित कर चुकी थीं। इसके तुरन्त बाद सिन्ध और बलूचिस्तान ने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया। लीग द्वारा पाकिस्तान में मिलाने का प्रस्ताव विफल करने के लिए ख़ान अब्दुल ग़फ्फार ख़ान के नेतृत्व में उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त की कांग्रेस कमेटी ने स्वतन्त्र पख्तूनिस्तान की माँग की। तत्कालीन विधायिका में कांग्रेसी बहुमत था और उसने भी संविधान सभी में शामिल होने के पक्ष में प्रस्ताव पारित किया था। इसके बावजूद उस प्रान्त पर भारत-पाकिस्तान में से एक को चुनने के लिए जनमत संग्रह थोप दिया गया। यह जनमत संग्रह भी सार्विक मताधिकार के आधार पर नहीं होना था। उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त की कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया और कुल 50.99 प्रतिशत मतों से (यानी वयस्क आबादी के 9.52 प्रतिशत मत द्वारा) इस प्रान्त को पाकिस्तान में मिला दिया गया। यह वहाँ की आबादी के साथ कांग्रेसी नेतृत्व का विश्वासघात ही था। जून ’47 के बाद महज़ डेढ़ महीने के भीतर, भारतीय भू-राजनीतिक परिस्थितियों से पूरी तरह से अपरिचित अंग्रेज़ वकील रैडक्लिफ के नेतृत्व में गठित दो आयोगों ने पूरब और पश्चिम में भारत और पाकिस्तान के बीच सीमारेखा खींचने का काम किया। कई इलाकों को लेकर हिन्दू, सिख और मुसलमान आबादी में असन्तोष था, लेकिन लीग और कांग्रेस सत्ता के लिए बेचैन थे, इसलिए इस मुद्दे पर छिटपुट असन्तोष और विरोध से आगे बात नहीं बढ़ी।

15 अगस्त 1947 को मिली खण्डित और रक्तरंजित राजनीतिक स्वाधीनता ने देश की जनता में हर्ष-विषाद के मिले-जुले भाव उत्पन्न किये। लोग आधी रात को भारत की ”नियति के साथ करार” पर नेहरू के भाषण को सुनकर भावुक भी हो रहे थे, दूसरी ओर देश की परिस्थितियों को लेकर विषाद और आशंका के भाव भी थे। जनता के सुदीर्घ संघर्षों ने औपनिवेशिक ग़ुलामी के दिनों को पीछे धकेल दिया था और इतिहास ने आगे डग भरा था। लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन के बुर्जुआ नेतृत्व का विश्वासघात और समझौतापरस्ती भी एक वास्तविकता थी, जिसे 1947 में तो कम लोगों ने समझा था लेकिन दो दशक बीतते-बीतते भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र का चेहरा बहुसंख्यक आबादी के सामने नंगा हो चुका था।

गाँधी सक्रिय नेतृत्व की मुख्यधारा से किनारे कर दिये गये थे। उनके बुर्जुआ मानवतावादी यूटोपिया की अब भारतीय पूँजीपति वर्ग को कोई ज़रूरत नहीं थी। आज़ादी मिलते समय उनके पास ”देने के लिए कोई सन्देश” नहीं था और समारोहों से अलग बैठे वे उपवास और प्रार्थना कर रहे थे। वे केवल विभाजन और साम्प्रदायिक दंगों से ही नहीं बल्कि स्वतन्त्र भारत के नये राजनीतिक तन्त्र से भी व्यथित थे। अपनी हत्या से पहले उन्होंने कांग्रेस में बढ़ते भ्रष्टाचार और लोकतान्त्रिक मूल्यों के पतन के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए उसे भंग करके लोक सेवक संघ की स्थापना का सुझाव दिया था और यह भी कहा था कि भारत के गाँवों के लिए सामाजिक-आर्थिक आज़ादी पाना अभी बाकी है। वे ब्रिटिश नौकरशाही और शासन प्रणाली की निरन्तरता से भी असन्तुष्ट थे, लेकिन भारतीय बुर्जुआ वर्ग और नेहरू-पटेल यह भली-भाँति जानते थे कि केन्द्रीकृत मज़बूत प्रशासन ही उनकी ज़रूरत है।

सन् 1947 उपमहाद्वीप के इतिहास के सबसे बड़े साम्प्रदायिक ख़ून-ख़राबे और विस्थापन का गवाह बना। करीब दस लाख लोगों की जानें गयीं, एक करोड़ के आसपास घायल हुए, 75 हज़ार से भी अधिक स्त्रियाँ बलात्कार की शिकार हुईं, और एक करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित होकर शरणार्थी शिविरों में दिन बिताने को मजबूर हुए। बुर्जुआ वर्ग ने सत्ता हासिल करने का जो रास्ता चुना, उसकी कीमत उपमहाद्वीप की जनता ने इस रूप में चुकायी। उसी भयावह अतीत की निरन्तरता भारत-पाकिस्तान के भीतर तीन बड़े युध्दों और कई छोटी-मोटी लड़ाइयों के रूप में तथा भारत में साम्प्रदायिक दंगों,साम्प्रदायिकता की राजनीति और धार्मिक कट्टरपन्थ के रूप में हमें 1947 के बाद से लेकर अब तक देखने को मिलती रही है।

(अगले अंक में : 1946-50 का संक्रमण काल, क्रमिक पूँजीवादी विकास की आम दिशा का निर्धारण और संविधान की निर्माण-प्रक्रिया)

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2010

 


 

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