सरकारों की बेरुखी का शिकार – ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना

लखविन्दर

रोजगार का हक एक बुनियादी हक है जिसे मुनाफे पर टिका पूँजीवादी आर्थिक ढाँचा हमेशा से कुचलता आया है। इस हक के लिए मज़दूर, मेहनतकश, नौजवान संघर्ष करते आये हैं। बेरोजगारी के सताए लोगों के आक्रोश को शांत करने के लिए पूँजीवादी हुक्मरानों को मज़बूर होकर जनता के लिए जनकल्याण के कुछ कदम उठाने पड़ते हैं। दस साल पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार ने बहुचर्चित नरेगा कानून ( जिसका बाद में नाम बदल कर ‘मनरेगा’ यानि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी कानून कर दिया गया था) बनाया गया था। इस कानून के पीछे एक कारण यह भी था कि कृषि क्षेत्र में रोजगार लगातार घटता जा रहा है और रोजगार की तालाश में करोड़ों लोग शहरों की ओर प्रवास कर रहे हैं। शहरों में भी रोजगार का दायरा तंग है और यहाँ भी विस्फोटक हालात बनते जा रहे हैं। गाँवों से शहरों की तरफ प्रवास कम करना भी ग्रामीण गारण्टी योजना का एक महत्वपूर्ण मकसद था। इस योजना को लागू करते समय गाँवों में गरीबी-बेरोजगारी खत्म करने के बड़े-बड़े दावे किये गये थे। केन्द्र की मोदी सरकार व कांग्रेस आदि पार्टियों ने इस योजना के दस साल पूरे होने पर जशन मनाए हैं। लेकिन वास्तव में इस योजना के दस सालों ने हुक्मरानों के दावों की पोल खोल कर रख दी है।

mnregaग्रामीण रोजगारी गारण्टी कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे गाँवों में बेरोजगारी व गरीबी का खात्मा हो सकता हो। इस कानून के तहत 100 दिनों के रोजगार की गारण्टी का वादा किया गया है। इसके तहत सरकार रोजगार की कम और बेरोजगारी की अधिक गारण्टी करती है! सरकार इस कानून के तहत ऐलान कर चुकी है 100 दिनों से अधिक रोजगार का तो यह वादा भी नहीं कर सकती! लेकिन जितने रोजगार का वादा किया भी गया था उस वादे पर भी खरा नहीं उतरा गया। जनविरोधी सरकारों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। सरकारें चाहे कांग्रेस की रही हों चाहे भाजपा की या अन्य पार्टियों की, सभी के बारे में यही सच है।

2 फरवरी 2006 को इस योजना को देश के 200 जिलों में लागू किया गया था। साल 2007-08 में इसे 130 अन्य जिलों और फिर 1 अप्रेल 2008 से देश के सभी जिलों (593) में लागू किया गया। आज हालत यह है कि यह योजना फण्डों की कमी और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है। 100 दिनों के रोजगार का वादा किया गया था लेकिन साल 2006-07 से 2014-15 तक कुल ग्रामीण परिवारों के एक चौथाई परिवारों को प्रति परिवार रोजगार 54 दिनों से कभी ऊपर गया ही नहीं। औसतन 40-45 दिनों (डेढ महीना!) का ही काम मिलता रहा है। साल 2014-015 में तो यह औसत सिर्फ 39.3 थी। साल 2006-07 में इस योजना के लिए 8823.4 करोड़ रुपए रखे गये थे जब इस 200 जिलों में लागू किया गया था।

साल 2006-07 में इस योजना के लिए 8823.4 करोड़ रुपए खर्च किये गये थे जब यह योजना 200 जिलों में लागू की गयी थी। साल 2014-15 के लिए 31780 रुपए देश के सभी जिलों के लिए खर्च किये गये थे। देखने में यह खर्च बढ़ा हुआ दिखाई देता है लेकिन ऐसा है नहीं। अगर हम 2006-07 की कीमतों के मुताबिक देखें तो वास्तव में खर्च की गयी राषि कम हो गयी है। साल 2006-07 की कीमतों के हिसाब से देखें तो अगर साल 2006-07 में एक जिले के लिए औसतन 44.12 करोड़ रुपए खर्च किये गये थे तो सन 2014-15 में एक जिले के लिए औसतन 25.3 करोड़ रुपए ही खर्च किये गये हैं।

साल 2015-16 के लिए कुल कितना खर्च किया गया है इसका अभी पता चलना है लेकिन मोदी सरकार ने इसके लिए 36026 करोड़ रुपए रखे थे जो कि साल 2006-07 की कीमतों के हिसाब से प्रति जिला लगभग 30 करोड़ रुपए ही बनते हैं। साल 2016-07 के लिए मोदी सरकार ने केन्द्रीय बजट में 38500 करोड़ रुपए रखे हैं। मोदी सरकार दावा कर रही है कि उसने पिछले सालों से अधिक राषि जारी की है। लेकिन यह सच नहीं है। अगर साल 2006-07 की कीमतों के हिसाब से देखा जाये तो यह राषि भी साल 2006-07 के लिए किये गये खर्च से काफी कम है।

मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान साल 2014-15 में 166 करोड़ और 2015-16 में 187 करोड़ नरेगा काम दिहाड़ियाँ लगी हैं। पिछले सालों से यह काफी कम हैं। साल 2016-17 के लिए 146 करोड़ काम दिहाड़ियों की ही उम्मीद की जा रही है। इस तरह मोदी राज में ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना का और भी बुरा हाल देखने में मिल रहा है।

खर्च किये गये पैसे में से कितने गरीब लोगों तक पहुँच पाते हैं इसके बारे में ठीक ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। नकली जॉब कार्डों के आधार पर सरकारी मशीनरी बहुत सारा पैसा निगलती रही है। इसके अलावा नरेगा मज़दूरों को किये काम के पैसे लेने के लिए भी छः-छः महीने इंतजार करना पड़ता रहा है। जॉब कार्ड बनवाने के लिए घूस देनी पड़ती है। मुकाबलतन अधिक गरीबी वाले क्षेत्रों को कम पैसा मिलता रहा है।

केन्द्र की मोदी सरकार और राज्यों में भाजपा, कांग्रेस व अन्य पार्टियों की सरकारें उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को जोर-शोर से लागू कर रही हैं। लोगों को सरकार की और से दी जाने वाली सहूलतों पर कुल्हाड़ा चलाया जा रहा है। ऐसी हालत में सरकारों से ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना के तहत लोगों को राहत पहुँचाने के लिए सुधारों की उम्मीद करना बेवकूफी होगी। लेकिन नरेगा मजदूरों द्वारा एकजुट होकर अगर आन्दोलन किया जाता है तो सुधार हो सकते हैं।

इस योजना के कानून के तहत जो वादे किये गये हैं उन्हें तात्कालिक माँगें बनाकर संघर्ष किया जाना चाहिए। ऐसी कोशिशें हो भी रही हैं। लेकिन ये बहुत सीमित हैं। और इन्हें तेज करना होगा। कानून के तहत जो वादे किये गये हैं हमें उन तक भी सीमित नहीं रहना चाहिए। कानून का दायरा बढ़ाने के लिए संघर्ष करना होगा। रोजगार की गारण्टी सारे साल के लिए होनी चाहिए। केजुयल, बीमारियों, त्योहारों, राष्ट्रीय दिनों आदि की वेतन सहित छुट्टियाँ, ई.एस.आई., पीएफ. आदि सभी श्रम अधिकार नरेगा मज़दूरों को कानूनी तौर पर मिलने चाहिए। इसे साथ ही शहरी रोजगार गारण्टी योजना लागू करवाने के लिए भी शहरी आबादी को आगे आना चाहिए। हम मानते हैं कि रोजगार का हक हरेक नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है। हर श्रम योग्य व्यक्ति को काम मिलना चाहिए। शहरों-गाँवों के लोगों को रोजगार गारण्टी के लिए विशाल संघर्ष लड़ना होगा। सरकारें, पूँजीवादी अर्थशास्त्री-बुद्धिजीवी कुतर्क करेंगे कि इसके लिए पैसा कहाँ से आयेगा। इसके लिए पैसा सरकार के पास पूँजीपतियों पर टेक्स लगाकर आयेगा। पूँजीपतियों को सरकारों की तरफ से दी जाने वाली सब्सिडियों और कर्ज माफियाँ खत्म करके आयेगा। देशों-विदेशों में भारतीय धन्नासेठों के पड़े काले धन के जखीरों को कब्जे में करके आयेगा। लोगों को रोजगार की गारण्टी करने के लिए धन के स्रोतों की कोई कमी नहीं है। मगर इसके लिए जनता जब एकजुट होकर सरकारों की गर्दन पर घुटना रखेगी तो सारी कमियाँ दूर करवा लेगी।

मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2016


 

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