Category Archives: कला-साहित्‍य

उम्मीद है, आएगा वह दिन (उपन्यास अंश)

इसके पहले के किसी भी उपन्यास में किसी औद्योगिक संघर्ष का इतना विस्तृत और प्रामाणिक चित्रण नहीं मिलता । यहाँ तक कि बीसवीं शताब्दी में भी ऐसे गिने–चुने उपन्यास ही देखने को मिलते हैं जो इस मायने में ‘उम्मीद है, आएगा वह दिन’ के आसपास ठहरते हों ।

त्रिलोचन की कविताएँ

पथ पर
चलते रहो निरन्तर
सूनापन हो
या निर्जन हो
पथ पुकारता है।
गत स्वप्न हो
पथिक
चरण-ध्वनि से
दो उत्तर
पथ पर
चलते रहो निरन्तर

कविता – भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की / शंकर शैलेन्‍द्र

भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की.

लोग लोहे की दीवारों वाले मकान में कैद हैं / लू शुन

“कल्पना करो, लोहे की मोटी दीवारों वाला मकान है। न कोई दरवाजा है और न खिड़की या रोशनदान। वायु के लिए कोई मार्ग नहीं है। दीवारें बिल्कुल दुर्भेद्य हैं। मकान में बहुत से लोग बेसुध सोये हुए हैं। निश्चय ही वे लोग दम घुटकर मर जायेंगे। परन्तु बेसुधी से मरेंगे इसलिए उन्हें कोई कष्ट अनुभव नहीं होगा। तुम चीख–चिल्लाकर उन्हें जगाना चाहो तो संभव है कुछ एक की नींद उचट भी जाये। दम घुटने से उनकी मृत्यु निश्चित है। यदि कुछ अभागे जाग जायें और निश्चित मृत्यु की यातना अनुभव करें तो इससे उनका क्या भला होगा?”

चेलो परिवार की कहानी – मेक्सिको के एक परिवार की कहानी जो हर गरीब देश की सच्चाई है

डेविड वर्नर एक डाक्टर थे जिन्होंने अपने ज्ञान को बेचकर सम्पत्ति खड़ी करने के बजाय उन लोगों की सेवा में लगाया जिन्हें उसकी सबसे अधिक जरूरत थी। करीब बीस वर्ष पहले उन्होंने मेक्सिको के एक पिछड़े इलाके के गाँवों में लोगों के स्वास्थ्य–सुधार के लिए काम करना शुरू किया था। उन्होंने गाँवों में स्वास्थ्य केन्द्र खोले जिन्हें सामाजिक कार्यकर्त्ता संचालित करते थे। शुरू में वे लोगों की बीमारियों और उनके खराब स्वास्थ्य का कारण गंदगी, प्रदूषण, पौष्टिक भोजन की कमी आदि में खोजते थे। लेकिन लोगों के बीच में रहते–रहते धीरे–धीरे उन्होंने देखा कि इसके कारण सिर्फ तात्कालिक नहीं हैं बल्कि उस सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था में निहित हैं जो जनता की गरीबी, बदहाली, अज्ञान और जीवन की बेहद कठिन परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी है। उनकी लिखी पुस्तकें-‘जहाँ डाक्टर न हो’, ‘स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं से’ आदि तमाम गरीब मुल्कों में काम कर रहे सामाजिक–राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के लिए बहुत उपयोगी हैं। यहाँ हम उनके अनुभवों का एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं। यदि नाम बदल दिये जायें तो यह भारत के गाँवों के किसी भी गरीब परिवार की कहानी से अलग नहीं होगी। -संपादक

बकलमे–खुद : कहानी – मालिक / तपीश

‘मुसीबत तो यह है कि तुम्हारी उम्र के छोकरे कुछ सुनते–समझते नहीं। अभी कल ही की बात है, मेरे पड़ोस में रहने वाले धन्ना को इस सनक की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।’ उसने कहना जारी रखा, ‘अरे अमीर बनने का प्रेत अगर सिर चढ़ जाये तो भगवान भी नहीं बचा सकता। उसने न जाने कहाँ–कहाँ से उधार–कर्म करके किसी कमेटी में पैसा लगाया, बाद में पता चला कि कमेटी वाले पैसा लेकर रफूचक्कर हो गये।’

पंजाबी कहानी – नहीं, हमें कोई तकलीफ नहीं – अजीत कौर, अनुवाद – सुभाष नीरव

एक सुखद आश्चर्य का अहसास कराती पंजाबी लेखिका अजीत कौर की यह कहानी ‘कथादेश’ के मई 2004 के अंक में पढ़ने को मिली। कहानी में भारतीय समाज के जिस यथार्थ को उकेरा गया है वह कोई अपवाद नहीं वरन एक प्रतिनिधि यथार्थ है। भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में आज देश के तमाम औद्योगिक महानगरों में करोड़ों मजदूर जिस बर्बर पूँजीवादी शोषण–उत्पीड़न के शिकार हैं, यह कहानी उसकी एक प्रातिनिधिक तस्वीर पेश करती है। इसे एक विडम्बना के सिवा क्या कहा जाये कि तमाम दावेदारियों के बावजूद हिन्दी की प्रगतिशील कहानी के मानचित्र में भारतीय समाज का यह यथार्थ लगभग अनुपस्थित है, जबकि हिन्दी के कई कहानीकार औद्योगिक महानगरों में रहते हुए रचनारत हैं। हिन्दी की प्रगतिशील कहानी के मर्मज्ञ कहानी के इकहरेपन या सपाटबयानी के बारे में बड़ी विद्वतापूर्ण बातें बघार सकते हैं लेकिन इससे यह सवाल दब नहीं सकता कि आखिर हिन्दी कहानी इस प्रतिनिधि यथार्थ से अब तक क्यों नजरें चुराये हुए है? बहरहाल ‘बिगुल’ के पाठकों के लिये यह कहानी प्रस्तुत है। पाठक स्वयं कहानी में मौजूद यथार्थ के ताप को महसूस कर सकते हैं। – सम्पादक

‘हम भ्रम की चादर फैलाते हैं…’ – ‘आदिविद्रोही’ उपन्‍यास का एक अंश

उपन्यास के इस प्रसंग में सिसेरो और ग्रैकस नामक दो रोमनों की बातचीत है । ये दोनों गुलामों पर टिके रोमन साम्राज्य की सत्ता के दो स्तम्भ थे । सिसेरो दास व्यवस्था का समर्थन करने वाला विचारक और प्रखर वक्ता था और ग्रैकस एक घाघ राजनीतिज्ञ । यहाँ ग्रैकस शासक वर्गाें के राजनेताओं की बेहयाई भरी स्पष्टवादिता के साथ बताता है कि लूट, शोषण और दासता पर आधारित समाज व्यवस्था के चलते रहने के लिये उस जैसे फरेबी राजनीतिज्ञों की भूमिका कितनी जरूरी होती है । शासक वर्गों के राजनीतिज्ञों की जो भूमिका हजारों साल पहले दास समाज में थी, आज के पूँजीवादी समाज में भी वही है–यानी, आम जनता को भरमाए रखना ताकि वह अन्याय और अत्याचार के खिलाफ न उठ खड़ी हो और अपने ही शोषकों का काम आसान करती रहे ।

बकलमे–खुद : कहानी – नये साल की छुट्टी / मानस कुमार

फैक्टरी की छत पर मालिक के भाषण का इंतजाम किया जा रहा था। लाइनों में कुर्सियां बिछाईं गईं। इन पर कम्पनी के स्टाफ को बैठना था। दूसरी तरफ टाट व दरी बिछाई गई, जिन पर मजदूरों को बैठना था। सामने गद्दे वाली कुर्सियां, मेज तथा मेज पर फूलों का गुलदस्ता रखा गया। पास में एक छोटी मेज पर दिया जलाने वाला स्टैण्ड रख दिया गया। उसके तीन तरफ कांच की दीवार खड़ी कर दी गयी ताकि जब दीयों को जलाया जाये तो हवा लग कर बुझ न जाये। गद्देवाली कुर्सियों पर उन रेंगते हुए, पिलपिले, तोंदियल, परजीवी कीड़ों (फैक्टरी मालिकों) को बैठना था।

कविता – बीज तुम बोते हो, काटते हैं दूसरे ही… / पर्सी बिषी शेली

क्यों तुम भू–स्वामियों के हेतु
भूमि जोतते हो,
दे रहे जो नीची से नीची स्थिति तुम्हें?
क्यों तुम उन स्वामियों के हेतु
बुन रहे हो यह
नूतन आकर्षक वस्त्र्
पटुता से, अथक परिश्रम से;
जिससे उन वस्त्रों को, जो कि बहुमूल्य हैं,
क्रूर वे शासक–गण गौरव से पहनें?