माओ त्से-तुङ की दो कविताएँ

अनुवाद एवं टिप्पणियाँ: सत्यव्रत

चिङकाङशान पर फिर से चढ़ते हुए[1]

मई 1965

बहुत दिनों से आकांक्षा रही है
बादलों को छूने की
और आज फिर से चढ़ रहा हूं
चिङकाङशान पर।
फिर से अपने उसी पुराने ठिकाने को
देखने की गरज से
आता हूं लम्बी दूरी तय करके,
पाता हूं नये दृश्य पुराने दृश्यों की जगह पर।
यहाँ-वहां गाते हैं ओरिओल,
तीर की तरह उड़ते हैं अबाबील,
सोते मचलते हैं
और सड़क जाती है ऊपर आसमान की ओर।
एक बार पार हो जाये हुआङऊयाङचिएह
फिर नहीं नजर आती और कोई जगह खतरनाक।

मथ रही है हवाएं और बिजलियां
लहरा रहे हैं झण्डे और बैनर
जहां कहीं भी रहता है इंसान।
चुटकी बजाते उड़ गये अड़तीस साल।
भींच सकते हैं हम चांद को नवें आसमान में
और पकड़ सकते हैं कछुए
पांच महासमुद्रों की गहराइयों में:
विजयोल्लास भरे गीतों और हंसी के बीच
हम लौटेंगे।
साहस हो यदि ऊंचाइयों को नापने का,
कुछ भी नहीं है असम्भव इस दुनिया में।

दो पक्षी: एक संवाद[2]

शरद 1965

पंख पसारे खुनफङ पक्षी[3] ऊपर उड़ जाता है
दूर आकाश में नब्बे हजार ली की ऊंचाई पर
उठाता हुआ प्रचण्ड चक्रवाती झंझावात।
नीले आकाश को उठाये हुए पीठ पर,
देखता है वह नीचे,
एक नजर डालता है इंसान की दुनिया पर
उसकी बस्तियों और शहरों पर।
बन्दूकों से निकली आग चाट रही है आसमान
तोप के गोले धरती पर गड्ढे बना रहे हैं।
आतंकित-स्तम्भित दुबकी है झाड़ी में एक गौरैया।
‘‘अरे, यह तो नर्क है अव्यवस्था का।
उफ ! मैं तो भाग जाना चाहती हूं उड़कर
यहाँ से दूर बहुत दूर।’’

‘‘आखिर कहां ? जरा मैं भी तो जानूं !’’
उत्तर देती है गौरैया: ‘‘जाऊंगी मैं
परी देश की पहाड़ियों में, रत्नजटित महल है जहां।
पता नहीं क्या तुमको
दो वर्ष पहले की बात,
कि हस्ताक्षर हुए थे एक त्रिपक्षीय सन्धि[4] पर
शरद के चांद के उज्ज्वल प्रकाश में?
मिलेंगे वहां गोश्त भरे आलू गरमागरम[5]
जी भर कर खाने को।’’
‘‘बन्द करो अपनी यह बेतुकी बकवास।
उधर देखो,
उलट-पुलट दी जा रही है
पूरी की पूरी दुनिया।’’

[1] माओ ने यह सुप्रसिद्ध कविता उस समय लिखी थी जब चीन में पार्टी के भीतर मौजूद पूंजीवादी पथगामियों (दक्षिणपंथियों को यह संज्ञा उसी समय दी गई थी) के विरुद्ध एक प्रचण्ड क्रान्ति के विस्फोट की पूर्वपीठिका तैयार हो रही थी। महान समाजवादी शिक्षा आन्दोलन के रूप में संघर्ष स्पष्ट हो चुका था। युद्ध की रेखा खिंच गई थी। यह 1966 में शुरू हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वबेला थी जिसने पूंजीवादी पथगामियों के बुर्जुआ हेडक्वार्टरों पर खुले हमले का ऐलान किया था। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति ने पहली बार सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत क्रान्ति और अधिरचना में क्रान्ति का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और इसे पूंजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का एकमात्र उपाय बताते हुए समाजवाद संक्रमण की दीर्घावधि के लिए एक आम कार्यदिशा दी। इसके सैद्धान्तिक सूत्रीकरणों की प्रस्तृति 1964.65 में ही की जाने लगी थी।

इस कविता में भावी युगान्तरकारी क्रान्ति की पदचापें स्पष्टतः ध्वनित होती हैं। चिङकाङशान में पहली बार देहाती आधार इलाकों का निर्माण हुआ था, भूमि क्रान्ति के प्राथमिक प्रयोग हुए थे, लाल सेना का जन्म हुआ था और यहीं से दीर्घकालिक लोकयुद्ध का मार्ग प्रशस्त हुआ था। यह चीनी क्रान्ति का एक प्रतीकचिन्ह था। 1965 में एक नई क्रान्ति के तूफान का आवाहन करते हुए माओ चिङकाङशान पर फिर से चढ़ने का वर्णन करते हुए एक बार फिर उन दिनों को याद करते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं। चिङ काङ शान पर फिर से चढ़ना एक और युगान्तरकारी क्रान्तिकारी संघर्ष की तैयारी का प्रतीक है। इस कविता में सर्वहारा साहस, संकल्प और आशावाद की सान्द्र अभिव्यक्ति सामने आई है।

[2] इस कविता में ख्रुश्‍चेवी संशोधनवाद द्वारा नाभिकीय महाविनाश का हौवा खड़ा करके दुनिया भर की मुक्तिकामी जनता को डराने और अपना संघर्ष स्थगित कर देने की सलाह देने तथा साम्राज्यवादियों के सामने घुटने टेकने की खिल्ली उड़ाई गई है। इस समय तक ख्रुश्चेव का पतन हो चुका था पर अभी सोवियत संघ और अमेरिका के बीच अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा उग्र रूप में शुरू नहीं हुई थी। अभी मुख्य पक्ष यह था कि सोवियत जनता, चीनी क्रान्ति और दुनिया भर में जारी मुक्ति संघर्षों के खिलाफ, सोवियत सत्ता के नये बुर्जुआ स्वामी पश्चिमी साम्राज्यवाद के साथ न केवल हाथ मिलाये हुए थे बल्कि घुटने भी टेक रहे थे।

कविता में उल्लिखित खुनफङ पक्षी सर्वहारा वर्ग और सर्वहारा आशावाद का प्रतीक है जबकि भयाक्रान्त गौरैया ख्रुश्‍चेवी संशोधनवाद और हर तरह की संशोधनवादी कायरता का प्रतीक है।

[3] खुनफङ पक्षी का उल्लेख चीन की एक प्राचीन नीतिकथा में इस प्रकार मिलता है: ‘‘उत्तरी सागर में खुन नाम की एक मछली थी, जिसका आकार इतना बड़ा था कि उसकी लम्बाई-चौड़ाई कई हजार ली तक फैली हुई थी। बाद में उसने एक पक्षी का रूप धारण कर लिया और उसका नाम फङ पड़ गया। इस पक्षी की पीठ की लम्बाई भी कई हजार ली थी। एक बार वह गुस्से में भरकर उड़ने लगा तो उसके पंख आकाश में फैले बादलों की तरह दिखाई देने लगे। … वह उड़ता-उड़ता नब्बे हजार ली की ऊंचाई पर पहुंच गया।… वह अपनी पीठ पर समूचा आसमान उठाये था। कोई न तो उसे क्षति पहुंचा सकता था और न उसके रास्ते में बाधा ही डाल सकता था।…’’

[4] यहाँ अभिप्राय त्रिपक्षीय नाभिकीय परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि से है जिस पर 5 अगस्त 1963 को अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ के विदेश मंत्रियों ने मास्को में हस्ताक्षर किये थे।

[5] यहाँ अभिप्राय ख्रुश्‍चेव के नकली कम्युनिज्म यानी गुलाश कम्युनिज्म से है।


 

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