Category Archives: सम्‍पादकीय

मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन की सफ़लता का एक ही रास्ता आन्दोलन को कारख़ाने की चौहद्दी से बाहर निकालो!

जब इस समूचे औद्योगिक क्षेत्र के मज़दूरों के मुद्दे एक हैं, उनकी समस्याएँ एक हैं, उनकी माँगें एक हैं, तो क्या उनका संघर्ष भी एक नहीं होना चाहिए? निश्चित तौर पर, आज मारुति सुज़ुकी कम्पनी में मुद्दा उठा है; 2005 में मुद्दा होण्डा में उठा था; उसके बाद रिको में; यह सूची अन्तहीन है! कल को मुद्दा किसी और कारख़ाने में होगा। लेकिन मुद्दे वही हैं! आज ज़रूरत इस बात की है कि मारुति सुज़ुकी के मज़दूर सीधे अन्य कारख़ानों के मज़दूरों का सक्रिय समर्थन हासिल करें! अन्य कारख़ानों के अपने साथियों के पास हमें दलाल ट्रेड यूनियनों के नेताओं-नौकरशाहों के ज़रिये जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। उनके पास जाने से हमें एक बार फिर से नपुंसक ज़ुबानी समर्थन मिल जायेगा, जिसका अब तक के हमारे आन्दोलन में कोई अर्थ नहीं रहा है। मारुति सुज़ुकी के संघर्षरत मज़दूरों को प्रचार टोलियाँ बनाकर अन्य कारख़ानों के मज़दूरों के बीच सीधे प्रचार के लिए जाना चाहिए, उन्हें बताना चाहिए कि हमारी समस्याएँ और माँगें एकसमान हैं; उन्हें बताना चाहिए कि आज मसला मारुति सुज़ुकी में उठा है, लेकिन कल यह उनके कारख़ानों में भी उठेगा; यह समझना चाहिए कि अगर आज से ही हम कारख़ाना-पारीय, सेक्टर-पारीय मज़दूर एकजुटता स्थापित नहीं करते, तो आज न तो मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों का संघर्ष जीता जा सकता है, और न ही कल अन्य किसी भी कारख़ाने के मज़दूरों का; उन्हें यह बताना चाहिए कि आज मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों के आन्दोलन को उनकी सक्रिय भागीदारी और समर्थन की ज़रूरत है क्योंकि इसके बिना यह आन्दोलन जीता नहीं जा सकता; उन्हें यह भी बताना होगा कि आज मारुति सुज़ुकी मज़दूर आन्दोलन की हार का अर्थ इस समूची औद्योगिक पट्टी के मज़दूरों की हार होगी! हमें पूरा यक़ीन है कि मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूर यदि इस प्रकार का सीधा प्रचार अभियान चलायें तो गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के औद्योगिक क्षेत्र की एक बड़ी मज़दूर आबादी का प्रत्यक्ष और सक्रिय समर्थन और भागीदारी उन्हें मिल सकती है। इसके बिना, यह आन्दोलन अपने मुक़ाम तक नहीं पहुँच सकता, और इसके बिना इस क्षेत्र का कोई भी भावी आन्दोलन शायद ही सफलता हासिल करे।

मज़दूरों के ख़िलाफ़ एकजुट हैं पूँजी और सत्ता की सारी ताक़तें

मारुति सुज़ुकी जैसी घटना न देश में पहली बार हुई है और न ही यह आख़िरी होगी। न केवल पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में, बल्कि पूरे देश में हर तरह के अधिकारों से वंचित मज़दूर जिस तरह हड्डियाँ निचोड़ डालने वाले शोषण और भयानक दमघोंटू माहौल में काम करने और जीने को मजबूर कर दिये गये हैं, ऐसे में इस प्रकार के उग्र विरोध की घटनाएँ कहीं भी और कभी भी हो सकती हैं। इसीलिए इन घटनाओं के सभी पहलुओं को अच्छी तरह जानना-समझना और इनके अनुभव से अपने लिए ज़रूरी सबक़ निकालना हर जागरूक मज़दूर के लिए, और सभी मज़दूर संगठनकर्ताओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

अघोषित आपातकाल की तेज होती आहटें!

पिछले दो दशकों से जारी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के विनाशकारी नतीजों को झेल रहे जनसमुदाय में इस व्यवस्था के ख़िलाफ ग़ुस्सा तेज़ी से बढ़ रहा है। पिछले कई वर्षों से आसमान छू रही महँगाई ने आम लोगों की ज़िन्दगी दूभर कर दी है। रही-सही कोर-कसर एक के बाद एक फूट रहे घोटालों और सिर से पाँव तक भ्रष्टाचार में डूबी नेताशाही-नौकरशाही ने पूरी कर दी है। दिनोदिन गहराता पूँजीवादी आर्थिक संकट लोगों पर तकलीफों और बदहाली का और भी ज्यादा कहर बरपा करेगा इस बात को शासक वर्ग भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। आर्थिक नीतियों के नतीजे नंगे रूप में सामने आने के बाद सामाजिक विस्‍फोट की जो ज़मीन तैयार हो रही है, उसके भविष्य को भाँपते हुए शासक वर्ग अपने दमनतन्त्र को और भी निरंकुश बनाने में जुट गये हैं। इसमें ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि नवउदारवादी नीतियों के दौर में पूँजीवादी जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखाएँ भी धुँधली पड़ती जा रही हैं। भारत में भी पूँजीवादी जनवाद का ‘स्पेस’ लगातार सिकुड़ता जा रहा है और क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर पुलिस प्रशासन की भूमिका बढ़ती जा रही है।

संकट के दलदल में धँस रही भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान चाल-ढाल बता रही है कि आने वाले दिनों में इसका संकट और गहरायेगा। यह संकट भारत के मेहनतकश अवाम के लिए भी ढेरों मुसीबतें लेकर आयेगा। शासक वर्ग अपने संकट का बोझा मेहनतकश जनता की पीठ पर ही लादते हैं। उसे ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई में और अधिक बढ़ोत्तरी से इसकी क़ीमत चुकानी होगी। भारत के मेहनतकशों को भी इन हालात का सामना करने और संकट का बोझ जनता पर थोपने की कोशिशों के विरुद्ध लड़ने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी होगी।

मज़दूर आन्दोलन के क्रान्तिकारी पुनर्जागरण के लिए आगे बढ़ो! टुकड़ों-रियायतों के लिए नहीं, समूची आज़ादी के लिए लड़ो!

मज़दूर वर्ग को संगठित करने की तमाम वस्तुगत नयी चुनौतियों के साथ-साथ क्रान्तिकारी हरावलों के सामने एक मनोगत चुनौती भी आम तौर पर सामने आती है। मज़दूरों के बीच जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठनकर्ता, जो शुरुआती दौरों में अधिकांशत: मध्यवर्गीय सामाजिक पृष्ठभूमि से आते हैं, अपने वर्गीय विचारधारात्मक विचलनों-भटकावों का शिकार होकर अर्थवाद, उदारतावाद और लोकरंजकतावाद के गड्ढे में जा गिरते हैं। उनके वर्गीय जड़-संस्कारों के चलते मज़दूरों की तात्कालिक आर्थिक लड़ाइयाँ या ट्रेड यूनियन क़वायदें राजनीतिक कार्य का स्थानापन्न बन जाती हैं। ये संगठनकर्ता भूल जाते हैं कि वे मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावल हैं और आम मज़दूरों के तात्कालिक आर्थिक हितों के दबावों के आगे घुटने टेक देते हैं। उनका सर्वहारा मानवतावाद बुर्जुआ मानवतावाद में बदल जाता है और क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्यों का स्थान अर्थवादी-सुधारवादी कदमताल ले लेते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ऐसे संगठनकर्ता अपनी इस रूटीनी कवायदों में इस क़दर मगन हो जाते हैं उन्हें यही मज़दूरों के बीच असली क्रान्तिकारी कार्य लगने लगता है और क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्य लफ्फ़ाज़ी लगने लगती है। इस आत्मगत चुनौती को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। देश का क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन आज जिस शुरुआती मुकाम पर खड़ा है वहाँ इन भटकावों के लिए बेहद अनुकूल ज़मीन मौजूद है। मज़दूरों के क्रान्तिकारी हिरावलों का जो समूह इस चुनौती की भी ठीक से पहचान कर पायेगा और सही क्रान्तिकारी सांगठनिक पद्धति से उसका मुकाबला करेगा वही मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्य को आगे बढ़ाते हुए व्‍यावहारिक रूप से संगठित कर पायेगा।

पूँजीपतियों की सेवा में एक और बजट

इस बजट में जहाँ अमीरों के लिए राहत है वहीं ग़रीबों के लिए आफ़त है। यह अमीरों को और अमीर बनाने वाला और ग़रीबों को और अधिक निचोड़ने वाला बजट है। सरकार की ऐसी नीतियाँ समाज के भीतर वर्ग ध्रुवीकरण को लगातार तीख़ा कर रही हैं जिसके नतीजे के तौर पर सामाजिक हालात लगातार विस्फोटक होते जा रहे हैं। बढ़ती ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, अन्याय, अपमान के विरुद्ध मेहनतकशों के ग़ुस्से के सम्भावित विस्फोटों से भी देश के हुक्मरान चिन्तित हैं। ऐसी हर परिस्थिति से निपटने के लिए भी वे पहले से ही तैयारी कर रहे हैं। यही मुख्य वजह है कि इस बजट में रक्षा बजट में भारी बढ़ोत्तरी की गयी है और भविष्य में और भी बढ़ाने की तैयारी की जा रही है। 2012-13 के रक्षा बजट के लिए 1.93 लाख करोड़ की रक़म रखी गयी है जो कि कुल घरेलू उत्पादन के 1.90 प्रतिशत के क़रीब है। निकट भविष्य में सरकार की योजना इसे बढ़ाकर ढाई लाख करोड़ करने की है। रक्षा बजट में इस बड़ी बढ़ोत्तरी के लिए चीन से ख़तरे का बहाना बनाया गया है। लेकिन इस देश के लुटेरे हुक्मरानों को वास्तविक ख़तरा बाहरी नहीं है बल्कि छह दशकों से लूट-दमन की मार झेलते आ रहे मेहनतकशों से है, जिनके सब्र का प्याला लगातार भरता जा रहा है। इस देश के हुक्मरानों को दिन-रात इस देश के करोड़ों मेहनतकशों के इस दमनकारी-अन्यायपूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का डर सताता रहता है। उनका यह सम्भावित डर कब एक हक़ीक़त बनेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।

गहराते जन-असन्तोष से निपटने के लिए दमनतन्‍त्र को मज़बूत बनाने में जुटे हैं लुटेरे शासक वर्ग

यह अघोषित आपातकाल की आहट है। यह निरंकुश दमनतन्त्र संगठित करने की सुनियोजित कार्ययोजना का पहला चरण है। मेहनतकश जनसमुदाय को और नागरिक आज़ादी एवं जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए संकल्पबद्ध बुद्धिजीवियों को एकजुट होकर उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी होगी। शासक वर्ग ने भविष्य के मद्देनज़र अपनी तैयारियाँ तेज़ कर दी है। मेहनतकश जनसमुदाय की हरावल पाँतों को भी अपनी तैयारियाँ तेज़ कर देनी होंगी।

अण्णा हज़ारे का आन्दोलन झूठी उम्मीद जगाता है

यदि कोई सामाजिक क्रान्ति आर्थिक सम्बन्धों में आमूलगामी बदलाव की बात नहीं करती, यदि मुट्ठीभर लोगों का उत्पादन के सभी साधनों पर एकाधिकार बना रहता है और समाज की बहुसंख्यक आबादी महज़ उनके लिए मुनाफ़ा पैदा करने के लिए जीती रहती है तो किसी भी तरह की ऊपरी पैबन्दसाज़ी से भ्रष्टाचार जैसी समस्या दूर नहीं हो सकती। यदि कोई आमूलगामी क्रान्ति उत्पादन के साधनों को मुट्ठीभर मुनाफ़ाख़ोरों के हाथों से छीनकर जनता के हाथों में नहीं देती, परजीवी पूँजी के तमाम गढ़ों, शेयर बाज़ारों आदि पर ताले नहीं लटका देती, भारत जैसे देशों में होने वाली कोई क्रान्ति अगर सारे विदेशी कर्ज़ों को मंसूख़ नहीं करती, सारी विदेशी पूँजी को ज़ब्त करके जनता के हाथों में नहीं सौंप देती, नीचे से ऊपर तक सारे प्रशासकीय ढाँचे को ध्वस्त कर उसका नये सिरे से पुनर्गठन नहीं करती तो न सिर्फ़ समाज में असमानता, अन्याय और अत्याचार बने रहेंगे बल्कि हर स्तर पर वह भ्रष्टाचार भी बना रहेगा जिसे अण्णा हज़ारे और उनकी टीम महज़ एक क़ानून बनाकर दूर करने के दावे कर रही है।

बेहिसाब बढ़ती महँगाई सरकार की लुटेरी नीतियों का नतीजा है

महँगाई की असली वजह यह है कि खेती की उपज के कारोबार पर बड़े व्यापारियों, सटोरियों और कालाबाज़ारियों का कब्ज़ा है। ये ही जिन्सों (चीज़ों) के दाम तय करते हैं और जानबूझकर बाज़ार में कमी पैदा करके चीज़ों के दाम बढ़ाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कृषि उपज और खुदरा कारोबार के क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के लिए खोल देने के सरकार के फैसले से स्थिति और बिगड़ गयी है। अपनी भारी पूँजी और ताक़त के बल पर ये कम्पनियाँ बाज़ार पर पूरा नियन्‍त्रण कायम कर सकती हैं और मनमानी कीमतें तय कर सकती हैं। पूँजीवादी नीतियों के कारण अनाजों के उत्पादन में कमी आती जा रही है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आज खेती संकट में है। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले खेती का पिछड़ना तो लाज़िमी ही होता है लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। अमीर देशों की सरकारें अपने फार्मरों को भारी सब्सिडी देकर खेती को मुनाफे का सौदा बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में सरकारी उपेक्षा और पूँजी की मार ने छोटे और मझोले किसानों की कमर तोड़ दी है। साम्राज्यवादी देशों की एग्रीबिज़नेस कम्पनियों और देशी उद्योगपतियों की मुनाफाखोरी से खेती की लागतें लगातार बढ़ रही हैं और बहुत बड़ी किसान आबादी के लिए खेती करके जी पाना मुश्किल होता जा रहा है। इसका सीधा असर उन देशों में खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है।

ऐतिहासिक मई दिवस से मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के नये दौर की शुरुआत

पिछली 1 मई को नई दिल्ली के जन्तर-मन्तर का इलाक़ा लाल हो उठा था। दूर-दूर तक मज़दूरों के हाथों में लहराते सैकड़ों लाल झण्डों, बैनर, तख्तियों और मज़दूरों के सिरों पर बँधी लाल पट्टियों से पूरा माहौल लाल रंग के जुझारू तेवर से सरगर्म हो उठा। देश के अलग-अलग हिस्सों से उमड़े ये हज़ारों मज़दूर ऐतिहासिक मई दिवस की 125वीं वर्षगाँठ के मौक़े पर मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन 2011 क़े आह्वान पर हज़ारों मज़दूरों के हस्ताक्षरों वाला माँगपत्रक लेकर संसद के दरवाज़े पर अपनी पहली दस्तक देने आये थे।