अघोषित आपातकाल की तेज होती आहटें!
गहराते पूँजीवादी संकट और आक्रामक लुटेरी नीतियों के परिणामों से डरे हुए शासक वर्ग विरोध की हर सम्भावना को कुचलने की तैयारी में हैं
इसका मुक़ाबला आनुष्ठानिक विरोध से नहीं हो सकता, जनवादी अधिकारों पर व्यापक जनान्दोलन संगठित करने का समय आ चुका है! 

सम्पादक मण्डल

हाल के दिनों की कुछ घटनाएँ इस बात का संकेत हैं कि शासक वर्ग अपने ख़िलाफ उठने वाली हर आवाज़ को दबा देने पर किस कदर आमादा हैं। पिछली 10 जुलाई को इलाहाबाद की एक अदालत ने पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी। ज्ञातव्य है कि इन दोनों को फरवरी 2010 में ”प्रतिबन्धित साहित्य” रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और पिछले 40 महीने से वे जेल में ही हैं। आज तक पुलिस उनके ख़िलाफ ऐसा कोई सबूत पेश नहीं कर पायी है जिससे देशद्रोही गतिविधियों में उनका लिप्त होना साबित होता हो। बर्बर सामूहिक हत्याओं के दोषियों को भी आसानी से ज़मानत दे देनी वाली अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर भी कान नहीं दिया जिसमें साफ कहा गया है कि किसी व्यक्ति के पास अगर माओवादी साहित्य मिलता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसे माओवादी मान लिया जाए। इससे पहले अनूप भुइयां बनाम असम सरकार के मुकदमे में न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू और न्यायाधीश ज्ञानसुधा मिश्र ने अपने फैसले में कहा था कि किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य होने मात्र से किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं कहा जा सकता जब तक वह हिंसा में लिप्त न हो या लोगों को हिंसा के लिए उकसा न रहा हो या सार्वजनिक तौर पर अव्यवस्था न फैला रहा हो या हिंसा को बढ़ावा न दे रहा हो। स्पष्ट है कि यह फैसला उन लोगों के लिए एक चेतावनी है जो राज्य की बढ़ती जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ लड़ रहे हैं या उनका पर्दाफाश कर रहे हैं।

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में 28 जून को केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल ने एक गाँव में रात को बैठकर फसल बुवाई के बारे में बात कर रहे लोगों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाकर 20 लोगों को मार डाला। इसमें 15 वर्ष से कम उम्र के सात बच्चे और महिलाएँ भी थीं। ख़ुद केन्द्र सरकार में आदिवासी मामलों के मंत्री के.पी. सिंह देव ने भी इसे ‘फर्ज़ी मुठभेड़ में की गयी निर्मम हत्याएँ’ करार दिया है। मगर गृहमंत्री चिदम्बरम हृदयहीन बेशर्मी और उद्दण्डता के साथ अड़े हुए हैं कि मरने वालों में ”माओवादी” शामिल थे। पिछले कई वर्ष से राज्य और केन्द्र के सशस्त्र बल छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के ख़िलाफ एक बर्बर युद्ध छेड़े हुए हैं। ”माओवादी आतंकवाद” से निपटने के नाम पर उनका असली मकसद उन इलाक़ों में ज़मीन के नीचे दबी खरबों रुपये की खनिज सम्पदा को टाटा, बिड़ला, एस्सार आदि देशी पूँजीपतियों और आँख गड़ाये बैठी अनेक विदेशी कम्पनियों के लिए सुरक्षित करना है। ख़ुद भारत सरकार की एक रिपोर्ट इसे कोलम्बस के बाद से अब तक का सबसे बड़ा ‘ज़मीन हड़पो अभियान’ घोषित कर चुकी है। बीजापुर की घटना और उस पर सरकारी प्रतिक्रिया का भी सन्देश एकदम साफ है — देशी-विदेशी लुटेरी पूँजी के हित में जारी सरकारी अश्वमेध के घोड़े की राह में जो भी आयेगा उसे कुचल दिया जायेगा!

on repression of state

पिछले फरवरी में केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केन्द्र (एनसीटीसी) के गठन की अधिसूचना जारी की थी तो विरोधी पार्टियों और कई राज्यों की ग़ैर-कांग्रेसी सरकारों ने इस नयी खुफिया एजेंसी के कुछ प्रावधानों को लेकर विरोध जताया था। उस वक्त इसे टाल दिया गया था लेकिन तय ही था कि उनकी आशंकाओं को दूर करके इसे जल्दी ही लागू कर दिया जायेगा क्योंकि जिस मक़सद से इसे लाया जा रहा है उस पर शासक वर्ग के सभी धड़ों की आम सहमति है। पिछले दिनों केन्द्र सरकार ने कहा कि वह एनसीटीसी को आईबी से अलग करने पर तैयार है जिस पर कई पक्षों को आपत्ति थी। जल्दी ही इसके अमल में आने का रास्ता भी साफ हो जायेगा। एनसीटीसी जिस यूएपीए के तहत काम करेगा वह एक घनघोर जनविरोधी काला क़ानून है। 1967 में बने इस क़ानून में 2009 में संशोधन करके इसे ”आतंकवाद” से लड़ने के लिए नये धारदार दाँतों और नाख़ूनों (सख्त प्रावधानों) से लैस किया गया था। इसके तहत पुलिस किसी को भी महज़ शक के आधार पर गिरफ्तार कर सकती है और आरोपियों को 180 दिन तक पुलिस हिरासत में रख सकती है। इस क़ानून ने जाँच एजेंसियों और पुलिस अधिकारियों के हाथ में ऐसे अधिकार दे दिये हैं जिनके दुरुपयोग की पूरी आशंका है। यह बुनियादी नागरिक स्वतंत्रताओं पर हमला करता है क्योंकि यह राज्यसत्ता के किसी भी तरीक़े के विरोध और वैचारिक मतभेदों को भी ”अपराध” की श्रेणी में रख देता है। इसमें ”आतंकवाद” और ”ग़ैरक़ानूनी” की परिभाषा इस ढंग से दी गयी है जिससे यथास्थिति को चुनौती देने वाले किसी भी व्यक्ति या संगठन को इसके दायरे में लाकर प्रताड़ित किया जा सकता है।

देश के अलग-अलग इलाक़ों में चल रहे जनान्दोलनों पर सरकारी दमन भी तेज़ होता गया है और पुलिस व सशस्त्र बलों को लोगों पर बेरोकटोक लाठियाँ-गोलियाँ बरसाने की खुली छूट दे दी गयी है। बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक और कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक इन मामलों में सभी पार्टियों और सभी राज्य सरकारों की केन्द्र के साथ पूरी सहमति है।

दरअसल, पिछले दो दशकों से जारी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के विनाशकारी नतीजों को झेल रहे जनसमुदाय में इस व्यवस्था के ख़िलाफ ग़ुस्सा तेज़ी से बढ़ रहा है। पिछले कई वर्षों से आसमान छू रही महँगाई ने आम लोगों की ज़िन्दगी दूभर कर दी है। रही-सही कोर-कसर एक के बाद एक फूट रहे घोटालों और सिर से पाँव तक भ्रष्टाचार में डूबी नेताशाही-नौकरशाही ने पूरी कर दी है। दिनोदिन गहराता पूँजीवादी आर्थिक संकट लोगों पर तकलीफों और बदहाली का और भी ज्यादा कहर बरपा करेगा इस बात को शासक वर्ग भी अच्छी तरह समझ रहे हैं। आर्थिक नीतियों के नतीजे नंगे रूप में सामने आने के बाद सामाजिक विस्‍फोट की जो ज़मीन तैयार हो रही है, उसके भविष्य को भाँपते हुए शासक वर्ग अपने दमनतन्त्र को और भी निरंकुश बनाने में जुट गये हैं। इसमें ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि नवउदारवादी नीतियों के दौर में पूँजीवादी जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखाएँ भी धुँधली पड़ती जा रही हैं। भारत में भी पूँजीवादी जनवाद का ‘स्पेस’ लगातार सिकुड़ता जा रहा है और क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर पुलिस प्रशासन की भूमिका बढ़ती जा रही है।

एक व्यापक आधार वाला जनवादी अधिकार आन्दोलन खड़ा करना वक्त क़ी माँग है!

आने वाले दिनों के अशनि संकेत इस ज़रूरत को और भी आसन्न बना रहे हैं कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को सघन एवं संगठित, सतत एवं सुदीर्घ, प्रचार और उद्वेलन की कार्रवाई के द्वारा एक व्यापक जनान्दोलन का स्वरूप दिया जाये। प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों के सीमित दायरे से बाहर लाकर इसके सामाजिक आधार का विस्तार करना होगा। ऐसा किये बिना देश के इस या उस कोने की जनता पर होने वाले राजकीय दमन और राजकीय आतंक की घटनाओं को व्यापक जनसमुदाय की निगाहों में नहीं लाया जा सकेगा और उन्हें व्यापक जन-प्रतिरोध का मुद्दा नहीं बनाया जा सकेगा। जनवादी अधिकार संगठनों की कुछ रिपोर्टों के अंश यहाँ-वहाँ छप तो जायेंगे लेकिन बहुसंख्यक आबादी मुद्दे को वैसे ही देखती-समझती रहेगी जैसे सरकार और मुख्य धारा की मीडिया उसे प्रस्तुत करते हैं। राजधानियों में कुछ प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन जैसे अनुष्ठानों से अब काम नहीं चलने वाला!

बेशक, राजनीतिक आन्दोलनों के दमन का विरोध, राजनीतिक बन्दियों के जनवादी अधिकारों के सवाल उठाने तथा फर्ज़ी मुक़दमों, फर्ज़ी मुठभेड़ों, हिरासत में टॉर्चर और काले क़ानूनों का विरोध करने का अनिवार्य कार्य तो जनवादी अधिकार संगठनों को करते ही रहना होगा, लेकिन वे इसी चौहद्दी में बँधो नहीं रह सकते। जनवादी अधिकार आन्दोलन को समूची आम जनता की नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों की लड़ाई को अपने एजेण्डे पर केन्द्रीय स्थान देना होगा। केवल तभी वह एक व्यापक जनान्दोलन की शक्ल ले पायेगा।

इसमें दो राय नहीं कि जनवादी अधिकार आन्दोलन के कार्यक्रम में व्यापक जनसमुदाय के सभी अधिकारों को शामिल करके उसे एक व्यापक, जुझारू जनान्दोलन के रूप में विकसित करना किसी घटना पर तत्काल कोई साझा मोर्चा बना लेने जैसी आसान प्रक्रिया नहीं हो सकती। यह एक लम्बी चलने वाली प्रक्रिया होगी और बहुत मेहनत तथा धीरज के साथ काम करने की माँग करेगी। लेकिन इस प्रक्रिया के साथ-साथ, कुछ फौरी कामों को जल्दी हाथ में लिया जा सकता है। देश में आज दर्जनों छोटे-बड़े जनवादी अधिकार संगठन मौजूद हैं। राजकीय दमन-उत्पीड़न, काले क़ानूनों और धार्मिक कट्टरपन्थियों की गतिविधियों के विरुद्ध वे लगातार आवाज़ उठाते भी रहते हैं। नवउदारवादी नीतियों पर अमल के वर्तमान दौर में, राज्यसत्ता का दमनकारी चरित्र ज्यादा से ज्यादा नंगा होता जा रहा है। ऐसे में, फौरी तौर पर यह बेहद ज़रूरी है कि जनान्दोलनों के दमन, राजद्रोह के क़ानून, ए.एफ.एस.पी.ए., छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम आदि विविध काले क़ानून तथा बड़े पैमाने पर विस्थापन और बेदखली आदि मुद्दों पर सभी जनवादी अधिकार संगठन एक साथ एकजुट और समन्वित आवाज़ उठायें। जनवादी अधिकार संगठनों के बीच कुछ सैद्धान्तिक मतभेद हो सकते हैं, उनकी सक्रियताओं के अलग-अलग दायरे हो सकते हैं और विशिष्ट स्थानीय मुद्दों को लेकर भी कुछ स्थानीय जनवादी अधिकार मंच भी बनाये जा सकते हैं। लेकिन न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर एक देशव्यापी संयुक्त मोर्चा भी अवश्य होना चाहिए।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012


 

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