संकट के दलदल में धँस रही भारतीय अर्थव्यवस्था

सम्पादकीय

2007 के अमेरिकी सबप्राइम संकट से शुरू हुए आर्थिक संकट के घने बादल आज विश्व की लगभग सभी पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं पर छाये हुए हैं। दिन-प्रतिदिन ये बादल गहराते जा रहे हैं, जो आने वाले भयंकर तूफ़ान का संकेत दे रहे हैं। वित्तीय वर्ष 2012-13 में विश्व अर्थव्यवस्था का संकट और भी गहरा होगा। विश्व पूँजीवाद की चाकर सभी एजेंसियाँ अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र और तमाम बुर्जुआ अर्थशास्त्री एक स्वर में यह बात कह रहे हैं। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी रिपोर्ट ‘वैश्विक आर्थिक स्थिति और संभावनाएँ 2012’ में कहा गया है कि विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के गहराते जा रहे संकट की चपेट में इस बार ”उभर रही अर्थव्यवस्थाएँ” भी आयेंगी। इन उभर रही अर्थव्यवस्थाओं में एशिया की तीसरी सबसे बड़ी तथा चीन के बाद तेज़ आर्थिक वृद्धि वाली एशिया की दूसरी अर्थव्यवस्था भारत भी शामिल है।

भारत के हुक्मरान विश्व पूँजीवादी आर्थिक संकट के भारत पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से लगातार इन्कार करते रहे हैं। पिछले साल जब अमेरिकी एजेंसी स्टैण्डर्ड एंड पुअर ने भारत की कर्ज़ रेटिंग घटा दी थी तब वित्त मन्त्री प्रणब मुखर्जी का कहना था कि इसका भारत पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ेगा। उन्होंने कहा था, ”हमारी संस्थाएँ इतनी मज़बूत हैं कि हम वर्तमान हालात से पैदा होने वाली किसी भी चुनौती से निपटने के लिए तैयार हैं।” साथ ही उन्होंने यह भी कहा था, ”हम बाक़ी बचे सुधारों को अमल में लाने की गति को तेज़ करेंगे।” लेकिन पिछले दिनों रुपये के मूल्य में आयी रिकॉर्ड गिरावट तथा आर्थिक वृद्धि दर के नीचे जाने ने यह संकेत दे दिये कि भारत भी अब विश्व पूँजीवादी आर्थिक संकट की चपेट में आ रहा है। यह संकेत इतने स्पष्ट हैं कि अब भारत के शासक भी इसे मानने लगे हैं। 6 जून को जारी एक बयान में अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने माना कि ”देश एक कठिन दौर से गुज़र रहा है।” साथ ही उन्होंने कहा कि ”इस स्थिति में बदलाव लाने और फिर से उच्च आर्थिक वृद्धि दर के रास्ते पर लौटने के लिए रुकावटों तथा अड़चनों को दूर करने की ज़रूरत है।” ये रुकावटें तथा अड़चनें आर्थिक सुधारों के रास्ते की रुकावटें-अड़चनें ही हैं। प्रधानमन्त्री तथा वित्तमन्त्री, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोण्टेक सिंह अहलूवालिया, प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन तथा अन्य लगभग सभी बुर्जुआ अर्थशास्त्री, सभी अख़बार आर्थिक सुधारों की गति तेज़ किये जाने की ज़ोर-शोर से वकालत कर रहे हैं। इन आर्थिक सुधारों में पब्लिक सेक्टर का तेज़ी से निजीकरण, श्रम क़ानूनों में बदलाव, हर तरह की सब्सिडियों का ख़ात्मा तथा देश की अर्थव्यवस्था को विदेशी पूँजी के लिए और अधिक खोलना शामिल है।

स्पष्ट है कि देश के शासक एक तो वर्तमान आर्थिक संकट का सारा बोझ देश की मेहनतकश आबादी पर लादना चाहते हैं। दूसरे, वे देश की अर्थव्यवस्था को विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ और अधिक जोड़ना चाहते हैं। जिन सुधारों की बदौलत भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से इस क़दर जुड़ी है कि उसके हर उतार-चढ़ाव का असर यहाँ पड़ने लगा है, प्रणब मुखर्जी तथा मनमोहन सिंह उन्हीं आर्थिक सुधारों की गति और तेज़ करना चाहते हैं। ख़ैर, वर्तमान विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में इस आत्मघाती रास्ते के अलावा भारतीय हुक्मरानों के पास और कोई रास्ता भी नहीं है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक संकट की दस्तक

एक गम्‍भीर संकट भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) द्वारा जारी किये गये आँकड़े इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। किसी भी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य आमतौर पर उसके सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर से जाना जाता है। पिछले नौ वर्षों से भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर काफ़ी ऊँची रही है। 2003-04 में यह सालाना 8.1 प्रतिशत थी, 2004-05 में यह 9.5 प्रतिशत, 2006-07 में सबसे ऊँची 9.6 प्रतिशत थी, जोकि 2011-2012 में गिरकर 6.5 प्रतिशत रह गयी। 2011-12 की आख़िरी तिमाही में तो यह महज़ 5.3 प्रतिशत थी, जोकि पिछले नौ सालों में सबसे कम थी। सकल घरेलू उत्पाद में भी अगर अलग-अलग सेक्टरों की वृद्धि दर देखें तो तस्वीर और भी निराशाजनक दिखायी देती है। मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर जोकि 2010-2011 के वित्तीय वर्ष में 7.6 प्रतिशत थी, वह 2011-12 में घटकर 2.5 प्रतिशत रह गयी। और इसमें भी 2011-12 की अन्तिम तिमाही (जनवरी-मार्च 2012)  में तो यह सिर्फ़ 0.3 प्रतिशत थी। सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर जोकि 2010-11 में 9.3 प्रतिशत थी, 2011-12 में घटकर 8.9 प्रतिशत रह गयी। कृषि क्षेत्र में भी वृद्धि दर में तीख़ी गिरावट देखी जा सकती है। 2010-11 में यह वृद्धि दर 7 प्रतिशत थी जोकि 2010-11 में घटकर 2.8 प्रतिशत रह गयी। 2011-12 की आख़िरी तिमाही में यह महज़ 1.7 प्रतिशत थी। भारत का बजट तथा व्यापार घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 5.8 प्रतिशत तक पहुँच चुका है। चालू खाते का घाटा 4 प्रतिशत पार करने जा रहा है, जबकि सभी पूँजीवादी अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि चालू खाते का घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 2.53 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी प्रमुख संकेतक यह दिखा रहे हैं कि यह अब ढलान से लुढ़कने लगी है।

भारतीय रुपये का मूल्य अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले लगातार गिरते जाना शासकों का एक बड़ा सिरदर्द है। पिछली 31 मई को रुपये के मूल्य में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गयी, जब इसका मूल्य 56.52 रुपये प्रति अमेरिकी डॉलर रह गया। अभी भी यह इसी के आसपास डोल रहा है।

रुपये की लड़खड़ाती हालत का एक कारण तो यह है कि अब विदेशी संस्थागत निवेशक भारत में निवेश को सुरक्षित नहीं मानते। पिछले महीने वैश्विक फ़र्मों स्टैंडर्ड एंड पुअर, मूडी तथा फिच ने भारत को नीची निवेश गोल्ड रेटिंग (बी.बी.बी.) दी। इसी तरह मॉर्गन स्टेनले, गोल्डमैन साक्स तथा मेरिल लिंच ने भारत की आर्थिक वृद्धि दर घटकर क्रमश: 6.3, 6.6, तथा 6.5 प्रतिशत होने की भविष्यवाणी की थी। इसकी वजह से विदेशी निवेशक भारत से भागने लगे हैं। भले ही अभी भारत में विदेशी पूँजी लगातार आ रही है, लेकिन पहले से यहाँ जो विदेशी पूँजी लगी है, वह भागने लगी है।  2012 की पहली तिमाही में ही विदेशी निवेशकों ने यहाँ से 1000.7 करोड़ डॉलर की पूँजी निकाल ली, जोकि इसी साल भारत में आयी विदेशी पूँजी का लगभग 43 प्रतिशत थी। इस कैलेण्डर वर्ष में अप्रैल तक विदेशी फ़ण्डों ने भारत में 43,833 करोड़ रुपये का पूँजी निवेश किया था जिसमें से 23 मई 2012 तक 927 करोड़ निकाला जा चुका था। अभी हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार पी-नोट्स के ज़रिये निवेश करने वाली विदेशी इकाइयों ने पिछले तीन महीनों में 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की पूँजी भारतीय बाज़ार से निकाल ली।

भारतीय मुद्रा के मूल्य में गिरावट की दूसरी वजह यह है कि इस समय अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के देश भीषण मन्दी से जूझ रहे हैं। भारत में ज्‍़यादातर विदेशी निवेश इन्हीं देशों से हो रहा है। इन देशों में मन्दी के चलते वहाँ के निवेशकों को अपने देशों में अपनी देनदारियाँ पूरी करने के लिए भी पूँजी की ज़रूरत पड़ती है। इसलिए भी वे भारत जैसे देशों से अपनी पूँजी निकाल रहे हैं।

जब विदेशी निवेशक भागने लगते हैं तो विदेशी मुद्रा (भारत के मामले में डॉलर) की माँग बढ़ती है, और इससे डॉलर के मुक़ाबले स्थानीय मुद्रा (रुपया) का मूल्य गिरता है। स्थानीय मुद्रा का मूल्य गिरने से अन्य विदेशी निवेशक भी डरने लगते हैं कि उनकी जो पूँजी यहाँ पर लगी हुई है, वह कहीं डूब न जाये। वे भी अपनी पूँजी (डॉलर में) निकालने लगते हैं। यह एक दुष्चक्र बन जाता है कि विदेशी मुद्रा की माँग बढ़ने से स्थानीय मुद्रा के मूल्य में गिरावट आती है और फिर यह गिरावट विदेशी मुद्रा की माँग बढ़ाती है। 1997 में यह तमाशा दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में देखा जा चुका है।

रुपये के मूल्य में गिरावट से भारत में आयात और अधिक महँगा हो गया है। इससे भारत का व्यापार घाटा और अधिक तेज़ी से बढ़ेगा। रुपये के मूल्य में गिरावट से भारत का निर्यात ज़रूर बढ़ेगा, लेकिन निर्यात से होने वाली आमदनी कम हो जायेगी।

पिछले चार-पाँच वर्षों से भारत की मेहनतकश जनता महँगाई से बुरी तरह त्रस्त है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे मुद्रास्‍फ़ीति कहते हैं। रुपये के लगातार अवमूल्यन के चलते आने वाले दिनों में महँगाई बेतहाशा बढ़ने की उम्मीद है। रुपये के अवमूल्यन से भारत का निर्यात सस्ता हो जायेगा। जिन चीज़ों की भारत की जनता को ज़रूरत है वे विदेशी बाज़ारों में सस्ती दरों में बिकेंगी। भारतीय बाज़ार में इनकी कमी होने के चलते यहाँ इनकी क़ीमतें तेज़ी से बढ़ेंगी। पहले ही यहाँ से लाखों टन खाद्य-पदार्थ निर्यात किये जाते हैं। आने वाले दिनों में इनमें और वृद्धि होगी। जिस देश में 32 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हों, वहाँ से खाद्य पदार्थों का निर्यात व्यवस्था का एक घिनौना अपराध है। रुपये के अवमूल्यन से भारत का आयात महँगा होगा। भारत के निर्यात का बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम पदार्थ हैं। पेट्रोल की क़ीमतों में पहले ही सरकार रिकॉर्ड वृद्धि कर चुकी है। अब डीज़ल, मिट्टी का तेल तथा रसोई गैस की बारी है। डीज़ल की क़ीमतों के बढ़ने से यातायात तथा मालों की ढुलाई महँगी होगी जिससे सभी चीज़ों की क़ीमतें आसमान छूने लगेंगी। इसकी शुरुआत तो हो भी चुकी है।

मुद्रास्‍फ़ीति को क़ाबू में रखने के लिए रिज़र्व बैंक ने पिछले कई सालों से ब्याज दरें काफ़ी ऊँची रखी हुई हैं। इससे भी महँगाई को क़ाबू में रखने में कोई मदद नहीं मिली। अनेक पूँजीवादी अर्थशास्त्री तथा औद्योगिक समूह ऊँची ब्याज दरों को भी अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत के लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। अब रिज़र्व बैंक पर ब्याज दरें कम करने का दबाव डाला जा रहा है। अगर ऐसा होता है तो इससे मुद्रास्‍फ़ीति और बढ़ेगी। कहने का मतलब यह है कि आने वाले दिनों में भी भारत में मेहनतकश अवाम को महँगाई डायन से निजात नहीं मिलने वाली।

भारतीय अर्थव्यवस्था का संकट विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के संकट का ही अंग है

अनेक बुर्जुआ अर्थशास्त्री तथा पूँजीपतियों के संगठन (सीआईआई, ऐसोचैम तथा फिक्की आदि) भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्तमान संकट के लिए सरकारी नीतियों, धीमे आर्थिक सुधारों, सब्सिडियों, ऊँची ब्याज दरों आदि को दोषी ठहरा रहे हैं। दरअसल, भारतीय अर्थव्यवस्था का वर्तमान संकट विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के संकट का ही अंग है। पूँजीवादी आर्थिक संकट किन्हीं सरकारी नीतियों की असफलता के चलते पैदा नहीं होते, बल्कि इनके कारण ढाँचागत होते हैं। पूँजीवादी संकट अति-उत्पादन का संकट होता है। यानी पैदावार का अधिक होना और उसकी माँग का कम होना। ग़ौरतलब है कि यह अति-उत्पादन जनता की ज़रूरतों से अधिक नहीं बल्कि बाज़ार की माँग से अधिक होता है। पूँजीवादी व्यवस्था का सरोकार जनता से नहीं बल्कि मुनाफ़े से होता है। पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर तो निजी मालिकाना होता है जबकि उत्पादन समाजीकृत होता है। मज़दूर अपनी मेहनत से जो भी पैदा करते हैं उसमें से मज़दूरों को उतना ही मिलता है जिससे वे बस ज़िन्दा रह सकें और मशीन के पुर्जो़ं की तरह काम कर सकें। उत्पादन के बड़े हिस्से पर पूँजीपतियों का कब्ज़ा होता है। इससे मेहनतकशों की क्रयशक्ति सीमित होती है। दूसरी ओर, उत्पादन के साधनों पर निजी मिल्कियत के चलते पूँजीपतियों में होड़ होती है, जिससे बार-बार अति-उत्पादन के संकट आते हैं। विश्व पूँजीवाद का वर्तमान संकट भी अति-उत्पादन का ही संकट है, जिसे अलग-अलग नाम दिये जाते हैं, कभी सबप्राइम संकट, कभी वित्तीय संकट, तो कभी कर्ज़ संकट।

भारतीय अर्थव्यवस्था आज विश्व पूँजीवाद का अभिन्न अंग बन चुकी है और वर्तमान संकट भी विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ इस क़दर जुड़ जाने की ही देन है। यूँ तो भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का अंग रही है, लेकिन 1991 में हुक्मरानों द्वारा अपनायी गयी उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नीति जिसे नयी आर्थिक नीति भी कहा जाता है, ने भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का अंग बना देने के रुझान को ख़ूब बढ़ावा दिया। अब विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में होने वाली हर हलचल सबसे पहले बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के उतार-चढ़ावों में दिखायी देती है तथा बाद में अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों में अपना असर दिखाती है। विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के 2007 से शुरू हुए संकट का अभी तक भारतीय अर्थव्यवस्था पर कम प्रभाव पड़ा था। इसकी एक वजह तो यह थी कि भारत में आधारभूत ढाँचे तथा अन्य उद्योगों में निवेश की काफ़ी सम्भावनाएँ थीं (आधारभूत ढाँचे में तो अभी भी हैं) और यहाँ पर बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश हो रहा था। इसकी दूसरी वजह यह थी कि संकट की सर्वाधिक मार झेल रहे विकसित पूँजीवादी देशों ने अपने यहाँ अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर पूँजी झोंककर वहाँ माँग तथा आर्थिक वृद्धि दर को बनाये रखा था। इससे भारत जैसे देशों से इन देशों को मालों का निर्यात बाधित नहीं हुआ था।

तथाकथित उभर रही अर्थव्यवस्थाएँ, जिनमें भारत भी अगली कतार में है, अपने निर्यात के लिए काफ़ी हद तक विकसित पूँजीवादी देशों पर निर्भर हैं। इसलिए, उन देशों के आर्थिक संकट से सबसे पहले इन देशों का निर्यात प्रभावित होता है। अमेरिका तथा यूरोपीय यूनियन पर भारत अपने लगभग एक तिहाई निर्यात के लिए निर्भर है। ये देश इस समय भीषण मन्दी से गुज़र रहे हैं जिसके चलते इन देशों में भारत से आयात की माँग काफ़ी कम हुई है।

भुगतान सन्तुलन के आँकड़ों के मुताबिक़ 2010-2011 में सॉफ़्टवेयर सेवाओं के निर्यात से भारत की कुल आमदनी, कुल व्यापारिक निर्यात की आमदनी का 24 प्रतिशत थी। 2009-10 में भारत के कुल सॉफ़्टवेयर निर्यात में अमेरिका का हिस्सा 61 प्रतिशत था, जबकि यूरोपीय यूनियन के देशों का हिस्सा 26 प्रतिशत था। 2004-05 से 2009-10 तक की अवधि में भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में सेवाओं का हिस्सा 66 प्रतिशत था तथा सॉफ़्टवेयर सेवाओं से आमदनी, सेवाओं (जन प्रशासन तथा रक्षा को छोड़कर) से हासिल सकल घरेलू उत्पाद की 9.4 प्रतिशत थी। सॉफ़्टवेयर निर्यात में गिरावट भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान चाल-ढाल बता रही है कि आने वाले दिनों में इसका संकट और गहरायेगा। यह संकट भारत के मेहनतकश अवाम के लिए भी ढेरों मुसीबतें लेकर आयेगा। शासक वर्ग अपने संकट का बोझा मेहनतकश जनता की पीठ पर ही लादते हैं। उसे ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई में और अधिक बढ़ोत्तरी से इसकी क़ीमत चुकानी होगी। भारत के मेहनतकशों को भी इन हालात का सामना करने और संकट का बोझ जनता पर थोपने की कोशिशों  के विरुद्ध लड़ने के लिए अभी से तैयारी शुरू कर देनी होगी।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2012

 


 

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