Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र, गोरखपुर के अंकुर उद्योग कारख़ाने के मज़दूर आन्दोलन की राह पर

फ़ैक्टरी प्रबन्धन द्वारा मज़दूरों के साथ गाली-गलौच,धक्का-मुक्की आम बात है। पीने के साफ़ पानी का कोई इन्तज़ाम नहीं है। शौचालय गन्दगी और बदबू से भरा रहता है, कभी उसकी सफ़ाई नहीं करायी जाती है। इतनी भीषण गर्मी में बिजली का ख़र्च बचाने के लिए सभी एग्झास्ट बन्द रहते हैं, जिससे असह्य तापमान पर काम करने के लिए मज़दूर बाध्य हैं। लगभग 100 मज़दूर जो नियमित साफ़-सफ़ाई का काम करते हैं और इनमें से कई मज़दूर 1998 से ही काम कर रहे हैं, लेकिन इनको केवल 5900 रुपये ही दिया जाता है, जबकि अकुशल मज़दूर की मज़दूरी 7400 रुपये है। पहचान पत्र, ईएसआई, ईपीएफ़ जैसी कोई सुविधाएँ नहीं मिलतीं।

हरियाणा में यूनियन बनाने की सज़ा – मुक़द्दमा और जेल!

31 मई को सुबह से ही मज़दूर अपने परिवारजनों के साथ अपनी अनसुनी माँगों को उठाने के लिए फ़ैक्टरी के बाहर धरने पर बैठे थे। मैनेजमेण्ट की शिकायत पर हरियाणा पुलिस वहाँ एकत्रित हो गयी, प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया, उन्हें हिरासत में ले लिया और उन पर साँपला थाने में मुक़द्दमा दर्ज कर दिया। एफ़आईआर के अनुसार मज़दूरों पर आरोप है कि वे ग़ैर-क़ानूनी रूप से ख़तरनाक हथियार (यानी झण्डे!) लेकर एकत्रित हुए, रास्ता रोका, कम्पनी के गेट को जाम कर दिया, कम्पनी के स्टाफ़ को धमकी दी और आम चोट पहुँचाई।

आइसिन ऑटोमोटिव, रोहतक के मज़दूरों का जुझारू संघर्ष जारी है ज़ोर है कितना दमन में तेरे, देख लिया है, देखेंगे!

फ़ैक्टरी के स्तर पर व्यापक एकजुटता के बावजूद भी मालिक वर्ग को आसानी से नहीं झुकाया जा सकता। इसका एक प्रमुख कारण तो यही है कि पूँजीपति वर्ग ने आज उत्पादन को एक फ़ैक्टरी में करने कि बजाय बिखरा दिया है। एक ही प्रकार का माल विभिन्न यानी एक से ज़्यादा वेण्डर कम्पनियाँ उपलब्ध करा देती हैं या फ़िर एक ही मालिक की कई-कई वेण्डर कम्पनियाँ अलग-अलग जगह पर चलती हैं। जैसेकि आइसिन कम्पनी ही वैश्विक स्तर पर काम करती है तथा पूरी दुनिया में 190 से भी ज़्यादा कम्पनियाँ चलाती है। इसी कारण से मज़दूर अपने संघर्ष के दौरान मालिक के मुनाफ़े के चक्के को जाम नहीं कर पाते। दूसरा मालिक वर्ग आपस में अपने “बुरे वक़्त” में एक-दूसरे का साथ भी दे देते हैं जैसे आइसिन के मालिक और कम्पनी की मैनेजमेण्ट का साथ मारुती और मिण्डा कम्पनी की मैनेजमेण्ट समेत अन्यों ने मदद करके दिया।

आइसिन ऑटोमोटिव के मज़दूर कम्पनी प्रबन्धन के शोषण के ख़िलाफ़ संघर्ष की राह पर

कम्पनी में लम्बे समय से काम कर रहे और संघर्ष की अगुवाई कर रहे जसबीर हुड्डा, अनिल शर्मा, उमेश, सोनू प्रजापति तथा अन्य मज़दूरों ने बताया कि कम्पनी में मज़दूरों के साथ लगातार बुरा व्यवहार किया जाता है। भाड़े के गुण्डों जिन्हें सभ्य भाषा में बाउंसर कह दिया जाता है और प्रबन्धन के लोगों द्वारा गाली-गलौज करना और गधे तक जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना आम बात है। काम कर रही स्त्री मज़दूरों के साथ भी ज़्यादतियाँ और छेड़छाड़ तक के मामले सामने आये, किन्तु संज्ञान में लाये जाने पर प्रबन्धन के उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें आम घटना बताकर भूल जाने की बात कही गयी। मज़दूरों ने अपनी मेहनत के बूते कम्पनी को आगे तो बढ़ाया किन्तु इसका ख़ामियाज़ा मज़दूरों को ही भुगतना पड़ा। शुरुआत में जहाँ एक ‘प्रोडक्शन लाइन’ पर 25 मज़दूर काम करते थे, वहीं अब उनकी संख्या घटकर 18 रह गयी। पहले जहाँ एक घण्टे में 120 पीस तैयार होते थे, वहीं अब उनकी संख्या 300 तक पहुँच गयी, किन्तु मज़दूरों के वेतन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। कई मज़दूर साथियों के वेतन में तो सालाना 1 रुपये तक की भी बढ़ोत्तरी हुई है। ‘बोनस’ के नाम पर मज़दूरों को एक माह के वेतन के बराबर राशि देने की बजाय छाता और चद्दरें थमा दी जाती हैं। कम्पनी के कुछ बड़े अधिकारी तो सीधे जापानी हैं तथा अन्य यहीं के देसी लोग हैं, किन्तु मज़दूरों को लूटने में कोई किसी से पीछे नहीं है।

भारतीय रेल : वर्ग-समाज का चलता-फिरता आर्इना

ये जनरल डिब्बों में भेड़-बकरियों की तरह चलने वाले 92 प्रतिशत लोग कौन हैं? असल में भारत में लगभग 93 प्रतिशत लोगों के यहाँ उनके परिवार के कुल सदस्यों के द्वारा कमाई जाने वाली राशि 10000 रुपये से भी कम है, जबकि हर परिवार में औसतन 5 लोग रहते हैं। ये 93 प्रतिशत लोग छोटे-मँझोले किसान, खेतिहर मज़दूर, रिक्शेवाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले शहरी मज़दूर इत्यादि हैं जिनके दम पर आज भारत तथाकथित विकास की राह पर तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, जिनके दम पर ट्रेनों के वातानुकूलित डिब्बों के शीशों को चमकाया जा रहा है, मगर जो ख़ुद शौचालय जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की निहायत ही घटिया हालतों वाले डिब्बों में चलने के लिए मजबूर हैं। यहाँ तक कि लम्बी दूरी वाली ट्रेनों में तो शौचालय में ही 5 से 7 लोग भरे होते हैं, इस पूरे समाज का अपने ख़ून-पसीने से निर्माण करने वाली मेहनतकश अवाम के आत्मसम्मान पर भला इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है?

धुएँ में उड़ता बचपन

जिप्सम की पर्याप्त उपलब्धता देखते हुए शहरों व महानगरों में बैठे धनासेठों ने गाँव के आस-पास ही चूना-फ़ैक्टरियाँ स्थापित करना शुरू कर दिया। यह प्रक्रिया इतनी तीव्र गति से हुई कि गाँव के दोनों तरफ़ हाइवे के किनारे-किनारे इन फ़ैक्टरियों का अम्बार लग गया। जिनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ ही रही है। बरमसर गाँव पूँजीपतियों का आकर्षण-केन्द्र बन गया। ऐसी स्थिति में गाँव के मज़दूर वर्ग के रोज़गार का एकमात्र विकल्प ये फ़ैक्टरियाँ ही रह गयीं, फलत: समूचा मज़दूर वर्ग इन चूना-फ़ैक्टरियों में भर्ती हो गया।

कोई फ़ैक्टरी, कारख़ाना या कोई छोटी-बड़ी कम्पनी हो, जीवन बदहाली और नर्क जैसा ही है

मेरा नाम संदीप है और मैं डोमिनोस पिज़्ज़ा रेस्टोरेण्ट में काम करता था। मैं वहाँ पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय का काम करता था। इण्टरव्यू के वक़्त हमें यह बताया गया था कि हम सब एक फै़मिली (परिवार) की तरह हैं। पर यह ऐसा परिवार है जिसमें सबसे ऊपर के सदस्य (मैनेजर) हैं और वे नीचे के सदस्यों से गाली बककर बात करते थे। इस बात पर अगर कोई सवाल उठाता या मना करता तो कहते कि परिवार में बड़ों से जुबान नहीं लड़ाते हैं। मैनेजर हमसे अपने निजी काम कराते थे। मना करने पर कहते कि सैलरी तो हम से ही लोगे। नौकरी चले जाने के डर से हम लोगों को उनकी बात माननी ही पड़ती थी।

कानपुर में निर्माणाधीन इमारत गिरने से कम से कम 10 मजदूरों की मौत

आये दिन निर्माण कार्य में होने वाली दुर्धटनाओं में मजदूरों की मौतें होती रहती हैं। कभी कांट्रैक्टर की लापरवाही के कारण तो कभी मालिक द्वारा हड़बड़ी में और अवैध तरीके से काम करवाए जाने के कारण। लेकिन मज़दूरों को मुआवजे के नाम पर मिलती है केवल प्रशासन और राजनेताओं के झूठे वादे और दर-दर की ठोकरें। ज़रा सोचिये, अगर कोई हवाई जहाज दुर्घटना हुई होती तो यह मामला कई दिनों तक राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहता और सभी मरने वालों और घायलों के लिए लाखों रुपयों के मुआवजे का ऐलान हो चुका होता। लेकिन इस व्यवस्था में ग़रीबों और मज़दूरों की जान सबसे सस्ती है।

भोरगढ़ (दिल्ली) के मज़दूरों का नारकीय जीवन और उससे सीखे कुछ सबक

भोरगढ़ में अधिकतर प्लास्टिक लाइन की कम्पनियां है। इसके अलावा बर्तन, गत्ता, रबर, केबल आदि की फैक्ट्री है। सभी कम्पनियों में औसतन मात्र 8-10 लड़के काम करते हैं अधिकतर कम्पनियों में माल ठेके पर बनता है। छोटी कम्पनियों में मज़दूर हमेशा मालिक की नजरों के सामने होता है मज़दूर एक काम खतम भी नहीं कर पाता है कि मालिक दूसरा काम बता देता है कि अब ये कर लेना।

अधिक से अधिक मुनाफ़़ेे के लालच में मज़दूरों की ज़िन्दगियों के साथ खिलवाड़ करते कारख़ाना मालिक

पिछले दिनों कुछ औद्योगिक मज़दूरों के साथ मुलाक़ात हुई जिनके काम करते समय हाथों की उँगलियाँ कट गयीं या पूरे-पूरे हाथ ही कट गये। लुधियाना के औद्योगिक इलाक़े में अक्सर ही मज़दूरों के साथ हादसे होते रहते हैं। शरीर के अंग कटने से लेकर मौत तक होना आम बात बन चुकी है। मज़दूर के साथ हादसा होने पर कारख़ाना मालिकों का व्यवहार मामले को रफ़ा-दफ़ा करने वाला ही होता है। बहुत सारे मसलों में तो मालिक मज़दूरों का इलाज तक नहीं करवाते, मुआवज़ा देना तो दूर की बात है।