Category Archives: कारख़ाना इलाक़ों से

ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों के बीच माँगपत्रक आन्दोलन की शुरुआत

देश के विकास का बखान करते वक़्त सबसे पहले ऑटोमोबाइल पट्टी की बात आती है और हो भी क्यों न? देश के सकल घरेलू उत्पाद का क़रीब 7.1 फ़ीसदी हिस्सा ऑटोमोबाइल सेक्टर से ही आता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर के उत्पादन का आधा से अधिक हिस्सा गुडगाँव-मानेसर-धारुहेड़ा–बावल से लेकर भिवाड़ी-ख़ुशखेड़ा-नीमराना में फैली औद्योगिक पट्टी से आता है। यह पट्टी देशी-विदेशी पूँजी के लिए अकूत मुनाफ़़ा लूटने का चारागाह है। किन्तु, यहाँ पर काम कर रहे मज़दूरों का जीवन नर्क से बदतर है। यहाँ हज़ारों कारख़ाना इकाइयों में काम कर रहे लाखों मज़दूर प्रतिदिन 10-12 घण्टा कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद बमुश्किल किसी तरह 8-10 हज़ार रुपये  प्रतिमाह कमा पाते हैं। काम के हालात इस तरह हैं कि मज़दूरों को एक मिनट के अन्दर 13 प्रक्रियाओं से गुज़रना होता है।

अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर पूँजीवादी शोषण के खि़लाफ़ संघर्ष जारी रखने का संकल्प लिया

इस वक़्त पूरी दुनिया में मज़दूर सहित अन्य तमाम मेहनतकश लोगों का पूँजीपतियों-साम्राज्यवादियों द्वारा लुट-शोषण पहले से भी बहुत बढ़ गया है। वक्ताओं ने कहा कि भारत में तो हालात और भी बदतर हैं। मज़दूरों को हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी इतनी आमदनी भी नहीं है कि अच्छा भोजन, रिहायश, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि ज़रूरतें भी पूरी हो सकें। भाजपा, कांग्रेस, अकाली दल, आप, सपा, बसपा सहित तमाम पूँजीवादी पार्टियों की उदारीकरण-निजीकरण-भूमण्डलीकरण की नीतियों के तहत आठ घण्टे दिहाड़ी, वेतन, हादसों व बीमारियों से सुरक्षा के इन्तज़ाम, पीएफ़, बोनस, छुट्टियाँ, काम की गारण्टी, यूनियन बनाने आदि सहित तमाम श्रम अधिकारों का हनन हो रहा है। काले क़ानून लागू करके जनवादी अधिकारों को कुचला जा रहा है।

आईएमटी रोहतक की आइसिन कम्पनी के मज़दूरों के संघर्ष की रिपोर्ट

स्थानीय प्रशासन, स्थानीय नेताओं, श्रम विभाग के छोटे से लेकर बड़े अधिकारियों यानी हर किसी के दरवाज़े पर मज़दूरों ने दस्तक दी, किन्तु न्याय मिलने की बजाय हर जगह से झूठे दिलासे ही मिले। अब मज़दूर आबादी को तो हर रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीना पड़ता है, तो कब तक धरना जारी रहता! आख़िरकार क़रीब 3 महीने के धरने-प्रदर्शन के बाद आइसिन के मज़दूरों का आन्दोलन क़ानूनी रूप से केस-मुक़दमे जारी रखते हुए धरने के रूप में ख़त्म हो गया। ज़्यादातर ठेके, ट्रेनी और अन्य मज़दूर काम की तलाश में फिर से भागदौड़ के लिए मजबूर हो गये। कम्पनी में ठेके पर नयी भर्ती फिर से कर ली गयी और उत्पादन बदस्तूर जारी है। अब कोर्ट-कचहरी में मज़दूरों को कितना न्याय मिला है, सामने है ही; और आइसिन के श्रमिकों को कितना मिलेगा, यह भी सामने आ ही जायेगा। और देर-सवेर कोर्ट के माध्यम से कुछ होता है तो भी ‘देरी से मिलने वाला न्याय’; न्याय नहीं समझा जा सकता!

मजदूरों के पत्र – हम सब मेहनतकश आदमखोर पूँजीपतियों की लूट का शिकार हैं।

मैंने अपने परिवार की गाढ़ी कमाई के सहारे डिप्लोमा किया। इसके बाद गुुड़गाँव, रेवाड़ी, बद्दी, डेराबस्सी, पानी आदि स्थानों पर नौकरी के लिए आवेदन दिया, लेकिन कहीं भी सिफ़ारिश या जान-पहचान न होने के कारण मेरे आवेदनों का कोई जवाब नहीं आया। उसके बाद मैनें दो साल एसएससी-एचएसएससी की कोचिंग शुरू कर दी। लम्बी तैयारी के बाद कोचिंग की धन्धेबाज़ी और सरकारी नौकरियों की बेहद कमी के कारण मैं हताश हो गया। और उसके बाद मैं कैथल की चावल मिल में मज़दूर के रूप में काम करने लगा। वहाँ मुझे 12 घण्टे के 7500 रुपये मिलते थे। इसके अलावा न कोई छुट्टी और न ही कम्पनी की तरफ़ से कोई चाय या फिर लंच के टाइम-सीमा तय नहीं थी। मुझे वहाँ चावल पोलिश की बोरिया मशीन से हटाकर 25-30 फ़ीट की दूरी पर उठाकर ले जानी थी। जिसके लिए बिल कार्ट होनी चाहिए।

कविता : जागो दुनिया के मज़दूर! / बबन भक्‍त

विश्व प्रगति से क़दम मिलाकर

उन्नति ख़ातिर अपने को खपाकर

अमीरों को हर सुख पहुँचाया,

अपने बच्चों को भूखा सुलाकर।

जीवन को तुमने हवन कर दिया,

रहे सुविधा से कोसों दूर।

अब चेतने का समय आ गया,

जागो दुनिया के मज़दूर।

”गुजरात मॉडल” का ख़ूनी चेहरा: सूरत का टेक्सटाइल उद्योग या मज़दूरों का क़त्लगाह!

रिपोर्ट के अनुसार ये आँकड़े सूरत के टेक्सटाइल कारखानों में पेशागत स्वास्थ्य और सुरक्षा के हालात की बेहद चिन्ताजनक तस्वीर पेश करते हैं। दुर्घटनाओं के कारणाों पर नज़र डालें तो 2012 और 2015 के बीच हुई 121 घातक दुर्घटनाओं में से 30 जलने के कारण हुईं जबकि 27 बिजली का करण्ट लगने से हुईं। 23 दुर्घटनाओं का कारण ‘’दो सतहों के बीच कुचलना’’ बताया गया है। कारखानों की भीतरी तस्वीर से वाकिफ़ कोई भी व्यक्ति इसका मतलब समझ सकता है। इसके अलावा बहुत सी मौतें दम घुटने, ऊँचाई से गिरने, आग और विस्फोट, मशीन में फँसने, गैस आदि कारणों से हुई हैं। ज़्यादातर दुर्घटनाएँ जानलेवा क्यों बन जाती हैं इसका कारण कारखानों की हालत से जुड़ा हुआ है। रिपोर्ट में दिये गये एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। सूरत के सूर्यपुर इंडस्ट्रियल एस्टेट में अश्विनी कुमार रोड पर एक पावरलूम यूनिट में 3 अक्टूबर 2015 को सुबह 11.45 बजे आग लगी।

‘उत्तराखण्ड के मज़दूरों का माँग-पत्रक आन्दोलन’ की शुरुआत

उत्तराखण्ड के मज़दूरों के 24 सूत्रीय माँगों में से एक न्यूनतम वेतन के सवाल पर बात रखते हुए वक्ताओं ने कहा कि, उत्तराखण्ड में न्यूनतम वेतन आस-पास के राज्यों (दिल्ली,हरियाणा,उत्तर प्रदेश) के न्यूनतम वेतन से बहुत ही कम है,जबकि जीवन-जीने की मूलभूत सुविधओं के मूल्यों व मंहगाई आदि में कोई अंतर नहीं है| न्यूनतम वेतन का सवाल व्यक्ति के गरिमामय जीवन और भरण-पोषण से जुड़ा हुआ है|

मारुति मानेसर प्लाण्ट के मज़दूरों की सज़ा के एक वर्ष पूरा होने पर पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था द्वारा पूँजी की चाकरी की पुरज़ोर नुमाइश

इस फ़ैसले ने पूँजीवादी न्याय-व्यवस्था के नंगे रूप को उघाड़कर रख दिया है! यह मुक़दमा बुर्जुआ राज्य के अंग के रूप में न्याय-व्यवस्था की हक़ीक़त दिखाता है। यह राज्य-व्यवस्था और इसी का एक अंग यह न्याय-व्यवस्था पूँजीपतियों और उनके मुनाफ़े की सेवा में लगी है, मज़दूरों को इस व्यवस्था में न्याय नहीं मिल सकता है। मारुति के 148 मज़दूरों पर चला मुक़दमा, उनकी गिरफ़्तारी और 4 साल से भी ज़्यादा समय के लिए जेल में बन्द रखा जाना, इस पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था के चेहरे पर लगा नक़ाब पूरी तरह से उतारकर रख देता है। यह साफ़ कर देता है कि मारुति के 31 मज़दूरों को कोर्ट ने इसलिए सज़ा दी है ताकि तमाम मज़दूरों के सामने यह मिसाल पेश की जा सके कि जो भी पूँजीवादी मुनाफ़े के तन्त्र को नुक़सान पहुँचाने का जुर्म करेगा पूँजीवादी न्याय की देवी उसे क़तई नहीं बख़्शेगी।

एल.जी. के मज़दूरों का संघर्ष ज़िन्दाबाद!

एलजी कम्पनी के मज़दूर अपनी माँगों को लेकर पिछले 2 सालों से संघर्षरत है। “लाइफ़ गुड्स” का दावा करने वाली यह बहुराष्ट्रीय कम्पनी अपने ही मज़दूरों की ज़िन्दगी के बदतर हालातों पर ध्यान नहीं दे रही। एलजी के मज़दूरों के संघर्ष की शुरुआत हुई जनवरी 2016 में जब अपने कार्य की नारकीय स्थिति के विरुद्ध मज़दूरों का वर्षों से दबा गुस्सा फूट पड़ा। जिसके बाद उन्होंने यूनियन बनाने की माँग पर ज़ोर देते हुए अपने संघर्ष को तेज़ किया।

दिल्ली के बवाना औद्योगिक क्षेत्र में फ़ैक्ट्री की अाग में मज़दूरों की मौत

कहने के लिए तो दिल्ली में पटाखा प्रतिबन्धित है, पर इस प्रकार के अवैध कारख़ाने पूरी दिल्ली में चल रहे हैं। बवाना की बात करें तो पूरे बवाना में ही 80% कारख़ाने बिना पंजीकरण के चल रहे हैं। सब अवैध काम दिल्ली सरकार व श्रम विभाग के अधिकारियों की नाक के नीचे होते हैं। इससे ही जुड़ी दूसरी बात है कि आज जहाँ मज़दूर काम करते हैं, वहाँ सुरक्षा के उपकरणों की क्या स्थिति है, इसकी जाँच-पड़ताल का काम श्रम विभाग का है पर श्रम विभाग के इंस्पेक्टर व अधिकारी फ़ैक्टरियों में आते ही नहीं, वहीं कभी-कभी आते भी हैं तो सीधा मालिक के मुनाफ़े का एक हिस्सा अपनी जेब में डालकर चले जाते हैं।