Category Archives: इतिहास

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सातवीं किस्त)

संविधान निर्माण के लिए गठित प्रारूप कमेटी ने 27 अक्टूबर 1947 को अपना काम शुरू किया। लेकिन सच्चाई यह थी कि ब्रिटिश सरकार के विश्वासपात्र, ”इण्डियन सिविल सर्विसेज़” के कुछ घुटे-घुटाये नौकरशाह संविधान का एक प्रारूप पहले ही तैयार कर चुके थे। इनमें पहला नाम था सर बी.एन. राव का, जो संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार थे। दूसरा नाम था संविधान के मुख्य प्रारूपकार एस.एन. मुखर्जी का। इन दो महानुभावों ने 1935 के क़ानून के आधार पर संविधान का मसौदा तैयार किया था और संविधान सभा के कर्मचारियों ने उनकी मदद की थी। इस सच्चाई को अम्बेडकर ने भी प्रारूप कमेटी के अध्यक्ष की हैसियत से 25 नवम्बर 1947 को दिये गये अपने लम्बे भाषण में भी स्वीकार किया था। संविधान सभा की प्रारूप कमेटी का काम था पहले से ही तैयार प्रारूप की जाँच करना और आवश्यकता होने पर संशोधन हेतु सुझाव देना। इस तथ्य को संविधान सभा के एक सदस्य सत्यनारायण सिन्हा ने भी स्वीकार किया है।

कश्मीर समस्या का चरित्र, इतिहास और समाधान

सैन्य-दमन का ख़ात्मा कश्मीर में मौजूदा ढाँचे के भीतर कर पाना भारतीय शासक वर्ग की किसी भी पार्टी के लिए बहुत मुश्किल है। जो पार्टी स्वायत्ता या जनमत संग्रह की बात को मानेगी, वह पूँजीवादी राजनीति के दायरे के भीतर अपनी ही कब्र खोदेगी। कश्मीरी जनता की जो मूल माँगें हैं, यानी स्वायत्ता और आत्मनिर्णय का अधिकार, वे सैन्य-दमन के रास्ते से कभी ख़त्म नहीं होंगी। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ये माँगें कभी मानी जायेंगी इसकी सम्भावना काफी क्षीण है और कभी सैन्य-दमन और कभी जनता को सड़कों पर थका देने की रणनीति और कभी इन दोनों रणनीतियों के मिश्रण से भारतीय शासक वर्ग कश्मीर पर अपने अधिकार को कमोबेश इसी रूप में कायम रखने का प्रयास करता रहेगा।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (पाँचवीं किस्त)

15 अगस्त 1947 को मिली खण्डित और रक्तरंजित राजनीतिक स्वाधीनता ने देश की जनता में हर्ष-विषाद के मिले-जुले भाव उत्पन्न किये। लोग आधी रात को भारत की ”नियति के साथ करार” पर नेहरू के भाषण को सुनकर भावुक भी हो रहे थे, दूसरी ओर देश की परिस्थितियों को लेकर विषाद और आशंका के भाव भी थे। जनता के सुदीर्घ संघर्षों ने औपनिवेशिक ग़ुलामी के दिनों को पीछे धकेल दिया था और इतिहास ने आगे डग भरा था। लेकिन राष्ट्रीय आन्दोलन के बुर्जुआ नेतृत्व का विश्वासघात और समझौतापरस्ती भी एक वास्तविकता थी, जिसे 1947 में तो कम लोगों ने समझा था लेकिन दो दशक बीतते-बीतते भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र का चेहरा बहुसंख्यक आबादी के सामने नंगा हो चुका था।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (चौथी किस्त)

सार-संक्षेप यह कि जिस समय कांग्रेसी नेता कुलीन जनों और सामन्ती शासकों के प्रतिनिधियों के साथ भावी भारत के संविधान की तैयारी पर गहन वार्ताओं में निमग्न थे और अपने-अपने हितों को लेकर उपनिवेशवादियों और देशी बुर्जुआ वर्ग के बीच समझौतों-सौदेबाजियों का गहन दौर जारी था; जिन दिनों ‘बाँटो और राज करो’ की उपनिवेशवादी नीति की चरम परिणति के तौर पर साम्प्रदायिक दंगों का रक्त-स्नान जारी था और सत्ता के लिए आतुर कांग्रेस न केवल यह भारी कीमत चुकाने को तैयार थी बल्कि किसी हद तक वह इसके लिए जिम्मेदार भी थी; ठीक उन्हीं दिनों भारत के बहुसंख्यक मजदूर, किसान और आम मध्‍यवर्गीय नागरिक जुझारू संघर्षों की उत्ताल तरंगों के बीच थे। अगस्त, 1947 के पहले कांग्रेस और लीग के नेता नौसेना विद्रोह, मजदूरों के आन्दोलनों और किसानों के संघर्षों के दमन के प्रश्न पर उपनिवेशवादियों के साथ थे। अगस्त, 1947 के बाद कांग्रेसी सत्ता जन-संघर्षों के दमन में उपनिवेशवादियों से एक कदम भी पीछे नहीं थी। तेलंगाना किसान संघर्ष के बर्बर सैनिक दमन को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (तीसरी किस्त)

आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि से भारतीय पूँजीपति वर्ग युध्दोत्तर काल में इतना मजबूत हो चुका था कि ब्रिटेन पर देश छोड़ने के लिए दबाव बना सके, पर जनसंघर्षों से डरने की अपनी प्रवृत्तिा के चलते उसे समझौते से ही राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करनी थी। ब्रिटिश आर्थिक हितों की सुरक्षा का आश्वासन देना और साम्राज्यवादी विश्व से असमानतापूर्ण शर्तों पर बँधो रहना उसकी वर्ग प्रकृति के सर्वथा अनुकूल था। युध्द के दौरान भारत के औद्योगिक उत्पादन में भारी वृध्दि हुई थी। फौजी आपूर्तियों के लिए प्राप्त भारी ऑर्डरों की बदौलत तथा युध्द के दौरान आयात के अभाव के चलते देशी बाजार की माँग का भरपूर लाभ उठाकर भारतीय उद्योगपतियों ने काफी पूँजी संचित की तथा शेयरों की खरीद के जरिये उन क्षेत्रों में भी प्रवेश किया (जैसे चाय बागान, जूट उद्योग आदि) जो अब तक ब्रिटिश पूँजी के अनन्य क्षेत्र थे। रसायन उद्योग (जैसे टाटा और इम्पीरियल केमिकल्स के बीच) और ऑटोमोबाइल (जैसे बिड़ला और एनफील्ड के बीच) आदि क्षेत्रों में भारतीय शीर्ष उद्योगपति मिश्रित कम्पनियाँ बनाने लगे। टाटा, बिड़ला, डालमिया-जैन आदि भारतीय इजारेदार समूह ब्रिटिश इजारेदार समूहों के छोटे भागीदार बनने लगे।

एँगेल्स – मार्क्‍स की समाधि पर भाषण

जैसेकि जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्‍स ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्होंने इस सीधी-सादी सच्चाई का पता लगाया जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढकी हुई थी — कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म, आदि में लगने के पूर्व मनुष्य जाति को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलत: किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की यात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएँ, क़ानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म सम्बन्धी धारणाएँ भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सबकी व्याख्या की जा सकती है, न कि इससे उल्टा, जैसाकि अब तक होता रहा है।

मई दिवस का सन्देश – स्मृति से प्रेरणा लो! संकल्प को फौलाद बनाओ! संघर्ष को सही दिशा दो!

जब तक लोग कुछ सपनों और आदर्शों को लेकर लड़ते रहते हैं, किसी ठोस, न्यायपूर्ण मकसद को लेकर लड़ते रहते हैं, तब तक अपनी शहादत की चमक से राह रोशन करने वाले पूर्वजों को याद करना उनके लिए रस्म या रुटीन नहीं होता। यह एक जरूरी आपसी, साझा, याददिहानी का दिन होता है, इतिहास के पन्नों पर लिखी कुछ धुँधली इबारतों को पढ़कर उनमें से जरूरी बातों की नये पन्नों पर फिर से चटख रोशनाई से इन्दराजी का दिन होता है, अपने संकल्पों से फिर नया फौलाद ढालने का दिन होता है।

शिकागो के शहीद मजदूर नेताओं की अमर कहानी

अगला दिन (11 नवम्बर 1887) मजदूर वर्ग के इतिहास में काला शुक्रवार था। पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल और फिशर को शिकागो की कुक काउण्टी जेल में फाँसी दे दी गयी। अफसरों ने मजदूर नेताओं की मौत का तमाशा देखने के लिए शिकागो के दो सौ अमीरों को बुला रखा था। लेकिन मजदूरों को डर से काँपत हुए देखने की उनकी तमन्ना धरी की धरी रह गयी। वहाँ मौजूद एक पत्रकार ने बाद में लिखा : ”चारों मजदूर नेता क्रान्तिकारी गीत गाते हुए फाँसी के तख्ते तक पहुँचे और शान के साथ अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो हुए। फाँसी के फन्दे उनके गलों में डाल दिये गये। स्पाइस का फन्दा ज्यादा सख्त था, फिशर ने जब उसे ठीक किया तो स्पाइस ने मुस्कुराकर धन्यवाद कहा। फिर स्पाइस ने चीखकर कहा, ‘एक समय आयेगा जब हमारी खामोशी उन आवाजों से ज्यादा ताकतवर होगी जिन्हें तुम आज दबा डाल रहे हो।…’ फिर पार्सन्स ने बोलना शुरू किया, ‘मेरी बात सुनो… अमेरिका के लोगो! मेरी बात सुनो… जनता की आवाज को दबाया नहीं जा सकेगा…’ लेकिन इसी समय तख्ता खींच लिया गया।”

अन्तरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर पूँजी की सत्ता के ख़िलाफ लड़ने का संकल्प लिया मजदूरों ने

गोरखपुर में पिछले वर्ष महीनों चला मजदूर आन्दोलन कोई एकाकी घटना नहीं थी, बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में उठती मजदूर आन्दोलन की नयी लहर की शुरुआत थी। आन्दोलन के खत्म होने के बाद बहुत से मजदूर अलग-अलग कारख़ानों या इलाकों में भले ही बिखर गये हों, मजदूरों के संगठित होने की प्रक्रिया बिखरी नहीं बल्कि दिन-ब-दिन मजबूत होकर आगे बढ़ रही है। इस बार गोरखपुर में अन्तरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के आयोजन में भारी पैमाने पर मजदूरों की भागीदारी ने यह संकेत दे दिया कि पूर्वी उत्तर प्रदेश का मजदूर अब अपने जानलेवा शोषण और बर्बर उत्पीड़न के ख़िलाफ जाग रहा है।
यूँ तो विभिन्न संशोधनवादी पार्टियों और यूनियनों की ओर से हर साल मजदूर दिवस मनाया जाता है लेकिन वह बस एक अनुष्ठान होकर रह गया है। मगर बिगुल मजदूर दस्ता की अगुवाई में इस बार गोरखपुर में मई दिवस मजदूरों की जुझारू राजनीतिक चेतना का प्रतीक बन गया।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (दूसरी किस्त)

भारतीय बुर्जुआ वर्ग की यह चारित्रिक विशेषता थी कि वह उपनिवेशवादी ब्रिटेन की मजबूरियों और साम्राज्यवादी विश्व के अन्तरविरोधों का लाभ उठाकर अपनी आर्थिक शक्ति बढ़ाता रहा था और ‘समझौता-दबाव-समझौता’ की रणनीति अपनाकर कदम-ब-कदम राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने की दिशा में आगे बढ़ रहा था। व्यापक जनसमुदाय को साथ लेने के लिए भारतीय बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि कांग्रेस पार्टी प्राय: गाँधी के आध्‍यात्मिक चाशनी में पगे बुर्जुआ मानवतावादी यूटोपिया का सहारा लेती थी। किसानों के लिए उसके पास गाँधीवादी ‘ग्राम-स्वराज’ का नरोदवादी यूटोपिया था। जब-तब वह पूँजीवादी भूमि-सुधार की बातें भी करती थी, लेकिन सामन्तों-जमींदारों को पार्टी में जगह देकर उन्हें बार-बार आश्वस्त भी किया जाता था कि उनका बलात् सम्पत्तिहरण कदापि नहीं किया जायेगा। मध्‍यवर्ग को लुभाने के लिए कांग्रेस के पास नेहरू, सुभाष और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रैडिकल समाजवादी नारे थे, जिनका व्यवहारत: कोई मतलब नहीं था और इस बात को भारतीय पूँजीपति वर्ग भी समझता था। ब्रिटिश उपनिवेशवादी भी समझते थे कि नेहरू का ”समाजवाद” ब्रिटिश लेबर पार्टी के ”समाजवाद” से भी ज्यादा थोथा, लफ्फाजी भरा और पाखण्डी है। भारतीय पूँजीपति वर्ग राजनीतिक स्वतन्त्रता के निकट पहुँचते जाने के साथ ही यह समझता जा रहा था कि आधुनिक औद्योगिक भारत का नेहरू का सपना बुर्जुआ आकांक्षाओं का ही मूर्त रूप था।