Category Archives: इतिहास

लेनिन कथा के दो अंश…

लेनिन मज़दूरों के और पास खिसक आये और समझाने लगे कि यह सही है कि मज़दूरों को जानकारी, अनुभव के बग़ैर जन-कमिसारियतों में कठिनाई हो रही है मगर सर्वहारा के पास एक तरह की जन्मजात समझ-बूझ है। जन-कमिसारियतों में हमारी अपनी, पार्टी की, सोवियतों की नीति पर अमल करवाने की ज़रूरत है। यह काम अगर मज़दूर नहीं करेंगे, तो और कौन करेगा? सब जगह मज़दूरों के नेतृत्व, मज़दूरों के नियन्त्रण की ज़रूरत है।

“और अगर ग़लती हो गयी तो?”

“ग़लती होगी, तो सुधारेंगे। नहीं जानते तो सीखेंगे। इस तरह साथियो,” खड़े होते हुए व्लादीमिर इल्यीच ने दृढ़तापूर्वक कहा, “कि पार्टी ने अगर आपको भेजा है, तो अपना कर्त्तव्य निभाइये।” और फिर अपनी उत्साहवर्धक मुस्कान के साथ दोहराया, “नहीं जानते तो सीखेंगे।”

भारतीय मज़दूर वर्ग की पहली राजनीतिक हड़ताल (23-28 जुलाई, 1908)

जिस तरह आज़ादी की लड़ाई में मज़दूर-किसानों की शानदार भूमिका और मेहनतकशों की लाखों-लाख कुर्बानियों की चर्चा तक नहीं की जाती उसी तरह मज़दूरों के इस ऐतिहासिक संघर्ष पर भी साज़िशाना तरीक़े से राख और धूल की परत चढ़ाकर इसे भुला दिया गया। लगता है हमारे तथाकथित इतिहासकारों और नेताओं को इन संघर्षों का जिक्र करते हुए भय और शर्म की अनुभूति होती है। 15 अगस्त और 26 जनवरी को झण्डा फहराते हुए ‘साबरमती के सन्त’ के कारनामों की तो चर्चा होती है, अंग्रेज़ों के दल्ले तक ‘महान स्वतंत्रता सेनानी’ बन जाते हैं किन्तु जब देश की मेहनतकश जनता ने अपने ख़ून से धरती को लाल कर दिया था, और जिन जनसंघर्षों के दबाव के कारण अंग्रेज़ भागने को मजबूर हुए उनका कभी नाम तक नहीं लिया जाता।

मार्क्स – क्रान्तिकारियों के शिक्षक और गुरु

मार्क्स बहुत अच्छे ढंग से सिखाते थे। वे संक्षिप्ततम सम्भव रूप में किसी प्रस्थापना का निरूपण करते और फिर अधिकतम सावधानी के साथ मज़दूरों की समझ में न आनेवाली अभिव्यक्तियों से बचते हुए उसकी विस्तृत व्याख्या करते। उसके बाद अपने श्रोताओं को प्रश्न पूछने के लिए आमन्त्रित करते थे। अगर प्रश्न न पूछे जाते, तो वे जाँच करना शुरू कर देते और ऐसी शैक्षणिक निपुणता के साथ जाँच करते कि कोई ख़ामी, कोई ग़लतफ़हमी उनकी निगाह से बच नहीं रहती थी।

मई दिवस की क्रान्तिकारी विरासत से प्रेरणा लो!

आज के दौर में औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूर वर्ग के काम के जो हालात हैं और पूँजीपतियों का समूचा गिरोह, उनकी सरकारें और पुलिस-क़ानून-अदालतें जिस तरह उसके ऊपर एकजुट होकर हमले कर रही हैं उससे मज़दूर वर्ग स्वयं यह सीखता जा रहा है कि उसकी लड़ाई अलग-अलग पूँजीपतियों से नहीं बल्कि समूची व्यवस्था से है। यह ज़मीनी सच्चाई अर्थवाद के आधार को अपनेआप ही कमज़ोर बना रही है और मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना के उन्नत होने के लिए अनुकूल ज़मीन मुहैया करा रही है। इसकी सही पहचान करना और इस आधार पर मज़दूर आबादी के बीच घनीभूत एवं व्यापक राजनीतिक प्रचार की कार्रवाइयाँ संचालित करना ज़रूरी है। मज़दूरों की व्यापक आबादी को यह भी बताया जाना चाहिए कि असेम्बली लाइन का बिखराव आज भले ही मज़दूरों को संगठित करने में बाधक है लेकिन दूरगामी तौर पर यह फ़ायदेमन्द है।

पेरिस कम्यून की वर्षगाँठ (18 मार्च) के अवसर पर

सत्ता हासिल करने के बाद सर्वहारा वर्ग को हर सम्भव कोशिश करनी चाहिये कि उसके राज्य के उपकरण समाज के सेवक से समाज के स्वामी के रूप में न बदल जायें। सर्वहारा राज्य के विभिन्न अंगों-उपांगों में काम करने वाले सभी कार्यकर्ताओं के लिए ऊँची तनख़्वाहें पाने और एकाधिक पदों पर एक साथ काम करते हुए एकाधिक तनख्वाहें पाने की व्यवस्था समाप्त कर दी जानी चाहिये, और इन कार्यकर्ताओं को किसी विशेष सुविधा का लाभ नहीं उठाना चाहिए।

नौसेना विद्रोह (18-23 फ़रवरी, 1946)-एक ज्वलन्त इतिहास

आज भले ही बिकाऊ पूँजीवादी मीडिया के घटाघोप में ये घटनाएँ विस्मृति के गर्त में समा गयी हों, लेकिन इस देश की मेहनतकश आवाम के लिए अपने शूरवीरों की कुर्बानियों की याददिहानी बेहद ज़रूरी है। शाही नौसेना का विद्रोह हमारे स्वाधीनता संग्राम की एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसके इतिहास से पता चलता है कि वास्तविक संघर्ष संगठित होने पर अंग्रेजों और देशी बुर्जुआ नेताओं की धुकधुकी कैसे बढ़ जाती थी। प्रख्यात इतिहासकार सुमित सरकार के अनुसार ‘‘आज़ाद हिन्द फौज के जवानों के ठीक विपरीत शाही नौसेना के इन नाविकों को कभी राष्ट्रीय नायकों जैसा सम्मान नहीं मिला, यद्यपि उनके कारनामों में कुछ अर्थों में आज़ाद हिन्द पफ़ौज के फौजियों से कहीं अधिक ख़तरा था। जापानियों के युद्धबन्दी शिविर की कठिनाई भरी ज़िन्दगी जीने से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होना कहीं बेहतर था।’’

रूसी क्रान्ति की सच्ची सेनानी नादेज़्दा क्रुप्स्काया को श्रद्धांजलि

समाजवाद के निर्माण का अर्थ केवल विशालकाय फ़ैक्टरियों और आटे की मिलों का निर्माण करना नहीं है। ये चीज़ें ज़रूरी हैं, किन्तु समाजवाद का निर्माण इतने से नहीं नहीं हो सकता। आवश्यक है कि लोगों के मस्तिष्कों और हृदयों का भी विकास किया जाये। और, प्रत्येक व्यक्ति की इस वैयक्तिक उन्नति के आधार पर, अन्ततोगत्वा एक, नये प्रकार की बलशाली समाजवादी सामूहिक इच्छा की सृष्टि की जाये जिसके अन्दर “मैं” और “हम” अभिन्न रूप से मिलकर एकाकार हो जाएँ। इस तरह की सामूहिक इच्छा का विकास गहरी वैचारिक एकता तथा उतने ही गहरे परस्परिक सौहार्द-भाव एवं आपसी समझदारी के आधार पर ही किया जा सकता है।

पेरिस कम्यून: पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (सातवीं किश्त)

वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों पर गठित एक पार्टी का अभाव उन ऐतिहासिक घड़ियों में कम्यून की गतिविधियों को बुरी तरह प्रभावित कर रहा था। इण्टरनेशनल की फ्रांस शाखा सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक हरावल बनने से चूक गयी थी। उसके अन्दर मार्क्सवादी विचारधारा के लोगों की संख्या भी बहुत कम थी। फ्रांसीसी मज़दूरों में सैद्धान्तिक पहलू बहुत कमज़ोर था। उस समय तक ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’,‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’, ‘पूँजी’ आदि मार्क्स की प्रमुख रचनाएँ अभी फ्रांसीसी भाषा में प्रकाशित भी नहीं हुई थीं। कम्यून के नेतृत्व में बहुतेरे ब्लांकीवादी और प्रूधोंवादी शामिल थे, जो मार्क्सवादी सिद्धान्तों से या तो परिचित ही नहीं थे, या फिर उसके विरोधी थे। आम सर्वहाराओं द्वारा आगे ठेल दिये जाने पर उन्होंने सत्ता हाथ में लेने के बाद बहुतेरी चीज़ों को सही ढंग से अंजाम दिया और आने वाली सर्वहारा क्रान्तियों के लिए बहुमूल्य शिक्षाएँ दीं, पर अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के कारण उन्होंने बहुतेरी ग़लतियाँ भी कीं। कम्यूनार्डों की एक बड़ी ग़लती यह थी कि वे दुश्मन की शान्तिवार्ताओं की धोखाधड़ी के शिकार हो गये और दुश्मन ने इस बीच युद्ध की तैयारियाँ मुकम्मिल कर लीं। जैसा कि मार्क्स ने लिखा हैः “जब वर्साय अपने छुरे तेज़ कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था; जब वर्साय युद्ध की तैयारी कर रहा था तो पेरिस वार्ताएं कर रहा था।” दुश्मन का पूरी तरह सफाया न करना, वर्साय पर हमला न करना, और क्रान्ति को पूरे देश में न फैलाना कम्यून वालों की सबसे बड़ी भूल थी और सच यह है कि नेतृत्व में मार्क्सवादी विचारधारा के अभाव के चलते यह गलती होनी ही थी।

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (छठी किश्त)

आज से 141 वर्ष पहले, 18 मार्च 1871 को फ़्रांस की राजधानी पेरिस में पहली बार मज़दूरों ने अपनी हुक़ूमत क़ायम की। इसे पेरिस कम्यून कहा गया। उन्होंने शोषकों की फैलायी इस सोच को ध्वस्त कर दिया कि मज़दूर राज-काज नहीं चला सकते। पेरिस के जाँबाज़ मज़दूरों ने न सिर्फ पूँजीवादी हुक़ूमत की चलती चक्की को उलटकर तोड़ डाला, बल्कि 72 दिनों के शासन के दौरान आने वाले दिनों का एक छोटा-सा मॉडल भी दुनिया के सामने पेश कर दिया कि समाजवादी समाज में भेदभाव, ग़ैर-बराबरी और शोषण को किस तरह ख़त्म किया जायेगा। आगे चलकर 1917 की रूसी मज़दूर क्रान्ति ने इसी कड़ी को आगे बढ़ाया।

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (पाँचवी किश्त)

कम्यून में महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण ओहदे और ज़िम्मेदारी वाले व्यक्ति को भी कोई विशेषाधिकार नहीं हासिल था। मज़दूर और अफ़सरों-मन्त्रियों के तनख्वाहों के भीतर पूँजीवादी हुक़ूमत के दौरान जो आकाश-पाताल का अन्तर था, उसे ख़त्‍म कर दिया गया। राज्य के नेता जो वेतन लेते थे वह एक कुशल मज़दूर के वेतन के बराबर होता था। अधिक काम करना उनका अनिवार्य कर्तव्य था, पर उन्हें अधिक वेतन लेने का या किसी भी तरह की विशेष सुविधा का कोई अधिकार नहीं था। यह एक अभूतपूर्व चीज़ थी। इसने ‘सस्ती सरकार’ के नारे को सच्चे अर्थों में यथार्थ में बदल दिया। इसने शासकीय मामलों के संचालन के इर्द-गिर्द निर्मित ”रहस्य” और ”विशिष्टता” के उस वातावरण को समाप्त कर दिया जो शोषक वर्ग द्वारा जनता को मूर्ख बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। इसने राजकीय मामलों के संचालन को सीधे-सीधे एक कामगार के कर्तव्यों में बदल दिया और राज्य के पदाधिकारियों को ‘विशेष औजारों’ से काम लेने वाले कामगारों में रूपान्तरित कर दिया। कम्यून के नेताओं पर काम का बहुत बोझ था। काउंसिल के सदस्यों को क़ानून बनाने के अलावा कई कार्यकारी और सैनिक ज़िम्मेदारियाँ भी उठानी पड़ती थीं।