Category Archives: इतिहास

पेरिस कम्यून : पहले मज़दूर राज की सचित्र कथा (प्रथम किश्त)

शुरुआती दौर में जब मज़दूरों ने अपनी माँगों के लिए हड़ताल करना शुरू किया तो उनके पस ऐसा कोई संगठन नहीं होता था जो हड़ताल के दौरान पैदा होने वाली एकजुटता को आगे भी क़ायम रख सके। मज़दूर वर्ग की सभी संस्थाएँ और संघ ग़ैर-क़ानूनी माने जाते थे इसलिए मज़दूरों ने गुप्त सोसायटियाँ बनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इनकी संख्या और सक्रियता बढ़ती चली गयी। मज़दूरों के संघर्ष के कारण आख़िरकार इंग्लैण्ड की सरकार को 1824 में उन क़ानूनों को रद्द करना पड़ा जो संगठन बनाने को प्रतिबन्धित करते थे। इसके बाद जल्दी ही उद्योग की प्रत्येक शाखा में ट्रेड-यूनियनें बन गयीं जो बुर्जुआ वर्ग के अत्याचार और अन्याय से मज़दूरों को बचाने का काम करने लगीं। उनके उद्देश्य थे : सामूहिक समझौते से मज़दूरी तय कराना, मज़दूरी में यथासम्भव बढ़ोत्तरी कराना, कारखानों की प्रत्येक शाखा में मज़दूरी का समान स्तर क़ायम रखना। ऐसी कई यूनियनों ने मिलकर राष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों को एकजुट करने के प्रयास भी शुरू कर दिये। यूनियनों के संघर्ष के तरीके थे — हड़ताल, फिर हड़ताल तोड़ने वाले मज़दूरों का मुक़ाबला करना और यूनियन से बाहर रहने वाले मज़दूरों को शामिल होने के लिए राज़ी करना। यूनियनों की कार्रवाइयों से मज़दूरों की चेतना और संगठनबद्धता बहुत तेज़ी से बढ़ने लगी।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (बारहवीं किस्त)

भारतीय पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों ने बड़ी कुशलता के साथ पूँजीवादी विकास के अपने रास्ते को समाजवाद के आवरण में पेश किया। भाकपा, माकपा और कुछ अन्य कम्युनिस्ट नामधारी पार्टियाँ भी इसी को समाजवाद की दिशा में कदम का दाम देती थीं और राष्ट्रीकरण की रट लगाती रहती थीं। आज भी ये पार्टियाँ सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण पर इस कदर मातम करती हैं मानो वास्तव में जनता से समाजवाद छीन लिया गया हो। क्या बड़े उद्योगों पर सरकार का स्वामित्व ही समाजवाद है? पूँजीवाद के तहत होने वाला राष्ट्रीकरण विशुद्ध पूँजीवाद ही होता है। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के नौकरशाहों और टेक्नोक्रेट के रूप में एक विशाल नौकरशाह पूँजीपति वर्ग अस्तित्व में आया। इन उद्योगों में काम करने वाले मज़दूरों से उगाहे गये अतिरिक्त मूल्य का हस्तगतकर्ता जनता नहीं थी। इसकी भारी मात्रा पूँजीपतियों को अपने उद्योगों के विकास में मदद के लिए थमा दी जाती थी और बाकी नौकरशाह पूँजीपतियों के नये वर्ग के ऐशो-आराम और विलासिता पर खर्च होती थी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शीर्षस्थ अफसर अपने ऊपर करोड़ों रुपये खर्च करते थे।

बंगाल के अकाल पर नयी पुस्तक : ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के बर्बर युद्ध-अपराध पर नयी रोशनी

चर्चिल की नीतियों ने बंगाल के अकाल को जन्म दिया। गाँव के गाँव वीरान हो गये। कलकत्ता की सड़कें लाशों से पटने लगीं। शोरबे और दलिया के लिए जगह-जगह सैकड़ों चलते-फिरते अस्थिपंजर लाइन लगाकर खड़े रहते थे और कई वहीं मर जाते थे। लाखों बेसहारा बच्चे सड़कों पर भटक रहे थे। भूखी माँओं ने अपने बच्चों को ज़िन्दा रखने के लिए शरीर बेचना शुरू किया। वेश्यालयों में भीड़ लग गयी। स्थिति ऐसी हो गयी कि कुलीन मध्य वर्ग के लोग भी इस हालात से निबटने के उपायों पर बात करने लगे। सड़कों पर सड़ती लाशों, अधमरे लोगों और दावतें उड़ाते कुत्तों को देख-देखकर उन्हें भी परेशानी होने लगी। हालाँकि उस समय भी कलकत्ता के ऊँचे दर्ज़े के होटलों में पाँच कोर्स वाले भव्य लंच-डिनर परोसे जा रहे थे।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (ग्यारहवीं किस्त)

पिछले साठ वर्षों के बीच ”लोकतन्‍त्रात्मक गणराज्य” या ”जनवादी गणराज्य” का जो अमली रूप सामने आया है उसने जनता के साथ हुई धोखाधड़ी को एकदम नंगा कर दिया है। इस बात का प्राय: बहुत अधिक डंका पीटा जाता है कि भारत का बहुदलीय संसदीय जनवाद साठ वर्षों से सुचारु रूप से चल रहा है। बेशक शासक वर्गों की इस हुनरमन्‍दी को मानना पड़ेगा कि साठ वर्षों से यह धोखाधड़ी जारी है! मगर सच यह भी है कि असलियत जनता से छुपी नहीं रह गयी है। यदि जनवाद का यह वीभत्स प्रहसन जारी है तो इसके पीछे बुनियादी कारण है राज्यसत्ता का दमन तन्‍त्र, शासक वर्गों द्वारा चतुराईपूर्वक अपने सामाजिक आधारों का विस्तार तथा जनता के जाति-धर्म के आधारों पर बाँटने के कुचक्रों की सफलता। लेकिन इससे भी बड़ा बुनियादी कारण है, इस व्यवस्था के किसी व्यावहारिक क्रान्तिकारी विकल्प का संगठित न हो पाना।

ऐतिहासिक मई दिवस से मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के नये दौर की शुरुआत

पिछली 1 मई को नई दिल्ली के जन्तर-मन्तर का इलाक़ा लाल हो उठा था। दूर-दूर तक मज़दूरों के हाथों में लहराते सैकड़ों लाल झण्डों, बैनर, तख्तियों और मज़दूरों के सिरों पर बँधी लाल पट्टियों से पूरा माहौल लाल रंग के जुझारू तेवर से सरगर्म हो उठा। देश के अलग-अलग हिस्सों से उमड़े ये हज़ारों मज़दूर ऐतिहासिक मई दिवस की 125वीं वर्षगाँठ के मौक़े पर मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन 2011 क़े आह्वान पर हज़ारों मज़दूरों के हस्ताक्षरों वाला माँगपत्रक लेकर संसद के दरवाज़े पर अपनी पहली दस्तक देने आये थे।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (दसवीं किस्त)

भारत जैसे किसी भी कृषि प्रधान पिछड़े हुए समाज में क्रान्तिकारी ढंग से भूमि-सम्बन्धों को बदले बिना व्यापक जनसमुदाय की सामूहिक पहलक़दमी और सामूहिक निर्णय की शक्ति विकसित ही नहीं की जा सकती थी और ऐसा किये बिना साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद भी सम्भव नहीं हो सकता था। चीन की लोक जनवादी क्रान्ति ने यही काम कर दिखाया था, जबकि भारत में यह सम्भव नहीं हो सका। इसके चलते भारतीय जनता न तो आन्तरिक तौर पर सम्प्रभुता-सम्पन्न हो सकी और न ही बाहरी तौर पर। संविधान में उल्लिखित सम्प्रभुता महज़ जुमलेबाज़ी ही बनकर रह गयी।

शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी

अपने संघर्ष के दौरान मज़दूर वर्ग ने बहुत-से नायक पैदा किये हैं। अल्बर्ट पार्सन्स भी मज़दूरों के एक ऐसे ही नायक हैं। यह कहानी अल्बर्ट पार्सन्स और शिकागो के उन शहीद मज़दूर नेताओं की है, जिन्हें आम मेहनतकश जनता के हक़ों की आवाज़ उठाने और ‘आठ घण्टे के काम के दिन’ की माँग को लेकर मेहनतकशों की अगुवाई करने के कारण 11 नवम्बर, 1887 को शिकागो में फाँसी दे दी गयी। मई दिवस के शहीदों की यह कहानी हावर्ड फास्ट के मशहूर उपन्यास ‘दि अमेरिकन’ का एक हिस्सा है। इसमें शिलिंग नाम का बढ़ई मज़दूर आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले जज पीटर आल्टगेल्ड को अल्बर्ट पार्सन्स की ज़िन्दगी और शिकागो में हुई घटनाओं और मज़दूर नेताओं की कुर्बानी के बारे में बताता है।

एक नयी पहल! एक नयी शुरुआत! एक नयी मुहिम! मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन को एक तूफ़ानी जनान्दोलन बनाओ!

इक्कीसवीं सदी में पूँजी और श्रम की शक्तियों के बीच निर्णायक युद्ध होना ही है। मेहनतकशों के सामने नारकीय ग़ुलामी, अपमान और बेबसी की ज़िन्दगी से निज़ात पाने का मात्र यही एक रास्ता है। गुज़रे दिनों की पस्ती-मायूसी भूलकर और पिछली हारों से ज़रूरी सबक लेकर एक नयी लड़ाई शुरू करनी होगी और जीत का भविष्य अपने हाथों गढ़ना होगा। शुरुआत पूँजीवादी हुकूमत के सामने अपनी सभी राजनीतिक माँगों को चार्टर के रूप में रखने से होगी। मज़दूरों को भितरघातियों, नकली मज़दूर नेताओं और मौक़ापरस्तों से होशियार रहना होगा। रस्मी लड़ाइयों से दूर रहना होगा। मेहनतकश की मुक्ति स्वयं मेहनतकश का काम है।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (नवीं किस्त)

भारतीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में तो राष्ट्रीय आन्दोलन के समय भी जुझारू भौतिकवाद और क्रान्तिकारी जनवाद का झण्डा नहीं था। यह पुनर्जारण-प्रबोधन की प्रक्रिया से आगे नहीं बढ़ा था, यह कृषि-दस्तकारी-मैन्युफैक्चरिंग की नैसर्गिक गति से विकसित न होकर औपनिवेशिक सामाजिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ था। गाँधी का क्लासिकी बुर्जुआ मानवतावाद भी जुझारू तर्कणा नहीं बल्कि धार्मिक सुधारवादी था और उनका धार्मिक सुधारवाद तोल्स्तोय से भी काफी पीछे था। दलितों के नेता अम्बेडकर भी जुझारू सामाजिक संघर्षों और रैडिकल भूमि सुधार के विरोधी थे, वे ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के संवैधनिक सुधारवाद के भक्त थे और फ्रांसीसी जन क्रान्ति जैसे जिस सामाजिक तूफान ने बुर्जुआ जनवादी मूल्यों (जिनके वे हामी थे) को जन्म दिया, वैसी किसी जन क्रान्ति से भी उनका परहेज़ था।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (आठवीं किस्त)

अम्बेडकर को लेकर भारत में प्रायः ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय “सवर्णवादी” का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा मार्क्‍सवादी स्थापनाओं या आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुक़सान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है? अम्बेडकर के विश्व-दृष्टिकोण, ऐतिहासिक विश्लेषण-पद्धति, उनके आर्थिक सिद्धान्तों और समाज-व्यवस्था के मॉडल पर ढंग से कभी बहस ही नहीं हो पाती।