Category Archives: समाज

आरक्षण आन्दोलन, रोज़गार की लड़ाई और वर्ग चेतना का सवाल

देश की तरह ही हरियाणा प्रदेश की जनता को भी यह बात समझनी होगी की हर जाति में मुट्ठीभर ऐसी आबादी है जो किसी भी तरह की प्रत्यक्ष उत्पादन की कार्रवाई में भागीदारी नहीं करती केवल पैदावार का बड़ा हिस्सा हड़प लेती है, और बहुसंख्या में ऐसी आबादी है जो अपनी खून-पसीने की मेहनत के बूते देश की हर सम्पदा का सृजन करती है। शोषक जमात के हित मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के साथ जुड़े होते हैं क्योंकि तमाम संसाधनों पर इनका नियंत्रण होता है जबकि मेहनतकश आवाम को इस व्यवस्था में अपनी हड्डियाँ गलाने के बावजूद केवल बेरोज़गारी, ग़रीबी, मुफ़लिसी और कुपोषण ही नसीब होते हैं। 35 बिरादरी बनाम एक बिरादरी के झगड़े में हमें नहीं पड़ना है क्योंकि असल में किसी भी समाज में दो ही बिरादरी होती हैं एक वो जो खुद मेहनत करती है और अपनी श्रम शक्ति को पूँजी के मालिकों के हाथों बेचने पर मजबूर होती है और दूसरी वह जो दूसरों की मेहनत पर जोंक की तरह पलती है। ग़रीब और मेहनतकश आबादी को वर्गीय आधार पर अपनी एकजुटता क़ायम करनी पड़ेगी। तभी एक ऐसे समाज की लड़ाई सफल हो सकेगी जिसमें हर हाथ को काम और हर व्‍यक्ति को सम्‍मान के साथ जीने का अधिकार मिलेगा।

महाराष्ट्र में 2 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार

गरीबी घटाकर दिखाने के इस हेरफ़ेर के बावजूद सरकार के ही आकड़ों के हिसाब से महाराष्ट्र में कुल आबादी का 30 फ़ीसद हिस्सा ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहा है। नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे और नेशनल सैम्पल सर्वे के अनुसार राज्य के 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और एक तिहाई वयस्क भी सामान्य से कम वज़न के हैं। इसी सर्वे के अनुसार महाराष्ट्र में हर साल कुपोषण से करीब 45,000 बच्चे मर जाते हैं यानी हर रोज 124 बच्चे। इतनी भयानक तस्वीर के बावजूद सत्ता में आने वाली हर सरकारें एक तो इनपर पर्दा डालने की कोशि‍श करती हैं इसके अतिरिक्त कुछ छोटी-मोटी स्कीमें चलाकर अपना पल्ला झाड़ लेती रही हैं।

भगतसिंह की बात सुनो!

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ाता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतन्त्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतन्त्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमाग़ी ग़ुलामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि – ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है – बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन के धर्म के बारे में दो उद्धरण

आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मुख्यतः सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ मेहनतकश अवाम की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति और पूँजीवाद की अन्धी शक्तियों के समक्ष उसकी प्रकटतः पूर्ण असहाय स्थिति है, जो हर रोज़ और हर घण्टे सामान्य मेहनतकश जनता को सर्वाधिक भयंकर कष्टों और सर्वाधिक असभ्य अत्याचारों से संत्रस्त करती है, और ये कष्ट और अत्याचार असामान्य घटनाओं–जैसे युद्धों, भूचालों, आदि–से उत्पन्न कष्टों से हज़ारों गुना अधिक कठोर हैं। “भ्‍य ने देवताओं को जन्म दिया।” पूँजी की अन्धी शक्तियों का भय–अन्धी इसलिए कि उन्हें सर्वसाधारण अवाम सामान्यतः देख नहीं पाता–एक ऐसी शक्ति है जो सर्वहारा वर्ग और छोटे मालिकों की ज़िन्दगी में हर क़दम पर “अचानक”, “अप्रत्याशित”, “आकस्मिक”, तबाही, बरबादी, गरीबी, वेश्यावृत्ति, भूख से मृत्यु का ख़तरा ही नहीं उत्पन्न करती, बल्कि इनसे अभिशप्त भी करती है। ऐसा है आधुनिक धर्म का मूल जिसे प्रत्येक भौतिकवादी को सबसे पहले ध्यान में रखना चाहिए, यदि वह बच्चों के स्कूल का भौतिकवादी नहीं बना रहना चाहता। जनता के दिमाग से, जो कठोर पूँजीवादी श्रम द्वारा दबी-पिसी रहती है और जो पूँजीवाद की अन्धी– विनाशकारी शक्तियों की दया पर आश्रित रहती है, शिक्षा देने वाली कोई भी किताब धर्म का प्रभाव तब तक नहीं मिटा सकती, जब तक कि जनता धर्म के इस मूल से स्वयं संघर्ष करना, पूँजी के शासन के सभी रूपों के ख़िलाफ़ ऐक्यबद्ध, संगठित, सुनियोजित और सचेत ढंग से संघर्ष करना नहीं सीख लेती।

पूँजीवादी खेती, अकाल और किसानों की आत्महत्याएँ

देश में सूखे और किसान आत्महत्या की समस्या कोई नयी नहीं है। अगर केवल पिछले 20 सालों की ही बात की जाये तो हर वर्ष 12,000 से लेकर 20,000 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। महाराष्ट्र में यह समस्या सबसे अधिक है और कुल आत्महत्याओं में से लगभग 45 प्रतिशत आत्महत्याएँ अकेले महाराष्ट्र में ही होती हैं। महाराष्ट्र में भी सबसे अधिक ये विदर्भ और मराठवाड़ा में होती हैं।

मज़दूरों की कत्लग़ाह बने चाय बागान

बागान मज़दूरों के श्रम को निचोड़कर मालिक जो बेहिसाब म़ुनाफ़ा कमाते हैं उसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चाय उत्पादन से होने वाला सालाना कारोबार 10,000 करोड़ रुपये का है। एक बड़े चाय बागान मकईबाड़ी ने तो हाल में चाय की नीलामी में 4 लाख 30 हज़ार रुपये किलो के भाव से चाय बेची! चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा बड़ा चाय उत्पादक है। भारत में वर्ष 2010 में चाय का उत्पादन 1.44 लाख टन था जो वर्ष 2014 में बढ़कर 1.89 लाख टन हो गया। ज़ाहिर है कि चाय उत्पादन की इस बढ़ोतरी में असंख्य बागान मज़दूरों का खून मिला हुआ है।

रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से उपजे कुछ अहम सवाल जिनका जवाब जाति-उन्मूलन के लिए ज़रूरी है!

रोहित के ही शब्दों में उसकी शख़्सियत, सोच और संघर्ष को उसकी तात्कालिक अस्मिता (पहचान) तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि रोहित इसके ख़िलाफ़ था, बल्कि इसलिए कि यह अन्ततः जाति उन्मूलन की लड़ाई को भयंकर नुकसान पहुँचाता है। हम आज रोहित के लिए इंसाफ़ की जो लड़ाई लड़ रहे हैं और रोहित और उसके साथी हैदराबाद विश्वविद्यालय में फासीवादी ब्राह्मणवादी ताक़तों के विरुद्ध जो लड़ाई लड़ते रहे हैं वह एक राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष है। यह अस्मिताओं का संघर्ष न तो है और न ही इसे बनाया जाना चाहिए। अस्मिता की ज़मीन पर खड़े होकर यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। इसका फ़ायदा किस प्रकार मौजूदा मोदी सरकार उठा रही है इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अब भाजपा व संघ गिरोह हैदराबाद विश्वविद्यालय के संघी छात्र संगठन के उस छात्र की जातिगत पहचान को लेकर गोलबन्दी कर रहे हैं, जिसकी झूठी शिकायत पर रोहित और उसके साथियों को निशाना बनाया गया। स्मृति ईरानी ने यह बयान दिया है कि उस बेचारे (!) छात्रा को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वह ओबीसी है! वास्तव में, ओबीसी तो अम्बेडकरवादी राजनीति के अनुसार दलित जातियों की मित्र जातियाँ हैं और इन दोनों को मिलाकर ही ‘बहुजन समाज’ का निर्माण होता है। मगर देश में जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं पर करीबी नज़र रखने वाला कोई व्यक्ति आपको बता सकता है कि पिछले कई दशकों से हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र और आन्ध्र से लेकर तमिलनाडु तक ग़रीब और मेहनतकश दलित जातियों की प्रमुख उत्पीड़क जातियाँ ओबीसी में गिनी जाने वाली तमाम धनिक किसान जातियाँ हैं। शूद्र जातियों और दलित जातियों की पहचान के आधार पर एकता करने की बात आज किस रूप में लागू होती है? क्या आज देश के किसी भी हिस्से में – उत्तर प्रदेश में, हरियाणा में, बिहार में, महाराष्ट्र में, आन्ध्र में, तेलंगाना में, कर्नाटक या तमिलनाडु में – जातिगत अस्मितावादी आधार पर तथाकथित ‘बहुजन समाज’ की एकता की बात करने का कोई अर्थ बनता है? यह सोचने का सवाल है।

राष्ट्रीय अनुसूचित-जाति आयोग का भी दलित-विरोधी चेहरा उजागर हुआ

दलि‍त-उत्पीड़न इस घटना का संज्ञान लेते हुए राष्ट्रीय अनुसूचि‍त आयोग के सदस्य ईश्वर सिंह ने गांव के दौरे के दौरान दोषि‍यों को सजा दि‍लवाने का आश्वासन दि‍या था। लेकि‍न पि‍छले डेढ़ माह की कार्रवाई के बाद एससी/एसटी आयोग का भी दलि‍त वि‍रोधी चेहरा उजागर हो गया है। पहले तो आयोग द्वारा पहली सुनवाई की तारीख को परि‍वार को देर से सूचि‍त कि‍या गया ताकि ‍पुलि‍स-प्रशासन मामले को समझौते में नि‍पटा दे जैसा कि‍प्राय: हरि‍याणा में दलि‍त उत्पीड़न की घटना में होता है। इस कारण हरि‍याण पुलि‍स बार-बार परि‍वार के बयान लेने के बहाने चक्‍कर लगवाती रही ताकि ‍परि‍वार-जन थककर मुआवजा लेकर शांत बैठ जायें। लेकि‍न परि‍वार-जन और अखि‍ल भारतीय जाति‍वि‍रोधी मंच ने ऋषि‍पाल के न्याय के संघर्ष के सख्त कदम उठाने की ठान रखी थी, इसलि‍ए पुलि‍स-प्रशासन का प्रयास असफल रहा। इसके बाद एससी/एसटी आयोग ने दूसरी सुनवाई पर परि‍वार-जन, मामले की जाँच कर रहे पुलि‍स अधि‍कारि‍यों को तलब कि‍या। परि‍वार-जन को उम्मीद थी कि देश की राजधानी के एससी/एसटी आयोग में न्याय मि‍लेगा। लेकि‍न एससी/एसटी आयोग हरि‍याणा के ईश्वर सिंह ने एकतरफा सुनवाई में परि‍वार को दोषी पुलि‍सकर्मियों पर से केस वापस लेने के लि‍ए डराया-धमकाया और मुआवज़ा वापस लेने की धौंस जमाई। आयोग के सदस्य ईश्वर सिंह की बदनीयत का इस से भी पता चलता है कि ‍उन्होंने सुनवाई में दलि‍त परि‍वार की क़ानूनी मदद के लि‍ए आये वकील को भी बाहर कर दि‍या। वैसे हरि‍याणा में वि‍पक्ष पार्टी होने के कारण कांग्रेस से जुड़े नेता ईश्वर सिंह भाणा गाँव के दौरे में लम्बी-चौडी़ बातें कर रहे थे लेकि‍न आयोग के बन्द कमरे में नेता जी ने बता दि‍या कि वह भी पुलि‍स-प्रशासन और दबंगों के साथ हैं।

हरियाणा पुलिस का दलित विरोधी चेहरा एक बार फिर बेनकाब

दलित उत्पीड़न के मामलों का समाज के सभी जातियों के इंसाफ़पसन्द लोगों को एकजुट होकर संगठित विरोध करना चाहिए। अन्य जातियों की ग़रीब आबादी को यह बात समझनी होगी की ग़रीब मेहनतकश दलितों, ग़रीब किसानों, खेतिहर मज़दूरों और समाज के तमाम ग़रीब तबके की एकजुटता और उसके अन्याय के विरुद्ध संघर्ष के बूते ही हम दलित विरोधी उत्पीड़न का मुकाबला कर सकते हैं। उन्होंने कहा – सवर्ण और मँझोली जातियों की ग़रीब-मेहनतकश आबादी को इस बात को समझना होगा कि यदि हम समाज के एक तबके को दबाकर रखेंगे, उसका उत्पीड़न करेंगे तो हम खुद भी व्यवस्था द्वारा दबाये जाने और उत्पीड़न के विरुद्ध अकेले लड़ नहीं पायेंगे। और दलित जातियों की ग़रीब-मेहनतकश आबादी को भी यह बात समझनी होगी कि तमाम तरह की पहचान की राजनीति, दलितवादी राजनीति से हम दलित उत्पीड़न का मुकाबला नहीं कर सकते। दलितों का वोट की राजनीति में एक मोहरे के सामान इस्तेमाल करने वाले लोग केवल रस्मी तौर पर ही मुद्दों को उछालते हैं और उन मुद्दों का वोट बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं। इनके लिए कार्टून महत्वपूर्ण मुद्दा बन जाता है किन्तु दलित उत्पीड़न के भयंकर मामलों के समय ये बस बयान देकर अपने-अपने बिलों में दुबक जाते हैं।

स्त्रियों के उत्पीड़न और बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के पीछे कारण क्या?

कुछ अव्वल दर्जे के मूर्ख इन घटनाओं के पीछे पश्चिमी मूल्यों के प्रभाव की बात करते नहीं थकते। लेकिन असल बात यह है कि आज स्त्रियों पर बढ़ रहे अत्याचारों का सबसे बड़ा कारण यह है कि आज हम जिस समाज में जी रहे हैं वह एक पितृसत्तात्मक समाज है, यानी कि पुरुष प्रधान समाज है। यह समाज स्त्रियों को भोग विलास की वस्तु और बच्चा पैदा करने (यानी कि ‘यशस्वी पुत्र’) का यन्त्र समझता है। हमारे समाज में प्रभावी पुरुषवादी मानसिकता स्त्रियों को चाभी का खिलौना समझती है जिसे जैसे मर्जी इस्तेमाल किया जा सकता है। तभी स्त्रियों के साथ होने वाली घटनाओं के पीछे 50 से 60 फीसदी उनके अपने नज़दीकी रिश्तेदार या पड़ोसी होते है और ऐसी घटनाओं में माँ-बाप को पता होने के बावजूद वे चुप ही रहते हैं क्योंकि ऐसी घटनाओं में बिना सोचे समझे स्त्रियों को ही दोषी ठहरा दिया जाता है। इन घटनाओं के पीछे दूसरा सबसे बड़ा कारण ये पूँजीवादी व्यवस्था है जिसने स्त्रियों को उपभोग की वस्तु बना दिया है पिछले दो दशकों में स्त्री-विरोधी अपराधों में बढ़ोत्तरी के कारण को देखें तो तो साफ हो जायेगा कि 1990 में सरकार की उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों की वजह से पूरे देश में एक नव-धनाढ्य अभिजात वर्ग पैदा हुआ है जो खाओ-पियो-ऐश करो की संस्कृति में ही जीता है। जिसकी मानसिकता है कि वह पैसे के दम पर कुछ भी खरीद सकता है, और दूसरी तरफ उपभोक्तावादी संस्कृति में हर चीज़ की तरह स्‍त्री को भी एक बिकाऊ माल बना दिया है।