Category Archives: समाज

लुटेरे गिरोहों के शिकार औद्योगिक मज़दूर प्रशासन और फ़ैक्टरी मालिकों के ख़िलाफ़ संघर्ष की राह पर

लुधियाना में लूट-खसोट की वारदातों से तंग आकर बहादरके रोड वाले इलाक़े के हज़ारों फ़ैक्टरी मज़दूरों ने फ़ैक्टरियों में काम बन्द करके सुरक्षा बन्दोबस्त ना करने के ख़िलाफ़ पुलिस-प्रशासन और मालिकों के ख़िलाफ़ रोषपूर्ण प्रदर्शन किया। पिछले एक महीने में दर्जन से ज़्यादा लूट-खसोट की वारदातें इस इलाक़े में काम करने वाले मज़दूरों के साथ हो चुकी हैं। ये वारदातें आमतौर पर तनख़्वाह और एडवांस मिलने वाले दिनों में 10 से 15 तारीख़ और 25 से 30 तारीख़ के बीच होती हैं।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

भूख और कुपोषण से दुनिया भर में रोज़ 24 हज़ार लोग मरते हैं। इनमें से एक तिहाई मौतें भारत में होती हैं। भूख से मरने वालों में 18 हज़ार बच्चे होते हैं, जिनमें से 6 हज़ार बच्चे भारत के होते हैं। (जनसत्ता, 7 जुलाई 2013)

अपने बच्चों को बचाओ व्यवस्था के आदमख़ोर भेड़िये से!

इस दिल दहलाने वाली घटना ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हम आख़िर किस तरह के समाज में रह रहे हैं। कैसा है यह समाज जो ऐसे वहशी दरिन्दों को पैदा कर रहा है जो अपने मुनाफ़े के लिए छोटे-छोटे मासूम बच्चों को दर्दनाक मौत के हवाले कर दे रहे हैं। अभी तक मिले साक्ष्यों से ऐसे आरोपों की पुष्टि होती लग रही है कि बिहार में चुनावी राजनीति के तहत वर्तमान सरकार को कटघरे में खड़ा करने के लिए इस घिनौनी साज़िश को अंजाम दिया गया है। चुनावी राजनीति की सारी राहें ख़ून के दलदल से होकर ग़ुज़रती हैं, लाशों के ढेर पर ही सत्ता के सिंहासन सजते हैं, मगर अपने चुनावी मंसूबों के लिए नन्हे बच्चों की बलि चढ़ाने की यह घटना बताती है कि पूँजीवादी राजनीति पतन के किस गटर में डूब चुकी है।

हर साल लाखों माँओं और नवजात शिशुओं को मार डालती है यह व्यवस्था

किसी भी समाज की ख़ुशहाली का अनुमान उसके बच्चों और माँओं को देखकर लगाया जा सकता है। लेकिन जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे इस दुनिया में अपना एक दिन भी पूरा नहीं कर पाते और क़रीब सवा लाख स्त्रियाँ हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, वह कैसा समाज होगा, इसे कस्बे की ज़रूरत नहीं। आज़ादी के 66 साल बाद, जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं बल्कि एक घृणित अपराध है। और इसकी ज़िम्मेदार है यह पूँजीवादी व्यवस्था जिसके लिए ग़रीबों की ज़िन्दगी का मोल कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है।

सरकार की मानसिक विकलांगता और आमिर खान की कुपोषित बौद्धिकता

कोई भी जनता की सरकार और जनता का वास्तविक बुद्धिजीवी देश की मेहनतकश जनता के बीच जाकर उनके दुःख दर्द से जब गहरी तदनुभुति स्थापित करता है। उनके दर्द को अपना दर्द समझता है। तब वह जनता के दुःखों के वास्तविक कारणो का पता लगाकर उसका वास्तविक समाधान प्रस्तुत कर सकता है। मगर पूँजीवादी मीडिया द्वारा ब्राण्ड के रूप में गढ़े गये छद्म बुद्धिजीवी किसी भी समस्या का छद्म समाधान ही प्रस्तुत कर सकते हैं।

मंगोलपुरी की घटना ने फिर साबित किया कि आज न्याय, इंसाफ़ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है!

नगरनिगम, विधानसभा से लेकर संसद तक मौजूदा सरकारें समाज के धनी वर्गों की सेवा करती हैं। अमीरज़ादों के लिए बनाये गये सरकारी और निजी स्कूलों में सुरक्षा के सारे इन्तज़ाम हैं। जबकि ग़रीबों के बच्चों को बुनियादी सुरक्षा भी स्कूलों में नहीं दी जाती है, कि उनका जीवन सुरक्षित रहे। और तो और, ऐसी किसी घटना के बाद गरीब लोगों को आमतौर पर इंसाफ मिल ही नहीं पाता है। मंगोलपुरी की इस घटना के बाद प्रशासन का जो रवैया रहा उसने यही साबित किया कि मौजूदा व्यवस्था में न्याय, इंसाफ और सुरक्षा सिर्फ अमीरज़ादों के लिए ही है; जबकि मज़दूरों के लिए ये सिर्फ कागज़ी बातें है। मेहनतकश लोग अगर सच्चे मायनों में अपने और अपने बच्चों के लिए न्याय, इंसाफ और सुरक्षा चाहते हैं तो उन्हें मुनाफ़े पर टिकी मौजूदा व्यवस्था के ख़ात्मे के बारे में सोचना होगा।

‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ पर चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (12-16 मार्च, 2013), चण्डीगढ़ की रिपोर्ट

जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक मूल से लेकर उसकी गतिकी तक के बारे में अम्बेडकर की समझदारी बेहद उथली थी। नतीजतन, जाति उन्मूलन को कोई वैज्ञानिक रास्ता वह कभी नहीं सुझा सके। इसका एक कारण यह भी था कि अम्बेडकर की पूरी विचारधारा अमेरिकी व्यवहारवाद के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। लिहाज़ा, उनका आर्थिक कार्यक्रम अधिक से अधिक पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद तक जाता था, सामाजिक कार्यक्रम अधिक से अधिक धर्मान्तरण तक और राजनीतिक कार्यक्रम कभी भी संविधानवाद के दायरे से बाहर नहीं गया। कुल मिलाकर, यह एक सुधारवादी कार्यक्रम था और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ही कुछ सहूलियतें और सुधार माँगने से आगे कभी नहीं जाता था।

‘‘बेहतर भारत बनाने की मुहिम’’ किसके लिए और कैसे?

‘वालण्टियर फ़ॉर बेटर इंडिया’ अभियान शुरू करने वाले इस बाबा का वर्ग-विश्लेषण भी कर लिया जाए। आखिर इतने बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर, बैनर और इतने भव्य मंच आदि पर खर्च हुआ लाखों-करोड़ रुपया कहाँ से आता हैं? वैसे इस सवाल का जवाब ज़्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि श्री-श्री रविशंकर के सारे बैनरों के नीचे चान्दनी चौक से लेकर करोल बाग के सारे व्यापारी संघ के नाम साफ़-साफ़ दिख जाते हैं और वही व्यापारी हैं जो अपनी दुकानों-शोरूम पर काम कर रहे मज़दूरों से कोल्हू के बैल की तरह काम लेते हैं और किसी भी श्रम-कानून का पालन नहीं करते हैं। लेकिन, ज़ाहिर है कि श्री-श्री रविशंकर मज़दूरों के श्रम की लूट पर एक शब्द भी नहीं बोलेंगे क्योंकि इस लूट का एक हिस्सा श्री-श्री जी को चंदे के रूप में मिलता हैं। वैसे भी श्री-श्री रविशंकर के प्रवचन को सुनाने वाली आबादी खाए-पीए उच्च वर्ग से लेकर सेवा क्षेत्र में लगी मध्य वर्ग की वो आबादी हैं जिससे बाबा संगीतमय आध्यामिक नशे की खुराक देकर पूँजीवादी व्यवस्था के बेहतर पुर्जे बने रहने की शिक्षा देते हैं। स्पष्ट है, एक ओर श्री-श्री रविशंकर पूँजीवादी व्यवस्था के मजबूत सेवक हैं वहीं दूसरी तरफ वे खुद भी एक पूँजीपति हैं क्योंकि इनका ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ फाउण्डेश्न करीब 152 देशों में एक व्यवसाय के तौर पर काम कर रहा है। वैसे ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ का मतलब है; जीवन जीने की कला। अब यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि हज़ारों रुपये की फीस लेकर अमीरज़ादों को किस क़िस्म की ‘ज़िन्दगी जीने की कला’ सिखाई जाती होगी।

महाकुम्भ में सन्तों की घृणित मायालीला, विहिप की धर्मसंसद में साम्प्रदायिक प्रेत जगाने का टोटका और आम मेहनतकश जन के लिए कुछ ग़ौरतलब सवाल

अब ज़रा सोचिये! एक तरफ ये माया-मुक्त सन्त समाज है और दूसरी तरफ देश की 84 करोड़ जनता, जो सुबह से शाम तक खटने के बावजूद एक दिन में 20 रु. से अधिक नहीं कमा पाती। 9000 बच्चे भूख और कुपोषण से रोज़ मर जाते हैं और 36 करोड़ लोग बेघर या झुग्गी-झोंपड़ीवासी है। इस आबादी को भौतिक सुखों या ‘‘माया’’ से दूर रहने, कम से कम में जीने में ही आत्मिक सन्तोष प्राप्त करने का प्रवचन देने वाले बाबाओं का भोग-विलास देखकर तो आप भी शायद मेरी तरह यही कहेंगे – ग़रीब जनता के अमीर सन्तो! जनता को माया त्यागकर (जो कि वस्तुतः उसके पास है ही नहीं) परलोक सुधारने का उपदेश देने वालो! तुम्हारे परलोक का क्या होगा? तुम्हारी माया देखकर तो इन्द्र भी ख़ुशी-ख़ुशी स्वर्ग का सिंहासन छोड़ देंगे! तुम्हारे विलासी फूहड़ माया प्रदर्शन पर जितना धन ख़र्च होता है वो जनता पर किया जाता, तो परलोक की कौन जाने पर इहलोक से उनकी कुछ समस्याओं का अन्त ज़रूर हो जाता। हाँ! एक बात छूट रही थी कि भक्तों की जगह इन धर्मगुरुओं के हृदय में होती है (अब बाबा लोग तो यही बताते हैं!)। देखा नहीं, चिदानन्द स्वामी प्रीति जिंटा को साथ लेकर घूम रहे थे। यह ज़रूर है कि क्लास (वर्ग) का ध्यान बाबा लोग भी रखते हैं। तभी तो शाही स्नान का मार्ग सार्वजनिक कर दिये जाने पर अखाड़ा परिषद के महन्त ज्ञानदास मेला प्रशासन पर बिफ़र पड़े। उन्होंने बताया कि इससे इष्ट देव का अपमान होता है। इनके इष्ट देव को केवल एसी गाड़ियों में घूमने वाले साफ़-सुथरे, चिकने-चिकने लोग ही पसन्द हैं। पर धर्मगुरुओ, आपको कम से कम झूठ तो नहीं बोलना चाहिए!

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है (पन्‍द्रहवीं किश्त)

उच्चतम न्यायालय अधिकांश नागरिकों की पहुँच से न सिर्फ़ भौगोलिक रूप से दूर है बल्कि बेहिसाब मँहगी और बेहद जटिल न्यायिक प्रक्रिया की वजह से भी संवैधानिक उपचारों का अधिकार महज़ औपचारिक अधिकार रह जाता है। उच्चतम न्यायालय में नामी-गिरामी वकीलों की महज़ एक सुनवाई की फ़ीस लाखों में होती है। ऐसे में ज़ाहिर है कि न्याय भी पैसे की ताक़त से ख़रीदा जानेवाला माल बन गया है और इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि अमूमन उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले मज़दूर विरोधी और धनिकों और मालिकों के पक्ष में होते हैं। आम आदमी अव्वलन तो उच्चतम न्यायालय तक जाने की सोचता भी नहीं और अगर वो हिम्मत जुटाकर वहाँ जाता भी है तो यदि उसके अधिकारों का हनन करने वाला ताकतवर और धनिक है तो अधिकांश मामलों में पूँजी की ताक़त के आगे न्याय की उसकी गुहार दब जाती है।