Category Archives: समाज

ये मौतें बीमारी की वजह से हैं या कारण कुछ और है?

अब अगर स्वास्थ्य सेवाओं की बात की जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हेल्थ सिस्टम की रैंकिंग में भारत का स्थान पूरी दुनिया में 112वाँ है। गृहयुद्ध की मार झेल रहा लीबिया भी इस क्षेत्र में भारत से आगे है। भारत में हर तीस हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और हर सब डिविजन पर एक 100 बेड वाले सामान्य अस्पताल का प्रावधान है। आज की मौजूदा हालत में ये प्रावधान ऊंट के मुंह में जीरा ही हैं लेकिन असल में होता क्या है कि जनता तक ये प्रावधान भी नहीं पहुँच पाते हैं। मतलब नौबत ये है कि ऊंट के मुंह में जीरा तक नहीं है। भारत में आज के समय में 381 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें एक एमबीबीएस डॉक्टर को तैयार करने में 30 लाख से ज्यादा का खर्चा आता है। जाहिर है यह सब मेडिकल कॉलेज बनाने में और डॉक्टरों की पढ़ाई का सारा पैसा देश की जनता द्वारा दिए गए टैक्स से ही आता है, लेकिन यहाँ से डिग्री लेने के बाद अधिकतर डॉक्टर बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में या फिर निजी व्यवसाय में उसी जनता की जेब काटने में जुट जाते हैं। जो थोड़े से डॉक्टर सरकारी नौकरी करना भी चाहते हैं तो उनके लिए जन स्वास्थ्य सेवाओं या सरकारी अस्पतालों में वैकेंसी नहीं निकलती। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हजार की आबादी पर सिर्फ 9 बिस्तर मौजूद हैं। दूसरे देशों से तुलना की जाये तो क्यूबा में प्रति दस हजार आबादी 67 डॉक्टर हैं, रूस में 43, स्विट्ज़रलैंड में 40 और अमेरिका में 24 डॉक्टर हर दस हजार की आबादी पर हैं।

हिन्दुत्ववादी फासिस्टों द्वारा दंगा कराने के हथकण्डों का भण्डाफोड़

15 अगस्त की घटना का माहौल संघ परिवार द्वारा काफी पहले से ही बनाया जा रहा था। उस दिन वहाँ भीड़ जुटाने के लिए शाहाबाद डेरी, बवाना, नरेला आदि निकटवर्ती क्षेत्रों के संघ कार्यकर्ताओं को पहले से ही मुस्तैद कर दिया गया था। संघ परिवार द्वारा योजनाबद्ध ढंग से यह सबकुछ किये जाने के मुस्लिम समुदाय के आरोप के जवाब में संघ के प्रांत प्रचार-प्रमुख राजीव तुली ने मीडिया को बताया, ‘‘ये सभी आरोप आधारहीन हैं। स्थानीय मुस्लिम मस्जिद के सामने की जगह को क़ब्ज़ा करने की फ़ि‍राक में हैं। मस्जिद अनधिकृत है। दरअसल ये लोग हमारे राष्ट्रीय झण्डे का अनादर करते हैं।” बाहरी दिल्ली के डी.सी.पी. विक्रमजीत सिंह ने भी संघ के प्रांत प्रचार प्रमुख के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि मस्जिद सरकारी ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा करके बना है। सच्चाई तो यह है कि होलम्बी कलां फ़ेज-2 में मौजूद कुल 28 मन्दिर भी सरकारी ज़मीन पर बिना किसी अलॉटमेण्ट या अनुमति के ही बने हुए हैं और तीन और ऐसे मन्दिर निर्माणाधीन हैं, फिर इस एक मस्जिद को ही मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है।

बाबाओं का मायाजाल और ज़िन्दगी बदलने की लड़ाई के ज़रूरी सवाल

कहीं निर्मल बाबा तो कहीं कृपालु महाराज, कहीं मोरारी बापू तो कहीं भीमानन्द, कहीं सारथी बाबा तो कहीं प्रेमानन्द, कहीं बिन्दू बाबा तो कहीं नित्यानन्द; कहने की जरूरत नहीं है कि आपको अपने साम्राज्य बसाये, दन्द-फन्द और गन्द में लोट लगाते इतने बाबा मिल जायेंगे कि जिनके परिचय मात्रा से सैकड़ों पन्ने काले किये जा सकते हैं। बस कसर रह गयी थी एक राधे माँ की! खुद को दुर्गा का अवतार बताने वाली ये मोहतरमा फ़ि‍ल्मी गानों की धुन पर छोटे-छोटे कपड़ों में अश्लील किस्म का नृत्य करते हुए अपने असली रूप में भी अपने भक्तों को दर्शन देती रहती हैं। विभिन्न आरोप व छोटे-मोटे मुकदमे लगने के बाद इनके सितारे आजकल थोड़ा गर्दिश में चले गये हैं लेकिन इनके भक्तों की श्रद्धा-भक्ति-विश्वास की भावना आज भी देखते ही बनती है

चाय बागानों के मज़दूर भयानक ज़ि‍न्दगी जीने पर मजबूर

चाय बागानों के मज़दूरों में कुपोषण बड़े पैमाने पर फैला है। बीमारियों ने उनको घेर रखा है। उनको अच्छे भोजन, दवा-इलाज ही नहीं बल्कि आराम की बहुत ज़रूरत है, पर उनको इनमें से कुछ भी नहीं मिलता। सरकारी बाबुओं की रिटायरमेंट की उम्र से पहले-पहले बहुत सारे मज़दूरों की तो ज़ि‍न्दगी समाप्त हो जाती है। चाय बागानों में काम करने वाली 95 प्रतिशत औरतें खून की कमी का शिकार होती हैं। यहाँ औरतों के साथ-साथ बच्चों और बुजुर्गों से बड़े पैमाने पर काम लिया जाता है क्योंकि उनको ज़्यादा पैसे नहीं देने पड़ते और आसानी से दबा के रखा जा सकता है। बीमारी की हालत में भी चाय कम्पनियाँ मज़दूरों को छुट्टी नहीं देतीं। कम्पनी के डॉक्टर से चैकअप करवाने पर ही छुट्टी मिलती है और कम्पनी के डॉक्टर जल्दी छुट्टी नहीं देते। अगर बीमार मज़दूर काम करने से मना कर देता है तो उसको निकाल दिया जाता है। बेरोज़गारी इतनी है कि काम छूटने पर जल्दी कहीं और काम नहीं मिलता, इसलिए बीमारी में भी मज़दूर काम करते रहते हैं। उनकी बस्तियाँ बीमारियों का घर हैं। पर उनके पास इसी नर्क में रहने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता।

तर्कवादी चिन्तक कलबुर्गी की हत्या – धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों की एक और कायरतापूर्ण हरकत

प्रसिद्ध साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुके प्रोफेसर कलबुर्गी धारवाड़ स्थिति कर्नाटक विश्वविद्यालय में कन्नड़ विभाग के विभागाध्यक्ष रहे व बाद में हम्पी स्थित कन्नड़ विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। एक मुखर बुद्धिजीवी और तर्कवादी के रूप में कलबुर्गी का जीवन धार्मिक कुरीतियों, अन्धविश्वास, जाति-प्रथा, आडम्बरों और सड़ी-गली पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं के विरुद्ध बहादुराना संघर्ष की मिसाल रहा। इस दौरान कट्टरपंथी संगठनों की तरफ से उन्हें लगातार धमकियों और हमलों का सामना करना पड़ा पर इन धमकियों और हमलों को मुंह चिढ़ाते हुए कलबुर्गी अपने शोध-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में सदा मग्न रहे। प्रोफेसर कलबुर्गी एक ऐसे शोधकर्ता और इतिहासकार थे जिनकी इतिहास के अध्ययन, शोध और उद्देश्य को लेकर समझ यथास्थितिवाद के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करती थी। साथ ही कलबुर्गी अपने शोध कार्यों को अकादमिक गलियारों से बाहर नाटक, कहानियों, बहस-मुहाबसों के रूप में व्यवहार में लाने को हमेशा तत्पर रहते थे और यथास्थितिवाद के संरक्षकों, धार्मिक कट्टरपंथियों को उनकी यही बात सबसे ज्यादा असहज करती थी और इसीलिए उनकी कायरतापूर्ण हत्या कर दी गई

कब तक अन्‍धविश्‍वास की बलि चढ़ती रहेंगी महिलाएं

ग़ौर करने लायक तथ्य यह है कि अधिकांश मामलों में इस निरंकुश कुप्रथा की आड़ में ज़मीन हथियाने और ज़मीन संबंधी विवादों को कानूनेतर तरीकों से सुलटाने के इरादों को अंजाम दिया जाता है। अक़सर जब किसी परिवार में पति की मृत्यु के बाद ज़मीन का मालिकाना उसकी स्त्री को हस्तांतरित होता है तब नाते-रिश्तेदार ज़मीन को हथियाने के लिए इस बर्बर कुप्रथा का सहारा लेते हैं। विधवा महिला को डायन घोषित करके तमाम प्रकोपों, आपदाओं-विपदाओं, दुर्घटनाओं, बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर उसकी सामूहिक हत्या कर दी जाती है और इस तरह ज़मीन हथियाने के उनके इरादे पूरे हो जाते हैं। चूँकि भारतीय जनमानस में भी यह अंधविश्वास, कि उनके दुखों और तकलीफ़ों के लिए डायनों द्वारा किया गया काला जादू ज़िम्मेदार है, गहरे तक जड़ जमाये हुए है इसलिए वह डायन घोषित की गई महिलाओं की हत्या को न्यायसंगत ठहराने के साथ ही साथ इन क्रूरतम हत्याओं को अंजाम दिए जाने की बर्बर प्रक्रिया में भी शामिल होता है। निजी संपत्ति पर अधिकार जमाने की भूख को इस बर्बर निरंकुश स्त्री विरोधी कुकर्म से शांत किया जाता है।

मज़दूरों की कलम से दो पत्र

यहाँ रोज़ 12-13 घण्टे से कम काम नहीं होता है। जिस दिन लोडिंग-अनलोडिंग का काम रहता है उस दिन तो 16 घण्टे तक काम करना पड़ता है। हफ्ते में 2-3 बार तो लोडिंग-अनलोडिंग भी करनी ही पड़ती है। मुम्बई जैसे शहर में महँगाई को देखते हुए हमें मज़दूरी बहुत ही कम दी जाती है। अगर बिना छुट्टी लिये पूरा महीना हाड़तोड़ काम किया जाये तो भी 8-9 हज़ार रुपये से ज़्यादा नहीं कमा पाते हैं। हम चाहकर भी अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में नहीं भेज सकते। यहाँ किसी भी फ़ैक्टरी का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है और श्रम-क़ानूनों के बारे में किसी भी मज़दूर को नहीं पता है। बहुत से मज़दूरों को फ़ैक्टरी के अन्दर ही रहना पड़ता है क्योंकि मुम्बई में सिर पर छत का इन्तज़ाम कर पाना बहुत मुश्किल है। ऐसे मज़दूरों का तो और भी ज़्यादा शोषण होता है। हमें शुक्रवार को छुट्टी मिलती है लेकिन उन्हें तो रोज़ ही काम करना पड़ता है।

झुग्गियों में रहने वालों की ज़िन्दगी का कड़वा सच: विश्व स्तरीय शहर बनाने के लिए मेहनतकशों के घरों की आहुति!

आम जनता में भी यही अवधारणा प्रचलित है कि झुग्गीवालों की ज़िम्मेदारी सरकार की नहीं है जबकि सच इसके बिलकुल उलट है। झुग्गियों में रहने वाले लोगों को छत मुहैया कराने की ज़िम्मेदारी राज्य की होती है, अप्रत्यक्ष कर के रूप में सरकार हर साल खरबों रुपया आम मेहनतकश जनता से वसूलती है, इस पैसे से रोज़गार के नये अवसर और झुग्गीवालों को मकान देने की बजाय सरकार अदानी-अम्बानी को सब्सिडी देने में ख़र्च कर देती है। केवल एक ख़ास समय के लिए झुग्गीवासियों को नागरिकों की तरह देखा जाता है और वो समय होता है ठीक चुनाव से पहले। चुनाव से पहले सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ ठीक वैसे ही झुग्गियों में मँडराना शुरू कर देती है जैसे गुड़ पर मक्खि‍याँ।

लाइलाज मर्ज़ से पीड़ित पूँजीवाद को अज़ीम प्रेमजी की ख़ैरात की घुट्टी

अज़ीम प्रेमजी को जनता से अगर इतना ही प्यार होता तो वे मोदी सरकार पर यह कटौती न करने के लिए दबाव बना सकते थे। मोदी सरकार ने अब तक के अपने कार्यकाल में जितने जनविरोधी क़दम उठाये हैं उनके विरुद्ध आवाज़़ उठा सकते थे। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अज़ीम प्रेमजी एक पूँजीपति हैं और वह अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी तथा उनके भाई-बन्धुओं की कमाई मज़दूरों के शोषण पर टिकी है। और लूट की कमाई खाने की उनकी आदत ने दुनिया की मेहनतकश आबादी को बदहाल कर दिया है। यही वजह है कि दुनियाभर में मज़दूरों के स्वयंस्फूर्त संघर्ष फूट रहे हैं। इन्हीं बदलते हालातों से भयभीत अज़ीम प्रेमजी तथा उनके जैसे अन्य पूँजीपति ख़ैरात बाँटने में लग गये हैं।

हमें आज़ाद होना है तो मज़दूरों का राज लाना होगा।

ट्रेन से उतरकर मैं सुस्ताने के लिए प्लेटफ़ार्म पर बैठा ही था कि एक आदमी मुझसे पूछने लगा कि मैं कहाँ जाऊँगा और मेरे जवाब देने पर उसने बताया कि वह मुझे यहीं पास में ही काम पर लगवा देगा। उसके साथ 3 और लोग थे। मैं उस पर विश्वास कर उसके साथ चल दिया, सोचा कमाना ही तो है चाहे वज़ीरपुर या यहाँ और लगा कि जो बात गाँव में सुनी थी वह सही है कि शहर में काम ही काम है। ये आदमी मुझे एक बड़ी बिल्डिंग में पाँचवीं मंज़िल की एक फ़ैक्टरी में ले गया और बोला कि यहाँ जी लगाकर काम करो और महीने के अन्त में मालिक से पैसे ले लेना। फ़ैक्टरी में ताँबे के तार बेले जाते थे। फ़ैक्टरी के अन्दर मेरी उम्र के ही बच्चे काम कर रहे थे। सुपरवाइज़र दिन में जमकर काम करवाता था और होटल का खाना खाने को मिलता था। फ़ैक्टरी से बाहर जाना मना था। एक महीना गुज़र गया पर मालिक ने पैसा नहीं दिया। महीना पूरा होने के 10 दिन बाद मैं मालिक के दफ्तर पैसे माँगने लगा तो उसने कहा कि मुझे तो वह ख़रीद चुका है और मुझे यहाँ ऐसे ही काम करना होगा। यह बात सुनकर मैं घबरा गया। मैं फ़ैक्टरी में गुलामी करने को मजबूर था। मैंने जब और लड़कों से बात की तो पता चला कि वे सब भी बिके हुए थे और मालिक की गुलामी करने को मजबूर हैं। 5-6 महीने मैं गुलामों की तरह काम करता रहा। पर मैं किसी भी तरह आज़ाद होना चाहता था। मैं भागने के उपाय सोचने लगा। पर दिनभर सुपरवाइज़र बन्द फ़ैक्टरी में पहरा देता था। रात को ताला बन्द कर वह सोने चला जाता था। कमरे में दरवाज़े के अलावा एक रोशनदान भी था जिस पर ताँबे के तार बँधे थे।