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‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ पर चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (12-16 मार्च, 2013), चण्डीगढ़ की रिपोर्ट

जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक मूल से लेकर उसकी गतिकी तक के बारे में अम्बेडकर की समझदारी बेहद उथली थी। नतीजतन, जाति उन्मूलन को कोई वैज्ञानिक रास्ता वह कभी नहीं सुझा सके। इसका एक कारण यह भी था कि अम्बेडकर की पूरी विचारधारा अमेरिकी व्यवहारवाद के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। लिहाज़ा, उनका आर्थिक कार्यक्रम अधिक से अधिक पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद तक जाता था, सामाजिक कार्यक्रम अधिक से अधिक धर्मान्तरण तक और राजनीतिक कार्यक्रम कभी भी संविधानवाद के दायरे से बाहर नहीं गया। कुल मिलाकर, यह एक सुधारवादी कार्यक्रम था और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर ही कुछ सहूलियतें और सुधार माँगने से आगे कभी नहीं जाता था।

‘‘बेहतर भारत बनाने की मुहिम’’ किसके लिए और कैसे?

‘वालण्टियर फ़ॉर बेटर इंडिया’ अभियान शुरू करने वाले इस बाबा का वर्ग-विश्लेषण भी कर लिया जाए। आखिर इतने बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर, बैनर और इतने भव्य मंच आदि पर खर्च हुआ लाखों-करोड़ रुपया कहाँ से आता हैं? वैसे इस सवाल का जवाब ज़्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि श्री-श्री रविशंकर के सारे बैनरों के नीचे चान्दनी चौक से लेकर करोल बाग के सारे व्यापारी संघ के नाम साफ़-साफ़ दिख जाते हैं और वही व्यापारी हैं जो अपनी दुकानों-शोरूम पर काम कर रहे मज़दूरों से कोल्हू के बैल की तरह काम लेते हैं और किसी भी श्रम-कानून का पालन नहीं करते हैं। लेकिन, ज़ाहिर है कि श्री-श्री रविशंकर मज़दूरों के श्रम की लूट पर एक शब्द भी नहीं बोलेंगे क्योंकि इस लूट का एक हिस्सा श्री-श्री जी को चंदे के रूप में मिलता हैं। वैसे भी श्री-श्री रविशंकर के प्रवचन को सुनाने वाली आबादी खाए-पीए उच्च वर्ग से लेकर सेवा क्षेत्र में लगी मध्य वर्ग की वो आबादी हैं जिससे बाबा संगीतमय आध्यामिक नशे की खुराक देकर पूँजीवादी व्यवस्था के बेहतर पुर्जे बने रहने की शिक्षा देते हैं। स्पष्ट है, एक ओर श्री-श्री रविशंकर पूँजीवादी व्यवस्था के मजबूत सेवक हैं वहीं दूसरी तरफ वे खुद भी एक पूँजीपति हैं क्योंकि इनका ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ फाउण्डेश्न करीब 152 देशों में एक व्यवसाय के तौर पर काम कर रहा है। वैसे ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ का मतलब है; जीवन जीने की कला। अब यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि हज़ारों रुपये की फीस लेकर अमीरज़ादों को किस क़िस्म की ‘ज़िन्दगी जीने की कला’ सिखाई जाती होगी।

महाकुम्भ में सन्तों की घृणित मायालीला, विहिप की धर्मसंसद में साम्प्रदायिक प्रेत जगाने का टोटका और आम मेहनतकश जन के लिए कुछ ग़ौरतलब सवाल

अब ज़रा सोचिये! एक तरफ ये माया-मुक्त सन्त समाज है और दूसरी तरफ देश की 84 करोड़ जनता, जो सुबह से शाम तक खटने के बावजूद एक दिन में 20 रु. से अधिक नहीं कमा पाती। 9000 बच्चे भूख और कुपोषण से रोज़ मर जाते हैं और 36 करोड़ लोग बेघर या झुग्गी-झोंपड़ीवासी है। इस आबादी को भौतिक सुखों या ‘‘माया’’ से दूर रहने, कम से कम में जीने में ही आत्मिक सन्तोष प्राप्त करने का प्रवचन देने वाले बाबाओं का भोग-विलास देखकर तो आप भी शायद मेरी तरह यही कहेंगे – ग़रीब जनता के अमीर सन्तो! जनता को माया त्यागकर (जो कि वस्तुतः उसके पास है ही नहीं) परलोक सुधारने का उपदेश देने वालो! तुम्हारे परलोक का क्या होगा? तुम्हारी माया देखकर तो इन्द्र भी ख़ुशी-ख़ुशी स्वर्ग का सिंहासन छोड़ देंगे! तुम्हारे विलासी फूहड़ माया प्रदर्शन पर जितना धन ख़र्च होता है वो जनता पर किया जाता, तो परलोक की कौन जाने पर इहलोक से उनकी कुछ समस्याओं का अन्त ज़रूर हो जाता। हाँ! एक बात छूट रही थी कि भक्तों की जगह इन धर्मगुरुओं के हृदय में होती है (अब बाबा लोग तो यही बताते हैं!)। देखा नहीं, चिदानन्द स्वामी प्रीति जिंटा को साथ लेकर घूम रहे थे। यह ज़रूर है कि क्लास (वर्ग) का ध्यान बाबा लोग भी रखते हैं। तभी तो शाही स्नान का मार्ग सार्वजनिक कर दिये जाने पर अखाड़ा परिषद के महन्त ज्ञानदास मेला प्रशासन पर बिफ़र पड़े। उन्होंने बताया कि इससे इष्ट देव का अपमान होता है। इनके इष्ट देव को केवल एसी गाड़ियों में घूमने वाले साफ़-सुथरे, चिकने-चिकने लोग ही पसन्द हैं। पर धर्मगुरुओ, आपको कम से कम झूठ तो नहीं बोलना चाहिए!

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है (पन्‍द्रहवीं किश्त)

उच्चतम न्यायालय अधिकांश नागरिकों की पहुँच से न सिर्फ़ भौगोलिक रूप से दूर है बल्कि बेहिसाब मँहगी और बेहद जटिल न्यायिक प्रक्रिया की वजह से भी संवैधानिक उपचारों का अधिकार महज़ औपचारिक अधिकार रह जाता है। उच्चतम न्यायालय में नामी-गिरामी वकीलों की महज़ एक सुनवाई की फ़ीस लाखों में होती है। ऐसे में ज़ाहिर है कि न्याय भी पैसे की ताक़त से ख़रीदा जानेवाला माल बन गया है और इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि अमूमन उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले मज़दूर विरोधी और धनिकों और मालिकों के पक्ष में होते हैं। आम आदमी अव्वलन तो उच्चतम न्यायालय तक जाने की सोचता भी नहीं और अगर वो हिम्मत जुटाकर वहाँ जाता भी है तो यदि उसके अधिकारों का हनन करने वाला ताकतवर और धनिक है तो अधिकांश मामलों में पूँजी की ताक़त के आगे न्याय की उसकी गुहार दब जाती है।

मँहगाई से खुश होते मन्त्री जी…!

देश की ”तथाकथित” आज़ादी में यूपीए-2 का शासनकाल सबसे बड़े घोटाले और रिकार्ड तोड़ मँहगाई का रहा है, जिसमें खाने-पीने से लेकर पेट्रोल-डीजल, बिजली के दामों में बेतहाशा वृद्धि ने ग़रीब आबादी से जीने का हक़ भी छीन लिया है। लेकिन इन सब कारगुज़ारियो के बावज़ूद यूपीए-2 के केन्द्रीय इस्पात मन्त्री बेनी प्रसाद का कहना है कि मँहगाई बढ़ने से उन्हें इसलिए खुशी मिलती है क्योंकि इससे किसानों को लाभ मिलता है लेकिन बेनी प्रसाद जी ये बताना भूल गये कि इस लाभ की मलाई तो सिर्फ धनी किसानों और पूँजीवादी फार्मरों को मिलता हैं क्योंकि आज ग़रीब किसान लगातार अपनी जगह-ज़मीन से उजड़कर सवर्हारा आबादी में धकेले जा रहे हैं। कई अध्ययन ये बता रहे हैं कि छोटी जोत की खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है।

गरीब देश के अमीर भगवान

मन्दिर आधुनिक उद्योग बन चुके हैं क्योंकि इन मन्दिरों में आने वाला चढ़ावा भारत के बजट के कुल योजना व्यय के बराबर है। अकेले 10 सबसे ज्यादा धनी मन्दिरों की सम्पत्ति देश के मध्यम दर्जे के 500 उद्योगपतियों से ज्यादा है। केवल सोने की बात की जाये तो 100 प्रमुख मन्दिरों के पास करीब 3600 अरब रुपये का सोना पड़ा है। शायद इतना सोना रिज़र्व बैंक ऑफ इण्डिया के पास भी न हो। मन्दिरों के इस फलते-फूलते व्यापार पर मन्दी का भी कोई असर नहीं पड़ता है! उल्टा आज जब भारतीय अर्थव्यस्था संकट के दलदल में फँसती जा रही है तो मन्दिरों के सालाना चढ़ावे की रक़म लगातार बढ़ती जा रही है। ज़ाहिरा तौर पर इसके पीछे मीडिया और प्रचार तन्त्र का भी योगदान है जो दूर-दराज़ तक से ”श्रद्धालुओं” को खींच लाने के लिए विशेष यात्रा पैकेज देते रहते हैं। जहाँ देश की 80 फीसदी जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी मयस्सर नहीं हैं वहीं मन्दिरों के ट्रस्ट और बाबाओं की कम्पनियाँ अकूत सम्पत्ति पर कुण्डली मारे बैठी हैं। सिर्फ कुछ प्रमुख मन्दिरों की कमाई देखें तो इस ग़रीब देश के अमीर भगवानों की लीला का खुलासा हो जायेगा।

शरीर गलाकर, पेट काटकर जी रहे हैं मज़दूर!

ऊपरी तौर पर देखा जाये तो भले ही मज़दूरों के पास मोबाइल आ गया हो, वे जींस और टीशर्ट पहनने लगे हों, लेकिन उनकी ज़िन्दगी पहले से कहीं ज्यादा कठिन हो गयी है। बहुत से सरकारी आँकड़े भी इस सच्चाई को उजागर कर देते हैं। ‘असंगठित क्षेत्र में उद्यमों के बारे में राष्ट्रीय आयोग’ की 2004-05 की रिपोर्ट के अनुसार करीब 84 करोड़ लोग (यानि आबादी का 77 फीसदी हिस्सा) रोज़ाना 20 रुपये से भी कम पर गुज़ारा करते हैं। इनमें से भी 22 फीसदी लोग रोज़ाना केवल 11.60 रुपये की आमदनी पर, 19 फीसदी लोग रोज़ाना 11.60 रुपये से 15 रुपये के बीच की आमदनी पर और 36 फीसदी लोग रोज़ाना 15-20 रुपये के बीच की आमदनी पर गुज़ारा करते हैं। देश के करीब 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रस्त हैं और 5 साल से कम उम्र के बच्चों के मौत के 50 फीसदी मामलों का कारण कुपोषण होता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 63 फीसदी भारतीय बच्चे अक्सर भूखे सोते हैं और 60 फीसदी कुपोषण ग्रस्त हैं। दिल्ली में अन्धाधुन्ध ”विकास” के साथ-साथ झुग्गियों या कच्ची बस्तियों में रहने वालों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है और लगभग 70 लाख तक पहुँच चुकी है। इन बस्तियों में न तो साफ पीने का पानी है और न शौचालय और सीवर की उचित व्यवस्था है। जगह-जगह गन्दा पानी और कचरा इकट्ठा होकर सड़ता रहता है, और पहले से ही कमज़ोर लोगों के शरीर अनेक बीमारियों का शिकार होते रहते हैं।

दलित मुक्ति का रास्ता मज़दूर इंक़लाब से होकर जाता है, पहचान की खोखली राजनीति से नहीं!

दलित मुक्ति की पूरी ऐतिहासिक परियोजना वास्तव में मज़दूर वर्ग की मुक्ति और फिर पूरी मानवता की मुक्ति की कम्युनिस्ट परियोजना के साथ ही मुकाम तक पहुँच सकती है। जिस समाज में आर्थिक समानता मौजूद नहीं होगी, उसमें सामाजिक और राजनीतिक समानता की सारी बातें अन्त में व्यर्थ ही सिद्ध होंगी। एक आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्यायसंगत व्यवस्था ही सामाजिक न्याय के प्रश्न को हल कर सकती है। हमें अगड़ों-पिछड़ों की, दलित-सवर्ण की और ऊँचे-नीचे की समानता या समान अवसर की बात नहीं करनी होगी; हमें इन बँटवारों को ही हमेशा के लिए ख़त्म करने के लक्ष्य पर काम करना होगा। यह लक्ष्य सिर्फ़ एक रास्ते से ही हासिल किया जा सकता है मज़दूर इंकलाब के ज़रिये समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर सत्ता की स्थापना के रास्ते। जिस दलित आबादी का 97 फ़ीसदी आज भी खेतिहर, शहरी औद्योगिक मज़दूर है वह मज़दूर क्रान्ति से ही मुक्त हो सकता है। इसे सरल और सहज तर्क से समझा जा सकता है, किसी गूढ़, जटिल दार्शनिक या राजनीतिक शब्दजाल की ज़रूरत नहीं है। आज पूरी दलित अस्मितावादी राजनीति पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा करती है। ग़ैर-मुद्दों, प्रतीकवाद और रस्मवाद पर केन्द्रित अम्बेडकरवादी राजनीति आज कोई वास्तविक हक़ दिला ही नहीं सकती है क्योंकि यह वास्तविक ठोस मुद्दे उठाती ही नहीं है। उल्टे यह मज़दूर आबादी की एकता स्थापित करने की प्रक्रिया को कमज़ोर करती है और इस रूप में श्रम की ताक़त को कमज़ोर बनाती है और पूँजी की ताक़त को मज़बूत। इस राजनीति को हर क़दम पर बेनकाब करने की ज़रूरत है और दलित मुक्ति की एक ठोस, वैज्ञानिक, वास्तविक और वैज्ञानिक परियोजना पेश करने की ज़रूरत है।

आज की दुनिया में स्त्रियों की हालत को बयान करते आँकड़े

  • विश्व में किए जाने वाले कुल श्रम (घण्टों में) का 67 प्रतिशत हिस्सा स्त्रियों के हिस्से आता है, जबकि आमदनी में उनका हिस्सा सिर्फ़ 10 प्रतिशत है और विश्व की सम्पत्ति में उनका हिस्सा सिर्फ़ 1 प्रतिशत है।
  • विश्वभर में स्त्रियाँ को पुरुषों से औसतन 30-40 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है।
  • विकासशील देशों में 60-80 प्रतिशत भोजन स्त्रियों द्वारा तैयार किया जाता है।
  • प्रबन्धन और प्रशासनिक नौकरियों में स्त्रियों का हिस्सा सिर्फ़ 10-20 प्रतिशत है।
  • विश्वभर में स्कूल न जाने वाले 6-11 वर्ष की उम्र के 13 करोड़ बच्चों में से 60 प्रतिशत लड़कियाँ हैं।
  • विश्व के 80 करोड़ 75 लाख अनपढ़ बालिगों में अन्दाज़न 67 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (आठवीं किस्त)

अम्बेडकर को लेकर भारत में प्रायः ऐसा ही रुख़ अपनाया जाता रहा है। अम्बेडकर की किसी स्थापना पर सवाल उठाते ही दलितवादी बुद्धिजीवी तर्कपूर्ण बहस के बजाय “सवर्णवादी” का लेबल चस्पाँ कर देते हैं, निहायत अनालोचनात्मक श्रद्धा का रुख़ अपनाते हैं तथा सस्ती फ़तवेबाज़ी के द्वारा मार्क्‍सवादी स्थापनाओं या आलोचनाओं को ख़ारिज कर देते हैं। इससे सबसे अधिक नुक़सान दलित जातियों के आम जनों का ही हुआ है। इस पर ढंग से कोई बात-बहस ही नहीं हो पाती है कि दलित-मुक्ति के लिए अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत परियोजना वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की दृष्टि से कितनी सुसंगत है और व्यावहारिक कसौटी पर कितनी खरी है? अम्बेडकर के विश्व-दृष्टिकोण, ऐतिहासिक विश्लेषण-पद्धति, उनके आर्थिक सिद्धान्तों और समाज-व्यवस्था के मॉडल पर ढंग से कभी बहस ही नहीं हो पाती।