Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

अपनी जिन्दगी बदलने के लिए खुद जागना होगा और दूसरों को जगाना होगा

मैं उत्तर प्रदेश प्रदेश के बस्ती जिले का रहने वाला हूं। दिल्ली में रहकर कई साल से मज़दूरी कर रहा हूं। मालिकों के शोषण और बुरे बरताव से तंग हूं। कहीं भाग जाने के बारे में सोचता रहता था। फिर एक दिन मुझे मज़दूर बिगुल अखबार मिला। इसने मुझे नया रास्ता दिखाया।

आपस की बात : हमें एकजुटता बनानी होगी

मैं पिछले वर्ष से जब से हमारी हड़ताल हुई थी तब से मज़दूर बिगुल अख़बार पढ़ रही हूँ। इसी अख़बार ने हमारी हड़ताल की रिपोर्टों को भी काफ़ी जगह दी थी। इसके लिए मैं अपनी आँगनवाड़ी की सभी बहनों और साथियों की तरफ़ से आपका धन्यवाद करती हूँ। हम सभी यह जानते हैं कि मज़दूर वर्ग बहुत सारी मुश्किलों का सामना करता है। दिन पर दिन हमारी दिक़्क़तें बढ़ती ही जाती हैं। आँगनवाड़ी में काम करते हुए हमें भी बहुत तरह की परेशानियों को झेलना पड़ता है। जैसे खाने की आपूर्ति करने वाली कम्पनियों की वजह से खाने में कीड़े तो छोड़िए छिपकली तक निकल जाती है लेकिन जब इस तरह के खाने की वजह से बच्चों की तबीयत खराब होती है तो उसका दण्ड हमें भुगतना पड़ता है।

“स्वच्छ भारत अभियान” की कहानी झाड़ू की जुबानी

झाड़ू सोचती है कि ये धोखे का खेल है जिसकी शिकार केवल वह ख़ुद नहीं है, बल्कि पूरी जनता है जिसके सामने ये नौटंकी परोसी जाती है, हर वो सफ़ाईकर्मी भी है जिसकी तकलीफ़ें इस महानौटंकी के शोर के पीछे दब जाती हैं। झाड़ू ने अपने पूर्वजों से सुन रखा है कि स्वच्छता दिखावा मात्र नहीं होना चाहिए, स्वच्छता हमारा स्वभाव होना चाहिए, क्योंकि दिखावा वो लोग करते हैं जिनका मन ही साफ़ नहीं है। झाड़ू उन सफ़ाईकर्मियों को देखती है, उनकी तकलीफ़ों को समझती है। वो ये भी जानती है कि पूरे समाज की सफ़ाई का दारोमदार इन्हीं के कन्धे पे है, पर उनको ना तो ये समाज बराबर का सम्मान देता है, ना आधुनिक मशीनें और ना ही समय से तनख्वाह।

मजदूरों के पत्र – न्याय, विधान, सवि‍ंधान का घिनौना नंगा नाच

ऐसा लगता है कि हम सिर्फ़ काम करने के लिए पैदा हुए हैं ‌तो हम फिर अपना जीवन कब जीयेंगे। जहाँ तक तनख़ा की बात है, तो वो तो महीने की सात से दस के बीच में मिल जाती है, लेकिन सिर्फ़ पन्द्रह तारीख़ तक जेब में पैसे होते हैं, जिससे हम अपने बच्चों के लिए कुछ ज़रूरी चीज़ें ले पाते हैं। उसके बाद तो हर एक दिन एक-एक रुपया सोच-सोचकर ख़र्च करना पड़ता है। महीना ख़त्म होने से पहले ही बचे हुए रुपये भी ख़त्म हो जाते हैं।

मजदूरों के पत्र – राजस्थान में बिजली विभाग में बढ़ता निजीकरण, एक ठेका कर्मचारी की जुबानी

निजीकरण का यह सिलसिला सिर्फ़ बिजली तक सीमित नहीं है, सभी विभागों की यही गति है। सरकारी नीतियों और राजनीति के प्रति आँख मूँदकर महज कम्पीटीशन एक्जाम की तैयारियों में लगे बेरोज़गार युवकों को ऐसे में ठहरकर सोचना-विचारना चाहिए कि जब सरकारी नौकरियाँ रहेंगी ही नहीं तो बेवजह उनकी तैयारियों में अपना पैसा और समय ख़र्च करने का क्या तुक बनता है? क्या उन्हें नौकरी की तैयारी के साथ-साथ नौकरियाँ बचाने के बारे में सोचना नहीं चाहिए? बिजली विभाग में भर्ती होने के लिए भारी फ़ीस देकर आईटीआई कर रहे लाखों नौजवानों को तो सरकार के इस फ़ैसले का त्वरित विरोध शुरू कर देना चाहिए।

मजदूरों के पत्र – हम सब मेहनतकश आदमखोर पूँजीपतियों की लूट का शिकार हैं।

मैंने अपने परिवार की गाढ़ी कमाई के सहारे डिप्लोमा किया। इसके बाद गुुड़गाँव, रेवाड़ी, बद्दी, डेराबस्सी, पानी आदि स्थानों पर नौकरी के लिए आवेदन दिया, लेकिन कहीं भी सिफ़ारिश या जान-पहचान न होने के कारण मेरे आवेदनों का कोई जवाब नहीं आया। उसके बाद मैनें दो साल एसएससी-एचएसएससी की कोचिंग शुरू कर दी। लम्बी तैयारी के बाद कोचिंग की धन्धेबाज़ी और सरकारी नौकरियों की बेहद कमी के कारण मैं हताश हो गया। और उसके बाद मैं कैथल की चावल मिल में मज़दूर के रूप में काम करने लगा। वहाँ मुझे 12 घण्टे के 7500 रुपये मिलते थे। इसके अलावा न कोई छुट्टी और न ही कम्पनी की तरफ़ से कोई चाय या फिर लंच के टाइम-सीमा तय नहीं थी। मुझे वहाँ चावल पोलिश की बोरिया मशीन से हटाकर 25-30 फ़ीट की दूरी पर उठाकर ले जानी थी। जिसके लिए बिल कार्ट होनी चाहिए।

मजदूरों के पत्र – विदेशों में मज़दूरी कर रही भारतीय महिला मज़दूरों की हालत

यह पत्र हमें मज़दूर बिगुल की पाठक बिन्दर कौर ने भेजा है। बिन्दर कौर सिंगापुर में घरेलु नौकर के तौर पर काम करती हैं, पर मज़दूर बिगुल को व्हाटसएप्प के माध्यम से नियमित तौर पर पढ़ती हैं। तमाम सारे पढ़े-लिखे मज़दूर जो आज बेहद कम तनख़्वाहों पर अलग-अलग काम कर रहे हैं, राजनीतिक तौर पर बेहद सचेत हैं और समय-समय पर बिगुल को पत्र लिखते रहते हैं, फ़ोन करते रहते हैं। ऐसे में हम अन्य साथियों से भी अपील करते हैं कि वो मज़दूर बिगुल को पत्र लिखकर अपने जीवन के बारे में ज़रूर बतायें ताकि देशभर के मज़दूरों को पता चले कि जाति, धर्म, क्षेत्र से परे सभी मज़दूरों की माँगें और हालत एक ही है।

सभी साथी एकजुट होकर संघर्ष करें, संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता!

कम्पनी को काम करते 5 साल हो गये लेकिन किसी भी मज़दूर की सैलरी 8,600 रुपये से बढ़कर 12,000 रुपये नहीं हुई है, इक्के दुक्के किसी की तनख्वाह बढ़ी भी है तो थोड़ी बहुत जबकि हमारे साथ ही ज्वाइन किये मैनेजमेंट स्टाफ की सैलरी 15,000 से बढ़कर 1,50,000 तक हो गयी है। जब सैलरी बढ़ाने की बात आती है तो कम्पनी वाले कहते हैं कि कम्पनी घाटे में चल रही है।

दोस्तो, हम सभी को एक साथ मिलकर लड़ना चाहिए

मजबूरी के कारण मुझे कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़कर काम करने जाना पड़ा। मेरे पिताजी ऑटो चलाते थे, एक दिन उनकी गाड़ी पलट गयी, जिसके कारण नौ लोग घायल हो गये, इस वजह से 3-4 लाख ख़र्च हो गया था, और क़र्ज़ चढ़ गया था। पढ़ने की इच्छा थी फिर भी मुझे मजबूरी में आना पड़ा। अगली बार जब गाँव गया, तो मेरे दोस्त मुझे दुबारा बाहर जाकर कमाने से रोक रहे थे, मेरी भी वही इच्छा थी, लेकिन मुझे मजबूरी में आना पड़ा। जब मैं पहली बार गाँव से बाहर निकला तो दिल्ली गया। वहाँ मैंने समयपुर बदली में पौचिंग लाइन में काम किया। बहुत काम करने के बावजूद वहाँ पर काम चलने लायक़ भी पैसा नहीं मिलता था।

फैक्ट्रियों के अनुभव और मज़दूर बिगुल से मिली समझ ने मुझे सही रास्ता दिखाया है

यह साफ़ था कि हमारे हाथ में कुछ नहीं था और हम लोग मानसिक रूप से परेशान रहने लगे। इस प्रकार अपना हुनर चमकाने और इसे निखारने का भूत जल्द ही मेरे सिर से उतर गया। मेरा वेतन 8,000 रुपये था किन्तु काट-पीटकर मात्र 6,800 रुपये मुझे थमा दिये जाते थे। मानेसर जैसे शहर में इतनी कम तनख़्वाह से घर पर पैसे भेजने की तो कोई सोच भी नहीं सकता, अपना ही गुज़ारा चल जायेे तो गनीमत समझिए, बल्कि कई बार तो उल्टा घर से पैसे मँगाने भी पड़ जाते थे।