Category Archives: सफ़ाईकर्मी

मोदी के जुमलों की बारिश के बीच कैथल के मनरेगा मज़दूरों के हालात पर एक नज़र

15 अगस्त को जब पूरा देश आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा था। इस अवसर पर सुबह 8 बजे से पीएम मोदी लाल क़िले पर चढ़कर 70-80 मिनट का लम्बा-चौड़ा भाषण दे रहे थे। जिसमें पिछले आठ बार की ही तरह एक बार फिर बड़े-बड़े वायदे किये गये, जो हर बार की तरह पूरे नहीं होने वाले, साथ ही ‘अमृत काल’ का गुणगान किया गया। उसी वक़्त दूसरी ओर कैथल (हरियाणा) के फरल गाँव के मज़दूर सुबह 8 बजे मनरेगा के तहत काम करने के लिए गाँव से रवाना हुए थे। लेकिन मोदी जी के ‘अमृत काल’ की हक़ीक़त मनरेगा मज़दूरों से कोसों दूर है।

‘फ़्रण्ट लाइन वर्करों’ के नाम पर प्रधानमंत्री मोदी की नयी जुमलेबाज़ी!

15 अगस्त को लाल क़िले की प्राचीर से प्रधान “सेवक” महोदय उर्फ़ नरेन्द्र मोदी ने कोरोना महामारी के दौरान कार्यरत ‘फ़्रण्ट लाइन वर्कर्स’ की जमकर “सराहना” की। इस दफ़े लाल क़िले पर आँगनवाड़ीकर्मियों, आशाकर्मियों व एनएचएम कर्मचारियों को बतौर विशेष “अतिथि” आमंत्रित भी किया गया था। लेकिन प्रधानमंत्री महोदय जी भूल गये कि कौड़ियों के दाम ठेके पर दे दिये गये लाल क़िले पर चढ़कर की गयी ऐसी हवबाज़ी से फ़्रण्टलाइन वर्करों का गुज़ारा नहीं चलता! और न ही थालियों-तालियों, धूप-अगरबत्ती की नौटंकी से ही हम लाखों कामगारों को कुछ हासिल हुआ था।

दिल्ली मेट्रो में काम कर रहे सफ़ाई कर्मचारियों के बदतर हालात

देश की राजधानी दिल्ली दुनियाभर में अपनी मेट्रो सेवा के लिए मशहूर है। चमचमाती मेट्रो की चमक के पीछे दरअसल उन श्रमिकों के ख़ून पसीने की मेहनत है जिनका कहीं ज़िक्र तक नहीं किया जाता। केन्द्र राज्य के स्वामित्व वाली दिल्ली मेट्रो में भारत सरकार (50 प्रतिशत) तथा दिल्ली सरकार (50 प्रतिशत) का बराबरी का मालिकाना है। जब भी मेट्रो से होने वाले अकूत मुनाफ़े पर गाल बजाना हो तो दोनों ही सरकारें अपनी दावेदारी पेश करने लगती है। लेकिन वहीं जब यहाँ काम करने वाले श्रमिक अपने हक़ अधिकार की माँग करते हैं तो दोनों ही सरकारें कन्नी काटती रहती हैं।

जेएनयू में सफ़ाई मज़दूरों की हड़ताल : एक रिपोर्ट

जेएनयू में सफ़ाई मज़दूरों की हड़ताल : एक रिपोर्ट देश के अन्‍य केन्‍द्रीय संस्‍थानों की तरह जेएनयू में भी ठेका मज़दूरों की बड़ी आबादी काम कर रही है। विश्वविद्यालय में…

“स्वच्छ भारत अभियान” की कहानी झाड़ू की जुबानी

झाड़ू सोचती है कि ये धोखे का खेल है जिसकी शिकार केवल वह ख़ुद नहीं है, बल्कि पूरी जनता है जिसके सामने ये नौटंकी परोसी जाती है, हर वो सफ़ाईकर्मी भी है जिसकी तकलीफ़ें इस महानौटंकी के शोर के पीछे दब जाती हैं। झाड़ू ने अपने पूर्वजों से सुन रखा है कि स्वच्छता दिखावा मात्र नहीं होना चाहिए, स्वच्छता हमारा स्वभाव होना चाहिए, क्योंकि दिखावा वो लोग करते हैं जिनका मन ही साफ़ नहीं है। झाड़ू उन सफ़ाईकर्मियों को देखती है, उनकी तकलीफ़ों को समझती है। वो ये भी जानती है कि पूरे समाज की सफ़ाई का दारोमदार इन्हीं के कन्धे पे है, पर उनको ना तो ये समाज बराबर का सम्मान देता है, ना आधुनिक मशीनें और ना ही समय से तनख्वाह।

गटर साफ़ करने के दौरान सफ़ाईकर्मियों की मौतों का जि़म्मेदार कौन?

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 1,80,657 परिवार ऐसे हैं जो गटर की सफ़ाई या मैला ढोने के काम में लगे हुए हैं और इसी गणना में यह भी पाया गया कि क़रीब 7,94,000 लोग इस काम में लगे हुए हैं। अब इन आँकड़ों को वास्तविकता से कितना कम करके आँका गया है, उसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि भारतीय रेलवे जो सफ़ाईकर्मियों का सबसे बड़ा नियोक्ता है, ख़ुद़ इस सेक्टर में लगे सफ़ाईकर्मियों की संख्या को क़ानूनी जामे में छिपा देता है। ग़ौरतलब बात यह है कि रेलवे इन सफ़ाईकर्मियों की नियुक्ति “मैला ढोने वाली श्रेणी में नहीं” बल्कि “क्लीनर” की श्रेणी के तहत करता है या फिर इस काम को ठेके पर दे देता है।