Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

मालिक का भाई मरे या कोई और, उसे कमाने से मतलब है

मेरी फ़ैक्टरी के मालिक पर जीएसटी का ज़्यादा असर नहीं लगता है। ये तो ख़ूब 12 घण्टे हम जुतवाता है। यह बिल्कुल पैसे का भूखा है। पिछले हफ़्ते मालिक के भाई की मौत हो गयी थी। इलाक़े के सारे मालिक फ़ैक्टरी पर इकठ्ठा थे। मालिक ने फ़ैक्टरी बन्द करने को कहा और हमने राहत की साँस ली पर उसने कहा कि कहीं मत जाना फ़ैक्टरी में ही रहना। एक घण्टे के भीतर ही मालिक कुछ पीले रंग का द्रव्य लेकर आया और उसे फ़ैक्टरी के गेट पर छिड़का और हमें बोला फटाफट काम शुरू करो। मालिक का भाई मरे या कोई और, इसे कमाने से मतलब है।

मैं काम करते-करते परेशान हो गया, क्योंकि मेहनत करने के बावजूद पैसा नहीं बच पाता

मैं बिहार का रहने वाला हूँ। 2010 में मजबूरी के कारण पहली बार अपना गाँव छोड़कर दिल्ली आना पड़ा। मुझे दुनियादारी के बारे में पता नहीं था। कुछ दिन काम की तलाश में दिल्ली में जगह-जगह घूमे और अन्त में वज़ीरपुर में झुग्गी में रहने लगे। गाँव के मुक़ाबले झुग्गी में रहना बिल्कुल अलग था, झुग्गी में आठ-बाय-आठ कमरा था। पानी की मारामारी अलग से थी। यहीं मुझे स्टील प्लाण्ट में काम भी मिल गया। यहाँ तेज़ाब का काम होता था जिसमें स्टील की चपटी पत्तियों को तेज़ाब में डालकर साफ़ किया जाता है। तेज़ाब का धुआँ लगातार साँस में घुलता रहता है और काम करते हुए अन्दर से गला कटता हुआ महसूस होता है। तेज़ाब कहीं गिर जाये तो अलग समस्या होती है। पिछले हफ़्ते तेज़ाब में काम करते हुए मेरी आँख में तेज़ाब गिर गया था। आँख जाते-जाते बची है। मालिक और मुनीम की गालियाँ अलग से सुननी पड़ती हैं।

लुधियाना के एक मजदूर का पत्र

मज़दूरों को पहले ही श्रम कानूनों के तहत अधिकार नहीं मिल रहे। ऊपर से श्रम कानूनों को सरल बनाने के नाम पर कानूनी तौर पर भी श्रम अधिकार खत्म करने की कोशिश हो रही है। सबसे पहले राजस्थान की भाजपा सरकार ने श्रम अधिकारों पर बड़ा हमला किया। पहले कानून था कि 100 से अधिक श्रमिकों को रोजगार देने वाली कम्पनी को बन्द करने से पहले श्रम विभाग से मंजूरी लेनी होती थी। राजस्थान सरकार ने इसे बढ़ाकर 300 कर दिया। यह तो बस शुरुआत थी। इसके बाद कई राज्यों की सरकारों ने मज़दूरों के अधिकारों पर ऐसे हमले तेज कर दिये और केन्द्र सरकार ने मज़दूर हितों पर पूरी बमबारी की तैयारी कर ली है। पूँजीवादी लेखकों से इसके पक्ष में लेख लिखवा कर श्रम अधिकारों को कानूनी तौर पर खत्म करने का माहौल बनाया जा रहा है।

कोई फ़ैक्टरी, कारख़ाना या कोई छोटी-बड़ी कम्पनी हो, जीवन बदहाली और नर्क जैसा ही है

मेरा नाम संदीप है और मैं डोमिनोस पिज़्ज़ा रेस्टोरेण्ट में काम करता था। मैं वहाँ पिज़्ज़ा डिलीवरी बॉय का काम करता था। इण्टरव्यू के वक़्त हमें यह बताया गया था कि हम सब एक फै़मिली (परिवार) की तरह हैं। पर यह ऐसा परिवार है जिसमें सबसे ऊपर के सदस्य (मैनेजर) हैं और वे नीचे के सदस्यों से गाली बककर बात करते थे। इस बात पर अगर कोई सवाल उठाता या मना करता तो कहते कि परिवार में बड़ों से जुबान नहीं लड़ाते हैं। मैनेजर हमसे अपने निजी काम कराते थे। मना करने पर कहते कि सैलरी तो हम से ही लोगे। नौकरी चले जाने के डर से हम लोगों को उनकी बात माननी ही पड़ती थी।

भोरगढ़ (दिल्ली) के मज़दूरों का नारकीय जीवन और उससे सीखे कुछ सबक

भोरगढ़ में अधिकतर प्लास्टिक लाइन की कम्पनियां है। इसके अलावा बर्तन, गत्ता, रबर, केबल आदि की फैक्ट्री है। सभी कम्पनियों में औसतन मात्र 8-10 लड़के काम करते हैं अधिकतर कम्पनियों में माल ठेके पर बनता है। छोटी कम्पनियों में मज़दूर हमेशा मालिक की नजरों के सामने होता है मज़दूर एक काम खतम भी नहीं कर पाता है कि मालिक दूसरा काम बता देता है कि अब ये कर लेना।

मज़दूरों को स्वर्ग का झाँसा देकर नर्ककुंड में डाला जाता है

ये भोले-भाले मज़दूर इन सब बातों से अपने लिए स्वर्ग की कल्‍पना करने लगते हैं पर इ‍न्हें यह कहां पता होता है कि जिस स्वर्ग की तलाश में वे जा रहे हैं वह स्वर्ग नहीं नर्ककुंड है। ठेकेदार उनको वहां से लाने के लिए अपना किराया भी लगा देते हैं। पर ‍यहां आने के साथ ही उनके स्वर्ग की कल्पना टूटने लगती है और नर्ककुंड की असलियत नजर आने लगती है। यहां उन्हें रहने के लिए जो कमरा मिलता है उसमें 15 से 20 मजदूरों को रहना पडता है। फैक्ट्री में काम पर जाते ही उन्हें पता चलता है कि वे छोटे-छोटे पुर्जे 50 किलो से लकर 450 किलो तक के हैं। यहां जियाई का काम होता है। लोहे को तेजाब के टैंक में डालने पर जो बदबूदार तीखी दुर्गंध निकलती है वह दम घोंटने वाली होती है। इससे सुरक्षा का कोई सामान नहीं दिया जाता।

‘मज़दूर बिगुल’ के बारे में मज़दूर परिवार की एक बच्ची के विचार

यह मज़दूरों का अखबार है। यह चन्दा इकठ्ठा करके छपता है। इस अखबार में कुछ भी छिपाया नहीं जाता। इसमें कोई भी बात छिपाई नहीं जाती। इसमें यह छपता है कि मज़दूर अपना घर कैसे चलाता है।

कविता : असली कारण को पहचानो / आनन्‍द

काम की तलाश में घूम रहे हैं लोग,
एक-दूसरे की जाति-धर्म को
दोष दे रहे हैं लोग,
भाई-भतीजे, बुजुर्गों-रिश्तेदारों
को दोष दे रहे हैं लोग

ठेका मज़दूरों के बदतर हालात

आई.आई.टी कैथल जहाँ पर पाँच सफाईकर्मी और माली कर्मचारि‍यों की आवश्यकता है वहाँ सि‍र्फ दो कर्मचारी ही कार्य कर रहे हैं। कर्मचारि‍यों की कमी के कारण जो कर्मचारी वहाँ काम करते है उनपर काम का अधि‍क दबाव बन जाता है। जहाँ पांच आदमि‍यों का काम अकेले दो व्यक्ति‍यों को ही करना पड़ता है। एक तो उनको सि‍र्फ़ 5500 रूपए महीने के हि‍साब से काम पर रखा गया है, ऊपर से ठेकेदार उन गरीब मजदूरों का धड़ल्ले से शोषण करता है और फि‍र उन्हें पूरा हक भी नहीं दि‍या जाता और काम भी अधि‍क लि‍या जाता है। ये पूरी धाँधली ‘स्वच्छ भारत अभि‍यान’ की पोल खोल रही है।

अस्पताल या कसाईखाना

उनके पास जितना भी पैसा था वे पहले ही जमा करा चुके थे और अब उनके पास कुछ नहीं हैा अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें बिना भुगतान किये डिस्चार्ज करने से मना कर दिया। जयभगवान ने जब अपने दुकान मालिक से मदद माँगी तो उसने भी हाथ खड़े कर दिये लेकिन काफ़ी आरज़ू-मिन्नत करने के बाद 8000 रुपये सूद पर उधार दिया। बाकी रक़म भी परिवार वालों ने तगड़े ब्‍याज पर इकट्ठा की और अस्पताल का बिल चुकाया।