आपस की बात

भारत, बवाना, दिल्ली

कहा जाता है कि भारत के संविधान में समानता की बात है। संविधान में अम्बानी से लेकर एक ग़रीब तक को समान अधिकार दिए हैं और न्यायपालिका इसका सबसे मज़बूत स्तंभ है।

दूसरी तरफ़ आज सुप्रीम कोर्ट ने अर्णब को ज़मानत दे दी और अति शीघ्र उसे रिहा करने को कहा है और ऐसे फ़ैसले आम तौर पर देती रहती है।…याद ही होगा कुछ समय पहले ही बाबरी विध्वंस के आरोपियों को बरी कर दिया, पर वहीं इस फ़ासीवादी सरकार के ख़िलाफ़ बोलने वालों पर सुनवाई तारीख़-दर-तारीख़ चलती रहती है, अभी तक सी.ए.ए व एन.आर.सी के ख़िलाफ़ बोलने वाले जेल में है और जिन्हें ज़मानत तक नहीं मिली है।

जेलों में भी ऐसे बहुतेरे लोग मिल जायेंगे, जो ज़मानत राशि न भर पाने के कारण या फिर छोटे-मोटे केसों में सालों सड़ते रहते है।

जैसे एक क़ैदी के बारे में पता चला कि उसने मात्र छः केले चुराये और इस ज़ुर्म में उसे गिरफ़्तार कर लिया गया और छः महीनों से वो जेल में है।

ऐसे अपने लिबरल भाई लोग किस मुँह से संविधान बचाओ की बात करते है। न्यायपालिका अगर एक-आध फ़ैसला सन्तुलन बनाये रखने के लिए ‘पक्ष’ में देती है, तो तुरन्त इनका भरोसा छलांग मारने लगता है। इन्हें अबतक न्यायपालिका का फ़ासिस्ट चरित्र नहीं दिख रहा है।

ऐसे में कोई अक़्ल का अन्धा या मानवद्रोही ही होगा जो इस व्यवस्था को बचाकर रखना चाहता हो।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2020


 

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