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फ़ॉक्सकॉन के मज़दूरों का नारकीय जीवन

चीन की फ़ॉक्सकॉन कम्पनी एप्पल जैसी कम्पनियों के लिए महँगे इलेक्ट्रॉनिक और कम्प्यूटर के साजो-सामान बनाती है। इसके कई कारख़ानों में लगभग 12 लाख मज़दूर काम करते हैं। यहाँ जिस ढंग से मज़दूरों से काम लिया जाता है उसके चलते 2010 से 2014 तक ही में 22 ख़ुदकुशी की घटनाएँ सामने आयीं और कई ऐसी घटनाओं को दबा दिया गया। दुनियाभर में “कम्युनिस्ट” देश के तौर पर जाने वाले चीन का पूँजीवाद इससे ज़्यादा नंगे रूप में ख़ुद को नहीं दिखा सकता था। चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। परन्तु बाज़ारों में पटे सस्ते चीनी माल चीन के मज़दूरों के हालात नहीं बताते हैं। पर फ़ॉक्सकॉन की घटना पूरे चीन की दुर्दशा बताती है।

फ़ॉक्सकॅान के मज़दूर की कविताएँ Poems by worker of Foxcon company

मैंने लोहे का चाँद निगला है
वो उसको कील कहते हैं
मैंने इस औद्योगिक कचरे को,
बेरोज़गारी के दस्तावेज़ों को निगला है,
मशीनों पर झुका युवा जीवन अपने समय से
पहले ही दम तोड़ देता है,
मैंने भीड़, शोर-शराबे और बेबसी को निगला है।
मैं निगल चुका हूँ पैदल चलने वाले पुल,
ज़ंग लगी जि़न्दगी,
अब और नहीं निगल सकता
जो भी मैं निगल चुका हूँ वो अब मेरे गले से निकल
मेरे पूर्वजों की धरती पर फैल रहा है
एक अपमानजनक कविता के रूप में।

आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष को दिशा देने वाली ‘महान बहस’ के 50 वर्ष

1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद 1956 में आधुनिक संशोधनवादियों ने सोवियत संघ में पार्टी और राज्य पर कब्ज़ा कर लिया और ख्रुश्चेव ने स्तालिन की “ग़लतियों” के बहाने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी उसूलों पर ही हमला शुरू कर दिया। उसने “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और शान्तिपूर्ण संक्रमण” के सिद्धान्त पेश करके मार्क्सवाद से उसकी आत्मा को यानी वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व को ही निकाल देने की कोशिश की। मार्क्सवाद पर इस हमले के ख़ि‍लाफ़ छेड़ी गयी “महान बहस” के दौरान माओ ने तथा चीन और अल्बानिया की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद की हिफ़ाज़त की। दुनिया के पहले समाजवादी देश में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत दुनियाभर के सर्वहारा आन्दोलन के लिए एक भारी धक्का थी, लेकिन महान बहस, चीन में जारी समाजवादी प्रयोगों और चीनी पार्टी के इर्द-गिर्द दुनियाभर के सच्चे कम्युनिस्टों के गोलबन्द होने पर विश्व मजदूर आन्दोलन की आशाएँ टि‍की हुई थीं।

क्रान्तिकारी चीन में स्वास्थ्य प्रणाली

हर देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे बुनियादी अधिकार होता है। यूँ तो देश का संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “कोई भी व्यक्ति अपने जीवन से वंचित नहीं किया जा सकता”। लेकिन हम सभी जानते हैं कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोज़ाना हज़ारों लोग अपनी जान गँवा देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2011 की रिपोर्ट के अनुसार 70 फ़ीसदी भारतीय अपनी आय का 70 फ़ीसदी हिस्सा दवाओं पर ख़र्च करते हैं। मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था ने हर मानवीय सेवा को बाज़ार के हवाले कर दिया है, जानबूझकर जर्जर और खस्ताहाल की गयी स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करने के नाम पर सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ निजीकरण व बाज़ारीकरण पर एक राय हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि दुनिया की महाशक्ति होने का दम्भ भरने वाली भारत सरकार अपनी जनता को सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवा भी उपलब्ध नहीं कर सकता है। ऐसे में हम अपने पड़ोसी मुल्क चीन के क्रान्तिकारी दौर (1949-76) की चर्चा करेंगे, जहाँ मेहनतकश जनता के बूते बेहद पिछड़े और बेहद कम संसाधनों वाले “एशिया के बीमार देश” ने स्वास्थ्य सेवा में चमत्कारी परिवर्तन किया, साथ ही स्वास्थ्य कर्मियों और जनता के आपसी सम्बन्ध को भी उन्नततर स्तर पर ले जाने का प्रयास किया।

चीन की जूता फैक्ट्रियों में काम करने वाले हज़ारों मज़दूर हड़ताल पर

चीन में रह-रह कर हो रहे इन संघर्षों से एक बात बिल्कुल साफ है कि कम्युनिस्टों का मुखौटा लगाकर मज़दूरों के खुले शोषण और उत्पीड़न के दम पर पैदा हो चुके नवधनाड्य पूँजीवादी जमातों के हितो की रक्षा करने वाले मज़दूर वर्ग के इन गद्दारों का असली चेहरा मेहनतकश चीनी जनता के सामने बेनकाब हो रहा है। इस तरह के मज़दूर संघर्ष आने वाले दौर में सच्चे क्रान्तिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारों के लिए जमीन तैयार करने का भी काम कर रहे है।

चीन में मुनाफ़े की भेंट चढ़े 118 मज़दूर

वैसे आज नामधारी ‘‘कम्युनिस्ट’’ चीन के मज़दूरों के हालात भी विश्व भर के मज़दूरों से अलग नहीं। अभी हाल में बांगलादेश, पाकिस्तान से लेकर भारत तक में सैकड़ों मज़दूर जेलरूपी कारख़ानों में मौत के मुँह में समाये हुए हैं। अकेले भारत में सरकारी आँकड़े बताते हैं कि हर साल दो लाख मज़दूर औद्योगिक दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं। वैसे भी माओ की मृत्यु (1976) के बाद से चीन में क़ाबिज़ कम्युनिस्ट पार्टी के शासक मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि नये पैदा हुये पूँजीपति वर्ग की चाकरी में लगे हुए हैं। तभी आज चीन में मज़दूरों के काम परिस्थितियों और सुरक्षा उपकरण के मानक की खुलेआम अनदेखी की जा रही। ऐसे में ये बात समझने के लिए जरूरी है कि आज चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के चोलों के पीछे खुली पूँजीवादी नीतियाँ लागू हो रही हैं जिसके कारण आज चीन के बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी का जीवन स्तर जो माओकालीन चीन में बेहतर था। लेकिन विगत 37 वर्ष में बदतर हालात में पहुँच गया।

चीन : माओ की भविष्यवाणी सही साबित हुई

सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के तहत जब पूँजीवादी पथगामियों के ख़िलाफ जनान्दोलन जारी था उस समय माओ-त्से-तुङ ने कहा था कि अगर चीन की राज्यसत्ता पर पूँजीवादी पथगामी काबिज़ हो भी जाते हैं तो चीनी जनता उन्हें एक दिन भी चैन की नींद नहीं सोने देगी। कामरेड माओ की यह भविष्यवाणी पूरी तरह सच साबित हुई। चीनी मेहनतकश जनता ने पूँजीवादी पथगामियों के राज्यसत्ता हथियाने के बाद पूँजीवादी सुधारों का जवाब ज़बर्दस्त आन्दोलनों से दिया है।

चीन के लुटेरे शासकों के काले कारनामे महान चीनी क्रान्ति की आभा को मन्द नहीं कर सकते

माओ ने कहा था कि चीन में पूँजीवादी राते के राही अगर सत्ता पर कब्ज़ा करने में कामयाब भी हो गये तो वे चैन से नहीं बैठ पायेंगे। चीन में मज़दूरों और ग़रीब किसानों के लगातार तेज़ और व्यापक होते संघर्ष इस बात का संकेत दे रहे हैं कि चीन के नये लुटेरे शासकों के चैन के दिन अब लद चुके हैं। वह दिन बहुत दूर नहीं जब चीन में फिर से एक सच्ची क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी उठ खड़ी होगी जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए पूँजीवाद को उखाड़ फेंककर कम्युनिज्म की ओर एक नये लम्बे अभियान में चीनी जनता का नेतृत्व करेगी।

चीन में मजदूर संघर्षों का नया उभार

चीन के मजदूर संघर्षों की यह लहर अगर कुछ आंशिक सफलताएँ हासिल करने के बाद दबा भी दी जाये, तो भी इतना तय है कि चीनी मजदूर अब जाग उठा है और कम्युनिज्म के नाम पर जारी पूँजीवादी तानाशाही के नंगनाच को और बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। चीनी शासकों की तमाम लफ्फाजियों के बावजूद उनके असली चेहरे को अब वह पहचान चुका है। आने वाले वर्ष चीन में मजदूर आन्दोलन के जबरदस्त उभार का साक्षी बनेंगे – और इसका असर पूरी दुनिया की पूँजीवादी व्यवस्था को हिलाकर रख देगा। ऐसा होना ही है।

क्रान्तिकारी चीन ने प्रदूषण की समस्या का मुक़ाबला कैसे किया और चीन के वर्तमान पूँजीवादी शासक किस तरह पर्यावरण को बरबाद कर रहे हैं!

आज पूरी दुनिया में पर्यावरण बचाओ की चीख़-पुकार मची हुई है। कभी पर्यावरण की चिन्ता में दुबले हुए जा रहे राष्ट्राध्यक्ष, तो कभी सरकार की बेरुख़ी से नाराज़ एनजीओ आलीशान होटलों के एसी कमरों-सभागारों में मिल-बैठकर पर्यावरण को हो रहे नुक़सान को नियन्त्रित करने के उपाय खोजते फिर रहे हैं। लेकिन पर्यावरण के बर्बाद होने के मूल कारणों की कहीं कोई चर्चा नहीं होती। न ही चर्चा होती है उस दौर की जब जनता ने औद्योगिक विकास के साथ शुरू हुई इस समस्या को नियन्त्रित करने के लिए शानदार क़दम उठाए। जी हाँ, जनता ने! इसका एक उदाहरण क्रान्तिकारी चीन है, जहाँ 1949 की नव-जनवादी क्रान्ति के बाद कॉमरेड माओ के नेतृत्व में चीनी जनता ने इस मिथक को तोड़ने के प्रयास किए कि औद्योगिक विकास होगा तो पर्यावरण को नुकसान पहुँचेगा ही।