नरेगा: सरकारी दावों की ज़मीनी हकीकत – एक रिपोर्ट

 

देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा द्वारा मर्यादपुर इलाके में नरेगा के तहत जारी भ्रष्टाचार और घोटाले का भण्डाफोड़ करती रिपोर्ट का आवरण पृष्ठ

देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा द्वारा मर्यादपुर इलाके में नरेगा के तहत जारी भ्रष्टाचार और घोटाले का भण्डाफोड़ करती रिपोर्ट का आवरण पृष्ठ

राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना (नरेगा) को सत्तारूढ़ यूपीए गठबन्धन की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है। इसे इस रूप में पेश किया जा रहा है जैसे कुछ भ्रष्टाचार और धाँधलियों के बावजूद यह एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाली योजना है। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त इसके एकदम उलट है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अतिपिछड़े इलाक़े मर्यादपुर में किये गये देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा द्वारा हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण से यह बात साबित होती है कि नरेगा के तहत कराये गये और दिखाये गये कामों में भ्रष्टाचार इतने नंगे तरीक़े से और इतने बड़े पैमाने पर किया जा रहा है कि यह पूरी योजना गाँव के सम्पन्न और प्रभुत्वशाली तबक़ों की जेब गर्म करने का एक और ज़रियाभर बनकर रह गयी है। साथ ही यह बात भी ज्यादा साफ हो जाती है कि पूँजीवाद अपनी मजबूरियों से गाँव के गरीबों को भरमाने के लिए थोड़ी राहत देकर उनके गुस्से पर पानी के छींटे मारने की कोशिश जरूर करता है लेकिन आखिरकार उसकी इच्छा से परे यह कोशिश भी गरीबों को गोलबंद होने से रोक नहीं पाती है। बल्कि इस क्रम में आम लोग व्यवस्था के गरीब-विरोधी और अन्यायपूर्ण चेहरे को ज्यादा नजदीक से समझने लगते हैं और इन कल्याणकारी योजनाओं के अधिकारों को पाने की लड़ाई उनकी वर्गचेतना की पहली मंजिल बन जाती है।

::::::::

प्रस्तुत रिपोर्ट पूर्वी उत्तर प्रदेश के मऊ ज़िला के अन्तर्गत मर्यादपुर ग्राम सभा के ग़रीबों, मज़दूरों तथा वंचितों की जीवन स्थितियों का तथ्यपरक ब्योरा है। पंचायती राज और अब नरेगा ने उनके जीवन को कितना और कैसे प्रभावित किया, यह इस रिपोर्ट से आसानी से समझा जा सकता है।

देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा एक लम्बे अरसे से मर्यादपुर क्षेत्र में गाँव के ग़रीबों और मज़दूरों के बीच संगठन एवं प्रचार कार्य करती रही है। 198 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैली ग्राम सभा में 60 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं। 25 प्रतिशत के पास एक से दो बीघा ही ज़मीन है। इस ग्राम सभा के आठ टोले – अंजोरपुर, मर्यादपुर मुख्य, छोटा पुरवा, बड़ा पुरवा, उतराईं, करबला, पूर्वी हरिजन टोला और लाहोजरा हैं। क़रीब 10,000 आबादी वाले इस गाँव में कुल 1,250 परिवार रहते हैं। इस ग्राम सभा में 400 परिवार मछुआरों के हैं, जो परम्परागत रूप से ताल रतोय पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर हैं। लेकिन सरकार की निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों और एन.जी.ओ. के भितरघात ने आज इन मछेरों के सामने आजीविका का प्रश्न पैदा कर दिया है। 21 जनवरी 2009 से 6 फ़रवरी 2009 तक देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं ने ग्राम सभा के सभी आठ टोलों में कैम्प आयोजित किये। इन कैम्पों में 410 परिवारों ने अपनी समस्याओं को ब्योरेवार दर्ज करवाया।

कैम्प के दौरान हमारे सामने कई चौंकाने वाले तथ्य आये। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अतिपिछड़े इलाक़े मर्यादपुर में किये गये देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा के सर्वेक्षण से पता चलता है कि वर्ष 2008-’09 के दौरान नरेगा के तहत सिर्फ़ 11.4 प्रतिशत मज़दूरों को काम मिला। इन्हें भी सालभर में औसतन मात्र 26 दिन ही रोज़गार मिला। 20% परिवार ऐसे मिले जिनके सदस्य नरेगा के तहत काम करने के इच्छुक थे लेकिन उनका परिवार पंजीकरण कार्ड किसी न किसी बहाने से बनाया ही नहीं गया। गाँव के 63.17 प्रतिशत परिवारों के पास पक्के आवास नहीं हैं। वे या तो छान-छप्पर में रहते हैं, या फिर प्लास्टिक की शीट डालकर या टूटी-फूटी मड़ई में किसी तरह जीवन बसर कर रहे हैं। गाँव के 91.21 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं हैं। 85.85 प्रतिशत बेहद ग़रीब परिवार बी.पी.एल./अन्त्योदय राशन कार्ड से वंचित हैं या उन्हें ग़रीबी रेखा से ऊपर का कार्ड जारी कर दिया गया है। आलम यह है कि शासनादेश को ताक पर रखते हुए मज़दूरी का भुगतान बैंक खातों के बजाय नक़द किया जा रहा है।

क्या कहते हैं नरेगा मज़दूर

सर्वे के दौरान 146 नरेगा मज़दूरों से जाँच टोली ने बातचीत की। हमें एक भी ऐसा मज़दूर नहीं मिला जिसे पता हो कि जॉब कार्ड कैसे बनता है, काम के लिए आवेदन कब और कैसे करना होता है। उन्हें मस्टररोल के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी। रामप्रसाद ने बताया कि जॉब कार्ड बनवाने के लिए उनसे 200 रुपये माँगे गये। पूछने पर पता चला कि पंचायत ने कभी कोई नरेगा जागरूकता अभियान चलाया ही नहीं। 30.82 प्रतिशत ऐसे मज़दूर थे जिनका जॉब कार्ड तो बना लेकिन प्रधान से कई बार कहने के बावजूद उन्हें काम नहीं मिला। 33.66 प्रतिशत मज़दूरों को कई महीने बीत जाने के बावजूद मज़दूरी का भुगतान ही नहीं किया गया है। एक भी ऐसा मज़दूर नहीं मिला जिनका जॉब कार्ड अपडेट हो। कई लोग तो ऐसे थे जिन्होंने बारह से पन्द्रह दिन तक काम भी किया लेकिन उनका हाजिरी कार्ड एकदम ख़ाली था। एक आरटीआई से पता चला कि नरेगा के तहत वर्ष 2008-2009 में मात्र 51 मज़दूरों को ही काम दिया गया। इन्हें भी औसतन मात्र 26 दिन का ही रोज़गार मिला । मज़दूरों ने बताया कि मौक़ा-मुआयना करने वाले इंजीनियर ज़्यादा से ज़्यादा काम करने का दबाव बनाते हैं। इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि मज़दूरों से तय मानदण्डों से अधिक काम करवाया जाता हो और अतिरिक्त श्रम की मज़दूरी को फर्जी जॉब कार्ड के जरिये निकाल लिया जाता हो।

नरेगा के योजनाकारों ने योजना निर्माण एवं क्रियान्वयन के लिए पंचायतों को सबसे महत्वपूर्ण संस्थान करार दिया है। सच्चाई यह है कि सर्वे के दौरान पूरे गाँव में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला जिसने कभी भी ग्राम सभा की खुली बैठकों में हिस्सेदारी की हो। वस्तुतः उन्हें ऐसी सभाओं के बारे में कभी भी बताया ही नहीं गया है। और तो और 18.04% परिवारों में ऐसे कई सदस्य थे जिनके वोटर कार्ड तक नहीं बनाये गये। ऐसे में पाठक स्वयं ही ग्राम स्वराज्य की वास्तविकता का अनुमान लगा सकते हैं।

नरेगा के तहत भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बाबत सरकार ने बैंक खातों से भुगतान का नियम बनाया है। यदि नरेगा मज़दूरों की बातों पर यक़ीन करें तो बकौल कैलाश “अभी भी क़रीब 200 मज़दूर ऐसे हैं जिनका बैंक खाता नहीं खुला है।” कुछ जगह मज़दूरी का भुगतान बैंक खातों के बजाय नक़द किये जाने की भी सूचना मिली। गाँव वालों ने बताया कि बैंकों में दलालों का बोलबाला है। खाता खुलवाने के लिए मनचाहे पैसे वसूले जाते हैं। बैंक के फार्म तक बेचे जा रहे हैं। जाँच टीम को बारह ऐसे लोग मिले जिन्होंने एक अरसे से खाता खोलने की अर्जी दे रखी है लेकिन बैंक का मैनेजर उन्हें खाता नम्बर नहीं दे रहा है।

सूचना अधिकार?! पारदर्शिता?! जनतन्त्र?!

उत्तर प्रदेश पंचायती राज निदेशालय नागरिक चार्टर में घोषणा करता है कि – “ग्राम पंचायत को प्राप्त धनराशि से कराये गये कार्यों का विवरण सार्वजनिक भवन पर वाल पेण्टिंग के माध्यम से दर्शाया जाये। मस्टर रोल एवं लाभार्थी सूची आदि का प्रकाशन कार्यालय के सूचना पट्ट पर किया जाये।” अन्यत्र लिखा गया है कि – “पंचायतें पूर्ण जनसहभागिता तथा पारदर्शिता के साथ ग्रामीण प्रशासन एवं ग्रामीण विकास की परिकल्पना को साकार करेंगी।” लेकिन वास्तविकता यह है कि मर्यादपुर पंचायत भवन शायद ही कभी खुलता हो। नौकरशाही और नेताशाही मस्टर रोल तथा योजनाओं के वित्तिय ब्योरों को अति गोपनीय दस्तावेज़ों की तरह बरतती है, मानो सार्वजनिक हो जाने पर राष्ट्र की सुरक्षा ख़तरे में पड़ जायेगी। देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं ने आर.टी.आई. के जरिए दिनांक 06-12-2008 को सूचना अधिकारी/कार्यक्रम अधिकारी, फतहपुर मण्डाव को सम्बोधित एक पत्र में मर्यादपुर व ब्लॉक स्तर की विकास योजनाओं का ब्यौरा माँगा था। चालीस दिन बीत जाने के बाद भी जब सूचना नहीं मिली तो बी.डी.ओ. और सेक्रेटरी से कई मौखिक अनुरोध किये गये। एक दिन हमारा तकादा करना उन्हें इतना नागवार गुजरा कि बी.डी.ओ. साहब ने पुलिस में शिकायत करने और जेल भिजवाने की धमकी तक दे डाली। जवाब में जब हमने अपील अधिकारी से शिकायत करने की बात कही तब कहीं जाकर 75 दिन पश्चात दिनांक 20-02-2009 को हमें ग्राम सेक्रेटरी द्वारा रजिस्टर्ड डाक से भेजे गये पत्र द्वारा सूचित किया गया कि हम समस्त सूचनाएँ ज़िला पंचायत से जाकर माँग लें। एक अन्य आरटीआई आवेदन के जवाब में, जो एक बी.पी.एल. कार्डधारक द्वारा माँगा गया था, मस्टररोल की फ़ोटोप्रति देने के लिए 3,000 रुपये भुगतान की माँग की गयी।

कहाँ गये विकास निधि के 10,33,729 रुपये ?

वित्त वर्ष 2007-08 की ग्राम सभा मर्यादपुर की विकास रिपोर्ट के पृष्ठ 34 पर दर्शाया गया है कि नरेगा के तहत ग्राम पंचायत ने कुल 6 निर्माण कार्य करवाये, जिसमें 5 कार्य नालों की खुदाई व सफाई के थे तथा एक नाली निर्माण का था। यही नाली निर्माण पृष्ठ संख्या 4 पर एक अन्य कार्ययोजना के अन्तर्गत भी दर्शाया गया है। रिपोर्ट के पृष्ठ 34 पर नरेगा के तहत कुल 7912 मानव श्रम दिवस सृजित दिखाये गये हैं। इस तरह कुल 3081 (7912-4831=3081) मानव श्रम दिवस का कोई हिसाब नहीं मिलता। यदि इसे मज़दूरी में तब्दील किया जाये तो यह 3,08,100 रुपये के बराबर बैठती है। यदि हम इस राशि में अन्य निर्माण योजनाओं में हुए सरकारी धन के दुरुपयोग को जोड़ दें तो यह वर्ष 2007-08 के लिए 10,33,729 रुपये होता है।

सरकारी जाँच!

सरकारी अधिकारियों और पंचायती राज के राजाओं की आपसी बन्दरबाँट ने ग्राम सभा मर्यादपुर के ग्रामीणों के जीवन में कोढ़ में खाज का काम किया है। 23 फ़रवरी 2007 को ज़िला मुख्यालय मऊ पर गाँव के 600 से अधिक लोगों ने प्रदर्शन किया व धरना दिया। जनता के दबाव में शासन ने तुरन्त एक जाँच दल गाँव में भेज दिया। जाँच दल में तत्कालीन ए.डी.ओ. व ग्राम सेक्रेटरी थे। शायद इसी को बिल्ली से दूध की रखवाली करना कहा जाता होगा। इन दोनों साहबों ने शिवमन्दिर पोखरे के पास ग्रामवासियों को इकट्ठा करवाया और फिर जाँच शुरू की। ए.डी.ओ. के पास कुछ लाल-सफ़ेद राशन कार्ड थे। वो कार्ड हवा में दिखाता, परिवार के मुखिया का नाम पुकारता और फिर भीड़ से सवाल पूछता – “बताओ यह व्यक्ति पात्र है या अपात्र?” भीड़ में मौजूद कुछ लोग उसे पात्र बताते तो कुछ लोग अपात्र कहते। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति पैदा हो गयी कि भीड़ दो खेमों में बँट गयी और उनमें आपस में मारपीट की स्थिति पैदा हो गयी, या कहा जाये कि पैदा कर दी गयी। इस दौरान देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ता मौजूद थे। उन्होंने स्थिति को सँभाला और जाँच अधिकारियों द्वारा तोड़फोड़ की साजिश को बेनक़ाब किया।

सरकार पर टूटता भरोसा, मजबूत होती आपसी एकजुटता

ग्राम सभा की क़रीब-क़रीब शत-प्रतिशत आम आबादी नौकरशाहों और नेताओं में अपना भरोसा खोती जा रही है। उन्हें लगता है कि सरकारी अधिकारी केवल पैसे वालों की ही सुनते हैं। वैसे भी इस रिपोर्ट के आँकड़े यही बताते हैं कि मर्यादपुर के ये ग़रीब-मेहनतकश 20 रुपये रोज़ पर ज़िन्दा रहने वाले देश के उन 84 करोड़ हिन्दुस्तानियों का हिस्सा हैं जिन्हें शाइनिंग इण्डिया और डबल डिजिट ग्रोथ रेट के रुपहले पर्दे के पीछे के सीलन भरे अँधेरे में धकेल दिया गया है। इसमें ज़रा भी अचरज की बात नहीं है कि चाहे पंचायती राज जैसी संस्था हो या फिर नरेगा जैसी कल्याणकारी योजना, उसका अमली रूप पूँजी के गर्भ से पैदा होने वाले वर्गीय पूर्वाग्रहों, शोषण और भ्रष्टाचार से मुक्त हो ही नहीं सकता है। गाँव के ग़रीब तक यह समझने लगे हैं कि सरकार उसके नौकरशाह और नेता सभी धन और धनिकों की चाकरी करते हैं, कि उन्हें आम जन की दुःख-तकलीफ़ों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन साथ ही वे यह बात भी समझने लगे हैं कि एकजुट हो कर संघर्ष करने के अलावा उनके सामने कोई और रास्ता नहीं है। स्पष्ट ही इन समस्याओं की प्रकृति सामाजिक-आर्थिक ढाँचे से जुड़ी हुई है। इस ढाँचे को बदले बिना समस्याओं के रूप को तो बदला जा सकता है लेकिन समस्याओं का अन्त अकल्पनीय है। वास्तविक बदलाव की लड़ाई सापेक्षतः एक लम्बी प्रक्रिया है। अतः देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा ने निम्नलिखित फ़ौरी राहतों की माँग की है –

1.नरेगा के क्रियान्वयन के लिए पृथक सरकारी तन्त्र सुनिश्चिन किया जाये।

2.ग्राम स्तर पर नरेगा मज़दूरों की समस्याओं के त्वरित निवारण हेतु साप्ताहिक कैम्प लगाये जायें।

3.ग्राम सभा की खुली बैठकों का आयोजन अमली रूप में सुनिश्चित करवाया जाये।

4.ग्राम पंचायत के धन से करवाये गये निर्माण कार्यों का विवरण सार्वजनिक करवाना सुनिश्चित करवाया जाये। मस्टर रोल एवं लाभार्थी सूची का प्रकाशन आम जन के लिए हो।

5.बी.पी.एल. व अन्त्योदय राशन कार्ड, आवास, पेंशन आदि के वितरण तथा नरेगा मज़दूरों की सभी समस्याओं का कैम्प लगाकर तुरन्त प्रभाव से निस्तारण किया जाये।

6.ग्राम सभा मर्यादपुर के पिछले पाँच वित्त वर्षों के दौरान हुई धाँधली और सरकारी धन के दुरुपयोग की उच्चस्तरीय जाँच हो। दोषी अधिकारियों को तुरन्त प्रभाव से सेवामुक्त किया जाये।

 

बिगुल, अप्रैल 2009

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments