मौजूदा आर्थिक संकट और मार्क्स की ‘पूँजी’

मुकेश असीम

यह बात तो आज सबके सामने स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था एक बेहद गहन संकट की शिकार है। वर्तमान सत्ताधारी दल के घोर समर्थक भी अब इससे इंकार कर पाने में असमर्थ हैं, क्योंकि भयंकर रूप से बढ़ती बेरोज़गारी, घटती मज़दूरी, आसमान छूती महँगाई, अधिसंख्य जनता के लिए पोषक भोजन का अभाव, शिक्षा-स्वास्थ्य-आवास आदि सुविधाओं से वंचित होते अधिकांश लोग, कृषि में संकट और बढ़ती आत्महत्याएँ – ये सब ऐसे तथ्य हैं जिन्हें झुठलाना अब किसी के बस में नहीं। अभी बहस का मुद्दा इस संकट की वजह और इसके समाधान का रास्ता है। बीजेपी, कांग्रेस, आदि बुर्जुआ पार्टियाँ और उनके समर्थक इसके लिए एक-दूसरे की नीतियों को जि़म्मेदार ठहराते और ख़ुद की सरकार द्वारा इससे निजात दिलाने के बड़े-बड़े गलाफाड़ू दावे करते देखे जा सकते हैं, लेकिन सरकार कोई भी रहे, आम मेहनतकश जनता के जीवन में संकट है कि कम होने के बजाय बढ़ता ही जाता है। इसलिए ज़रूरी है कि इन चुनावी पार्टियों की बहस में पड़ने के बजाय हम इसके मूल कारणों को समझने का प्रयास करें।     

इसे समझने के लिए दुनिया के सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक कार्ल मार्क्स द्वारा 150 वर्ष पहले लिखी अपनी कालजयी पुस्तक ‘पूँजी’ में उद्घाटित पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के नियमों को जानना-समझना ज़रूरी है। पूँजी की गतिकी के अपने विश्लेषण में मार्क्स ने बताया था कि प्रतिद्वन्द्विता में अन्य पूँजीपतियों को पछाड़ने के लिए प्रत्येक पूँजीपति को अपने उत्पादन को सस्ता करना होता है, जिससे वह बाज़ार में कम क़ीमत पर अधिकाधिक माल बेच सके। किन्तु माल उत्पादन में प्रयुक्त इमारत, मशीन, आदि के प्रति इकाई ख़र्च व लगी सामग्री की क़ीमत जोड़ने के पश्चात उत्पादित माल का मूल्य निर्धारित करने वाला कारक उत्पादन प्रक्रिया में लगी श्रम-शक्ति की मात्रा ही है। उदाहरण के लिए, अगर प्रति इकाई 100 रुपये अचर पूँजी से उत्पादित माल का मूल्य 200 रुपये हो तो यह अतिरिक्त 100 रुपये उसमें लगे श्रम की मात्रा या श्रम-शक्ति के समय की मात्रा से ही आता है। इस अतिरिक्त 100 रुपये में से एक हिस्सा श्रम-शक्ति के मूल्य के एवज़ में मज़दूरी के रूप में भुगतान कर दिया जाता है और बचा हिस्सा पूँजीपति के पास रह जाता है जिसे अधिशेष मूल्य कहते हैं। पूँजीपति का मुनाफ़ा, बैंक द्वारा दिये गये क़र्ज़ पर ब्याज़़, उपयोग में लायी गयी ज़मीन-इमारत का लगान या किराया, सरकार को प्राप्त टैक्स – सब श्रमिक द्वारा उत्पादित लेकिन पूँजीपति के पास रह गये इसी अधिशेष मूल्य में से ही आता है। इसलिए पूँजीपति को प्रतिद्वन्द्विता में अपने माल की क़ीमत कम करने के लिए उत्पादन में नयी मशीनों और तकनीक का प्रयोग कर कम श्रम-शक्ति के प्रयोग द्वारा अधिक उत्पादन करना ही होता है। इसके लिए उसे निरन्तर अपनी निवेशित पूँजी का जैविक संघटन बढ़ाते जाना होता है अर्थात उत्पादन में लगी श्रम-शक्ति अर्थात चर पूँजी की तुलना में अचर पूँजी (मशीनों, प्रयुक्त कच्चे माल, आदि पर लगी पूँजी) की मात्रा बढ़ती जाती है, जिससे वह श्रम-शक्ति की उत्पादकता बढ़ाकर कम श्रमिकों से अधिक उत्पादन करा सके और उसके उत्पादित माल की लागत कम हो जाये। तब वह इसे कम बाज़ार क़ीमत पर बेचकर अपने प्रतिद्वन्द्वियों को पछाड़ सकता है, क्योंकि नयी तकनीक से माल का मूल्य कम हो जाने पर पुरानी तकनीक द्वारा अधिक लागत पर उत्पादन करने वाले पूँजीपति को भी नयी कम क़ीमत पर ही माल बेचना होता है या बाज़ार से बाहर होना पड़ता है। दोनों ही स्थितियों का नतीजा उसका दिवालिया होना है।

पर इसका नतीजा क्या होता है? एक सीमा के बाद उत्पादन में प्रयुक्त पूँजी की मात्रा जिस तेज़ी से बढ़ती है, पूँजीपति को प्राप्त अधिशेष मूल्य उस तेज़ी से नहीं बढ़ता और लगायी गयी कुल पूँजी पर प्राप्त मुनाफ़े की दर गिरने लगती है। उदाहरण के तौर पर अगर पहले 1000 रुपये की पूँजी पर 250 रुपये अर्थात 25% दर से मुनाफ़ा मिलता था और अब पूँजी बढ़कर 2000 रुपये हो गयी और मुनाफ़ा 400 रुपये हुआ तो हालाँकि कुल मुनाफ़ा बढ़ गया पर मुनाफ़े की दर घटकर 20% ही रह गयी। इसे ही मार्क्स ने पूँजीवाद में मुनाफ़े की घटती दर की प्रवृत्ति का नियम कहा। इसका दूसरा नतीजा होता है कि सभी पूँजीपतियों द्वारा इस होड़ में अधिकाधिक उत्पादन से कुल उत्पादन की मात्रा बाज़ार में ख़रीद के लिए उपलब्ध क्रय-शक्ति से अधिक हो जाती है जिसे अति-उत्पादन कहा जाता है अर्थात समाज की आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं, बल्कि ख़रीदने की क्षमता से अधिक उत्पादन। इसके चलते जिन पूँजीपतियों की उत्पादन लागत अधिक होती है, वह हानि के कारण दिवालिया हो जाते हैं। उनको क़र्ज़ देने वाले बैंक और अन्य वित्तीय संस्थानों को भी अपनी पूँजी का नुक़सान झेलना होता है। यही पूँजीवाद में निरन्तर पैदा होते आर्थिक संकटों का मूल कारण है। पूँजी के विनाश या अवमूल्यन द्वारा इसका तात्कालिक समाधान होता है, जैसे दिवालिया हुई कम्पनी की सम्पत्ति को औने-पौने दामों में बेचने से जहाँ उसके निवेशकों की पूँजी का विनाश होता है, वहीं जिस पूँजीपति को वह तिहाई-चौथाई या और कम दामों पर मिलती है, उसके लिए तात्कालिक तौर पर मुनाफ़े की दर कुछ हद तक बढ़ जाती है, जैसे भूषण स्टील में लगी लगभग 70 हज़ार करोड़ रुपये की पूँजी अवमूल्यन के बाद टाटा स्टील को 30 हज़ार करोड़ रुपये में प्राप्त हो जाये तो तुरन्त उसके मुनाफ़े की दर में कुछ हद तक वृद्धि होगी। लेकिन इससे पूँजीवाद के संकट का कोई स्थायी समाधान नहीं होता क्योंकि मार्क्स द्वारा उद्घाटित उसके अनिवार्य नियम से वही प्रक्रिया फिर से जारी रहती है तथा बाद में और भी गहन संकट को जन्म देती है। 

इसे समझने के लिए हम भारत के टेलीकॉम उद्योग का उदाहरण लेते हैं। 10 वर्ष पहले भारत में दर्जन-भर से अधिक निजी टेलीकॉम कम्पनियाँ थीं, जो अब घटकर मात्र तीन ही रह गयीं हैं – एयरटेल, आइडिया व जियो। शेष सब या तो इनमें विलय हो गयीं या दिवालिया होकर बन्द हो गयीं। इस दौरान मोबाइल सम्बन्धी कारोबार भी ख़ूब बढ़ा है, साथ ही शेष सब कम्पनियों के बन्द हुए कारोबार का हिस्सा भी इन तीन कम्पनियों में ही बँट गया है। फिर बड़े पैमाने पर श्रमिकों की छँटनी हुई है और अब बढ़े हुए काम को पहले से काफ़ी कम श्रमिकों द्वारा किया जा रहा है। सामान्य नज़रिये से देखें तो इन सब वजहों से ये बची हुई तीन कम्पनियाँ तो बहुत भारी मुनाफ़े में होनी चाहिए?  मगर ऐसा नहीं है, इनका मुनाफ़ा और ख़ासतौर पर निवेश की गयी पूँजी पर मिलने वाले मुनाफ़े की दर और घट गयी है। ऐसा क्यों?

हालाँकि अधिकाधिक पूँजी निवेश के नतीजे में टेलीकॉम उद्योग में पूँजी के संकेन्द्रण-सान्द्रण की प्रक्रिया पहले ही जारी थी पर दो साल पहले जियो द्वारा कम श्रम-शक्ति व अधिक उत्पादकता वाली उन्नत तकनीक में भारी पूँजी निवेश के साथ प्रतियोगिता में उतरने से यह प्रक्रिया अत्यन्त तेज़ हो गयी। जो प्रतिद्वन्द्वी इसके मुक़ाबले पूँजी निवेश बढ़ाने में असमर्थ थे, वे पिछड़ने लगे। साथ ही मार्क्स के मूल्य के श्रम सिद्धान्त के अनुसार प्रति इकाई उत्पादन के लिए आवश्यक श्रम-शक्ति के समय की मात्रा में कमी के कारण सिर्फ़ जियो ही नहीं सभी कम्पनियों के उत्पादित माल – यहाँ कॉल, सन्देश, डाटा, आदि माल ही हैं – का मूल्य ही कम नहीं हुआ बल्कि माँग के मुक़ाबले आपूर्ति बढ़ने से उनके बाज़ार दाम में और भी अधिक गिरावट हुई। इससे पुरानी तकनीक पर अधिक श्रम-शक्ति के प्रयोग से अर्थात अधिक लागत पर उत्पादन करने वाली कम्पनियाँ जैसे टाटा टेलीसर्विसेज़, रिलायंस कम्यूनिकेशन, आदि दिवालिया होने लगीं या वोडाफ़ोन की तरह दूसरी कम्पनियों द्वारा अधिगृहीत कर ली गयीं। पर दर्जन-भर कम्पनियों का कारोबार मात्र तीन के हाथ में आने से भी समस्या हल नहीं हुई, क्योंकि कम लागत पर अधिक आपूर्ति से बाज़ार मूल्य कम होने से पूरे उद्योग की कुल बिक्री ही कम हो गयी है। दो साल पहले पूरे टेलीकॉम उद्योग की कुल बिक्री 1 लाख 80 हज़ार करोड़ रुपये थी, पर मार्च 2018 में ख़त्म हुई तिमाही में इन कम्पनियों द्वारा घोषित परिणामों से हिसाब लगायें तो अब यह घटकर मात्र 1 लाख 25 हज़ार करोड़ रुपये ही रह गयी है जबकि जियो तथा उसके मुक़ाबले हेतु एयरटेल तथा आइडिया द्वारा किये गये भारी पूँजी निवेश के कारण तीनों की कुल पूँजी बढ़कर 80 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक हो चुकी है। अभी तो हालत यह है कि मात्र कुल पूँजी पर प्राप्त मुनाफ़े की दर ही नहीं कुल मुनाफ़ा भी कम हो गया है। इसलिए इससे भी संकट का कोई समाधान नहीं निकाल पाया और अन्देशा है कि इनमें से एक और कम्पनी पर संकट की तलवार लटक रही है।

ऐसी ही स्थिति विद्युत, इस्पात, सूचना प्रौद्योगिकी जैसे अन्य बड़े उद्योगों में भी देखी जा सकती है। साढ़े तीन लाख मेगावाट की कुल क्षमता वाले विद्युत उद्योग में से 75 हज़ार मेगावाट के विद्युत उत्पादन संयन्त्र अभी संकट में हैं, क्योंकि एक ओर तो देश में बिजली की कमी है वहीं पुरानी तकनीक वाले कोयला आधारित संयन्त्र 55% क्षमता पर ही काम कर रहे हैं क्योंकि इनके लिए अधिक उत्पादन और भी अधिक घाटा ही पैदा करता है। इसके कारण लगभग 1.77 लाख करोड़ रुपये के बैंक क़र्ज़ भी संकट में हैं, यद्यपि अभी इन्हें एनपीए घोषित नहीं किया गया है। इस्पात उद्योग की तो बहुत सारी कम्पनियाँ दिवालिया अदालत में पहुँची हुई हैं जिनकी कुल इस्पात उत्पादन क्षमता सालाना 2.20 लाख टन की है और इनकी वजह से कुल 3.26 लाख करोड़ रुपये की ऋण पूँजी संकट में है।

इस संकट की वजह भी मार्क्स द्वारा बताये गये उपरोक्त पूँजी के बढ़ते जैविक संघटन और परिणामस्वरूप मुनाफ़े की गिरती दर में देखी जा सकती है। 2014 के वार्षिक औद्योगिक सर्वेक्षण के अनुसार कपड़ा, वस्त्र, रसायन, वाहन, प्लास्टिक, जूते जैसे मुख्य विनिर्माण उद्योगों में 1982 की तुलना में प्रति रुपया निवेश पर श्रमिकों की संख्या घटकर मात्र दसवाँ हिस्सा रह गयी। इस बीच जहाँ श्रमिकों की उत्पादकता 8 गुना बढ़ीं, वहीं उनके वेतन में मात्र 50% वृद्धि हुई जिससे कुल उत्पादन के मूल्य में से श्रमिकों को प्राप्त होने वाला हिस्सा 35% से कम होकर 10% ही रह गया। इसी बात को एचडीएफ़सी बैंक की एक रिपोर्ट से ऐसे समझा जा सकता है कि 1990 के दशक में 1% जीडीपी बढ़ने के लिए जहाँ रोज़गार में 0.39% वृद्धि की ज़रूरत थी, वहीं यह दर घटकर 2000 के दशक में 0.23% और वर्तमान दशक में मात्र 0.15% रह गयी है अर्थात श्रम-शक्ति के बजाय पूँजीपति अभी मशीनों, तकनीक में अधिक पूँजी निवेश कर पूँजी के जैविक संघटन को बढ़ा रहे हैं।

यह बढ़ता पूँजी निवेश आया कहाँ से? 1991-92 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के समय भारतीय अर्थव्यवस्था में बैंक क़र्ज़ की कुल मात्रा उस समय के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 19% थी। इसके बाद के पहले दशक 2001-02 तक यह बढ़कर 25% हो गयी। लेकिन उसके बाद 2003 से 2008 तक जो एक अस्थाई वृद्धि का दौर चला, उसमें बैंक क़र्ज़ की मात्रा तेज़ी से बढ़कर लगभग दोगुनी हो गयी। अर्थात इस आर्थिक विस्तार के मूल में बैंकों द्वारा औद्योगिक-व्यापारिक पूँजीपतियों को दिये गये भारी क़र्ज़ थे। इसके बाद जब वैश्विक आर्थिक संकट शुरू हुआ तो भारत में इसके प्रभाव को टालने के लिए और अधिक बैंक क़र्ज़ दिये गये। इस तरह कुल बैंक क़र्ज़ की मात्रा बढ़कर 2013-14 में जीडीपी का 53.4% हो गयी, जबकि इस दौरान जीडीपी की संख्या में भी बड़ी वृद्धि हुई थी।    

लेकिन मार्क्स द्वारा बताये गये नियम के अनुसार अचर पूँजी में बढ़ते इस निवेश के कारण पूँजीपतियों की लाभप्रदता में तेज़ गिरावट आनी शुरू हो गयी। 2007-08 में जहाँ पूरी अर्थव्यवस्था में कॉरपोरेट लाभ की दर जीडीपी का 10.7% थी, 2012-13 तक आते-आते यह घटकर 7.5% हो गयी। इस वर्ष जनवरी में संसद में प्रस्तुत आर्थिक सर्वे के अनुसार पिछले वर्ष यह मात्र 3.5% ही थी। पिछले 4 साल में सामने आये बैंक क़र्ज़ संकट को भी इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। मुनाफ़े की घटती दर के परिणामस्वरूप 2013-14 का वर्ष आते-आते बहुत से पूँजीपतियों के लिए क़र्ज़ की किश्तें छोड़िए ब्याज़ की रक़म चुकाना भी मुश्किल हो गया। उसका नतीजा ही पिछले वर्षों में डूबते क़र्ज़ों और राइट ऑफ़ की रक़म में भारी वृद्धि है। इसी स्थिति को सँभालने और तबाह हुए पूँजीपतियों की कम्पनियों को बन्द करने या बचे हुए पूँजीपतियों के स्वामित्व में स्थानान्तरित करने के लिए ही दिवालिया अधिनियम भी लाना पड़ा है।

किन्तु आम मेहनतकश जनता के लिए इसके नतीजे क्या हैं? सबसे पहले तो बड़ी संख्या में कम्पनियों के दिवालिया होने से बैंकों का ऋण संकट गम्भीर हुआ है और इन कम्पनियों द्वारा लिये गये क़र्ज़ बड़ी मात्रा में डूब गये हैं जिससे बैंकिंग व्यवस्था में आये संकट से निपटने के लिए सरकार इन्हें बड़ी मात्रा में पूँजी दे रही है, जिसके लिए एक ओर अप्रत्यक्ष करों का भारी बोझ आम लोगों पर डाला जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा चलाये जा रहे थोड़े-बहुत कल्याणकारी कार्यों पर ख़र्च में भारी कटौती की गयी है। दूसरे, बड़ी मात्रा में श्रमिक बेरोज़गार हुए हैं, और आगे रोज़गार कम हो रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि निजी सम्पत्ति और उजरती श्रम पर आधारित पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में उत्पादक शक्तियों का विकास भी अब आर्थिक उन्नति नहीं, बल्कि विनाश का उपादान ही बनता है क्योंकि उत्पादन का मक़सद सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं, बल्कि पूँजीपतियों का अधिकतम मुनाफ़ा है।


 

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