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मौजूदा आर्थिक संकट और मार्क्स की ‘पूँजी’

यह बात तो आज सबके सामने स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था एक बेहद गहन संकट की शिकार है। वर्तमान सत्ताधारी दल के घोर समर्थक भी अब इससे इंकार कर पाने में असमर्थ हैं, क्योंकि भयंकर रूप से बढ़ती बेरोज़गारी, घटती मज़दूरी, आसमान छूती महँगाई, अधिसंख्य जनता के लिए पोषक भोजन का अभाव, शिक्षा-स्वास्थ्य-आवास आदि सुविधाओं से वंचित होते अधिकांश लोग, कृषि में संकट और बढ़ती आत्महत्याएँ – ये सब ऐसे तथ्य हैं जिन्हें झुठलाना अब किसी के बस में नहीं। अभी बहस का मुद्दा इस संकट की वजह और इसके समाधान का रास्ता है। बीजेपी, कांग्रेस, आदि बुर्जुआ पार्टियाँ और उनके समर्थक इसके लिए एक-दूसरे की नीतियों को जि़म्मेदार ठहराते और ख़ुद की सरकार द्वारा इससे निजात दिलाने के बड़े-बड़े गलाफाड़ू दावे करते देखे जा सकते हैं, लेकिन सरकार कोई भी रहे, आम मेहनतकश जनता के जीवन में संकट है कि कम होने के बजाय बढ़ता ही जाता है।

अगर हमने पूँजीवाद को तबाह नहीं किया तो पूँजीवाद पृथ्वी को तबाह कर देगा

‘पृथ्वी दिवस’ के अवसर पर 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में पर्यावरण को बचाने की चिंता प्रकट करते हुए कार्यक्रम हुए। 1970 में इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई और यह बात अनायास नहीं लगती कि इसके लिए 22 अप्रैल का दिन चुना गया जो लेनिन का जन्मदिन है। लेनिन के बहाने क्रांति पर बातें हों, इससे बेहतर तो यही होगा कि पर्यावरण के विनाश पर अकर्मक चिंतायें प्रकट की जाएँ और लोगों को ही कोसा जाये कि अगर वे अपनी आदतें नहीं बदलेंगे, और पर्यावरण की चिंता नहीं करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर क़यामत आ जायेगी। यानी सामाजिक बदलाव के बारे में नहीं, महाविनाश के दिन के बारे में सोचो। हालीवुड वाले इस महाविनाश की थीम पर सालाना कई फ़िल्में बनाते हैं।