Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

स्विस बैंकों में जमा 72 लाख करोड़ की काली कमाई पूँजीवादी लूट के सागर में तैरते हिमखण्ड का ऊपरी सिरा भर है

यूँ तो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की नींव ही मेहनत की कानूनी लूट पर खड़ी की जाती है। यानी पूँजीवादी व्यवस्था में मेहनत करने वाले का हिस्सा कानूनन पूँजीपति की तुलना में नगण्य होता है। लेकिन पूँजीपतियों का पेट इस कानूनी लूट से भी नहीं भरता। लिहाज़ा वे पूँजीवाद के स्वाभाविक लक्षण ‘भ्रष्टाचार’ का सहारा लेकर गैरकानूनी ढंग से भी धन-सम्पदा जमा करते रहते हैं। जनता के लिए सदाचार, ईमानदारी और नैतिकता की दुहाई देकर ख़ुद हर तरह के कदाचार के ज़रिये काले धन के अम्बार और सम्पत्तियों का साम्राज्य खड़ा किया जाता है।

20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करने वाले 84 करोड़ लोगों के देश में 300 सांसद करोड़पति

आज चाहे कोई भी चुनावी पार्टी हो, हरेक जनता की सच्ची दुश्मन है। किसी भी तरह की पार्टी या गठबन्‍धन की सरकार बने सभी जनविरोधी नीतियाँ ही लागू कर रहे हैं। पूँजीपति वर्ग की सेवा करना ही उनका लक्ष्य है। आज राज्यसत्ता द्वारा देशी-विदेशी पूँजी के हित में कट्टरता से लागू की जा रही वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की घोर जनविरोधी नीतियों से कोई भी चुनावी पार्टी न तो असहमत है, न ही असहमत हो सकती है। कांग्रेस, भाजपा से लेकर तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियाँ और साथ में मज़दूरों-ग़रीबों के लिए नकली ऑंसू बहाने वाली तथाकथित लाल झण्डे वाली चुनावी कम्युनिस्ट पार्टियाँ सभी की सभी इन्हीं नीतियों के पक्ष में खुलकर सामने आ चुकी हैं। इन पार्टियों के पास ऐसा कुछ भी ख़ास नहीं है जिसके ज़रिये वे जनता को लुभा सकें। वे जनता को लुभाने के लिए जो वायदे करते भी हैं, इन सभी पार्टियों को पता है कि जनता अब उनका विश्वास नहीं करती। आज जनता किसी भी चुनावी पार्टी पर विश्वास नहीं करती। धन के खुलकर इस्तेमाल के बिना कोई पार्टी या नेता चुनाव जीत ही नहीं सकता। वोट हासिल करने के लिए नेताओं की हवा बनाने के लिए बड़े स्तर पर प्रचार हो या वोटरों को पैसे देकर ख़रीदना, शराब बाँटना, वोटरों को डराना-धमकाना, बूथों पर कब्ज़े करने हों, लोगों से धर्म-जाति के नाम पर वोट बटोरने हों – इस सबके लिए मोटे धन की ज़रूरत रहती है। पूँजीवादी राजनीति का यह खेल ऐसे ही जीता जाता है। जैसे-जैसे समय गुज़रता जा रहा है वैसे-वैसे यह खेल और भी गन्दा होता जा रहा है। 14वीं लोकसभा के चुनावों में 9 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति थे जोकि अब की बार 16 प्रतिशत हो गये। यह भी ध्‍यान देने लायक है कि इस बार जब करोड़पति कुल उम्मीदवारों का 16 प्रतिशत थे लेकिन जीत हासिल करने वालों में इनकी गिनती लगभग 55 प्रतिशत है। इस बार विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की औसतन सम्पत्ति इस प्रकार थी : कांग्रेस 5 करोड़, भाजपा 2 से 3 करोड़, बसपा 1.5 से 2.5 करोड। कांग्रेस ने 202 करोड़पतियों को टिकटें दीं, भाजपा ने 129, बसपा ने 95, समाजवादी पार्टी ने 41 करोड़पतियों को लोकसभा के चुनावों में उतारा।

चुनावी नौटंकी का पटाक्षेप : अब सत्ता की कुत्ताघसीटी शुरू

करीब डेढ़ महीने तक चली देशव्यापी चुनावी नौटंकी अब आख़िरी दौर में है। ‘बिगुल’ का यह अंक जब तक अधिकांश पाठकों के हाथों में पहुँचेगा तब तक चुनाव परिणाम घोषित हो चुके होंगे और दिल्ली की गद्दी तक पहुँचने के लिए पार्टियों के बीच जोड़-तोड़, सांसदों की खरीद-फरोख्त और हर तरह के सिद्धान्तों को ताक पर रखकर निकृष्टतम कोटि की सौदेबाज़ी शुरू हो चुकी होगी। पूँजीवादी राजनीति की पतनशीलता के जो दृश्य हम चुनावों के दौरान देख चुके हैं, उन्हें भी पीछे छोड़ते हुए तीन-तिकड़म, पाखण्ड, झूठ-फरेब का घिनौना नज़ारा पेश किया जा रहा होगा। जिस तरह इस चुनाव के दौरान न तो कोई मुद्दा था, न नीति – उसी तरह सरकार बनाने के सवाल पर भी किसी भी पार्टी का न तो कोई उसूल है, न नैतिकता! सिर्फ और सिर्फ सत्ता हासिल करने की कुत्ता घसीटी जारी है।

दमन-उत्पीड़न से नहीं कुचला जा सकता मेट्रो कर्मचारियों का आन्दोलन

दिल्ली मेट्रो की ट्रेनें, मॉल और दफ्तर जितने आलीशान हैं उसके कर्मचारियों की स्थिति उतनी ही बुरी है और मेट्रो प्रशासन का रवैया उतना ही तानाशाहीभरा। लेकिन दिल्ली मेट्रो रेल प्रशासन द्वारा कर्मचारियों के दमन-उत्पीड़न की हर कार्रवाई के साथ ही मेट्रो कर्मचारियों का आन्दोलन और ज़ोर पकड़ रहा है। सफाईकर्मियों से शुरू हुए इस आन्दोलन में अब मेट्रो फीडर सेवा के ड्राइवर-कण्डक्टर भी शामिल हो गये हैं। मेट्रो प्रशासन के तानाशाही रवैये और डीएमआरसी-ठेका कम्पनी गँठजोड़ ने अपनी हरकतों से ठेके पर काम करने वाले कर्मचारियों की एकजुटता को और मज़बूत कर दिया है।

न कोई नारा, न कोई मुद्दा – चुनाव नहीं ये लुटेरों के गिरोहों के बीच की जंग है

जो चुनावी नज़ारा दिख रहा है, उसमें तमाम जोड़-तोड़, तीन-तिकड़म और सिनेमाई ग्लैमर की चमक-दमक के बीच यह बात बिल्कुल साफ उभरकर सामने आ रही है कि किसी भी चुनावी पार्टी के पास जनता को लुभाने के लिये न तो कोई मुद्दा है और न ही कोई नारा। जु़बानी जमा खर्च और नारे के लिये भी छँटनी, तालाबन्दी, महँगाई, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है। कांग्रेस बड़ी बेशर्मी के साथ ‘इंडिया शाइनिंग़ की ही तर्ज़ पर ‘जय हो’ का राग अलापने में लगी हुई है, तो भाजपा उसकी पैरोडी करते हुए यह भूल जा रही है कि पाँच वर्ष पहले वह भी देश को चमकाने के ऐसे ही दावे कर रही थी। विधानसभा चुनावों में आतंकवाद के मुद्दा न बन पाने के कारण भाजपा न तो उसे ज़ोरशोर से उठा पा रही है और न ही छोड़ पा रही है। वरुण गाँधी के ज़हरीले भाषण का पहले तो उसने विरोध किया और फिर वोटों के ध्रुवीकरण के लालच में उसे भुनाने में जुट गयी।

लेनिन – जनवादी जनतन्त्र: पूँजीवाद के लिए सबसे अच्छा राजनीतिक खोल

“धन-दौलत” की सार्विक सत्ता जनवादी जनतन्त्र में ज़्यादा यक़ीनी इसलिए भी होती है कि वह राजनीतिक मशीनरी की अलग-अलग कमियों, पूँजीवाद के निकम्मे राजनीतिक खोल पर निर्भर नहीं होती। जनवादी जनतन्त्र पूँजीवाद के लिए श्रेष्ठतर सम्भव राजनीतिक खोल है और इसलिए (पालचीन्स्की, चेर्नोव, त्सेरेतेली और मण्डली की मदद से) इस श्रेष्ठतम खोल पर अधिकार करके पूँजी अपनी सत्ता को इतने विश्वसनीय ढंग से, इतने यक़ीनी तौर से जमा लेती है कि बुर्जुआ-जनवादी जनतन्त्र में व्यक्तियों, संस्थाओं या पार्टियों की कोई भी अदला-बदली उस सत्ता को नहीं हिल सकती।

राष्‍ट्रीय राजधानी में ग़रीबों के गुमशुदा बच्चों और पुलिस-प्रशासन के ग़रीब-विरोधी रवैये पर बिगुल मज़दूर दस्ता और नौजवान भारत सभा की रिपोर्ट

दिल्ली आज भी गुमशुदा बच्चों के मामले में देश में पहले स्थान पर है, जिनमें 80 प्रतिशत से ज़्यादा संख्या ग़रीबों के बच्चों की होती है। शायद इसीलिए पुलिस से लेकर सरकार तक कोई इस मुद्दे पर गम्भीर नहीं है। पिछले वर्ष सितम्बर तक दिल्ली में 11,825 बच्चे गुमशुदा थे। राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार हर साल दिल्ली से क़रीब 7,000 बच्चे गुम हो जाते हैं, लेकिन यह संख्या दिल्ली पुलिस के आँकड़ों पर आधारित है। हालाँकि विभिन्न संस्थाओं का अनुमान है कि वास्तविक संख्या इससे कई गुना अधिक हो सकती है क्योंकि ज़्यादातर लोग अपनी शिकायत लेकर पुलिस के पास जाते ही नहीं। पुलिस के पास गुमशुदगी की जो सूचनाएँ पहुँचती भी हैं, उनमें से भी बमुश्किल 10 प्रतिशत मामलों में एफ़आईआर दर्ज की जाती है। ज़्यादातर मामलों को पुलिस रोज़नामचे में दर्ज करके काग़ज़ी ख़ानापूर्ति कर लेती है।

सफ़ाई कर्मचारियों की सेहत और सुरक्षा का ध्‍यान कौन रखेगा, जज महोदय?

रात में सफाई व्यवस्था के पक्ष में तर्क दिया गया है कि सफाई के दौरान उड़ने वाली धूल से अस्थमा, एलर्जी या सांस की बीमारियां हो सकती हैं और इसका खराब असर सुबह टहलने वाले लोगों पर पड़ता है। इस बात को सही मानने पर सबसे पहले तो सफाई कर्मचारी के स्वास्थ्य की सुरक्षा की चिन्ता की जानी चाहिए। सफाई कर्मचारी तो बरसों से बिना किसी सांस संबंधी सुरक्षा उपकरण के सफाई कर रहे हैं और उनमें टीबी, अस्थमा आदि रोग भी बहुतायत में मिलते हैं। इन बीमारियों से कई सफाई कर्मचारी जाने-अनजाने असमय मौत के मुंह में समाते रहते हैं। उड़ने वाली धूल से सेहत को सबसे ज्यादा खतरा इन सफाई कर्मचारियों को होता है जबकि चिन्ता की जा रही है दिनभर ऑफिसों-दुकानों- फैक्ट्रियों में बैठे-बैठे तोंद बढ़ाने वाले और फिर सुबह उसे कम करने के लिए हाँफते-काँपते दौड़ने वाले बाबू-सेठ लोगों की सेहत की या उनकी जो शानदार ट्रैकसूट पहनकर सुबह जॉगिंग करते हैं। जिन्दगी भर धूल-गन्दगी के बीच जीने वाले और अपनी सेहत की कीमत पर शहर को साफ-सुथरा रखने वाले सफाई कर्मचारियों के स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता न तो नगर निगम को है और न माननीय न्यायपालिका को।

मैगपाई की गुण्डागर्दी के खि़लाफ़ मज़दूरों का जुझारू संघर्ष

निकाले गये रामराज, सलाउद्दीन, जोगिन्दर, गजेन्द्र, मिण्टू, प्रेमपाल, पप्पू महतो और रिषपाल आदि मज़दूरों के समर्थन में इसी फ़ैक्ट्री के तथा कुछ अन्य फ़ैक्ट्रियों के 50-60 मज़दूरों ने एकजुट होकर फ़ैक्ट्री गेट के सामने प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। मामले को बढ़ता देखकर 6-7 दिन बाद मालिक ने 26 दिसम्बर 2008 को संजय तथा सन्तोष को बात करने के लिए बुलाया। अन्दर आने पर कारख़ाने का गेट बन्द करके मालिक के गुण्डे सन्तोष और संजय को मारने-पीटने और धमकाने लगे कि ज़्यादा नेता बनोगे तो भट्ठी में ज़िन्दा जला देंगे। संजय तो किसी तरह फ़ैक्ट्री की दीवार लाँघकर बाहर भाग आया जबकि सन्तोष को मालिक के गुण्डे पकड़ कर अन्दर मारपीट करने लगे। संजय द्वारा घटना की जानकारी मिलते ही मज़दूर नारे लगाते हुए पहले गेट पर इकट्ठे हुए फिर पास के थाने में एफआईआर दर्ज कराने भागे। वहाँ पुलिस वालों ने इसे दिखावटी रजिस्टर पर दर्ज कर लिया और मज़दूरों को धमकी के अन्दाज़ में हिदायत दी कि “शोर न करें” और फ़ैक्ट्री के पास जाकर चुपचाप खड़े हो जायें। मज़दूरों के पुनः फ़ैक्ट्री पहुँचने के बाद पुलिस वाले आये और मालिक के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई करने के बजाय मसीहाई अन्दाज में यह कहते हुए फ़ैक्ट्री के अन्दर घुस गये कि शोर-शराबा मत करो और कि वे (पुलिसवाले) मालिक की कोई मदद नहीं करेंगे। मामले को उग्र होता देख मालिक के गुण्डों ने खुद ही सन्तोष को छोड़ दिया।

आतंकवाद के बहाने जनता के अधिकारों पर हमला

टाडा और पोटा जैसे क़ानूनों का कहर झेल चुकी देश की जनता के सिर पर अब एक ऐसा क़ानून मढ़ दिया गया है जो कई मामलों में उनसे भी ज़्यादा ख़तरनाक़ है। उल्लेखनीय बात यह है कि इस भयानक क़ानून को अमली जामा पहनाने वाली पार्टी वही कांग्रेस पार्टी है जिसने दुरुपयोग का आरोप लगाकर पोटा को वापस लिया था। संसदीय वामपन्थियों, तथाकथित समाजवादियों और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों को भी इस पर कोई ऐतराज नहीं है।