Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजकों पर हमला, पुलिस ने गुण्‍डो की जगह संयोजकों को ही गिरफ्तार किया

पुलिस की इस अंधेरगर्दी से पूरे क्षेत्र के मज़दूरों में गुस्‍से की लहर दौड़ गयी। इस पूरे इलाके में क़रीब 25,000 मज़दूर बादाम तोड़ने का काम करते हैं। इन मज़दूरों के ठेकेदार बेहद निरंकुश हैं और क़रीब-क़रीब मुफ्त में मज़दूरों से काम करवाने के आदि हैं। बादाम मज़दूर यूनियन ने गुण्‍डों द्वारा मारपीट और पुलिस की मालिक परस्‍त भूमिका की तीखे शब्‍दों में निंदा की है। यूनियन ने बताया कि कल एक प्रतिनिधिमण्‍डल पुलिस के उच्‍चाधिकारियों से मिलेगा और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करेगा। युनियन का कहना हैकि यदि उन्‍हें न्‍याय नहीं मिला तो वे आन्‍दोलनात्‍मक रुख अपनाने के लिए तैयार रहेंगे।

देशभर से मज़दूर आन्दोलन के साथ खड़े हुए मज़दूर संगठन, नागरिक अधिकार कर्मी, बुद्धिजीवी और छात्र-नौजवान संगठन

गोरखपुर मज़दूर आन्दोलन के समर्थन और इसके दमन के विरोध में देशभर में जितने बड़े पैमाने पर मज़दूर संगठन,नागरिक अधिकार कर्मी, बुद्धिजीवी और छात्र-नौजवान संगठन आगे आये उससे सत्ताधारियों को अच्छी तरह समझ आ गया होगा कि ज़ोरो- ज़ुल्म के ख़िलाफ उठने वाले आवाज़ों की इस मुल्क में कमी नहीं है।

थैली की ताकत से सच्चाई को ढँकने की नाकाम कोशिश

एक बार फिर, खिसियानी बिल्ली उछल-उछलकर खम्भा नोच रही है। तथाकथित ‘उद्योग बचाओ समिति’ के स्वयंभू संयोजक पवन बथवाल ने थैली के ज़ोर से हमारे खिलाफ एक नया प्रचार-युद्ध छेड़ दिया है – झूठ-फरेब, अफवाहबाज़ी, और कुत्सा-प्रचार की नयी गालबजाऊ मुहिम शुरू हुई है। इसकी शुरुआत स्थानीय अख़बारों में छपे एक विज्ञापन से हुई है, जिसमें हमारे ऊपर कुछ नयी और कुछ पुरानी, तरह-तरह की तोहमतें लगाई गयी हैं। इनमें से कुछ घिनौने आरोपों के लिए हम पवन बथवाल को अदालत में भी घसीट सकते हैं, लेकिन उसके पहले हम इस फरेबी प्रचार की असलियत का खुलासा अवाम की अदालत में करना चाहते हैं।

लेनिन – बुर्जुआ जनवाद : संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा; अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा

बुर्जुआ जनवाद, जो सर्वहारा वर्ग को शिक्षित-दीक्षित करने और उसे संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करने के वास्ते मूल्यवान है, सदैव संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा होता है, वह सदा अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा होता है।

एक युद्ध जनता के विरुद्ध : पूरे देश में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून लागू करने की तैयारी

नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ व्यापक मजदूर आबादी को उनके रहे-सहे अधिकारों से भी वंचित करके जिस तरह निचोड़ रही हैं, महँगाई और बेरोज़गारी जिस तरह से आम लोगों का जीना दूभर कर रही है, धनी-ग़रीब की खाई जितने विकराल एवं कुरूप शक्ल में बढ़ रही है और लोकतान्त्रिक दायरे में प्रतिरोध का स्पेस जिस तरह सिकुड़ता जा रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पूरा भारतीय समाज एक ज्वालामुखी के दहाने की ओर सरकता जा रहा है। शासक वर्ग इस स्थिति से चिन्तित और भयभीत है। उसके सामने अन्तत: एक ही विकल्प बचेगा – नग्न-निरंकुश दमनतन्त्र का विकल्प। और वह इस तैयारी में भी लगा है। उसकी समस्या यह है कि देश के एक छोटे-से हिस्से में तो जनता के विरुद्ध ख़ूनी युद्ध चलाया जा सकता है, लेकिन पूरे देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी जब सड़कों पर होगी तो उसके विरुद्ध सेना उतारना आसान विकल्प नहीं होगा। यह भविष्य दूर हो सकता है, लेकिन उसकी कल्पना से भी शासक वर्ग काँप उठता है।

सबसे बड़ा आतंकवाद है राजकीय आतंकवाद और वही है हर किस्म के आतंकवाद का मूल कारण

हर प्रकार की आतंकवादी राजनीति शासक वर्गों की ही राजनीति और अर्थनीति के प्रतिक्रियास्वरूप पैदा होती है और फिर शासक वर्गों की सत्ता उसे हथियार के बल से खत्म करना चाहती है, जो कभी भी सम्भव नहीं हो पाता। आतंकवाद या तो अपने ख़ुद के अन्तरविरोधों और कमजोरियों का शिकार होकर समाप्त होता है या उसे जन्म देने वाली परिस्थितियों के बदल जाने पर समाप्त हो जाता है। शासक वर्ग जब भी भाड़े की सेना-पुलिस और हथियारों के बूते आतंकवाद को दबाने की कोशिश करता है, तो वस्तुत: पूरे प्रभावित इलाके की जनता के खिलाफ ही बर्बर अत्याचारी अभियान के रूप में एक युद्ध छेड़ देता है। तीसरी बात, आतंकवादी राजनीति कभी सफल नहीं हो सकती और जाहिर है कि उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन आतंकवाद – चाहे प्रतिक्रियावादी (तालिबान, अल-कायदा और लश्करे तैय्यब जैसा) हो या क्रान्तिवादी (जैसे कि ”वामपन्थी” उग्रवाद), अपने दोनों ही रूपों में वह साम्राज्यवादी-पूँजीवादी राज्यसत्ताओं की अन्यायपूर्ण एवं दमनकारी नीतियों का नतीजा होता है, अथवा राजकीय आतंकवाद के प्रतिक्रियास्वरूप पैदा होता है। जब जनक्रान्ति की ताकतें कमजोर होती हैं और ठहराव और प्रतिक्रिया का माहौल होता है जो ऐसे में दिशाहीन विद्रोह और निराशा की एक अभिव्यक्ति आतंकवाद के रूप में सामने आती है।

प्रधानमन्त्री जी, देश की सुरक्षा को खतरा आतंकवाद से नहीं, ग़रीबी-भुखमरी-बेरोजगारी से है!

प्रधानमन्त्री अच्छी तरह जानते हैं कि इस व्यवस्था, जिसके रक्षकों के मुखिया वे ख़ुद हैं, के अन्दर ही अन्दर सामाजिक बेचैनी (जनता की ग़रीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, लूट, दमन) को दूर नहीं किया जा सकता। इसलिए लूट-शोषण के शिकार मेहनतकशों और राष्ट्रीयताओं में खौल रही बेचैनी को रोकने के लिए वे राज्यसत्ता के दाँत तीखे किये जा रहे हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि जोर-जुल्म-दमन के दम पर जनता के जायज संघर्षों को दबाया नहीं जा सकता।

रामपुर-चंदौली के पाँच बोरा कारखानों के मजदूरों के आन्दोलन की आंशिक जीत

इलाके का थानेदार सपा शासन में मुलायम सिंह यादव का खास रहा बताया जाता है और एनकाउण्टर स्पेशलिस्ट के रूप में कुख्यात है। 11 अक्टूबर को वह अचानक पुलिस फोर्स के साथ फैक्टरी गेट पर पहुँचा और बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों को जीप में बैठाकर कुछ दूर ले गया। उसके बाद उसने फैक्‍ट्री गेट पर मिल मालिकों को बुलाकर आनन-फानन में मजदूरों के सामने समझौते की घोषणा करा दी। इसके अनुसार मजदूरों की मजदूरी 10 प्रतिशत बढ़ायी जायेगी और सभी मजदूरों को कम्पनी का आई-कार्ड दिया जायेगा। तालमेल की कमी और नेताओं की गैर-मौजूदगी से फैले भ्रम तथा पुलिसिया आतंक के कारण अधिकांश मजदूर तो उसी समय फैक्टरी में चले गये लेकिन करीब 60-70 मजदूर डटे रहे। मजबूरन पुलिस को ‘बिगुल’ के साथियों को वापस लेकर आना पड़ा। मजदूरों के बीच यह फैसला किया गया कि फिलहाल यहाँ की स्थिति में इस समझौते को मानकर आन्दोलन समाप्त करने के सिवा कोई चारा नहीं है। अब पूरी तैयारी के बाद संगठित तरीके से संघर्ष छेड़ना होगा। मालिकान साम-दाम-दण्ड-भेद से किसी तरह मजदूरों को झुकाने में कामयाब हो गये लेकिन इस हार से मिले सबकों से सीखकर मजदूरों ने भविष्य की निर्णायक लड़ाई के लिए कमर कसकर तैयारी शुरू कर दी है।

देश के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में अभूतपूर्व सैन्य आक्रमण शुरू करने की भारत सरकार की योजना के ख़िलाफ ज्ञापन

पहले ग़रीबों का जंगल, जमीन, नदियों, चरागाह, गाँव के तालाब और साझा सम्पत्ति वाले संसाधनों पर जो भी थोड़ा-बहुत अधिकार था, वे भी विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) और खनन, औद्योगिक विकास, सूचना प्रौद्योगिकी पार्कों आदि से सम्बन्धित अन्य ”विकास” परियोजनाओं की आड़ में भारत राज्य के लगातार निशाने पर हैं। जिस भौगोलिक क्षेत्र में सरकार द्वारा सैन्य या अर्द्ध-सैनिक हमले करने की योजना है, वहाँ खनिज, वन सम्पदा और पानी जैसे प्रचुर प्राकृतिक स्रोत हैं, और ये इलाके बड़े पैमाने पर अधिग्रहण के लिए अनेक कॉरपोरेशनों के निशाने पर रहे हैं। विस्थापित और सम्पत्तिविहीन किये जाने के खिलाफ स्थानीय मूल निवासियों के प्रतिरोध के कारण कई मामलों में सरकार के समर्थन प्राप्त कॉरपोरेशन इन क्षेत्रों में अन्दरूनी भाग तक जाने वाली सड़कें नहीं बना सके हैं। हमें डर है कि यह सरकारी हमला इन कॉरपोरेशनों के प्रवेश और काम करने को सुगम बनाने के लिए और इस क्षेत्र के प्राकृतिक स्रोतों एवं लोगों के अनियन्त्रित शोषण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ऐसे लोकप्रिय प्रतिरोधों को कुचलने का प्रयास भी है। बढ़ती असमानता और सामाजिक वंचना तथा ढाँचागत हिंसा की समस्याएँ, और जल-जंगल-जमीन से विस्थापित किये जाने के खिलाफ ग़रीबों और हाशिये पर धकेल दिए गये लोगों के अहिंसक प्रतिरोध का राज्य द्वारा दमन किया जाना ही समाज में गुस्से और उथल-पुथल को जन्म देता है एवं ग़रीबों द्वारा राजनीतिक हिंसा का रूप अख्तियार कर लेता है। समस्या के स्रोत पर धयान देने के बजाय, भारतीय राजसत्ता ने इस समस्या से निपटने के लिए सैन्य हमला शुरू करने का निर्णय लिया है : ग़रीबी को नहीं ग़रीब को खत्म करो, भारत सरकार का छिपा हुआ नारा जान पड़ता है।

नाना पाटेकर, सनी देओल और चिदम्बरम

आतंकवादियों से निपटने की नीति पर चिदम्बरम और सनी देओल-नाना पाटेकर की भाषा एक है – एकदम ‘मिले सुरे मेरा-तुम्हारा।’ आइये, अब जरा इस साझा क्षोभ के निहितार्थों को समझने की कोशिश की जाये। मानवाधिकार संगठन इस मामले में क्या कहते हैं? उनका मात्र यह कहना है कि सजा देने से पहले आतंकवाद का अभियोग न्यायालय में सिद्ध तो होना चाहिए! यदि दोष तय करने और सजा दे देने का अधिकार पुलिस को ही है, तो फिर कानून-कोर्ट-कचहरी का मतलब ही क्या है? फिर तो यही तर्क आतंकवाद ही नहीं, बल्कि हर तरह के अपराध के बारे में लागू होना चाहिए! पुलिस द्वारा किसी को भी आतंकवादी बताकर एनकाउण्टर कर देने, यन्त्रणा देकर गुनाह कबुलवाने और हिरासत में मौतें हमारे देश में एकदम आम बात है। ”वामपन्थी” उग्रवाद या किसी प्रकार के उग्रवाद के दमन के नाम पर ‘कॉम्बिंग ऑपरेशन’ के दौरान व्यापक आम आबादी को बर्बर दमन का शिकार बनाने की घटनाएँ सिद्ध हो चुकी हैं। ‘सलवा जुडुम’ की नंगी सच्चाई आज पूरे देश के सामने है। मानवाधिकार संगठन इन्हीं चीजों का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि एक अपराधी के भी जनवादी अधिकार होते हैं। न्याय पाना उसका हक है और दोष सिद्धि के बाद ही उसे सजा दी जा सकती है। जहाँ तक आतंकवाद की बात है, अपने हर रूप में वह एक राजनीतिक विचारधारा है। आतंकवादी राज्य के विरुद्ध युद्ध चलाता है। इस युद्ध में यदि वह मारा जाता है तो यह अलग बात है। यदि वह पकड़ा जाता है तो उस पर राजद्रोह का अभियोग लगाया जा सकता है। पर मुकदमे के दौरान उसे राजनीतिक बन्दी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। उसे हिरासत में यन्त्रणा देकर गुनाह नहीं कबुलवाया जा सकता या फर्जी मुठभेड़ दिखाकर उसकी हत्या नहीं की जा सकती। पूरी दुनिया के सभी पूँजीवादी जनतन्त्र इन बातों को उसूली तौर पर स्वीकार करते हैं, लेकिन अमली तौर पर नहीं।